स्मरण /श्रद्धांजलि “रोहिताश्व”
उसने फर्श से अर्श तक का सफर किया
वीरेन्द्र जैन
दुश्यंत की शे’र है-
हमने तमाम उम्र अकेले सफर किया
हम पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही
जब प्रबन्धन की नाराजी से किसी का
ट्रांसफर गाज़ियाबाद से हैदराबाद कर जाये, जैसा कि मेरा कर दिया गया था, तो
स्वभावतः किसी को भी घबराहट होना चाहिए, किंतु मेरी प्रतिक्रिया थी कि इस मामले
में प्रबन्धन हारा है, क्योंकि जब सेवा नियमों के अनुसार देश में कहीं भी ट्रांसफर
किया जा सकता हो तो यह कोई दण्ड नहीं माना जा सकता। उल्टे यह इस बात का प्रमाण था
कि कि वे इतनी नाराजी की स्थिति में भी मुझे दण्डित नहीं कर पा रहे थे। इस मामले
में साहित्यकारों की मित्रता ने मेरी बहुत मदद की। आदरणीय काका हाथरसी, निर्भय
हाथरसी, हरिओम बेचैन, मुकुट बिहारी सरोज, प्रदीप चौबे आदि ने तो अपने परिचितों को
पत्र लिख कर या उनके पते देकर मिलने की सलाह दी थी क्योंकि ये लोग कवि सम्मेलनों
में वहाँ जाते रहते थे और इनके परिचय का क्षेत्र था। दूसरी ओर सुप्रसिद्ध कहानीकार
से.रा. यात्री ने मुनीन्द्र जी और ओम प्रकाश निर्मल जैसे कल्पना के सम्पादकीय
विभाग में रहे साहित्यकार व समाजवादी लोगों को पत्र लिख कर और सम्भवतः कुछ
अतिरंजित परिचय देकर मेरे लिए रास्ता बना दिया था। इन दोनों ही लोगों का हैदराबाद
में बहुत सम्मान था क्योंकि बद्री विशाल पित्ती जैसे कला व समाजवादी आन्दोलन के
पोषक व्यक्ति के ये निकट के लोग थे। कामरेड सव्यसाची जी ने भी कुछ लोगों के पते
भेजे थे जिनमें वेणु गोपाल व कुछ तेलगु के कवि थे। उन दिनों मैं हिन्दी की
लोकप्रिय पत्रिकाओं में खूब छप रहा था इसलिए उनके सिफारिशी पत्रों की पुष्टि भी हो
रही थी। किस्सा कोताह ये कि मैं बिना किसी व्यवस्था के अपना फोल्डिंग सामान
ट्रांसपोर्ट पर पटक बिस्तर अटैची और किताबों का बक्सा ले पत्नी व एक साल की बेटी
के साथ हैदराबाद की ट्रेन में बैठ गया था। वैसे तो मैं दिल्ली के ही उपनगर
गाज़ियाबाद में रह रहा था किंतु सीधे महानगर में पोस्टिंग का पहला अवसर था। जेब और
बैंक दोनों ही में बहुत सीमित पैसे थे और भाषा से भोजन तक सब कुछ अनजाना था। एक
सस्ते से लाज में रहा व पेंडिंग काम से भरे हुये आफिस में देर तक काम करने की
उम्मीद की जा रही थी। उधर लाज में पत्नी सारे दिन बिना काम के कैद रहती थी व एक
साल की बच्ची जो बाहर जाना चाहती थी, को सम्हालना दुष्कर था। रोटी केवल मांसाहारी
होटलों में मिलती थी व ‘शुद्ध’ शाकाहारियों के लिए चावल रसम और लाल मिर्च वाले
अचार के भोजनालय ही उपलब्ध थे। रविवार का दिन मकान की तलाश और उसके लिए लोगों से
मिलने में निकलता था। इसी क्रम में रोहिताश्व से मुलाकात हुयी। पुरुषोत्तम प्रशांत
और बालकृष्ण शर्मा ‘रोहिताश्व’ का मकान पास पास ही था। सम्भवतः दो सौ साल पहले जब
