सोमवार, फ़रवरी 04, 2019

श्रद्धांजलि शरद भट्ट सक्रिय, संतोषी, और हँसमुख व्यक्तित्व के धनी थे


श्रद्धांजलि
शरद भट्ट सक्रिय, संतोषी, और हँसमुख व्यक्तित्व के धनी थे
वीरेन्द्र जैन
3 फरबरी 2019 को चार बजे राजीव व्यास का फोन आया कि शरद भट्ट भाई साहब के न रहने की खबर किसी अज्ञात स्त्रोत से आयी है क्या आपको पता चला! अंतिम संस्कार का समय भी चार बजे सुभाष नगर विश्राम घाट पर ही है, और मैं दूर हूं। सुभाष नगर मेरे निवास से आधा किलोमीटर दूर पर ही है इसलिए मैं पुष्टि करने की जगह सही समय पर सीधे वहीं पहुंच गया। कई पुराने परिचित मिल गये और जैसा कि होता है अनेक तरह की स्मृतियां कौंधती रहीं। डा. विजय अग्रवाल, डा. आर डी गुप्ता, बुधौलिया जी, रमेश शर्मा, आदि लोग भी थे।
दतिया जैसे छोटे कस्बे में जहाँ सारे सक्रिय लोग एक दूसरे को जानते पहचानते रहे हैं, हम लोग जब कालेज में पढते थे तब नगर की आबादी कुल 25000 के आसपास थी। शरद से पहला घनिष्ठ परिचय 1970 के आसपास हुआ जब मैं एम.ए. [अर्थशास्त्र] फाइनल में था और शरद ने किसी विषय में एम.ए, में प्रवेश लिया था। सक्रियता के क्षेत्र सीमित थे और हर क्षेत्र में हाथ पांव मारने वाले मेरे जैसे लोग कालेज में अपनी उपस्थिति दिखाना चाहते थे। राजनीतिक दलों के लोग तो थे किंतु विचारधारा के लोग नहीं दिखते थे। मैं ब्लिट्ज का नियमित पाठक था और उससे भी वाम झुकाव बना था, या कहें कि उससे सूचनाएं और तर्क प्राप्त होते रहते थे जिनका प्रयोग कर मैं अपनी अलग पहचान बना लेता था। साहित्य, पत्रकारिता, खेल, संगीत से लेकर चुनावी गतिविधियों तक हर जगह बिना बुलाये हुए भी प्रवेश कर जाना हम लोग अपना अधिकार समझते थे व किले चौक पर हर शाम सौ पचास लोग अकारण भी एकत्रित रहते थे और कारण भी तलाश लेते थे।
शरद भट्ट राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में था और मेरी पहचान वामपंथी की तरह बनती जा रही थी इसलिए वह शायद मेरी टोह लेने के लिए निकट आया या भेजा गया था। हम लोगों का एक ग्रुप साथ साथ घूमता फिरता था जिनमें मैं तो अपने थोड़े से अध्ययन की जुगाली करता रहता था किंतु शरद कुछ बोलता नहीं था। वह संघ द्वारा किये जाने वाले बौद्धिक आयोजनों के कार्ड हम लोगों को देता था और कई बार तो किन्हीं बन्द दरवाजों में प्रवेश करने के लिए हम लोग भी उसके कार्ड ले लेते थे और उन्हें स्वचयनित घरों में बांट आते थे।
1971 का ऎतिहासिक आम चुनाव जो स्वघोषित समाजवादी इन्दिरा गाँधी और सीपीआई ने संयुक्त दक्षिण पंथ के खिलाफ लड़ा था, जिसमें हमारे क्षेत्र से जनसंघ की ओर से श्रीमती विजया राजे सिन्धिया उम्मीदवार थीं। मैं तब तक सीपीआई और सीपीएम के भेद को नहीं जानता था और स्वाभाविक रूप से देश के करोड़ों लोगों की तरह श्रीमती गाँधी के प्रचार से प्रभावित होकर उनका पक्षधर था। वैसे भी वहाँ वामपंथी पार्टी की उपस्थिति ही नहीं थी। मैंने ही पहली बार कम्युनिष्ट पार्टी के गठन के लिए शाकिर अली खाँ को पत्र लिखा था जो सेंसर हो गया था और पुलिस के स्पेशल ब्रांच के सदस्य मेरी निगरानी करने लगे थे। उसी चुनाव