सोमवार, दिसंबर 26, 2016

फिल्म समीक्षा दंगल - लैंगिक भेदभाव पर एक और बेहतरीन फिल्म

फिल्म समीक्षा
दंगल - लैंगिक भेदभाव पर एक और बेहतरीन फिल्म

वीरेन्द्र जैन
पिछले दो दशकों से साहित्य में महिला विमर्श को केन्द्र में लाया गया था जिसके प्रभाव में पिछले दिनों लैंगिक भेदभाव को चुनौती देने वाली कई फिल्में बनी हैं जिनमें से कुछ बैंडिट क्वीन, गुलाबी गैंग, नो वन किल्लिड जेसिका, क्वीन, पिंक, बोल, खुदा के लिए, आदि तो बहुत अच्छी हैं। आमिर खान की दंगल भी बिना कोई ऐसा दावा किये उनमें से एक है। इसमें यह भी जोड़ा जा सकता है कि जब कोई विषय किसी परिपक्व कलाकार के हाथ लगता है तो उसका निर्माण उसके सौन्दर्य और प्रभाव को कई गुना बढा देता है। पिछले दिनों खेल और उसकी समस्याओं को लेकर भी कुछ कथा फिल्में व बायोपिक जैसे चक दे इंडिया, भाग मिल्खा भाग, मैरी काम, पान सिंह तोमर आदि बनी हैं और सफल हुयी हैं, पर यह फिल्म दोनों का मेल है। यह फिल्म हरियाना जैसे राज्य में जहाँ पुरुषवादी मानसिकता इस तरह सवार है कि कन्या भ्रूण के गर्भपात के कारण लैंगिक अनुपात खराब हो गया है, की सच्ची घटना से जन्मी है और एक प्रेरक फिल्म है। जो लोग देश के आमजन को, स्वार्थी, गैरसंवेदनशील, अनपढ, और कूपमंडूप मान कर चलते हैं, इस फिल्म की व्यवसायिक सफलता उन लोगों को भी आइना दिखाती है। उल्लेखनीय है कि प्रफुल्लित स्कूटर, कार- स्टेंड वाले ने बताया कि नोटबन्दी के बाद आने वाली यह पहली फिल्म है जो लगातार तीन दिन से हाउसफुल चल रही है और उसका घाटा पूरा कर रही है।
व्यावसायिक स्तर पर सफल यह आम व्यावसायिक फिल्मों से इसलिए अलग है कि इसमें स्टार के नाम पर केवल आमिरखान हैं, और चार नई लड़कियां, फातिमा साना शेख, ज़ाइरा वसीम, सान्या मल्होत्रा, और सुहानी भटनागर हैं। इसमें न तो प्रेम कहानी है और न ही आइटम सोंग जैसे भड़कीले बदन दिखाऊ दृश्य हैं। इसमें न तो फूहड़ कामेडी है और न धाँय धायँ करती व्यवस्था को नकारती हिंसक घटनाएं हैं। यह किसी पाक शास्त्र में कुशल ऐसे रसोइये की कला है जो बिना मसाले के भी स्वादिष्ट और पोषक रसोई बनाना जानता है। इस फिल्म में अगर खून बहता हुआ नजर आता है तो वह आँखों से बहता हुआ नजर आता है, बकौल गालिब – जो आँख से ही न टपका तो फिर लहू क्या है। पूरी फिल्म में पात्रों की आँखें भरी हुई नजर आती हैं, कभी खुशी से तो कभी परिस्तिथिजन्य दुखों से। यही स्थिति दर्शकों की आँखों को भी बार बार भर देती है, पर न पात्रों की भरी आँखें छलकती हैं, न ही दर्शकों की। दिल का भर आना इसीको कहते हैं।    
छोटी सी कहानी में भी कितनी बातें समेटी जा सकती हैं यह बात राजकपूर की कला के सही उत्तराधिकारी आमिर खान से ही सीखी जा सकती है। एक खिलाड़ी जो देश के लिए खेलने की क्षमता और भावना रखता था उसे खेल छोड़ कर केवल इसलिए नौकरी करना पड़ती है क्योंकि उसके पिता का मानना है कि जिन्दा रहने के लिए रोटी जरूरी होती है, मेडलों को थाली में डाल कर नहीं खाया जा सकता। वह अपना सपना अगली पीढी के माध्यम से पूरा करना चाहता है किंतु उसके घर कोई लड़का पैदा नहीं होता जिसकी प्रतीक्षा में वह चार लड़कियां पैदा कर लेता है। मैडलों के न मिलने पर दुखी होते देश में मैडल जीतने वाले देशों की तरह खिलाड़ियों की देखभाल की उचित व्यवस्था नहीं है। खेल अधिकारी उसे बताता है कि खेल के लिए कुल कितना बज़ट आवंटित है और उसमें से भी कुश्ती के लिए इतना भी नहीं बचता कि जिससे गद्दे तो दूर एक मिठाई का डिब्बा भी न आ सके। लड़कियों की कुश्ती की तैयारी कराने के लिए भी दूसरी लड़कियां नहीं मिलतीं जिस कारण लड़की को अपने दूर के रिश्ते के भाई के साथ ही कुश्ती करके सीखना पड़ता है और पहली जीत किसी लड़के को पराजित करके ही जीतना पड़ती है। पुरुषवादी समाज में जब पिता कोच का काम करता है तो परम्परागत अनुभवों से सिखाता है और जिस कारण से उसका स्पोर्ट कालेज के कोच से टकराव भी होता है जो आधुनिक किताबी ज्ञान से सिखा रहा होता है। अंततः दोनों के समन्वय से खिलाड़ी लड़की द्वारा अपने विवेक से लिया गया फैसला ही जीत दिलाता है।
खेल के क्षेत्र में आगे बढने के लिए किसी लड़की का टकराव उसके मन में भर दिये गये एक कमजोर ज़ेन्डर होने की भावना से ही नहीं होता अपितु सहपाठियों और सामाजिक तानों बानों से भी होता है, पहनावा व हेयर स्टाइल बदलने के कारण भिन्न दिखने से भी होता है। उनके लिए तय कर दी गई कलाओं तक सीमित रहने की परम्परा से भी होता है। सामाजिक विरोध के साथ साथ जाति समाज के विरोध का सामना कोई पहलवान ही कर सकता है। किसी महिला के खिलाड़ी बनने के लिए उसे अपने परम्परागत सौन्दर्य बोध को मारना होता है। मैत्रीय पुष्पा अपने आत्मकथात्मक उपन्यास ‘कस्तूरी कुण्डल बसै’ में लिखती हैं कि उनकी माँ सरकारी नौकरी में एक साधारण सी कर्मचारी थीं जिन्हें गाँव गाँव की यात्रा करना पड़ती थी। इस नौकरी में सम्भवतः अपनी सुरक्षा के लिए वे रूखे सूखे रहने को अपना कवच मानती थीं, और केवल छुट्टियों में ही अपने बालों में तेल लगवाती थीं। इस फिल्म में खिलाड़ी लड़की द्वारा टीवी देखने, अपने बाल बढाये जाने और नेल पालिश लगाये जाने को भी उसका लक्ष्य विचलित होना माना जाना भी एक मार्मिक प्रसंग बन गया है।
हाउस फुल हाल में फिल्म प्रारम्भ होने के पहले राष्ट्रगीत बजाये जाते समय तक दर्शक अपनी सीट ही तलाश रहे होते हैं और अनचाहे भी वे राष्ट्रगीत के लिए तय मानकों का उल्लंघन कर रहे होते हैं, दूसरी ओर जब फिल्म की कहानी में राष्ट्रगीत बज रहा होता है, वे तब भी खड़े हो जाते हैं।   
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629


