नीरज जी के जन्मदिन पर याद करते हुए
किसी की आँख खुल गयी किसी को नींद आ गयी
वीरेन्द्र जैन
इस नये साल में हिन्दी के लाड़ले गीतकार गोपाल
दास नीरज जी हमारे बीच नहीं हैं। जो लोग जीवन से जुड़े रहते हैं उनके लिए मृत्यु की
चर्चा कुछ अधिक सम्वेदनशील विषय होती है। नीरज जी ने अपने सम्पूर्ण गीत लेखन में
मृत्यु का बहुत गहराई से चित्रण किया है। हिन्दी में पहला मृत्युगीत उन्होंने ही
लिखा था। श्री मुकुट बिहारी सरोज, जिनका नीरज जी के साथ कवि सम्मेलनों में बहुत
लम्बा वक्त गुजरा, एक संस्मरण सुनाते थे। यही कोई 1955- 60 का समय रहा होगा जब यह
गीत लिखा गया था। बांदा में कवि सम्मेलन था और तब हर कस्बे में कवि सम्मेलन सुनने
नगर के सब विशिष्ट व्यक्ति आया करते थे। वहाँ एक जज थे जो बहुत सख्त मिजाज माने
जाते थे। वे न केवल अपने कर्तव्य निर्वहन में ही कठोर थे अपितु कविताओं पर भी कोई
प्रतिक्रिया नहीं देते थे। विचार बना कि नीरज जी मृत्यु पर लिखा अपना ताजा गीत
सुनाएं ताकि उनकी प्रतिक्रिया को आजमाया जा सके। जब नीरज जी का क्रम आया तो
उन्होंने मृत्युगीत सुनाया जिसको सुनते ही वे जज महोदय सीधे उठ कर अपनी कार उठा चले
गये। आशंकाग्रस्त कुछ लोगों ने उनका पीछा किया तो पाया कि वे एक पुलिया पर बैठ कर
फूट फूट कर रो रहे हैं।
इस गीत की कुछ पंक्तियां
देखिए-
दृग सूरज की गर्मी से रक्तिम हो आए,
जीवन समस्त लाशों को ढ़ोते बीत गया,
पर मृत्यु तेरे आलिंगन के आकर्षण में,
छोटा सा तिनका भी पर्वत से जीत गया,
सागर असत्य का दूर दूर तक फैला है,
अपनों पर अपने बढ़कर तीर चलाते हैं,
पर काल सामने से है जब करता प्रहार,
हम जाने क्यों छिपते हैं क्यों घबराते हैं,
गोधुली का होना भी तो एक कहानी है,
जो शनैः शनैः ही ओर निशा के बढ़ती है,
दीपक की परिणति भी है केवल अंधकार,
कजरारे पथ पर जो धीरे से चढ़ती है,
मधुबन की क्यारी में हैं अगणित सुमन मगर,
जो पुष्प ओस की बूँदों पर इतराता है,
उसमें भी है केवल दो दिन का पराग,
तीजे नज़रों को नीचे कर झर जाता है,
बादल नभ में आ घुमड़ घुमड़ एकत्रित हैं,
प्यासी घरती पर अमृत रस बरसाने को,
कहते हैं सबसे गरज गरज कर सुनो कभी,
हम तो आए हैं जग में केवल जाने को,
पत्थर से चट्टानों से खड़ी मीनारों से,
तुम सुनते होगे अकबर के किस्से अनेक,
जब हुआ सामना मौत के दरिया से उसका,
वह वीर शहंशाह भी था घुटने गया टेक,
वह गांधी ही था जिसकी आभा थी प्रसिद्ध,
गाँवों गाँवों नगरों नगरों के घर घर में,
वह राम नाम का धागा थामे चला गया,
उस पार गगन के देखो केवल पल भर में,
मैं आज यहाँ हूँ इस खातिर कल जाना है,
अपनी प्रेयसी की मदमाती उन बाँहों में,
जो तबसे मेरी याद में आकुल बैठी है,
जब आया पहली बार था मैं इन राहों में,
मेरे जाने से तुम सबको कुछ दुख होगा,
चर्चा कर नयन भिगो लेंगे कुछ सपने भी,
दो चार दिवस गूँजेगी मेरी शहनाई,
गीतों को मेरे सुन लेंगे कुछ अपने भी,
फिर नई सुबह की तरुणाई छा जाएगी,
कूकेगी कोयल फिर अम्बुआ की डाली पर,
फिर खुशियों की बारातें निकलेंगी घर से,
हाँ बैठ दुल्हन के जोड़े की उस लाली पर,
सब आएँ हैं इस खातिर कल जाना है,
उस पार गगन के ऊँचे अनुपम महलों में,
मिट्टी की काया से क्षण भर का रिश्ता है,
सब पत्तों से बिखरे हैं नहलों दहलों में,
हम काश समर्पित कर पाएँ अपना कण कण,
रिश्तों की हर इक रस्म निभानी है हमको,
जीलो जीवन को पूरी तरह आज ही तुम,
बस यह छोटी सी बात बतानी है हमको।
दृग सूरज की गर्मी से रक्तिम हो आए,
जीवन समस्त लाशों को ढ़ोते बीत गया,
पर मृत्यु तेरे आलिंगन के आकर्षण में,
छोटा सा तिनका भी पर्वत से जीत गया,
सागर असत्य का दूर दूर तक फैला है,
अपनों पर अपने बढ़कर तीर चलाते हैं,
पर काल सामने से है जब करता प्रहार,
हम जाने क्यों छिपते हैं क्यों घबराते हैं,
गोधुली का होना भी तो एक कहानी है,
जो शनैः शनैः ही ओर निशा के बढ़ती है,
दीपक की परिणति भी है केवल अंधकार,
कजरारे पथ पर जो धीरे से चढ़ती है,
मधुबन की क्यारी में हैं अगणित सुमन मगर,
जो पुष्प ओस की बूँदों पर इतराता है,
उसमें भी है केवल दो दिन का पराग,
तीजे नज़रों को नीचे कर झर जाता है,
बादल नभ में आ घुमड़ घुमड़ एकत्रित हैं,
प्यासी घरती पर अमृत रस बरसाने को,
