बुधवार, मार्च 06, 2019

क्या भाजपा चुनाव 2019 बैकफुट पर खेल रही है


क्या भाजपा चुनाव 2019 बैकफुट पर खेल रही है

वीरेन्द्र जैन
भाजपा, जिसे अब लोग मोदी जनता पार्टी कहने लगे हैं, के अगले लोकसभा चुनावों के लिए हाथ पाँव फूल चुके हैं और उसके प्रमुख नेता बदहवाश हो चुके हैं। वैसे भी वे पूरे पाँच साल तक सीट पर तो बैठे रहे किंतु किसी बिना टिकिट यात्री की तरह असहज रहे। उनका आयतन किसी फुलाये हुए गुब्बारे की तरह रहा जिसकी कभी भी हवा निकल सकने का भय बना रहता है।
वैसे तो प्रायोजित मीडिया से उनके फिर से जीतने की भविष्यवाणियां भी करवायी जा रही हैं किंतु ऐसी शेखियां तो अमित शाह दिल्ली विधानसभा चुनावों से लेकर राजस्थान व उत्तर प्रदेश के लोकसभा के उपचुनावों में भी बघारते रहे थे किंतु परिणाम भिन्न रहे। पहले उत्तराखण्ड, फिर मिजोरम और गोवा में सरकार बनाने में सौदा ही काम आया। यही सौदा प्रशांत कुमार की मध्यस्थता से महाराष्ट्र की सरकार बचाने में भी काम आया। कर्नाटक में भी सौदेबाजी व राज्यपाल के पद का दुरुपयोग किया किंतु काँग्रेस ने मुख्यमंत्री पद का मोह छोड़ कर मात दे दी। गत वर्ष हुए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी उन्हें तीन प्रमुख राज्यों में पराजय झेलना पड़ी और वितान बाँधना काम नहीं आया। मोदी के अपने राज्य गुजरात में भी विधानसभा चुनावों में ग्राफ नीचे गया और हारते हारते रह गये। 
वैसे तो उनके अपने सांसद और मंत्रिमण्डल के सदस्य भी संतुष्ट नहीं हैं किंतु एनडीए गठबन्धन से आन्ध्र प्रदेश की तेलगु देशम, बिहार के उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की हिन्दुस्तान अवाम पार्टी उनसे अलग हो चुकी हैं। उत्तर प्रदेश में राजभर की पार्टी अलग होने की घोषणा कर चुकी है और अनुप्रिया पटेल का अपना दल प्रियंका गाँधी से मुलाकात कर चुका है और कभी भी अलग हो सकता है। जम्मू कश्मीर में मेहबूबा मुफ्ती गठबन्धन तोड़ चुकी हैं और सरकार भंग करा चुकी हैं। अरुणाचल प्रदेश में हिंसक आन्दोलन हो रहा है। बड़े बड़े नेताओं के घर फूंके जा चुके हैं। उत्तरपूर्व में भरपाई की जो उम्मीद लगायी जा रही थी वह भंग हो चुकी है। पश्चिम बंगाल में बंगलादेशी शरणार्थियों की समस्या को साम्प्रदायिकता के लपेटे में लेने की कोई भी कोशिश वांछित परिणाम देती हुयी नहीं लग रही क्योंकि वहाँ के शेष सारे दल मोदी को दुबारा न आने देने के लिए कृत संकल्पित हैं। काँग्रेस कर्नाटक में त्याग का उदाहरण प्रस्तुत कर चुकी है औए वामपंथी तो सदैव ही राजनैतिक फैसलों के लिए कोई निजी सत्ता मोह नहीं पालते। उत्तरप्रदेश में सपा बसपा का समझौता हो चुका है, और शेष गैरभाजपाई दल मौका मुआइना देख कर प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन दे सकते हैं।
रोचक यह है कि अमित शाह 400 सीटें जीतने की जो शेखी बघार रहे हैं, दूसरी ओर वे ही ऐसे चुनावी समझौते भी कर रहे हैं कि उनके पास 400 सीटें चुनाव लड़ने के लिए ही नहीं बच रहीं। तामिलनाडु, बिहार. महाराष्ट्र, पंजाब, में सीटों के बंटवारे हो चुके हैं और भाजपा का हिस्सा सब में कमजोर रहा है। आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी कोई प्रमुख पार्टी उनसे समझौता करने नहीं जा रही और किया भी तो उन्हें बहुत छोटा