गुरुवार, दिसंबर 22, 2016

वाहनों पर विशिष्टता वाले प्रतीक चिन्हों के खतरे

वाहनों पर विशिष्टता वाले प्रतीक चिन्हों के खतरे
वीरेन्द्र जैन

        गत दिनों होशंगाबाद में 43 लाख के नये और पुराने नोटों के साथ एक व्यक्ति पकड़ा गया था जिसकी गाड़ी पर एंटी करप्शन सोसाइटी की प्लेट लगी हुयी थी। जिस दिन दिल्ली निर्भया कांड की तीसरी बर्सी मना रही ठीक उसी दिन एक और गैंग रेप हुआ तथा यह अपराध जिस वाहन से घटित हुआ उस पर गृह मंत्रालय की [नकली] प्लेट लगी हुई थी। अतीत को याद करें तो पटियाला में एक ऐसा अफीम तस्कर पकड़ा गया था जो पंजाब के डिप्टी सीएम का स्टिकर के साथ ही वीआईपी लिखा स्टिकर लगाकर पुलिस को चकमा देता रहा था। उसके पास से से 22 किलो अफीम मिली थी। एसएसपी गुरप्रीत गिल ने बाद में सम्वाददाताओं को बताया था कि पकड़े गये अवतार सिंह का मध्यप्रदेश के रतलाम इलाके में ढाबा है जिसे उसका पुत्र चलाता है। इससे पहले भी पुलिस मध्यप्रदेश में ही उसे 17 किलो अफीम के साथ पकड़ चुकी थी।
दिल्ली में काल सैन्टर में काम करने वाली एक लड़की जिगिशा घोष की हत्या कर दी गयी थी जिसकी जाँच में न केवल जिगिषा के हत्यारे ही पकड़े गये अपितु एक पत्रकार सौम्या विशवनाथन की हत्या का राज भी खुल गया था। दोनों ही हत्याएं उन्ही अपराधियों ने की थीं। जाँच में सबसे उल्लेखनीय बात यह सामने आयी कि अपराधियों के पास से अतिविशिष्ट व्यक्तियों द्वारा प्रयोग के लिए अधिकृत लाल बत्ती, पुलिस विभाग के प्रतीक चिन्ह, जज और प्रैस के स्टिकर, पुलिस महानिदेशक और उपमहानिरीक्षक की गाड़ियों पर लगने वाली नीली प्लेट, पुलिस की वर्दी तथा वायरलैस सैट भी मिले थे। प्रति दिन वांछित अवांछित आलोचना सुनने वाली पुलिस को इस कार्यवाही के लिए साधुवाद देने के साथ वाहनों पर लगाये जाने वाले प्रतीक चिन्हों की उपयोगिताएं आवश्यकताएं और दुरूपयोग की संभावनाओं पर विचार करना जरूरी है।
        आज प्रदेश की राजधानियों में सैकड़ों ऐसे वाहन पुलिस की आंखों के सामने से गुजरते रहते हैं जिनमें नम्बर प्लेट की जगह उस राज्य की सत्तारूढ पार्टी के झन्डे के रंग की प्लेट लगी होती है व उस पर दल के किसी प्रकोष्ठ के पदाधिकारी का नाम लिखा होता है। असल में ऐसी प्लेटें ट्रैफिक पुलिस कर्मचारियों को चेतावनी देने के लिए लगायी गयी होती हैं कि वे ट्रैफिक नियमों को धता बताते हुये उक्त वाहनों को किसी भी तरह की चैकिंग के लिए रोकने का दुस्साहस न करें। अपने भविष्य और सुविधाओं के बारे में सोच कर आम तौर पर पुलिस के लोग ऐसे वाहनों को रोकते भी नहीं हैं व कानून के पालन की ‘गलती’ कर देने पर ‘दण्डित’ भी होते हैं। यही विशेष सुविधा अपराधियों को इन विशिष्ट प्रतीक चिन्हों के दुरूपयोग को प्रोत्साहित करती है। आज सारे बड़े बड़े अपराध इन्हीं विशिष्ट चिन्हों से मण्डित वाहनों के सहारे किये जा रहे हैं। वाहनों पर पुलिस और प्रैस लिखवाने का फैशन चल गया है। अखबार में प्रिटिंग का काम करने से लेकर अखबार बांटने का काम करने वाले हॉकर तक अपनी साइकिलों बाइकों पर प्रैस लिखवाये हुये मिल जाते हैं जबकि यह पहचान अधिक से अधिक केवल डयूटी पर काम के लिए निकले अखबार के संवाददाता तक ही सहनीय होना चाहिये। भोपाल जैसे नगर में सिटी बसों सामान ढोने वाले ट्रकों आटो ही नहीं ट्रैक्टरों तक पर प्रैस लिखा देखा जा सकता है। डाक्टरों और मरीज वाहन को प्राथमिकता देने के लिए अनुशंसित रैडक्रास का निशान भी नर्सों वार्ड ब्वाय कम्पाउण्डरों, लैब तकनीशियनों से लेकर अस्पतालों के सफाईकर्मी तक प्रयोग में लाते हैं। पुलिस के सिपाहियों की साइकिलों पर भी पुलिस लिखा होता है जो परोक्ष रूप से उन चोरों को सावधान करने के लिए लिखवाया जाता है जो साइकिलें चुराते हैं। साइकिल पर अंकित ‘पुलिस’ संदेश देती है कि यह पुलिस वाले की साइकिल है इसे तो मत चुराओ। इतना ही नहीं सांसद विधायक से लेकर गांव के पंच सरपंच तक अपने वाहनों पर अपना पद लिखवाने लगे हैं। सरकारी अधिकारी ही नहीं कर्मचारी तक अपने विभाग का नाम व पद लिखवाते हैं, यहाँ तक कि वकील भी मोटे मोटे अक्षरों में एडवोकेट लिखवा कर रखते हैं। राजनीतिक दलों के पदाधिकारी तो अपना छोटे से छोटा पद बड़े से बड़े अक्षरों में लिखवाना पसंद करते हैं।
1990 के दशक से देश में साम्प्रदायिकता का जो पुर्नजागरण हुआ है उसके बाद से लोगों के हाथों में बंधे कलावों तिलकों अंगूठियों दाढियों चोटियों, गले में पड़े दुपट्टॊं आदि से ही नहीं उनके घरो के दरवाजों और वाहनों पर लिखे जयकारों से उनके धार्मिक विश्वासों का उद्घोष होता रहता है, भले ही उनके आचरण उनके धार्मिक उद्घोषों के विरोधी हों। अधिकांश वाहनों पर बाहर की तरफ जयघोष के साथ साथ उक्त धार्मिक पंथ के प्रतीक चिन्ह और हथियार आदि अंकित रहते हैं। इनका उपयोग केवल इतना भर होता है कि साम्प्रदायिक दंगों के दौरान अपने वालों से ही प्रताड़ित होने से बच सकें। इन चिन्हांकनों से धर्म और पंथ का कितना भला हुआ है इसका कोई प्रमाण कभी नहीं मिला तथा हजारों दुर्घटनाग्रस्त वाहनों को देखने पर पता चलता है कि इन धार्मिक उद्घोषों ने दुर्घटना से कभी कोई रक्षा नहीं की और ना ही वाहनों को चोरी से ही बचाया।
        देश में वाहनों का सड़कों और उनकी दशाओं के अनुपात में बेतुका विस्तार भविष्य में अनेकानेक समस्याओं को जन्म देगा, खास तौर पर तब, जब कि वाहनों के साथ ट्रैफिक नियमों का पालन तो दूर की बात है लोगों को सही तरीके से पार्किंग की भी तमीज नहीं है जिसे किसी भी पार्किंग स्थल पर देखा जा सकता है। इसलिए आवशयकता इस बात की है कि नये नये सस्ते वाहन आने से पहले ट्रैफिक नियमों के कठोर अनुपालन को सुनिश्चित करने की व्यवस्था की जावे जिसके लिए  स्थानीय राजनेताओं के प्रभाव से बचने के लिए उनके अर्न्तराज्यीय और जल्दी स्थानान्तरण की व्यवस्था हो। डयूटी वाले चिकित्सकों पुलिस व प्रशासन के वाहनों, डयूटी वाले मान्यता प्राप्त संवाददाताओं, एम्बुलैंस फायर ब्रिग्रेड आदि आवश्यक सेवाओं को छोड़ कर किसी भी वाहन के बाहर किसी भी प्रतीक चिन्ह को प्रकट करना कठोरता पूर्वक रोका जाये व विशिष्टता वाले वाहनों को उनकी सुरक्षा के नाम पर अनिवार्य रूप से चैक किये जाने की व्यवस्था हो।
जिस तरह मोबाइल आने के बाद अपराधी साधन सम्पन्न हुये हैं उसी तरह वे मोबाइल के रिकार्ड के कारण उसी अनुपात में पकड़ में भी आये हैं। आज के अधिकांश अपराधों में वाहनों का प्रयोग आम हो गया है और अपराधों को पकड़ने में वाहनों की चैकिंग बहुत मदद कर सकती है। वाहन नियमों के किसी भी उल्लंघन के दुहराव पर उसका दण्ड भी दुगना कर देने से ट्रैफिक अपराधों पर अंकुश लग सकता है। एक से अधिक वाहन रखने वाले परिवार पर अतिरिक्त कर लगाने का प्रस्ताव तो पहले से ही विचाराधीन है। सड़क पर वाहनों की पार्किंग को अतिक्रमण माना जाना चाहिये। बेहतर होगा कि हम विदेशों से वाहनों के माडलों की नकल ही न सीखें अपितु उनके यहाँ के ट्रैफिक नियम भी सीखें।
जिगीशा और सौम्या की हत्या करने वाले तथा अपने वाहन पर गृहमंत्रालय की प्लेट लगाने वाले यदि विदेशी आंतकी होते तो सहज ही कल्पना की जा सकती है कि वे कितने 26/11 दुहरा सकते थे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास  भोपाल मप्र
फोन 9425674629



