बुधवार, अक्तूबर 07, 2015

अडवाणी जी के नाम खुला खत

 अडवाणी जी के नाम खुला खत
वीरेन्द्र जैन

मान्यवर,
अभिवादन, और उम्मीद कि आप सदा की तरह स्वस्थ होंगे।
पत्र प्रारम्भ करने से पहले एक लतीफा।
एक अध्यापक ने कक्षा में आकर छात्रों से कहा कि एक सवाल का उत्तर बताओ। ‘ दिल्ली से मुम्बई की ओर एक जहाज पाँच सौ किलोमीटर प्रति घंटा की गति से उड़ता है तो मेरी उम्र क्या है?’ यह सवाल सुन कर सारे छात्र हक्के बक्के रह गये किंतु पीछे बैठने वाले कक्षा के सबसे शैतान छात्र ने हाथ खड़ा कर दिया। वह इकलौता था इसलिए  अध्यापक ने उसे उत्तर बताने की अनुमति दी। उसने उत्तर में कहा कि ‘सर आपकी उम्र चालीस साल है’। उत्तर सुन कर अध्यापक गदगद हो गये और उसकी पीठ ठोकते हुए बोले, शाबाश, तुम इस कक्षा के सबसे समझदार लड़के हो, अब तुम इन मूर्खों को बताओ कि तुमने कैसे हिसाब लगाया और सही उत्तर तक पहुँचे।
छात्र गम्भीरतापूर्वक बोला- सर, मेरा एक भाई है, जो आधा पागल है और उसकी उम्र बीस साल है।
यह लतीफा आप पर लागू नहीं होता क्योंकि आप भारतीय राजनीति के सबसे वरिष्ठ, समझदार और चतुर राजनेता हो किंतु अगर किसी अन्य व्यक्ति ने वह बयान दिया होता जो आपने आगरा में एक पुस्तक के लोकार्पण समारोह के दौरान दिया, जिसमें आपने कहा कि ‘दादरी कांड पर यदि मैं कुछ बोलूंगा तो अटलजी नाराज हो जायेंगे’ तो उस पर यह अवश्य लागू हो जाता।  
देश के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी उम्र और स्वास्थ की उस अवस्था में हैं जब व्यक्ति नाराज होना भूल जाता है, यह बात आप अच्छी तरह से जानते हैं। ऐसी दशा में आप जैसे वरिष्ठ और सुलझे हुए व्यक्ति का उपरोक्त बयान हमें उस दशा में छोड़ देता है जो दशा हिन्दी के सामान्य पाठक की किसी बहु-पुरस्कृत कवि की नईकविता पढने के बाद होती है, जिसमें वह मानता तो है कि कविता उसे समझ में नहीं आयी किंतु वह दोष कवि की रचना प्रक्रिया को देने की जगह खुद की नासमझी को ही देता है।
आदरणीय, आप चाहते तो ‘नो कमेंट’ कह कर भी काम चला सकते थे, किंतु आपने वैसा नहीं किया। आप चाहते तो दादरी के हत्यारों को बेकसूर बता सकते थे, महेश शर्मा की तरह इसे दुर्घटना बता सकते थे व सत्तरह साल की लड़की को हाथ न लगाने के महान त्याग का बखान कर सकते थे, पर आपने वैसा भी नहीं किया। दूसरी ओर आपने खानपान के नाम पर मुसलमान परिवार को हमले का लक्ष्य बनाने की भावना की निन्दा भी नहीं की, उसमें कोई राजनीति भी नहीं देखी। आपने कहा कि ‘सरकार काम कर रही है। लेकिन आगे और बहुत कुछ करना होगा’। इस वाक्य में भी समर्थन और विरोध दोनों ही निहित हैं। परिणाम भी ऐसा ही निकला है जिसमें समर्थकों ने समर्थन तलाश लिया और विरोधियों ने विरोध के संकेत पा लिये। पहले भी आपके बयान इतने बहुअर्थी हुआ करते थे कि आपको बयान बदलने या उसे तोड़ मोड़ कर पेश करने वाला बताने की अधिक जरूरत नहीं पड़ी।
पिछले दिनों वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने कहा था कि वर्तमान सरकार ने अपने पचहत्तर पार नेताओं को ब्रेन डैड मान लिया है। उनका आशय था कि अनुभवी स्वस्थ नेताओं का उनके कद के अनुरूप कोई सदुपयोग नहीं किया जा रहा है। जाहिर है कि इनमें वे स्वयं अपनी और विशेष रूप से आप, शांता कुमार और मुरली मनोहर जोशी की ओर इंगित करते महसूस हो रहे थे। उनके इस स्पष्ट बयान के बाद भी पार्टी में कोई हलचल नहीं हुयी। इस जैसे अन्य कई बयान भी सूखी रेत में गिरे पनी की तरह सोख लिये गये। सवाल