और कमजोर सा हिस्सा मिलेगा। दिल्ली में अगर आम आदमी पार्टी और काँग्रेस का समझौता होगा तो भाजपा को एक भी सीट नहीं मिलेगी व न होने पर भी उनकी सीटें घटेंगीं। इसलिए उनकी उम्मीद गुजरात, हरियाना, राजस्थान, मध्य प्रदेश छत्तीसगढ, और उत्तर प्रदेश की कुल सवा दो सौ सीटों पर टिकी है जिनमें से आधे राज्यों में अब काँग्रेस की सरकारें हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना से सीटों का समझौता भले ही हो गया हो किंतु विधानसभा में बराबर सीटें लड़ने की घोषणा भी करना पड़ी है, व अपना हिस्सा बढाने के लिए दोनों ही अपनी जीत व दूसरे की हार के लिए प्रयत्नरत रहेंगे। काँग्रेस और एनसीपी का समझौता भी उन्हें नुकसान पहुँचायेगा।
2014 के आमचुनाव में उन्हें पिछली काँग्रेस सरकार की बदनामी तथा चुनाव जीतने के सारे हथकंडे अपनाने के बाद भी कुल 31% वोट मिले थे किंतु अब तो सारे दल उनके खिलाफ हैं व एकजुटता दिखाने के प्रदर्शन कर चुके हैं। जनता भी नोटबन्दी, पैट्रोलियम पदार्थों की मंहगाई, बेरोजगारी, और झूठे जुमलों से नाराज है, इसलिए एंटीइनकम्बेंसी तेजी से प्रभावी है। राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों में भी जनता की जो भावनाएं उभारी थीं उससे उलट परिणाम देखने को मिले हैं, और वह ठगी हुयी महसूस कर रही है। राफेल जैसे मामले में राहुल के आक्रामक आरोपों के खिलाफ मोदी का मौन उनके विरुद्ध जा रहा है। माब लिंचिंग और बुद्धुजीवियों की हत्याओं के मामले में सरकार का मौन समर्थन, साम्प्रदायिक घटनाओं में सरकार की पक्षधरता भी उनके खिलाफ जाती है। भाजपा शासित राज्यों की सरकारें उन दलों की सरकारों से अधिक भ्रष्ट साबित हुयी हैं जिनके खिलाफ इसी आधार पर वे चुनाव जीते थे।
भाजपा के पक्ष में भी कुछ बातें हैं। जनता अगर बिना किसी भावनात्मक दबाव के वोट करेगी तो वह देखेगी कि विपक्ष के पास प्रधानमंत्री के रूप में कोई एक सर्वसम्मत नेता का अभाव है और कोई एक अकेला दल भाजपा जितना मजबूत नहीं है। पिछले वर्षों में नेहरूजी, इन्दिराजी, अटलबिहारी, व्हीपी सिंह, के बाद मोदी ही व्यक्तिगत लोकप्रियता के रूप में चुने गये हैं व इनके अलावा अन्य किसी प्रधानमंत्री की सरकारॆं टिक नहीं पायी हैं। मोदी पर हालिया राफेल सौदे के अलावा कोई भ्रष्टाचार का दाग नहीं लगा है। निराश्रित भाजपाइयों को विपक्ष की भूमिका से उठा कर सरकार का सुख देने के कारण वे मोदी के पक्ष में एकजुट हैं, जबकि अपनी पार्टी में दूसरा कोई नेता उन्हें नजर नहीं आता। सौदेबाजी और दबाव से वे चुनाव से पहले या चुनाव के बाद दलबदल भी करा सकते हैं। अपने बड़े से बड़े झूठ को सत्य की तरह प्रचारित करने वाला मीडिया उनकी गोदी में बैठा है, इसके सहारे वे पुलवामा हमले के बाद वे यह प्रचारित करने में सफल रहे कि बदले में भारतीय एयरफोर्से ने तीन सौ आतंकियों को उनके ही ठिकाने पर मार कर बदला ले लिया। इसी मीडिया के सहारे वे किसी भी घटना में भावुकता पैदा कर सकते हैं, और किसी भी घटना को छुपा सकते हैं। आर एस एस का संगठन व कार्पोरेट घरानों का समर्थन उनके पक्ष में है।
फिर भी वे सशंकित हैं और हर अच्छा बुरा प्रयास कर रहे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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