गुरुवार, दिसंबर 15, 2016

ममता बनर्जी पर टिप्पणी भाजपा के मूल चरित्र की सूचक

ममता बनर्जी पर टिप्पणी भाजपा के मूल चरित्र की सूचक
वीरेन्द्र जैन

नोटबन्दी पर पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी द्वारा मुखर विरोध करने के लिए दिल्ली में केजरीवाल के साथ रैली करने पर भाजपा नेता बुरी तरह से डरे हुए हैं। लोकसभा चुनावों में काँग्रेस की चहुँ ओर पराजय और अलोकप्रियता के बाद भाजपा खुद को निर्विकल्प मान रही थी, किंतु दिल्ली विधानसभा और बिहार विधानसभा में मिली पराजय के बाद वह आहत महसूस करने लगी थी। दिल्ली में तो उसकी पराजय एक उस पार्टी के युवा नेता के हाथों हुयी थी, जिसके साथ न तो जाति थी न सम्प्रदाय, न पूंजीपति थे और न ही संसाधन थे, न परम्परागत खाँटी नेता थे न ही वंश परम्परा। यह जीत भ्रष्टाचार से आहत जनता ने उन बिखरे बिखरे संगठन वाले युवाओं को सौंपी थी, जिनमें उसे नई उम्मीदें दिखाई देने लगी थीं। चूंकि उनका कोई इतिहास नहीं था इसलिए उनकी राजनीतिक आलोचना भी कठिन थी। भाजपा को जितना खतरा बिहार में नये गठबन्धन के सत्ता में आने से नहीं लगा जितना कि केजरीवाल के आने से लगा था। उल्लेखनीय है कि जब अन्ना को आगे रख कर केजरीवाल ने ‘इंडिया अगेंस्ट करप्पशन’ चलाया था तब उसकी लोकप्रियता को हड़पने के लिए संघ परिवार ने सबसे ज्यादा परोक्ष समर्थन किया था। दिल्ली में अन्ना के अनशन के दौरान भोजन की सारी व्यवस्था संघ ने ही सम्हाली थी। जब ममता बनर्जी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री थीं और वामपंथियों से टकराती थीं तब वे भाजपा की मित्र थीं।
चूंकि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है इसलिए वहाँ की राज्य सरकार के पास पुलिस से लेकर नगर निगम आदि कई महत्वपूर्ण विभाग उसके नियंत्रण में नहीं हैं। इसका लाभ लेते हुए केन्द्र सरकार ने राज्य सरकार के खिलाफ युद्ध जैसा छेड़ दिया था और पारिवारिक झगड़ों से लेकर छोटे मोटे अनेक मामलों में विधायकों को तोड़ना शुरू कर उन्हें जेल भेजना शुरू कर दिया। दूसरी ओर लेफ्टीनेंट गवर्नर ने दिल्ली की सरकार के खिलाफ सौतेला व्यवहार शुरू कर दिया। इसी दौरान नोटबन्दी के सवाल पर केजरीवाल को बंगाल की तेज तर्रार मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का साथ मिला तो केन्द्र सरकार आगबबूला हो गयीं। एक जागरूक पूर्ण राज्य की मुख्यमंत्री का दुश्मन नम्बर एक से मिल जाना भाजपा के तानाशाह नरेन्द्र मोदी को बहुत अखरा और उनके तेवर को समझ कर भाजपा के सभी नेता ममता बनर्जी के खिलाफ हो गये।
बंगाल में सेना की तैनाती पर मुखर असंतोष व्यक्त करने वाली ममता भाजपा को बहुत खतरनाक लगने लगीं क्योंकि वे कभी वामपंथियों के खिलाफ बनाये गये महाजोट में इनकी रणनीति में शामिल रही थीं। इन्हीं परिस्तिथियों में 2 दिसम्बर 2016 को हावड़ा के उलुबेरिया में हुई एक रैली में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने कहा कि “हमारी सीएम दिल्ली गई हैं। वे वहां काफी नाच गाना कर रही हैं! हमें बताइए हमारी तो सरकार वहां पर है। अगर हम चाहते तो उनके बाल पकड़ कर उन्हें बाहर निकाल देते।“ क्या भाजपा का यही लोकतांत्रिक तरीका है! क्या किसी को सरकार की जनविरोधी नीति से असहमत होने का अधिकार नहीं है! क्या सरकार होने का यही मतलब होता है कि राजनीतिक विरोध करने वाले को जब चाहो तब बाल पकड़ कर अपने राज्य से बाहर निकाल दो, चाहे वह किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री ही क्यों न हो! अभी मध्य प्रदेश में केरल के मुख्यमंत्री को पुलिस ने मलयाली समाज द्वारा उनके अभिनन्दन के कार्यक्रम को यह कह कर रोक दिया कि आरएसएस के विरोध के कारण वे उन्हें सुरक्षा दे सकने में समर्थ नहीं हैं। असहमतों को अपने सहयोगी संगठनों से देशविरोधी, देशद्रोही व गद्दार कहलवा देना तो आम बात हो गई है। अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्तियों को ये लोग सीधे पाकिस्तान चले जाने की सलाह देते हैं, यहाँ तक कि राहुल गाँधी तक को नानी के घर अर्थात इटली जाने की घोषणा करने लगते हैं। गाँधी और नेहरू जैसे महान व्यक्तियों के इतिहास को भी कलंकित कराया जा रहा है।
जो लोग हर अवसर पर ‘यत्र नारी पूज्यंते, रमंते तत्र देवता’ का उद्घोष करते रहते हैं, वे ही नारियों के खिलाफ ऐसी भाषा का प्रयोग करने में संकोच नहीं करते। वैसे तो विमुद्रीकरण का विरोध सभी विपक्षी दलों ने किया था किंतु केजरीवाल और ममता बनर्जी का आपस में मिलना और मुखर विरोध करना उन्हें बहुत डरा गया है।   
भाजपा जिस संघ परिवार की सामंती संस्कृति से जन्मी है उसमें महिलाओं का स्वतंत्र नेतृत्व विकसित नहीं हो सकता। विजया राजे सिन्धिया, जो जनसंघ की पहली बड़ी महिला नेता थीं वे पहले  काँग्रेस से साँसद थीं और द्वारिका प्रसाद मिश्र के साथ व्यक्तिगत रंजिश के कारण जनसंघ में गयीं थीं।  सुषमा स्वराज को समाजवादी खेमे से आयात किया गया था। हेमा मालिनी, स्मृति ईरानी, किरन खेर, वसुन्धरा राजे या साध्वी भेषधारिणी उमा भारती आदि को उनकी सेलिब्रिटीज हैसियत के कारण चुनाव जीतने के लिए दिखावटी रूप में सम्मलित कर लिया जाता है। संघ की शाखाओं में महिलाओं को प्रवेश नहीं मिलता। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि ममता बनर्जी हों या सोनिया गाँधी, महिला नेतृत्व के प्रति इनका व्यवहार दोयम दर्जे का ही है। मीडिया को भ्रष्ट करके चरित्र हत्या कराना इनका प्रमुख हथियार है। असत्य, अर्धसत्य, तथा दुहरे अर्थ वाले बयान सबसे अधिक इसी संगठन की ओर से आते हैं। गणेशजी को दूध पिलाने से लेकर अयोध्या में बाबरी मस्जिद विवाद जैसे गैर राजनीतिक मुद्दों से ये ही लोग जुड़े रहे हैं।
राजनीति में झूठ का प्रयोग उजागर हो जाने के बाद यह साफ हो जाता है कि ये स्वयं भी अपने पक्ष को कमजोर समझते हैं। राजनीति में स्वच्छता को खराब करने में जो लोग स्वच्छ भारत का नारा लगाते हैं, उसका प्रभाव नहीं होता क्योंकि स्वच्छता आचरण से सम्बन्धित होती है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629

          