राजस्थान से मारवाड़ी लोग आकर बसे थे तब वे अपने साथ अपने मुनीम और विभिन्न
संस्कारों के लिए पुरोहितों को भी ले कर आये थे। बेगम बाज़ार के ज्यादातर व्यापारी
और उनके मुनीम पुरोहित शुरू में उसी क्षेत्र में बसते गये थे। हिन्दी साहित्य में
सक्रिय ज्यादातर युवा इन्हीं परिवारों में से थे। उन्हीं दिनों सेठों ने अपने
मनोरंजन के लिए कवि सम्मेलन कराना भी शुरू कर दिये थे व समझ में आने वाली हास्य
व्यंग्य की कविता के लिए अच्छा भुगतान होने लगा था। उसी अनुपात में मंच की कविता
का स्तर भी गिरा जिसमें हैदराबाद के सेठाश्रित मंचों की बड़ी भूमिका रही।
मकान की तलाश में निकला तो रोहितश्व ने
अपने मकान का एक हिस्सा भी दिखाया जो ऐसा था जिसका भविष्य भी अच्छा नहीं लगता था।
सीलन वाली दीवारें और उखड़े पलस्तर का कमरा। मैंने अपनी प्रारम्भिक उम्र का हिस्सा
ऐसे ही घर में गुजारा था इसलिए जब चुनाव का मौका मिलता तो अपेक्षाकृत ठीक से मकान
में रहना चाहता रहा हूं, इसलिए विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। कुछ दिनों में मुझे
आफिस के पास ही एक कमरे का फ्लेट मिल गया था जो पहली सोच में तो अस्थायी रूप से
लिया था किंतु ब्रोकर को और दो महीने के कमीशन के भय व काम चल जाने के कारण बदला
नहीं गया। कल्पना बन्द होने के बाद मुनीन्द्र जी हैदराबाद समाचार नाम से एक
साप्ताहिक अखबार निकालते थे जिसके इतने आजीवन सदस्य थे कि अखबार नियमित रूप से
निकल रहा था और हजारों की संख्या में हिन्दीभाषी, विशेषरूप से मारवाड़ियों के यहाँ पहुँच
रहा था। मैं उसमें नियमित रूप से व्यंग्य आदि लिखने लगा। मुनीन्द्र जी काफी वरिष्ठ
थे और सब उनका सम्मान करते थे व उनसे सलाह लेते थे। यही कारण रहा होगा कि हिन्दी
साहित्य से सम्बन्धित आयोजनों में दस बारह प्रमुख आमंत्रितों में मेरा नाम भी
जुड़ने लगा। महीने में ऐसे तीन चार साहित्यिक आयोजन हो जाते थे जिनमें मेरी और
रोहिताश्व की मुलाकात हो ही जाती थी। रोहिताश्व उन दिनों पीएचडी कर रहे थे व किसी
इवनिंग कालेज में पढाते भी थे। उस समय उनके पास धन की कमी रहती थी जो प्रकट भी
होती रहती थी। निर्मल जी उन्हें मजाक में रोहिताश्व की जगह अश्व कहते थे। अब
हैदराबाद में न तो न मुनीन्द्रजी हैं, न निर्मलजी हैं, न वेणुगोपाल, न ही एम
उपेन्द्र, न पुरुषोत्तम प्रशांत, और अब इसी साल शिवमोहन लाल श्रीवास्तव व रोहिताश्व
भी चले गये। हैदराबाद की मित्रता का खजाना रीतता जा रहा है।
रोहिताश्व महात्वाकांक्षी थे पर हवा हवाई
नहीं थे। उनको उड़ान से पहले अपने धरातल का अहसास था। इसके साथ ही उन्हें बीतते
जीवन का भी अहसास था इसलिए वे उड़ान भरने और उसके लिए जीवन को स्थगित न करने अर्थात
जीवन जीने का काम एक साथ करते रहे। उन दिनों तो सम्वाद नहीं हुआ किंतु उन्होंने
बाद में गोवा में ही एक बार बताया था कि उन्होंने प्रारम्भ में पैट्रोल पम्प, व सिनेमा