के दौरान काँग्रेस उम्मीदवार नरसिंहराव दीक्षित के पक्ष में चल रही आमसभा में मैंने भी बोलने की इच्छा प्रकट की और इस इच्छा का स्वागत हुआ। संयोग से उन्हीं दिनों मैंने अहमदाबाद के दंगों की रिपोर्ट पढी थी जिसमें किन्हीं हाजरा बेगम, जो विधवा थीं के चार बच्चों को उन्हीं के सामने काट डाला गया था व उनके सबसे छोटे बच्चे को भी उनके गिड़गिड़ाने व एक विधवा का आखिरी सहारा बताने के बाद भी न बख्शे जाने का जिक्र था। मैंने उस घटना की चर्चा बहुत ही मार्मिक ढंग से की जिसका बहुत प्रभाव पड़ा। कुछ श्रोताओं ने तो कहा था कि मेरे रोंगटे खड़े हो गये थे। उसके बाद मैं संघ के निशाने पर आ गया था। या कहें कि निगरानी में आ गया था। जनसंघ के बड़े बड़े नेताओं की आमसभाओं में जिन्हें सुनने किले चौक पर सभी कामन श्रोता जाते थे, तब मेरी निगरानी के लिए संघ के लोग मेरे समीप ही खड़े हो जाते थे और मेरे जगह बदलने पर वे भी जगह बदल कर वहीं आ जाते थे।
शरद उस चुनाव में श्रीमती सिन्धिया का कार्यालय सम्हाल रहे थे। वे उक्त भाषण की चर्चा के बाद मेरे पास भेजे गये थे और उन्होंने पूछा था कि मुझे क्या चाहिए? यह सीधा सीधा आर्थिक लालच था क्योंकि श्रीमती सिन्धिया बहुत पैसा खर्च कर रही थीं और जैसा कि बाद में पता चला था कि उनका काँग्रेस के उम्मीदवार और समर्थकों से सौदा भी हो गया था। मेरे जैसे युवा के लिए वह ज़िन्दगी का पहला ऐसा प्रस्ताव था, और उसे ठुकरा कर गौरवान्वित होने का भी पहला अवसर था। मैं जीवन भर इस गौरव के साथ जिया और वह घटना कभी नहीं भूला। हो सकता है कि उस घटना के बाद शरद के दिल में मेरे प्रति सम्मान बढा हो या नहीं बढा हो पर मेरी दृढता जरूर बढी थी। बाद में भी मैंने उसकी आत्मीयता में कभी कोई कमी नहीं देखी। इमरजैंसी में वे उन चन्द लोगों में थे जो 19 महीने मीसा बन्दी के रूप में जेल में रहे।
वह पीताम्बरा पीठ के भी सक्रिय प्रबन्धकों में थे और वहाँ आने वाले सैकड़ों विशिष्ट लोगों से उसका परिचय था किंतु कभी भी किसी अतिरिक्त लाभ लेने की कोई खबर नहीं सुनने को मिली जबकि अन्य अनेक लोग इस रोग के रोगी पाये गये। मैं एक स्थानीय अखबार में लिखता था और धार्मिक क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ भी लिखता रहा और आशंका रही कि शायद कभी शरद कोई शिकायत करे किंतु उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया।
तीन बेटियों, और असामयिक निधन के बाद अपने भाई के बेटे के पिता शरद जिम्मेवार पिता भी थे व उनके आग्रह पर ही पिछले साल से भोपाल आकर रहने लगे थे। मुझे बाद में पता लगा। इसी दौरान एक कामन मित्र के असामायिक निधन पर जब मैंने उन्हें सूचना दी तो उन्होंने अंतिम संस्कार में आने में किंचित देर नहीं की। उसी दौरान उन्होंने भोपाल स्थित दतिया के सारे मित्रों की एक बैठक व दावत करने का प्रस्ताव किया था जो अधूरा ही रह गया।
उनके सहयोग करने को तत्पर रहने और सदैव हँसमुख रहने की अनेक स्मृतियां हैं। “करोगे याद तो हर बात याद आयेगी। “
वीरेन्द्र जैन
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