सोमवार, दिसंबर 05, 2016

मौलिक मोदी के बेलिबास बोल

मौलिक मोदी के बेलिबास बोल










वीरेन्द्र जैन
गत दिवस मोरादाबाद में आयोजित परिवर्तन रैली में मोदी का भाषण सुनने के बाद वह सज्जन भी निराश दिखे जो उन्हें भाजपा और भारत का एक मात्र उद्धारक मानने लगे थे। उनका कहना था कि असल मोदी और प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी से लेकर प्रधानमंत्री के रूप में अपनी बात कहने वाले मोदी अलग अलग हैं। चुनावी भाषणों के समय मूल मोदी सामने आ जाते हैं। सम्बन्धित व्यक्ति की नाराजी उनके उस कथन को लेकर थी जिसमें उन्होंने जनधन वाले खातों में विमुद्रीकरण के बाद जमा किये गये काले धन को वापिस न करने का आवाहन किया था। इस सम्बन्ध में मोदी जी ने कहा था कि जिनके खातों में किन्हीं सम्पन्न लोगों ने अपना काला धन जमा करवाया है वे उसे वापिस न करें। सरकार उसे कानूनी रूप देकर उसी व्यक्ति का धन बनाने के बारे में दिमाग लगा रही है।
तकनीकी रूप से मोदी का उक्त कथन न केवल गैरकानूनी था अपितु अनैतिक भी था। सरकार कानूनी कार्यवाही करके अवैध धन को जब्त कर सकती है, सम्बन्धित पर उचित करारोपण करके दण्ड वसूल सकती है, सजा दे सकती है, किंतु संविधान की शपथ लिए हुये प्रधानमंत्री जैसा कोई व्यक्ति सार्वजनिक रूप से अमानत में खयानत करने जैसा बयान नहीं दे सकता। नैतिकता का तकाजा भी यही है कि लिये हुए धन को जिन शर्तों पर लिया गया हो उसी के अनुसार वापिस किया जाये। जो काम सरकार का है वह सरकार करे। विमुद्रीकरण योजना घोषित करते समय भी इस बात के लिए सावधान किया गया था कि कोई भी व्यक्ति यदि दूसरे के धन को अपने खाते में जमा करायेगा तो वह दण्ड का भागी होगा। यदि किसी ने जानबूझ कर ऐसा किया है तो उसे नियमानुसार दण्डित किया जा सकता है, न कि उस धन को वापिस न देने की सलाह देकर दबंगों से द्वन्द की सलाह देनी चाहिए।
इसी अवसर पर उन्होंने अपने विरोधियों के आरोपों का उत्तर देने के बजाय अपने गैर जिम्मेवार होने का प्रमाण यह कहते हुए दिया कि मेरा कोई क्या बिगाड़ सकता है मैं तो फकीर हूं, अपना थैला लेकर चल पड़ूंगा। किसी देश के जिम्मेवार पद पर पहुँचने के बाद क्या ऐसी वापिसी सम्भव है? यदि युद्ध के समय कोई सैनिक अपनी नौकरी छोड़ कर जाने लगे तो क्या उसे जाने दिया जा सकता है। स्मरणीय है कि राजीव गाँधी की हत्या के बाद बहुत सारे काँग्रेसजनों ने सोनिया गाँधी को काँग्रेस की कमान सम्हालने का आग्रह किया था किंतु उन्होंने दस साल तक इस जिम्मेवारी को लेने से इंकार किया पर एक बार जिम्मेवारी लेने के बाद आये अनेक संकटों के बाद भी पीछे नहीं हटीं। इसी तरह मनमोहन सिंह जो स्वभाव से एक ब्यूरोक्रेट हैं, ने प्रधानमंत्री पद की जिम्मेवारी सौंप दिये जीने के बाद उसे पूरी ईमानदारी और जिम्मेवारी से निभाया व गठबन्धन के दबावों और विपक्षियों की आलोचना के परिणाम स्वरूप जन्मी विपरीत परिस्तिथियों में भी पीछे नहीं हटे, भले ही उनकी गैर जिम्मेवार आलोचना भी की गई।
श्री नरेन्द्र मोदी एक लोकप्रिय वक्ता हैं किंतु यह लोकप्रियता आज के कवि सम्मेलनों के चुटकलेबाज कवियों की लोकप्रियता जैसी शैली के कारण है। किंतु जब उक्त शैली में प्रधानमंत्री पद के साथ भाषण देते हैं तो वे पद की गरिमा को गिरा रहे होते हैं। उल्लेखनीय है कि गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद घटित प्रायोजित दंगों में उनकी भूमिका पर कई आरोप लगे थे और जब उस समय की उत्तेजना के प्रभाव से चुनाव को बचाने के लिए तत्कालीन चुनाव आयुक्त लिग्दोह ने चुनावों को स्थगित किया था तब श्री मोदी ने उनकी जिस भाषा में सार्वजनिक मंचों से आलोचना की थी, वह बहुत असंसदीय भाषा में थी। अपनी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के लिए विख्यात उस अधिकारी पर साम्प्रदायिक आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा था कि शायद वे सोनिया गाँधी से चर्च में मिलते होंगे। स्वयं सोनिया गाँधी पर आरोप लगाते हुए उन्होंने उनके विदेशी मूल पर सवाल उठाने के लिए जर्सी गाय जैसी उपमा का प्रयोग किया था। इसी दौरान मुसलमानों के खिलाफ बोलते हुए उन्होंने पाँच बीबियां पच्चीस बच्चे जैसा जुमला उछाला था। गुजरात के नरसंहार की पक्षधरता करते हुए उन्होंने क्रिया की प्रतिक्रिया जैसा बयान भी दिया था, क्योंकि उनकी भाषा ही यही रही है।
गुजरात नरसंहार पर अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा राजधर्म के पालन का बयान देने के बाद उनसे उम्मीद की गई थी कि वे केवल सुशासन पर ध्यान देंगे। संयोग से उसके बाद उनके सामने कोई कठिन चुनौती नहीं आयी इसलिए बयान चर्चा में नहीं रहे, जब तक कि उन्हें प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित नहीं कर दिया गया। लोकसभा चुनावों के दौरान उन्होंने विदेशी मीडिया को दिये इकलौते साक्षात्कार के बाद चुनावी तिथि से ठीक पहले दिये कुछ फिक्स साक्षात्कारों को छोड़ कर कोई साक्षात्कार नहीं दिया। उक्त इकलौते साक्षात्कार में उन्होंने 2002 के दंगों की हिंसा में मारे गये लोगों की तुलना कुत्ते के पिल्ले से कर दी थी।
माना जाता है कि जब वे सहज होकर बोलते हैं तो भाषा और प्रतीकों में आदर्श मानकों से डिग जाते हैं। पिछले दिनों उन्होंने आमसभाओं में जो कहा उसका नमूना देखिए-
·         अगर में सौ दिन में काला धन नहीं लाया तो मुझे फाँसी पर चढा देना
·         मैं इतना बुरा था तो मुझे थप्पड़ मार लेते
·         अगर मैं वादा तोड़ूं तो मुझे लात मार देना
·         दलितों को कुछ मत कहो चाहे मुझे गोली मार दो
·         अगर पचास दिन में सब ठीक नहीं किया तो मुझे ज़िन्दा जला देना
नोटबन्दी के लिए जो कारण गिनाये गये थे उनमें से कोई भी पूरा होता दिखाई नहीं दे रहा है तथा समर्थक वर्ग में उनकी छवि खराब हो चुकी है। वे देश के महत्वपूर्ण पद पर हैं और पार्टी व गठबन्धन में उन्हें कोई चुनौती देने का साहस नहीं कर पा रहा है।
   पाकिस्तानी सीमा पर हो रही गोलीबारी, और तथा गुर्जर, जाट, पटेल, मराठाओं के आन्दोलनों व उन आन्दोलनों के प्रति सरकार का रवैया देखते हुए कहा जा सकता है कि देश के लिए यह कठिन समय है।    
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
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मंगलवार, नवंबर 22, 2016

