बुधवार, अक्तूबर 26, 2016

इन राजनेताओं में किसी का ज़मीर क्यों नहीं जागता

इन राजनेताओं में किसी का ज़मीर क्यों नहीं जागता
वीरेन्द्र जैन



महावीर और बुद्ध के जमाने से सुनते आये हैं कि एक तृप्ति के बाद जीवन में वैराग्य भाव पैदा होता है और व्यक्ति अपने जीवन के पिछले भाग में की गयी भूलों के प्रति पश्चाताप करता है और सब कुछ त्याग देता है। इनमें से कुछ तो इसलिए स्मरणीय हो गये हैं कि उन्होंने यह प्रयास किये कि अपने स्वार्थ में जो समाज विरोधी भूलें उन्होंने कीं हैं उन्हें कोई दूसरा न करे। इसके लिए उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी जिसमें अपनी भूलों को स्वीकारा। महात्मा गाँधी ने अपनी आत्मकथा का नाम ही रखा है ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ । वे अपनी आत्मकथा के प्रारम्भ में ही लिखते हैं कि कैसे उन्होंने बचपन में पैसे चुराये, बीड़ी पी, और परिवार में वर्जित मांसाहार किया।
इस दौर के कुछ राजनेताओं ने भी अपने संस्मराणात्मक लेखन को आत्मकथा का नाम दिया है किंतु वह आत्म प्रशंसा से अधिक कुछ भी नहीं है। निर्धनता के खिलाफ अपने संघर्ष को भी इतना बढा चढा कर बताया है ताकि उनकी वह बहादुरी प्रकट हो जो उनमें कभी रही ही नहीं।
आज़ादी के बाद के राजनीतिक इतिहास को देखें तो पाते हैं कि नेहरू युग के बाद लगातार षड़यंत्रकारी राजनीति चली जिसमें अनैतिक रूप से धन अर्जित करने वालों ने अधिकारियों, राजनेताओं को ही नहीं अपितु मुख्यधारा के प्रमुख राजनीतिक दलों को निरंतर भ्रष्ट किया। इन सब ने न केवल उद्योगपतियों व विदेशी शक्तियों से ही धन लिया अपितु अपराधियों से भी धन लेकर उनके अपराधों को प्रोत्साहित किया। इस क्रिया ने न केवल हमारे विकसित होते लोकतंत्र की दिशा को असमय आहत किया अपितु न्यायतंत्र को भी प्रभावित किया। 1967 के बाद से इसकी धारावाहिकता इतनी अधिक है कि किसी एक वर्ष या किसी एक घटना की चर्चा कर देने से बात नहीं बनती। आश्चर्य तो यह है कि मीडिया में इनकी कहानियां छुटपुट रूप से आती रही हैं किंतु किसी भी राजनेता ने अपने मुँह से इन कहानियों को बता कर प्रायश्चित नहीं किया।
जब दलबदल कानून लागू नहीं हुआ था तब आयाराम – गयाराम संस्कृति का विकास हुआ था और जहाँ पक्ष विपक्ष में सदस्यों की संख्या में न्यूनतम अंतर होता था तब मंत्री पद न पाने वाले अनेक सक्षम विधायक दूसरे दल के साथ टांका भिड़ाने में लगे रहते थे और दर्जनों बार इसी कारण से सरकारें गिरीं और बनी हैं। इस तरह के दल बदल को ‘ह्रदय परिवर्तन’ भी कहा गया पर वह न तो ह्रदय से जुड़ा होता था और न विचारों से। यह शुद्ध रूप से अनैतिक सौदा होता था जिसमें वित्तीय संसाधन कोई सरकार से असहमत उद्योगपति ही जुटाता था और दलबदल करने वाले विधायक को अधिकांश मामलों में समुचित राशि दी जाती थी। भेड़ बकरियों के रेवड़ की तरह ऐसे विधायकों को घेर कर अनजान स्थानों के अच्छे होटलों