हाल में टिकिट बेचने का काम भी किया, स्कूल में अध्यापन के साथ साथ अन्य छोटा मोटा
काम भी किया और पढाई भी करते रहे। अपना जीवन स्वयं गढते रहे। हर जगह पक्षपात के
शिकार भी हुये किंतु उसके खिलाफ लड़ते भी रहे। पीएचडी की, और प्रोफेसर बने, अपनी दम पर गोवा विश्वविद्यालय में नौकरी
प्राप्त की। वहाँ भी वे कभी हैड आफ द डिपार्टमेंट के लिए या अन्य हक के लिए
साथियों से टकराते रहे।
रोहिताश्व ने प्रोफेसर बनने के बाद भी
अपना मध्यमवर्गीय स्वरूप नहीं छोड़ा था। अपने पहनावे और व्यवहार में वे वही पुराने
रोहितश्व दिखते रहे। पेंट से बाहर निकली शर्ट और उसकी मोड़ी गयी आस्तीनें वैसी ही
रहीं जैसे किसी अभियान के लिए सदैव तैयार हों। इस प्रक्रिया ने उन्हें कभी बूढा और
थका हुआ नहीं दिखने दिया। जब हैदराबाद में रही पोस्टिंग के बीस साल बाद मैं गोवा
में उनसे मिला तो भी वे वैसे ही कालेज के लड़कों जैसे युवा दिखे। मैंने उन दिनों
तात्कालिक हंस में प्रकाशित कहानी दोना पावला की लड़कियां [या औरतें] की चर्चा की
तो उन्होंने मेरी 20 साल पुरानी एक कविता की याद दिला दी जो दर असल कविता नहीं एक
जुमला भर था और मेरी स्मृति में उस तरह दर्ज नहीं था।
जब भी गोवा गया तो वे अपनी एम ए की क्लास
में जरूर ले गये और अच्छा खासा परिचय देकर मेरी कविताएं सुनवायीं। छात्रों से सवाल
जबाब भी हुये। पिछले वर्षों में उन्होंने वहाँ एक बड़ा फ्लेट भी ले लिया था और उनसे
वादा भी हो गया था कि वे जब लम्बे समय के लिए हैदराबाद जायें तो मैं वहाँ एकांत में आकर अपने संस्मरण व आत्मकथात्मक जैसा
कुछ लिखना चाहूंगा, जिसके लिए उनको पूरा किराया भी चुकाऊंगा। पर यह बात केवल एक
बात ही रह गयी। मैं फुरसत नहीं निकाल सका, या कहें कि मैं यह कहते समय उतना गम्भीर
नहीं था।
उन्हें जनवादी लेखक संघ से जोड़ने में मेरा
आग्रह भी था। किंतु वे वेणुगोपाल से अक्सर असहमत रहते थे और साझा मित्र होने के
कारण मुझ से शिकायत करते रहते थे। शिकायतें तो उन्हें शिव कुमार मिश्र से भी थीं। मैं
कहता था कि तुम तो एक प्रदेश के अध्यक्ष हो और मैं तो कार्यकारिणी सदस्य भी नहीं
हूं।
वैसे नामवरजी और राजेन्द्र यादव समेत
हिन्दी के समस्त बड़े लेखकों को उन्होंने गोवा में अतिथि बनाया और खुद भी देश भर के
विश्वविद्यालयों के सेमिनारों में भाग लेते रहे। प्रकाशकों ने भी उनकी किताबों को
खूब छापा जिसका ढेर उन्होंने गोवा में मुझे दिखाया था। गोवा में मेरे परिचय के दो
लोग थे, एक साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित रमेश वेलुस्कर और दूसरे रोहिताश्व,
दोनों ही इसी एक साल के अन्दर बिछुड़ गये। कामना कर सकता हूं कि इन लोगों का लिखा
हुआ लम्बे समय तक उनके नाम को बनाये रखे, उनके काम को बनाये रखे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629
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