नोटबन्दी पर विश्वसनीयता का सवाल

नोटबन्दी पर विश्वसनीयता का सवाल
वीरेन्द्र जैन

नोटबन्दी के कारण हुयी पचास से अधिक मौतों, मुद्रा के संकट से उत्पन्न बाजार के लकवाग्रस्त होने, अर्थव्यवस्था और बैंकिंग व्यवस्था पर तरह तरह के संकट आने से घबराहट का जो माहौल बना उस घटनाक्रम से नरेन्द्र मोदी की बची खुची छवि पर गहरा दाग लगा है। उससे पहले उन्हें भूमि अधिग्रहण पर अपनी सरकार का फैसला वापिस लेना पड़ा था, और जीएसटी आदि मुद्दों पर भी समझौता करना पड़ा था। अपने वादों को चुनावी जुमला बता कर उन्होंने अपनी विश्वसनीयता को कम किया था व सीमा पर घोषित शत्रु से निबटने में पिछली सरकार जैसा ही काम करने से उनका बहादुरी का मेकअप धुल चुका था। असम के उग्रवादियों पर वर्मा की सीमा में घुस कर हमला करने की अतिरंजना से लेकर जे एन यू, सर्जिकल स्ट्राइक आदि के सरकारी सच में असत्य के अंश पकड़े जाने से उनके समर्थकों को ठेस लग चुकी थी। लोकसभा चुनाव के ठीक बाद दिल्ली और बिहार के चुनावों में मिली पराजय से जन भावनाओं में आये बदलाव के संकेत मिल गये थे। कहने की जरूरत नहीं कि लोकसभा चुनावों के दौरान मोदी की प्रचार एजेंसियों ने उनकी छवि एक राबिनहुड की बनायी थी जो 56 इंच के सीने वाला था और आते ही सारे संकटों को दूर कर देने वाला था। पिछली केन्द्र सरकार के कारनामों से परेशान अवतारवाद में भरोसा करने वाले समाज के एक हिस्से ने उन्हें अवतार की तरह देखा भी था जो लोकसभा में उनकी जीत का कारण बना था।
उल्लेखनीय है कि मोदी और अमितशाह की जोड़ी ने भारतीय जनता पार्टी को मोदी जनता पार्टी में बदल दिया था व भाजपा के सारे पुराने प्रमुख नेताओं को हाशिए पर धकेल दिया था। इसलिए जिम्मेवारी भी पूरी तरह से सिर्फ और सिर्फ नरेन्द्र मोदी पर आती है क्योंकि यह उनका ही फैसला था जिसे उन्होंने अपने दल ही नहीं अपितु अपने मंत्रिमण्डल के सदस्यों तक से साझा नहीं किया। शरद यादव ने तो संसद में सदन के पटल पर आरोप लगाया कि मोदी ने इस कार्यवाही को वित्त मंत्री अरुण जैटली तक से छुपाये रखा। समाचार के अनुसार जिन छह सदस्यों के साथ अंतिम दौर की बैठक हुयी उन्हें भी तब तक कमरे से बाहर नहीं आने दिया गया जब तक कि श्री मोदी ने टेलीविजन पर राष्ट्र के नाम सन्देश प्रसारित नहीं कर दिया।
नोटबन्दी के फैसले के तीन प्रमुख उद्देश्य बताये गये थे जिन पर पूरे देश और सभी राजनीतिक दलों की लगभग सहमति थी किंतु जैसा कि कोलकता हाईकोर्ट ने कहा है कि योजना लागू करने से पहले पूरा होमवर्क नहीं किया गया जिससे पूरे देश को तकलीफ हुयी व व्यवस्था के प्रति इतना अविश्वास पैदा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने देश की सड़कों पर हिंसा फैलने की सम्भावना व्यक्त की। बाद में राजनीतिक दलों ने इस कमजोरी का पूरा लाभ लिया जो उनकी जिम्मेवारी का हिस्सा था और जिसका उन्हें हक भी था।
एक बार विश्वास भंग हो जाने के बाद अब मोदी समर्थक भी कहने लगे हैं कि इस सरकार का इरादा काले धन से मुक्ति पाने का इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि इसका जन्म भी काले धन के सहारे ही हुआ था। चुनावी खर्चों पर ध्यान रखने वाली संस्थाओं ने बताया था कि इन्होंने लोकसभा में कम से कम दस हजार करोड़ रुपये खर्च किये थे जिसका बड़ा हिस्सा काले धन का ही था। दूसरे जो इनका समर्थक वर्ग है उसी के पास काले धन का बड़ा हिस्सा है और उसे भरोसा रहा है कि उनकी सरकार काले धन के खिलाफ कुछ नहीं करेगी। शत्रु देश से नकली करेंसी आने के सवाल पर लोगों का सोचना है कि यह मुख्य रूप से शत्रुता पर निर्भर है और जो देश एक तरह की नकली करेंसी भेज सकता है वह कुछ समय बाद दूसरे तरह की नई करेंसी भी भेज सकता है, इसलिए इससे निबटने के लिए सुरक्षातंत्र को मजबूत करना ज्यादा जरूरी है। देश में बाजार, शिक्षा और चेतना का स्तर देखते हुए प्लास्टिक मनी व इलैक्ट्रोनिक ट्रांसफर में मामूली सी वृद्धि ही सम्भव है। जहाँ तक कश्मीर जैसे अलगाववादी आन्दोलन में अवैध करेंसी के स्तेमाल का सवाल है तो इसमें कितना सच है और कितना अनुमान है यह तय होना शेष है।
अब समस्या यह है कि बिल्ली बोरे में कैसे जायेगी? कुछ राज्यों में आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए राजनीतिक दल असंतोष को भुनाने के लिए तैयार हैं इस बहाने वे अपने पक्ष के काले धन को निबटाने के उपाय भी तलाश रहे हैं क्योंकि उनका अपना भविष्य भी इन्हीं चुनावों पर निर्भर है। समाजवादी पार्टी के मुख्यमंत्री तो मन्दी के समय में काले धन के लाभ भी गिनाने लगे हैं। मोदी के गठबन्धन में शामिल शिव सेना जैसे दल तो मुखर विरोध कर रहे हैं किंतु अकाली दल भी संतुष्ट नजर नहीं आ रहा। अरुण जैटली कह चुके हैं कि फैसले को वापिस नहीं लिया जा सकता। अगर फैसला वापिस लिया गया तो एक बड़ा वर्ग जो परेशानियां सह कर भी घोषित उद्देश्यों के कारण समर्थन कर रहा था, असंतुष्ट हो सकता है।
सब कुछ मिला कर नीतियों की कमजोरियां, कार्यांवयन में ढुलमुलपन, नेतृत्व में सामूहिकता की कमी, निहित स्वार्थों का दबाव, जनता की समस्याओं के प्रति उदासीनता आदि ही सामने आ रहा है। इस पर भी साम्प्रदायिकता फैलाने वाले संगठनों का दबाव भी सरकार की छवि को निरंतर बिगाड़ता रहता है। मोदी जी ने अपने सांसदों को जनता को समझाने की जिम्मेवारी सौंपी थी जिसे उन्होंने बेमन से स्वीकार किया है। निदा फाज़ली के शब्दों में कहा जाये तो-
कभी कभी यूं भी हमने अपने मन को समझाया है
जिन बातों को खुद नहिं समझे, औरों को समझाया है
देश की सरकार विश्वास के गहरे संकट से जूझ रही है 
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, नवंबर 16, 2016

मुद्रा का कायान्तरण और सामाजिकता के सवाल

मुद्रा का कायान्तरण और सामाजिकता के सवाल
वीरेन्द्र जैन

अचानक ही मुद्रा के रूप परिवर्तन की आपाधापी के कारण बहुत दिनों के बाद पूरा देश एक साथ हलचल में आ गया है क्योंकि वर्तमान व्यवस्था में प्राणवायु की तरह इसका जुड़ाव सभी से है। इसी कारण इस परिवर्तन का थोड़ा बहुत प्रभाव या दुष्प्रभाव सभी पर पड़ा है। यह क्रिया करने के पीछे एक कारण समाज के विभिन्न वर्गों के बीच चल रही समानांतर अर्थव्यवस्था जिसे काले धन के रूप में जाना जाता है, को सामने लाने की कोशिश भी बतायी गयी है इसलिए यह एक तरह का काम्बिंग आपरेशन भी है। गोपनीयता बनाये रखने की जरूरत के कारण इस अभियान को छापामारी शैली में चलाना पड़ा, ऐसा सरकार द्वारा बताया गया। इस अभियान की सफलता या असफलता इसके पूर्ण होने के बाद ही पता चल सकेगी पर इतना तय है कि समाज का एक बड़ा वह वर्ग इससे दुष्प्रभावित हुआ है जो इसके लिए सीधे सीधे दोषी नहीं है।
24\7 के न्यूज चैनल उस बड़े भवन की तरह हैं जिसके मालिक के पास उस भवन को सजाने के लिए पर्याप्त साजो सामान नहीं है इसलिए उसने उस भवन के खालीपन को दूर करने के लिए उसमें कबाड़ भर लिया है। पिछली शाम एक न्यूज चैनल के समाचारों में दिल्ली के एक एटीएम के सामने लगी महिलाओं की लम्बी लाइन में एक महिला फूट फूट कर रोती हुयी नजर आयी जो सम्वाददाता को बता रही थी कि उसकी बेटी का बर्थडे है और उसके पास केक खरीदने के लिए भी पैसे नहीं हैं। तोलोस्ताय के उपन्यास अन्ना कैरिन्ना का पहला वाक्य कुछ इस तरह है कि – सुख तो सबके एक जैसे होते हैं पर दुख के रंग सबके अलग अलग होते हैं। हो सकता है कि वह महिला भी अपनी इस मजबूरी पर उतनी ही दुखी हो जितना नजर आ रहा था किंतु सारी सहानिभूति के बाद भी मुझे वह दुख किसी राष्ट्रीय चैनल पर रोने लायक दुख नहीं लगा जबकि दूसरी ओर इस अभियान के कारण अब तक 23 मौतें हुयी बतायी गई हैं।
यह तो नजर आ रहा है कि काला धन बाहर निकालने के इस अभियान के संचालन में अनेक कमियां रही हैं और लोगों को तकलीफें उठानी पड़ी हैं किंतु हमारी सामाजिकता पर भी प्रश्न चिन्ह खड़े हुये हैं।
रहिमन विपदा हू भली, जो थोड़े दिन होय, हित अनहित या जगत में जान परत सब कोय।
 वस्तु विनमय में दुकानदार से लेकर ग्राहक तक विश्वास का एक रिश्ता चलता था व एक समानांतर बैंकिंग की तरह दुकानदार अपने ग्राहक को उसकी हैसियत के अनुसार जरूरत के समय उधार देता था। दूसरी ओर उसे भी थोक विक्रेता से उधार मिलता था। क्या यह रिश्ता बिल्कुल ही समाप्त हो गया है? क्या हमारे पड़ोस का लेनदेन का रिश्ता बिल्कुल नहीं बचा है और जरूरत के समय एक दूसरे को जरूरी सामान की मदद नहीं की जा सकती? इसी तरह रिश्तेदारियां, जाति समाज, धार्मिक संस्थाएं, या दूसरे सामाजिक संगठन जो जाति बाहर विवाह करने पर आसमान सर पर उठा लेते हैं, इस संवेदनशील परिस्थिति में भी सामने क्यों नहीं आये। नरेंन्द्र मोदी के पक्ष में सोशल मीडिया पर तुमुल कोलाहल मचाने वाले युवा और उनके कथित संगठन उनकी किसी नीति से उपजी अलोकप्रियता को बचाने के लिए समाज के पीड़ित हिस्से को मदद के द्वारा यह विश्वास दिलाने में सफल क्यों नहीं हुये कि सामान्यजन के लिए ये परेशानियां अस्थायी हैं। एक ओर जहाँ मुद्रा के पुराने रूप में होने के कारण अस्पताल में इलाज न मिल पाने के कारण मौतें हो रही हैं, वहाँ अस्पताल वालों को यह भरोसा दिलाने वाले क्यों दिखाई नहीं दिये कि व्यवस्था अभी कायम है और उन्हें चैक से भुगतान लेकर भी इलाज करना चाहिए। जब बार बार सरकार द्वारा यह बताया गया कि समस्या अधिकतम पचास दिनों के लिए ही है और ईमानदारों को कोई परेशानी नहीं होगी तो क्या सरकार के समर्थकों को भी सरकार की बात का भरोसा नहीं था!
इस लिव इन रिलेशन तक आ पंहुचे युग में भी धूमधाम से शादी न कर पाने वाले दूल्हा दुल्हन व उनके माँ बापों का इतना विस्तारित दुख पहले कभी नहीं देखा था। शादी में अगर रिश्तेदार और परिचित मित्र सहयोगी नहीं हो सकते तो पुराने दौर की शादियों का तरीका अपनाना क्यों जरूरी है जब महीनों पहले से मेहमान आ जाते थे और दावतों तक का सारा सामान घर में ही तैयार होता था। आखिर क्यों कोई दूल्हा दुल्हिन यह कहती नहीं नजर आयी कि कोई बात नहीं हम कोर्ट में शादी कर लेंगे। सामने परिस्तिथि देखते हुए भी आखिर शादी के इंतजाम का व्यवसाय करने वाले लोग क्यों चैक या ड्राफ्ट से भुगतान लेने को आगे नहीं आये।
सच तो यह है कि जो समाज भंग हो चुका है उसकी लाश को ढोते हुए हम उसी की परम्पराओं को ढोये जा रहे हैं जबकि या तो हमें समाज का कोई नया स्वरूप गढना चाहिए या परम्पराओं में समय के अनुसार परिवर्तन लाना चाहिए। हम नई जगह आकर भी पुराने त्योहारों को छोड़ नहीं पा रहे हैं और नये भी अपनाते जा रहे हैं भले ही उसके लिए उधार लेना पड़े। हम बाजार के दबाव में दीवाली, दुर्गापूजा, गणपति उत्सव, गरबा, करवा चौथ, छठपूजा, से लेकर वैलंटाइन डे, मदर’स डॆ, न्यू इयर आदि सब ओढते जा रहे हैं। क्या जाति समाज केवल प्रेम विवाह करने वालों को फांसी पर लटका देने तक ही शेष है? क्या उसे युवाओं की शिक्षा, रोजगार आदि की चिंता करने की जरूरत महसूस नहीं होती? राजनीतिक दलों और उनके संगठनों के सदस्यों के सम्बन्ध क्या केवल वोट डालने डलवाने तक ही सीमित हैं? आज जिस पार्टी की सरकार है उसके समर्थक उसकी योजना के पक्ष में नेता की लोकप्रियता को बचाने के लिए सहयोग करने क्यों आगे नहीं आये? मुद्रा तो केवल संसाधन है जिसके सहारे भी अंततः मानवीय सहयोग ही जुटाया जाता है।
इस परिघटना के सहारे क्या हम अपने सामाजिक राजनीतिक सम्बन्धों के स्वरूप पर विचार करॆंगे।
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, नवंबर 10, 2016