यह है कि क्या भाजपा अब जीवंत लोगों का समूह है या केवल मृतक समान लोगों की भीड़ भर होकर रह गयी है। आप पार्टी के सबसे वरिष्ठ, सबसे अनुभवी, सबसे चतुर, राजनेता थे जो कई बार राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे, पार्टी निर्माण की सबसे प्रमुख योजनाओं के वास्तुकार रहे, संवैधानिक पदों पर रहे तथा उपप्रधानमंत्री के रूप में काम करते हुए परोक्ष में प्रधानमंत्री रहे। पार्टी में आपके प्रशंसक भी समुचित रहे। फिर ऐसा क्या हो गया था कि जब मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के रूप में मनोनीत करने के खिलाफ आपने त्यागपत्र दिया तो आपके साथ बहुत  सारे लोग खड़े नहीं हुये जबकि शांता कुमार और शिवराज सिंह चौहान जैसे बहुत सारे लोग मोदी को उस पद पर नहीं देखना चाहते थे। कहने का अर्थ यह है कि पार्टी जिस लोकतांत्रिक स्वरूप का दावा करती थी वह कहीं नजर नहीं आया। तय था कि प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी का चुनाव अगर लोकतांत्रिक तरीके से हुआ होता तो आपका पलड़ा भारी रहा होता भले ही चुनाव परिणाम कुछ भिन्न आते। संजय जोशी को बाहर करने के मामले में भी कहीं लोकतंत्र नजर नहीं आया। सच्चा लोकतंत्र तब ही होता है जब फैसला बहुमत का माना जाये किंतु उस फैसले की आशंका से अल्पमत खुद ही अपनी आवाज दबा देने को मजबूर न हो। चिंता की बात तो यह है कि भाजपा में आवाज उठना ही बन्द हो गयी है। इमरजैंसी के दौरान इन्दिरा गाँधी की चापलूसी करने इन्दिरा को इंडिया बतलाने या संजय गाँधी के जूते उठाने वालों की सबसे कटु निन्दा भाजपा के नेता ही करते रहे हैं। काश आपने मध्य प्रदेश के वर्तमान पार्टी अध्यक्ष द्वारा मोदी और शिवराज को भगवान व देवता बताये जाने वाले भाषण सुने हों। जब राम जेठमलानी, शांता कुमार, आर के सिंह, या शत्रुघ्न सिन्हा कोई अलग बात कहते हैं तो सबके मुँह में दही जम जाता है। उन बयानों पर कोई तर्क वितर्क नहीं होता। अमित शाह जैसे व्यक्ति को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में बिना चूं चपड़ के सह लिया जाता है। आखिर ऐसा क्या डर है कि आप जैसा वरिष्ठ नेता भी अपनी बात को घुमा फिरा कर कहे जिसका कोई स्पष्ट सन्देश नहीं जा रहा हो। क्या जीवन की लम्बाई इतनी कीमती है कि आदमी अपनी जुबान कटा कर और हाथ पैर बँधवा कर भी बना रहे। मुँह से गों गों की ऐसी आवाज निकाले जो किसी की समझ में ही नहीं आये। आप जैसे अनुभवी व्यक्ति को संकेत मिल रहे होंगे कि असंतोष कितना है किंतु वह अन्दर ही अन्दर खलबला रहा है। जार्ज आरवेल के ऎनिमल फार्म  सोल्झेनित्सिन के वार्ड नम्बर नौ या ‘1984’  से भी बुरे हाल हैं।
आदरणीय, इस आवाज को बाहर निकलने के लिए कुछ कीजिए बरना यह अन्दर ही अन्दर जहर बन जायेगी और यह जहर कब, कहाँ, कैसे फूटेगा यह कहा नहीं जा सकता।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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गुरुवार, अक्तूबर 01, 2015

यह एक ‘अखलाक’ की नहीं अखलाक की हत्या है

यह एक ‘अखलाक’ की नहीं अखलाक की हत्या है
वीरेन्द्र जैन

