सोमवार, सितंबर 21, 2009

तो फिर कौन लड़वाना चाहता है चीन से और क्यों?

तो फिर चीन से कौन लड़वाना चाहता है और क्यों?
वीरेन्द्र जैन
आइये 20 सितम्बर के अखबार उठा कर मुखपुष्ठ की खबरें पढें। आजकल प्रकाशन की जो तकनीक है उस कारण कोई सा भी अखबार उठा लें इनमें ज्यादा भेद नहीं होता। मुखपृष्ठ की जो प्रमुख खबर है उसका लब्बो लुआब यह है कि पिछले दिनों अखबारों में जो चीन का हमला शुरू हो गया था वह हमारे प्रधानमंत्री ने शांत कर दिया।
मनमोहन सरकार ने चीनी घुसपैठ की खबर को सिरे से नकारते हुए मीडिया पर ही हमला बोल दिया है। विदेश मंत्रालय, सेना और एनएसए का कहना है कि चीन की ओर से भारत चीन सीमा पर घुसपैठ अथवा अतिक्रमण की घटनाओं में कोई वृद्धि नहीं हुयी है। मीडिया इस मामले को बढा चढा कर प्रस्तुत कर रहा है।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम के नारायनन ने कहा है कि चीनी सेना द्वारा अतिक्रमण में कोई वृद्धि नहीं हुयी है और चिंता की कोई बात नहीं है।
विदेश सचिव निरूपमा राव ने कहा कि चीनी घुसपैठ को लेकर छपी खबरें अतिरंजित हैं। हकीकत यह है कि भारत-चीन सीमा पर कई दशकों से शांति कायम है। दोनों देशों के बीच संवाद की कारगर प्रणाली कायम है।
सेना प्रमुख दीपक कपूर ने कहा कि अतिक्रमण की घटनाएं पिछले सालों की अपेक्षा इस साल बढी नहीं हैं। मीडिया को इस मसमले को बढा चढा कर पेश नहीं करना चाहिये।
वहीं इसी तारीख के अखबार में प्रकाशित खबर के अनुसार-
· नई दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने जम्मू कशमीर, उत्तराखण्ड, एवं सिक्किम में चीन की सेना द्वारा सीमा अतिक्रमण की रिपोर्टों पर चिंता व्यक्त करते हुये कहा है कि केन्द्र सरकार को चीन के साथ दृढता से पेश आना चाहिए। चीन के अतिक्रमण पर लिखे गये संपादकीय में संघ के मुखपत्र आर्गनाइजर ने मनमोहन सरकार को सलाह दी है कि वह पूर्व की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार की विदेश नीति से सबक ले।
· इससे पूर्व आरएसएस के संगठनों ने विभिन्न प्रदेशों की राजधानियों और मीडिया वाले स्थानों पर चीन के खिलाफ प्रर्दशन किये थे व पुतले झन्डे आदि दहन किये थे।
ये घटनाक्रम कोई मामूली घटनाक्रम नहीं है। सवाल उठता है कि जो पार्टी अपनी सरकार के समय बार बार कहती रही है कि रक्षा और विदेश जैसे राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर राजनीति नहीं होना चाहिये वही एक अविश्वसनीय खबर के आधार पर देश का मनोबल और व्यवस्था को कमजोर क्यों करना चाह रही है जबकि 1962 में ऐसे ही दुष्प्रचार से प्रभावित होकर संसद में देश की सरकार पर जो दबाव बना दिया गया था उसके दुष्परिणाम हमने लम्बे समय तक भुगते हैं। जवाहरलाल नेहरू जिस पंचशील के सिद्धांत पर चलकर देश को विकास के रास्ते पर ले जा रहे थे उससे भटक कर हमने अपनी आय का बहुत बड़ा हिस्सा रक्षा उपकरणों के आयात में लगाना शुरू कर दिया था व आज भी हमारा रक्षा बजट दूसरी जरूरी मदों की तुलना में बहुत अधिक है। यद्यपि यह तय है कि पाकिस्तान के अस्थिर शासन और विभिन्न समयों पर शासन करने वाले फौजी शासकों, जो अमरीकी निर्देशों और धन से संचालित होते हैं, से हमें लगातार खतरा बना रहता है। हम लोग हमेशा से जो आरोप लगाते रहते थे और अमरीका जिसे मानता नहीं था कि पाकिस्तान अमरीकी सहायता से मिलने वाली राशि को भारत के खिलाफ स्तेमाल करता रहता है, उसे पिछले दिनों परवेज मुशर्रफ ने स्वीकार करके आइना दिखा दिया है।