कूटनीतिक चालें और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव

कूटनीतिक चालें और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 
वीरेन्द्र जैन

वैसे तो हमारे ढीले ढाले लोकतंत्र में किसी को भी सहज रूप से राजनीतिक पार्टी बनाने और चुनाव लड़ने का अधिकार है और कई ‘धरती पकड़’ पार्षद से लेकर राष्ट्रपति पद तक का फार्म भर के इस ढीले ढाले पन का उपहास करते रहते हैं पर उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में चार प्रमुख दलों के बीच टक्कर मानी जा रही है। रोचक यह है कि ये चारों दल राजनीतिक दल के नाम पर चुनावी दल हैं और सामाजिक राजनीतिक आन्दोलनों से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है, भले ही इनका ‘शुभ नाम’ कुछ भी हो। ये चारों दल पिछली परम्परा के अनुसार अपना अपना चुनावी घोषणा पत्र जारी करेंगे जिसका उनके कार्यक्रमों से कोई सम्बन्ध नहीं होगा क्योंकि ये दल कोई राजनीतिक कार्य करते ही नहीं हैं, एक से दूसरे चुनाव के बीच जो कुछ भी करते हैं वह चुनावी सम्भावनाओं से जुड़ा होता है।
उक्त चार दलों में से तीन दल राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल हैं, और एक राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त दल है। विडम्बना यह है कि इनमें से भी केवल एक दल ही राष्ट्रव्यापी दल कहा जा सकता है और यही दल सबसे कमजोर स्थिति में है। दूसरा दल पश्चिम मध्य भारत का दल है जो केन्द्र में सत्तारूढ है व उद्योग व्यापार वालों की पसन्द का दल होते हुए भरपूर संसाधन जुटा लेता है जिसके सहारे वह साम्प्रदायिक संगठनों को बनाये रखता है। ये संगठन चुनावों के दौरान ऐसा ध्रुवीकरण करते हैं कि उसे चुनावी लाभ मिल जाता है। इस दल की पहचान भले ही एक साम्प्रदायिक दल की है किंतु इसकी साम्प्रदायिकता की प्रमुख दिशा चुनाव केन्द्रित ही रहती है व शेष समय में इसके साम्प्रदायिक संगठन ध्रुवीकरण हेतु भूमि विस्फोटक [लेंड माइंस] बिछाने में लगे रहते हैं। तीसरा राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल एक जातिवादी दल है जो आरक्षण के आधार पर लाभांवित वर्ग में पैदा की गयी जातीय चेतना के भरोसे उनके सहयोग से चलता है। ये वह वर्ग है जिसने सरकारी नौकरियों में आकर पाया कि सवर्णों में उनके प्रति अभी भी नफरत बनी हुयी है और वे उन्हें मुख्यधारा में स्वीकार नहीं करते। स्थानीय निकायों के चुनावों और पंचायती व्यवस्था के चुनावों से लेकर सशक्तीकरण योजनाओं में भी इन्हें आरक्षण का लाभ मिला है जिस पर वे लगातार खतरा महसूस करते रहते हैं व इस भय के कारण एकजुट हो गये हैं। यह दल आंकड़ागत रूप से भले ही राष्ट्रीय दल की मान्यता पा गया हो, किंतु चुनावी दृष्टि से मूल रूप से यह उत्तरप्रदेश तक सीमित क्षेत्रीय दल ही है क्योंकि अभीतक और कहीं भी यह स्वतंत्र सरकार बना पाने में सफल नहीं हुआ है। यह दल अपने चुनावी खर्चों के लिए सवर्णों के उम्मीदवारों से सौदा करके  भी संसाधन जुटाता है। इसका अपना एक सुनिश्चित वोट बैंक बन गया है जिसमें अगर कोई दूसरा वर्ग सहयोग कर देता है तो इनकी जीत की स्थितियां बन जाती हैं व न मिलने पर वे ठीक प्रतिशत में अपने वोट पाकर भी हार जाते हैं। गत लोकसभा चुनाव में चार प्रतिशत वोट पाकर भी वे एक भी सीट नहीं जीत सके। कहा गया था कि ‘हाथी’ ने अंडा दिया है।
चौथी पार्टी राज्य स्तर की अधिमान्य पार्टी है और वर्तमान में वही सत्तारूढ है , अपने नाम में जुड़े समाजवाद शब्द से उनका अब कोई सम्बन्ध नहीं है। यह पार्टी पिछड़े वर्गों की एक जाति के वोटों तक सीमित पार्टी है और इसे भी किसी अन्य के समर्थन की जरूरत बनी रहती है। 2007 और 2012 के परिणाम बताते हैं कि समर्थन मिल जाने पर वे सरकार बना लेते हैं, और न मिले तो हार जाते हैं। इनका जातिगत समर्थन सरकार द्वारा देय सत्ता के लाभों के पक्षपात पूर्ण वितरण से बना है। पुलिस की सहायता से वे आपराधिक भावना वाले अफसरों, व्यापारियों से धन की वसूली भी करते रहते हैं। सरकारी ठेके और खदानों के अपने लोगों के बीच आवंटन से वे बहुत अर्थसम्पन्न हो चुके हैं और पहली बार मिले इस स्वाद को बनाये रखने हेतु एकजुट रहना चाहते हैं।
इस प्रदेश में समुचित संख्या में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं जो संघ परिवार के सच्चे- झूठे आतंक से ग्रस्त होने के कारण भाजपा को हराना अपना प्रमुख ध्येय मान कर वोटिंग करते हैं और जो दल इस स्थिति में नजर आता है उसे अपना एकजुट समर्थन देकर जीतने में सहायता करते हैं। कभी काँग्रेस तो कभी समाजवादी और कभी बसपा उनके योगदान से लाभांवित होते रहे हैं।
ये चारों ही प्रमुख दल सत्ता की शक्ति और सम्पत्ति हथियाने के लिए लालायित नेताओं से भरे हुये हैं जो अपना लक्ष्य पाने के लिए किसी भी दल में सुविधानुसार आते जाते रह्ते हैं और भविष्य में भी ऐसा आवागमन कर सकते हैं। हाल ही में इनमें से हर दल में दूसरे दल में रह चुके नेता सहज रूप से आ चुके हैं और यह सिलसिला लगातार जारी है। ये सभी कभी न कभी सत्तारूढ रह चुके हैं और भरपूर अवैध धन सम्पत्ति के सहारे चुनावों में धन के प्रवाह द्वारा वोटों में वृद्धि के लिए तैयार थे, किंतु बड़े नोटों पर लगे प्रतिबन्धों ने उनको रणनीतियों में परिवर्तन के लिए बाध्य कर दिया है। इनमें से किसको कितना नुकसान हुआ है इसका आंकलन अभी शेष है किंतु केन्द्र की भाजपा सरकार ने इसे लागू किया है अतः अनुमान किया जा सकता है कि उसने पहले ही सावधानी पूर्वक उचित समय पर पांसे चले होंगे।
सच तो यह है कि यह कोई लोकतांत्रिक लड़ाई नहीं है अपितु सामंती युग का सत्ता संग्राम है जिसे नये हथियारों से लड़ा जाना है। इनमें षड़यंत्र, दुष्प्रचार, झूठ, धोखे, सिद्धांतहीनता, वंशवाद, दलबदल,  जातिवाद, साम्प्रदायिकता, अवैध धन, बाहुबलियों के दबाव, आदि का प्रयोग होगा। सबके पास अपने अपने मिसाइल हैं और अपने अपने कवच हैं। सब एक दूसरे का प्रत्यक्ष और परोक्ष सहयोग लेते देते रहे हैं और उसके लिए अभी भी तैयार हैं। चुनावों का विश्लेषण करते हुए कुछ लोग सैद्धांतिकता का छोंक लगाने की कोशिश करते हैं जो अंततः हास्यास्पद हो जाती है। राजनैतिक चेतना सम्पन्न वोट इतनी कम संख्या में है कि वह चुनाव परिणामों पर प्रभाव नहीं डालता। काँग्रेस किंकर्तव्यविमूढ होकर किराये के चुनावी प्रबन्धक के सहारे है, सपा और बसपा अपने जातिगत मतों के सहारे है व भाजपा दलबदल से लेकर दंगों और बेमेल गठबन्धनों तक कुछ भी कर सकती है।
यह चुनाव नहीं महाभारत का संग्राम है जहां युद्ध जीतने के लिए शकुनि की चालें व कृष्ण की कूटनीतियां सब काम करेंगी।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, अक्तूबर 26, 2016