            आम आदमी तो कभी भी कहीं भी मर सकता है, वह सड़क पर दुर्घटना में मर सकता है, भूकम्प में मर सकता है, वह मस्ज़िद में क्रेन गिरने से मर सकता है, मन्दिर में जल्दी दर्शन की भगदड़ में मर सकता है, केदारनाथ के तूफान में मर सकता है, किसी रथयात्रा या कुम्भ के शाही स्नान में कुचला जा सकता है। वह कांवड़ियों के रूप में ट्रक के नीचे आ सकता है, असली नकली आतंकियों के विस्फोटों का शिकार हो सकता है, वह ट्रेन दुर्घटना में मर सकता है या किसी फैक्ट्री में लगी आग या निर्माणाधीन इमारत के गिर जाने से मर सकता है| अगर आप आम आदमी हैं, तो आपकी मौत देश और समाज की अपूरणीय क्षति नहीं होती। वह चर्चा और सूचना माध्यमों की खबर भी नहीं बनती। उस आदमी की मौत तब ही चर्चा का विषय बनती है जब वह असमय और अस्वाभाविक हो। ऐसा इसलिए होता है कि मृत्यु को थोड़ी दूर मानने वाले समाज के दूसरे लोगों की कल्पना में उनकी अपनी मौत नाचने लगती है।
      नोएडा जिले के बसोहड़ा गाँव में अखलाख की हत्या देश की अपूर्णीय क्षति के रूप में नहीं देखी जायेगी, क्योंकि वह एक मामूली लोहार था। पर उसकी हत्या जिस समय, जिस तरह से,  जिन कारणों से, की गयी वह देश देश को ऐसी क्षति पहुँचा सकती है जिसकी पूर्ति होने पर भी निशान सदा बना रहता है। 
      पुराने लोग कहते थे कि झगड़े के मुख्य रूप से तीन कारण होते हैं, ज़र [धन], ज़ोरू और ज़मीन। ग्राम बसोहड़ा में घटी उपरोक्त तरह की घटनाओं में प्राथमिक रूप से तीनों कारण ही नज़र नहीं आते। यही कारण है कि ये अधिक चिंता का विषय हो जाता है। दुश्मन या बीमारी का पता हो तो उसे रोकने का प्रयास किया जा सकता है, सावधानी रखी जा सकती है, किंतु जब बीमारी और दुश्मन अमूर्त हो तो खतरा कभी भी हो सकता है। खेद का विषय है कि हम खतरों के प्रति लगातार लापरवाह बने हुए हैं। असमय मौतों की कथाएं मुआवजे के साथ ही समाप्त मान ली जाती हैं। न तो उनके कारणों की गहराई में जाया जाता है, और न ही ऐसे उपाय तलाशे जाते हैं ताकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। 
      अखलाक की हत्या की सच्ची या झूठी जिम्मेवारी किसी ने नहीं ली। पुलिस द्वारा गिरफ्तार प्रत्येक व्यक्ति हमेशा की तरह खुद को निर्दोष व घटनास्थल से अनुपस्थित बतला रहा है जो इस बात का संकेत है कि या तो यह हत्या किसी विचार से जुड़ी नहीं है या हत्यारे खुद भी उस विचार को सामने रखने का साहस नहीं रखते और किसी टुच्चे अपराधी की तरह अपना सीमित स्वार्थ हल करना चाहते थे। अपराधियों से मृतक का न तो कोई सम्पत्ति का विवाद था, न लेन देन का। उन्होंने न तो चोरी की और न ही बलात्कार के इरादे से आये थे। जब ये कुछ नहीं था तो इस घटना के पीछे जिन कारणों के संकेत मिलते हैं वो वही सबसे बड़ा खतरा हैं। सूचना माध्यमों के विस्तार, उनके डिजिटिलीकरण ने सन्देशों को क्षणों में विश्वव्यापी कर देने की क्षमता प्राप्त कर ली है। सूचना की इस शक्ति को अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोग निशि-दिन हाथ में लिए घूमते हैं। यही कारण है कि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से लाभान्वित होने वाले लोग चुनावों के दौरान एक दूर की जगह साम्प्रदायिकता फैला कर दूसरी जगह लाभ उठाने का प्रयास करने लगे हैं। 
      खतरा यह है कि वे अपराधी देश की राजनीति की मुख्यधारा में आ गये हैं जो जर जोरू जमीन के लिए सत्त्ता पर अधिकार करना चाहते हैं, व किये हुए अधिकार को बढाना और बनाये रखना चाहते हैं। किंतु यही लोग देश के मिजाज को समझते हुए अपने मूल स्वरूप में सामने नहीं आना चाहते इसलिए मुखौटा ओढ कर अपने दोहरे चरित्र से वे अपने ही लोगों को धोखा दे रहे हैं और उन्हें साम्प्रदायिकता की आग में झौंक कर उस रास्ते पर धकेलने के लिए षड़यंत्र रचते रहते हैं जिस रास्ते पर देश के लोग चलना नहीं चाहते।