कहते हैं सबसे गरज गरज कर सुनो कभी,
हम तो आए हैं जग में केवल जाने को,
पत्थर से चट्टानों से खड़ी मीनारों से,
तुम सुनते होगे अकबर के किस्से अनेक,
जब हुआ सामना मौत के दरिया से उसका,
वह वीर शहंशाह भी था घुटने गया टेक,
वह गांधी ही था जिसकी आभा थी प्रसिद्ध,
गाँवों गाँवों नगरों नगरों के घर घर में,
वह राम नाम का धागा थामे चला गया,
उस पार गगन के देखो केवल पल भर में,
मैं आज यहाँ हूँ इस खातिर कल जाना है,
अपनी प्रेयसी की मदमाती उन बाँहों में,
जो तबसे मेरी याद में आकुल बैठी है,
जब आया पहली बार था मैं इन राहों में,
मेरे जाने से तुम सबको कुछ दुख होगा,
चर्चा कर नयन भिगो लेंगे कुछ सपने भी,
दो चार दिवस गूँजेगी मेरी शहनाई,
गीतों को मेरे सुन लेंगे कुछ अपने भी,
फिर नई सुबह की तरुणाई छा जाएगी,
कूकेगी कोयल फिर अम्बुआ की डाली पर,
फिर खुशियों की बारातें निकलेंगी घर से,
हाँ बैठ दुल्हन के जोड़े की उस लाली पर,
सब आएँ हैं इस खातिर कल जाना है,
उस पार गगन के ऊँचे अनुपम महलों में,
मिट्टी की काया से क्षण भर का रिश्ता है,
सब पत्तों से बिखरे हैं नहलों दहलों में,
हम काश समर्पित कर पाएँ अपना कण कण,
रिश्तों की हर इक रस्म निभानी है हमको,
जीलो जीवन को पूरी तरह आज ही तुम,
बस यह छोटी सी बात बतानी है हमको।
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अब आँसू की आवाज न मैं सुन सकता हूं
अब देख न सकता मैं गोरी तस्वीरों को
अब चूम न सकता मैं अधरों की मुस्कानें
अब बाँध न सकता बाँहों की जंजीरों को
मेरे अधरों में घुला हलाहल है काला
नयनों में नंगी मौत खड़ी मुसकाती है
'है राम
नाम ही सत्य, असत्य और सब कुछ '
बस एक यही ध्वनि कानों में टकराती है
[गीत बहुत लम्बा है]
नीरज
जी के ज्यादातर गीतों में कफन, शमशान, अर्थी, लाश, के शब्द विम्ब भी मृत्यु के साथ
मिलते हैं,
कफन बढा तो किसलिए नजर ये डबडबा गयी
श्रंगार क्यों सहम गया बहार क्यों लजा गयी
न जन्म कुछ न मृत्यु कुछ, बस सिर्फ इतनी बात
है
किसी की आँख खुल गयी, किसी को नींद आ गयी
या
जब
चले जाएंगे लौट के सावन की तरह ,
याद आएंगे प्रथम प्यार के चुम्बन की तरह |
याद आएंगे प्रथम प्यार के चुम्बन की तरह |
दाग
मुझमें है कि तुझमें यह पता तब होगा ,
मौत जब आएगी कपड़े लिए धोबन की तरह |
मौत जब आएगी कपड़े लिए धोबन की तरह |
हर
किसी शख्स की किस्मत का यही है किस्सा ,
आए राजा की तरह ,जाए वो निर्धन की तरह |
आए राजा की तरह ,जाए वो निर्धन की तरह |
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और हम
डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
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‘नीरज’ तो कल यहाँ न होगा
उसका गीत-विधान रहेगा
उसका गीत-विधान रहेगा
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खोता
कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों!
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।
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केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों!
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।
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सोने का ये रंग छूट जाना है
हर किसी का संग छूट जाना है
और जो रखा हुआ तिजोरी में
वो भी तेरे संग नहीं जाना है
आखिरी सफर के इंतजाम के लिए
जेब इक कफन में भी लगाना चाहिए
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ऐसी क्या बात है चलता हूं अभी चलता हूं
गीत इक और जरा झूम के गा लूं तो चलूं
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जब न नीरज ही रहेगा क्या यहाँ रह जायेगा
इत्यादि । उनके लाखों लाख चाहने वाले थे
और वे सबको डराते हुए 94 साल तक देश के कोने कोने में गीत गुंजाते हुए जिये। नीरज
जी को जितना याद करते हैं, वे याद आते रहते हैं। सदियों तक याद आते रहेंगे। वे खुद
ही कह गये हैं-
इतने बदनाम हुये हम तो इस जामाने में
तुमको लग जायेंगीं सदियां हमें भुलाने में
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629
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