इन राजनेताओं में किसी का ज़मीर क्यों नहीं जागता

इन राजनेताओं में किसी का ज़मीर क्यों नहीं जागता
वीरेन्द्र जैन



महावीर और बुद्ध के जमाने से सुनते आये हैं कि एक तृप्ति के बाद जीवन में वैराग्य भाव पैदा होता है और व्यक्ति अपने जीवन के पिछले भाग में की गयी भूलों के प्रति पश्चाताप करता है और सब कुछ त्याग देता है। इनमें से कुछ तो इसलिए स्मरणीय हो गये हैं कि उन्होंने यह प्रयास किये कि अपने स्वार्थ में जो समाज विरोधी भूलें उन्होंने कीं हैं उन्हें कोई दूसरा न करे। इसके लिए उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी जिसमें अपनी भूलों को स्वीकारा। महात्मा गाँधी ने अपनी आत्मकथा का नाम ही रखा है ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ । वे अपनी आत्मकथा के प्रारम्भ में ही लिखते हैं कि कैसे उन्होंने बचपन में पैसे चुराये, बीड़ी पी, और परिवार में वर्जित मांसाहार किया।
इस दौर के कुछ राजनेताओं ने भी अपने संस्मराणात्मक लेखन को आत्मकथा का नाम दिया है किंतु वह आत्म प्रशंसा से अधिक कुछ भी नहीं है। निर्धनता के खिलाफ अपने संघर्ष को भी इतना बढा चढा कर बताया है ताकि उनकी वह बहादुरी प्रकट हो जो उनमें कभी रही ही नहीं।
आज़ादी के बाद के राजनीतिक इतिहास को देखें तो पाते हैं कि नेहरू युग के बाद लगातार षड़यंत्रकारी राजनीति चली जिसमें अनैतिक रूप से धन अर्जित करने वालों ने अधिकारियों, राजनेताओं को ही नहीं अपितु मुख्यधारा के प्रमुख राजनीतिक दलों को निरंतर भ्रष्ट किया। इन सब ने न केवल उद्योगपतियों व विदेशी शक्तियों से ही धन लिया अपितु अपराधियों से भी धन लेकर उनके अपराधों को प्रोत्साहित किया। इस क्रिया ने न केवल हमारे विकसित होते लोकतंत्र की दिशा को असमय आहत किया अपितु न्यायतंत्र को भी प्रभावित किया। 1967 के बाद से इसकी धारावाहिकता इतनी अधिक है कि किसी एक वर्ष या किसी एक घटना की चर्चा कर देने से बात नहीं बनती। आश्चर्य तो यह है कि मीडिया में इनकी कहानियां छुटपुट रूप से आती रही हैं किंतु किसी भी राजनेता ने अपने मुँह से इन कहानियों को बता कर प्रायश्चित नहीं किया।
जब दलबदल कानून लागू नहीं हुआ था तब आयाराम – गयाराम संस्कृति का विकास हुआ था और जहाँ पक्ष विपक्ष में सदस्यों की संख्या में न्यूनतम अंतर होता था तब मंत्री पद न पाने वाले अनेक सक्षम विधायक दूसरे दल के साथ टांका भिड़ाने में लगे रहते थे और दर्जनों बार इसी कारण से सरकारें गिरीं और बनी हैं। इस तरह के दल बदल को ‘ह्रदय परिवर्तन’ भी कहा गया पर वह न तो ह्रदय से जुड़ा होता था और न विचारों से। यह शुद्ध रूप से अनैतिक सौदा होता था जिसमें वित्तीय संसाधन कोई सरकार से असहमत उद्योगपति ही जुटाता था और दलबदल करने वाले विधायक को अधिकांश मामलों में समुचित राशि दी जाती थी। भेड़ बकरियों के रेवड़ की तरह ऐसे विधायकों को घेर कर अनजान स्थानों के अच्छे होटलों में ले जाकर शराब और शबाब में डुबो दिया जाता था व तय समय पर विधानसभा में प्रकट करा दिया जाता था। दो ढाई दशक तक अनेक संविद सरकारों का गठन और पतन इसी तरह हुआ। अभी अभी महाराष्ट्र के पूर्व उप मुख्य मंत्री का एक कथन समाचार पत्रों में आया है जिसमें उन्होंने कहा है कि पहले 50-50 लाख रुपये में विधायक पाला बदल लेते थे पर अब पार्षद तक इतने में हिलते भी नहीं हैं। केन्द्र की अल्पमत सरकारों के दौर में किस तरह समर्थन जुटाया जाता रहा उसका नमूना 1990 से 2004 तक खूब देखा गया है। नरसिंह राव सरकार के खिलाफ आये अविश्वास प्रस्ताव के समय शराब में डूबा हुआ एक सांसद तो नशे में गलत बटन ही दबा देता है जिसे बाद में ठीक किया जाता है। विधेयकों को पास कराने में किस तरह से सौदे होते हैं उसे 2008 में परमाणु संधि विधेयक को पास कराने के समय देखने को मिला जिसमें समाजवादी पार्टी ने दो दिन के अन्दर ही अपना पाला बदल लिया था और भाजपा समेत कई दलों के अनेक सांसद अनुपस्थित हो गये थे। नोटों की गिड्डियां सदन में दिखायी गयी थीं। पिछले अनेक चुनावों के दौरान करोड़ों रुपयों से भरी गाड़ियां पकड़ी जाती रही हैं पर बाद में पता ही नहीं चलता कि उस पैसे का स्त्रोत क्या था और वह कहाँ गया या किसको दण्डित किया गया। चुनावों से जुड़ी हिंसा में चयनित हत्याओं की अनेक कहानियां हैं, जो भुला दी जाती हैं। वोट काटने वाले दलों के नेताओं को चुनावों के लिए धन का लेन देन लगातार चल रहा है।
इस तरह के अनेक अपराध निरंतर होते रहे हैं और कानून की अपनी सीमाएं हैं किंतु इनमें  सम्मिलित किसी भी राजनेता ने अभी तक इस सन्दर्भ के किसी सच को प्रकट नहीं किया है। कल्पना करें कि अगर अमर सिंह, शरद पवार या अमित शाह में कभी वैराग्य भाव जागृत हो जाये और वे अपने जीवन के सच प्रकट करें तो देश की राजनीति में कितना भूचाल आ जाये। पिछली सदी के सातवें दशक से इस तरह के अवैध व्यापार में कई हजार लोग सम्मलित रहे हैं किंतु किसी ने भी वादा माफ गवाह की तरह भी उसको प्रकट नहीं किया है जिससे उस वृत्ति और उन्हें पनपाने वालों की पहचान अखबारों के अनुमानों से आगे निकल सके।
स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख पार्टी होने, तथा दलितों व अल्पसंख्यकों के सुनिश्चित मतों की स्वाभाविक पार्टी होने के साथ साथ काँग्रेस सत्ता की सुविधाओं के कारण लम्बे समय तक सहज ही सरकार में रही है जिसे अपदस्थ करने के लिए भाजपा ने सबसे अधिक कूटनीतियों को बुना है और उनके लिए सभी तरह की नैतिकताओं की तिलांजलि दी है। उसके अनेक वरिष्ठ नेताओं को रिटायर कर दिया गया है व अब उनकी वापिसी सम्भव नहीं दीखती। यदि उम्र के इस पड़ाव पर उनका ज़मीर जागे और वे लोकतंत्र के हित में सच को प्रकट करने का साहस दिखायें तो राजनीति का बहुत सारा धुंधलका छंट सकता है।
काश ऐसा हो पाता !   
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, सितंबर 23, 2016