 जिस मुहल्ले में अखलाक रह्ता था वह हिन्दू बहुल मुहल्ला है और उस मुहल्ले में सबके बीच में बसे मुसलमानों के केवल दो घर थे। उनके वर्षों से वहाँ रहने पर न तो किसी को कोई परेशानी थी और न ही जमीन का कोई विवाद था। ईदुज्जहा के दिन मुसलमानों के यहाँ कुर्बानी की जो परम्परा है उसमें किसी भी पशु की कुर्बानी दी जा सकती है, इसलिए यह समझ में आने वाली बात नहीं है कि घने बसे हिन्दू बहुल मुहल्ले में रहने वाले मृतक के परिवार ने अपने घर में गाय की कुर्बानी दी होगी। यदि ऐसा होता तो कई दिन पहले से घर में गाय आ गयी होती या बाद में उसकी खाल, सींग, आदि बरामद हुआ होता। यदि यह काम घर से बाहर किया गया होता तो भी एक बड़े पशु का मांस उस छोटे से परिवार के उपयोग से बहुत अधिक होता, इसलिए इस तरह के काम में अन्य परिवार भी सम्मलित होने चाहिए थे। अगर ऐसा था तो हमला अखलाक पर ही क्यों हुआ। बसोहड़ा एक छोटे सा कस्बेनुमा गाँव है इस में भी इस कहानी को फैलाने के लिए व्हाट’स एप्प या लाउडस्पीकर जैसे पहचान छुपाने वाले माध्यमों का स्तेमाल यह बताता है कि अपराधी दूसरों को उत्तेजित कर अपनी पहचान छुपाये भी रखना चाहते थे।
      बिहार में चुनाव चल रहे हैं व उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले हैं। गत लोकसभा चुनाव में इसी तरह मुज़फ्फरनगर में फैलायी गयी हिंसा का लाभ लेकर उत्तर प्रदेश में चुनावी राजनीति की स्थिति बदली जा चुकी है। बिहार चुनाव में बहुत सारे राजनेताओं का भविष्य दाँव पर लगा है। यही कारण है कि पड़ोसी राज्य झारखण्ड में मस्ज़िद के आगे कटा हुआ सुअर फेंका जा चुका है क्योंकि वहाँ पक्ष का शासन है। दिल्ली के चारों ओर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का जो विस्तार हुआ है तथा स्मार्ट सिटी के जो तरह तरह के शगूफे हवा में हैं उससे नगरों के चारों ओर ज़मीनों की लूट शुरू हो गयी है। बहुत सम्भव है कि किसी दूरगामी योजना के अंतर्गत अखलाक को उस मुहल्ले से उजाड़ कर उस गाँव के सारे मुसलमानों को एक तरफ करने के लिए यह योजना बनायी गयी हो। गौ हत्या के झूठे आरोप या लव ज़ेहाद व बहू-बेटी बचाओ जैसे नारे सामान्य लोगों को भी जल्दी से उत्तेजित करने के लिए काफी होते हैं। स्मरणीय है कि अप्रैल 2013 में भाजपा की राष्ट्रीय नेता उमा भारती ने मुज़फ्फरनगर में एक समारोह के दौरान कहा था कि अगर पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार बन गयी तो कागज पर बनी गाय के काटने पर भी प्रतिबन्ध लगा देंगे। गम्भीर बात यह भी है कि मंडल के समय में उभरे दलों को मुलायम ने अकेला छोड़ दिया है और मोहन भागवत के आरक्षण विरोधी बयान पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। अमर सिंह मुलायम और भाजपा दोनों के नेताओं से मिलते रहते हैं व आज़म खान भी चुप्पी साधे हुए हैं। ऐसे समय में ओवैसी की अति सक्रियता क्या गुल खिलायेगी? काँग्रेस सिपाहियों के बिना जरनलों की फौज़ है और मायवती के समर्थक दलितों के केवल वोटर बना कर छोड़ दिया गया है। वामपंथी अपने कोने जरूर सम्हाले हैं, पर मध्य में वे बयानों से अधिक कुछ नहीं कर पा रहे।  
काश इस कठिन समय में भाजपा में सम्मलित हो गये पूर्व सैनिकों और पुलिस अधिकारियों में से कुछ लोग आर के सिंह की तरह सामने आकर शत्रुघ्न सिन्हा की तरह मुखर हो सकें। देश तभी बचेगा।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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