में ले जाकर शराब और शबाब में डुबो दिया जाता था व तय समय पर विधानसभा में प्रकट करा दिया जाता था। दो ढाई दशक तक अनेक संविद सरकारों का गठन और पतन इसी तरह हुआ। अभी अभी महाराष्ट्र के पूर्व उप मुख्य मंत्री का एक कथन समाचार पत्रों में आया है जिसमें उन्होंने कहा है कि पहले 50-50 लाख रुपये में विधायक पाला बदल लेते थे पर अब पार्षद तक इतने में हिलते भी नहीं हैं। केन्द्र की अल्पमत सरकारों के दौर में किस तरह समर्थन जुटाया जाता रहा उसका नमूना 1990 से 2004 तक खूब देखा गया है। नरसिंह राव सरकार के खिलाफ आये अविश्वास प्रस्ताव के समय शराब में डूबा हुआ एक सांसद तो नशे में गलत बटन ही दबा देता है जिसे बाद में ठीक किया जाता है। विधेयकों को पास कराने में किस तरह से सौदे होते हैं उसे 2008 में परमाणु संधि विधेयक को पास कराने के समय देखने को मिला जिसमें समाजवादी पार्टी ने दो दिन के अन्दर ही अपना पाला बदल लिया था और भाजपा समेत कई दलों के अनेक सांसद अनुपस्थित हो गये थे। नोटों की गिड्डियां सदन में दिखायी गयी थीं। पिछले अनेक चुनावों के दौरान करोड़ों रुपयों से भरी गाड़ियां पकड़ी जाती रही हैं पर बाद में पता ही नहीं चलता कि उस पैसे का स्त्रोत क्या था और वह कहाँ गया या किसको दण्डित किया गया। चुनावों से जुड़ी हिंसा में चयनित हत्याओं की अनेक कहानियां हैं, जो भुला दी जाती हैं। वोट काटने वाले दलों के नेताओं को चुनावों के लिए धन का लेन देन लगातार चल रहा है।
इस तरह के अनेक अपराध निरंतर होते रहे हैं और कानून की अपनी सीमाएं हैं किंतु इनमें  सम्मिलित किसी भी राजनेता ने अभी तक इस सन्दर्भ के किसी सच को प्रकट नहीं किया है। कल्पना करें कि अगर अमर सिंह, शरद पवार या अमित शाह में कभी वैराग्य भाव जागृत हो जाये और वे अपने जीवन के सच प्रकट करें तो देश की राजनीति में कितना भूचाल आ जाये। पिछली सदी के सातवें दशक से इस तरह के अवैध व्यापार में कई हजार लोग सम्मलित रहे हैं किंतु किसी ने भी वादा माफ गवाह की तरह भी उसको प्रकट नहीं किया है जिससे उस वृत्ति और उन्हें पनपाने वालों की पहचान अखबारों के अनुमानों से आगे निकल सके।
स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख पार्टी होने, तथा दलितों व अल्पसंख्यकों के सुनिश्चित मतों की स्वाभाविक पार्टी होने के साथ साथ काँग्रेस सत्ता की सुविधाओं के कारण लम्बे समय तक सहज ही सरकार में रही है जिसे अपदस्थ करने के लिए भाजपा ने सबसे अधिक कूटनीतियों को बुना है और उनके लिए सभी तरह की नैतिकताओं की तिलांजलि दी है। उसके अनेक वरिष्ठ नेताओं को रिटायर कर दिया गया है व अब उनकी वापिसी सम्भव नहीं दीखती। यदि उम्र के इस पड़ाव पर उनका ज़मीर जागे और वे लोकतंत्र के हित में सच को प्रकट करने का साहस दिखायें तो राजनीति का बहुत सारा धुंधलका छंट सकता है।
काश ऐसा हो पाता !   
वीरेन्द्र जैन
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