उत्तर प्रदेश का घटनाक्रम और कुछ बुनियादी सवाल

उत्तर प्रदेश का घटनाक्रम और कुछ बुनियादी सवाल
वीरेन्द्र जैन

उत्तर प्रदेश सरकार में गत दिनों जो कुछ चला, वह एक पार्टी या एक प्रदेश सरकार के संकट से अधिक, ऐसे संकटों की जड़ों को समझने की जरूरत बताता है। देश की विभिन्न सरकारों, विभिन्न दलों, और लोकतंत्र के विभिन्न स्तम्भों के बीच लगातार ऐसे ही टकराव चल रहे हैं जो कभी सतह पर आ जाते हैं और कभी अन्दर ही अन्दर व्यवस्था को खोखला करते रहते हैं। हमारा संविधान एक अच्छा संविधान है किंतु हमारे समाज से उसके अनुरूप ढलने की जो अपेक्षा की गयी थी, उसकी गति बहुत धीमी रही। परिणाम यह हुआ है कि बिना बड़े सामाजिक परिवर्तन के यह संविधान समाज के साथ साम्य नहीं बैठा पा रहा है।  
उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार की वास्तविक स्थिति यह है कि वहाँ कहने को तो समाजवादी नाम की पार्टी की सरकार है किंतु वह उतनी ही समाजवादी है जितने कि पूर्व राजपरिवार के सदस्य अपने आप को महाराजा, कुँवरसाहब, राजमाता, नबाब आदि कहते, कहलवाते हैं। पहलवान मुलायम सिंह ने कभी लोहिया जी से गंडा बँधवा लिया था और खुद को समाजवादी कहने लगे थे किंतु अमर प्रेम में पड़ने के बाद उन्होंने लोहियाबाद से ऐसा पीछा छुड़ाया कि केवल समाजवादी शब्द ही इस तरह शेष रह गया जिस तरह कि बन्दर से आदमी बनने के बाद भी पूंछ का अंतिम वेर्टेब्रा बाकी बचा हुआ है। वे कभी समाजवादी मूल्यों के पक्षधर की तरह प्रविष्ट हुये थे और उनका राजनीतिक कद भी वैसा ही था जैसा कि शेष समाजवादियों का रहा, पर मंडल कमीशन आने के बाद वे अपने पहलवान पट्ठों के उस्ताद से यादवों के नेता के रूप में बदल गये जिन्होंने पहले बहुजन समाजवादी पार्टी के सहयोग से और बाद में संघ की हिंसा से आतंकित मुसलमानों के सहयोग से समाजवादी [यादववादी] सरकार बनायी। राममन्दिर का सूत्र हाथ आने के बाद संघ परिवार ने जिस तरह से देश में साम्प्रदयिक विभाजन का सपना देखा था उसमें बहुसंख्यकों का सम्भावित वर्चस्व तोड़ने के लिए सवर्ण सशक्त चतुर हिन्दुओं को मेहनतकश जातियों से दूर करने की आवश्यकता थी और इसी आवश्यकता ने मंडल आन्दोलन को जन्म दिया था। इस आन्दोलन का पिछड़ी जातियों के उत्थान से न कोई वास्ता था और न ही इसका कोई सामाजिक असर हुआ। इसी मंडल आन्दोलन ने श्रीमती इन्दिरा गाँधी के बाद उपजे शून्य को भरने के लिए कूद पड़े संघ परिवार को देश पर झपट्टा नहीं मारने दिया। इस बीच पहलवान मुलायम सिंह को अमर सिंह जैसा व्यक्ति मिल गया जिसके पास वह सब कुछ था जो मुलायम सिंह के पास नहीं था, और जिसे वह सब कुछ चाहिए था जो मुलायम के पास था। वाक्पटुता, प्रत्युन्न्मति, बयानबाजी, सौदेबाजी तथा पार्टी चलाने और धन की ताकत वाले विरोधियों से मुकबला करने के लिए कोष की व्यवस्था करने वाला भी चाहिए था। अमरसिंह ने मुलायम सिंह की समस्त कमियों की पूर्ति की जिसके बदले में जनसमर्थन विहीन अमरसिंह ने पद प्रतिष्ठा का उपहार पाया। सफल राजनीति के लिए दोनों ही कोणों को साधने की जरूरत होती है। मुलायम सिंह ने सोचे समझे ढंग से सरकार से मिलने वाले सारे लाभ अपनी जाति के लिए लुटा दिये जिससे पहली बार उनके जाति समाज को सत्ता की मिठाई का स्वाद चखने को मिला और ये समझ में आया कि हम जिन सवर्णों के लिए लठैती करते रहे वह लाभ तो खुद भी उठा सकते हैं बशर्ते कि सरकार हमारी ही बनी रहे। अब पूरे उत्तर प्रदेश में उनकी जाति के सूबेदार अपने हित में यादववादी सरकार बनाने के लिए कृतसंकल्प रहते हैं बशर्ते जीत के लिए किसी अन्य समुदाय का साथ मिल जाये। विचार से जुड़ी नहीं होने के कारण उनकी कथित पार्टी का विस्तार इलाके से बाहर नहीं हुआ। सीधे चुनाव में उन्हें अपनी जाति और परिवार के बाहर सफलता नहीं मिली।  
सत्ता पाने और बनाये रखने के लिए जो अनियमितताएं करनी होती हैं उसके अपने वैधानिक खतरे होते हैं, जिनसे बचने के लिए सत्ता सुख में डूबे दल निरंतर असुरक्षा की भावना में जीते हैं। यह भावना उन्हें किसी भी तरह से सुरक्षातंत्र को लगातार मजबूत करने के लिए प्रेरित करती है। धन का संचय भी ऐसा ही एक उपाय है। अनियमितताओं के समानांतर कानून भी अपना काम करता रहता है। लोकतंत्र में सत्ता भी दीर्घकालीन नहीं होती इसलिए तंत्र से बचाव भी करते रहना पड़ता है। 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद अचानक अखिलेश को मुख्य मंत्री बनाना इसी सावधानी का हिस्सा था।
अमर सिंह की सलाह की सीमा में बंध जाने के बाद मुलायम सिंह ने सिर्फ और सिर्फ सत्ता की राजनीति की। अपनी सत्ता और उसके तंत्र को बचाये रखने व बढाने के लिए उन्होंने अपने प्रत्येक सहयोगी को धोखा देकर राजनीतिक लाभ उठाया। वीपी सिंह की सरकार उन्हीं के कारण गिरी थी, राष्ट्रपति के चुनाव व परमाणु समझौते के सवाल पर उन्होंने सीपीएम को धोखा दिया, प्रधानमंत्री पद के लिए सोनिया गाँधी को धोखा दिया, गठबन्धन के सवाल पर ममता बनर्जी को धोखा दिया बिहार चुनाव में लालू प्रसाद को धोखा दिया बगैरह। अमर सिंह को झूठमूठ का निकालने और वापिस ले लेने के मामले में अपने ही आज़म खान व रामगोपाल यादव को धोखा दिया तथा 2012 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री प्रत्याशी का नाम छुपा कर अपने मतदाताओं को धोखा दिया। सच तो यह है कि समाजवादी पार्टी में न कोई समाजवादी है और न ही कोई किसी सिद्धांत के साथ है न पार्टी जनता के साथ है। यह सत्ता पाने वाला एक गिरोह है जिसमें यादव सिंह जैसे हजारों करोड़ के इंजीनियर और मथुरा कांड जैसे भूमि अतिक्रमण वाले माफिया सुरक्षा पाते रहते हैं। वोटों के लिए बनावटी धर्म निरपेक्षता और भीतरी जोड़ तोड़ चलती रहती है। जब हित टकराने लगते हैं तो हलचल सामने आ जाती है।
मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, समेत समस्त छोटे राज्यों में इसी तरह की उठापटक चलती रहती है जिनके स्वरूप भिन्न हो सकते हैं किंतु बुनियाद एक जैसी है। इन्हें देख कर लगता है कि हम ऐसे सामंती युग में जी रहे हैं जिसका पूंजीवाद के साथ कोई टकराव नहीं है। इसे बदलने के लिए एक नये तरह के बड़े सामाजिक आन्दोलन की जरूरत है। ऐसे परिवर्तन की प्रतीक्षा में हम कभी जेपी के आन्दोलन, कभी वीपी सिंह, अन्ना, आम आदमी पार्टी, के पास भटकते हैं, पर अंततः निराश होते रहे हैं। नोटा के वोटों की वृद्धि कुछ संकेत दे रही है जिसे समझने की जरूरत है।
वीरेन्द्र जैन
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