1949 की क्रान्ति के बाद का चीन कोई साम्राज्यवादी देश नहीं है। आज का औद्योगिक रूप से विकसित चीन भी अपने सस्ते औद्योगिक उत्पादनों के माध्यम से दुनिया के दूसरे औद्योगिक देशों का बाजार छीन रहा है। चीन के साथ हमारे मतभेद नक्शोंं पर खींची जाने वाली सीमा रेखाओं के मतभेद हैं और दोनों के ही पास पुराने पुराने नक्शे हैं। चार हजार किलोमीटर तक फैली इन सीमा रेखाओं में अधिकांश भाग बरफ से ढकी पहाड़ियों का है व वहाँ घास तक नहीं उगती है। 1962 में भी जब चीन तिब्बत के लिए इस विवादित सीमा रेखा क्षेत्र में मार्ग तैयार कर रहा था तब गलत अमरीकी सूचनाओं से प्रभावित कुछ सांसदों ने इसे हमला बता कर हमें वहाँ अपनी चौकियां स्थापित करने के लिए वातावरण तैयार कर दिया था जहॉ पर ना तो हमारे पास रसद पहुँचाने के मार्ग थे और ना ही हमारे सैनिकों के पास उपयुक्त हथियार व वहाँ के मौसम के अनुकूल कपड़े, टेंट तक थे। हमने सामरिक महत्व के अनुसार जहाँ पहली बार चौकियां स्थापित की थीं उस क्षेत्र को नक्शोंं में चीन अपना क्षेत्र मानता था व हमारी चौकियां स्थापित होने के कारण उसके मार्ग निर्माण में अवरोध आ गया था। माओ के शासन वाली चीन की तत्कालीन सरकार सैनिक बल में हमसे सशक्त थी। तिब्बत से सारी धनदौलत लेकर भागे दलाई लामा को शरण देने के कारण वे हमारी सरकार से असन्तुष्ट भी थे। परिणाम यह हुआ कि चीन ने हमारी नई बनायी गयी चौकियों से हमें काफी दूर तक पीछे खदेड़ दिया जिसमें हमारी जन धन की काफी हानि हुयी व देश का मनोबल टूटा। यह वही समय था जब नवसाम्राज्यवादी अमेरिका को हमारे देश में प्रवेश का अवसर मिला व मुख्य विपक्षी साम्यवादियों का स्थान साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद ने लेना प्रारंभ कर दिया। इसके दुष्परिणाम हम आज तक भुगत रहे हैं। हमारे देश को सीमा विवाद में चीन द्वारा हमें अपनी सीमा से पीछे घकेल देना तो याद रहा किंतु इस सत्य को साफ तौर पर रेखांकित नहीं किया गया कि उसके बाद चीन अपने आप ही अपनी सीमा में वापिस लौट गया था व उसके लिए कोई अर्न्तराष्ट्रीय दबाव जिम्मेवार नहीं था। यदि वह कोई साम्राज्यवादी देश होता तो बिना किसी सौदे के जीती हुयी जमीन छोड़ कर नहीं चला जाता। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम के नारायनन द्वारा 19 सितम्बर 2009 को करण थापर के टीवी कार्यक्रम डैविल्स एडवोकेट में साफ साफ कहा कि-
· यह बात गलत है कि चीन दबाव डालने की कोशिश कर रहा है। दोनों राष्ट्र शांति बनाये रखना चाहते हैं।
· मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि मीडिया इसे क्यों बढा चढा कर पेश कर रहा है। मीडिया की हद से ज्यादा प्रतिक्रिया समस्या पैदा कर सकती है इसलिए किसी अवांछित घटना को रोकने के लिए सावधान रहने की जरूरत है। नासमझी में किसी के धैर्य खो देने पर कुछ भी गलत हो सकता है।
· 2009 का भारत 1962 का भारत नहीं है। हम सचेत हैं और मैं सोचता हूँ कि हम ऐसी परिस्तिथि में नहीं पड़ें जिसे हम नहीं चाहते।
· चीनी समकक्ष दाई बिंगूओ के साथ वार्ता के नौ दौर के बाद इस समय एक साल पहले की तुलना में हम ज्यादा सहज हैं।
खेद है कि मिसाइलों और एटमी हथियारों के इस युग में भी देश के लोगों को बरगलाने के लिए वही कहानी फिर से दुहरायी जा रही है। प्रधानमंत्री और सेना प्रमुख के स्पष्टीकरण के बाद सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि देश की सुरक्षा और अस्मिता से जुड़ी इस खतरनाक अफवाह के पीछे कौन सी ताकतें हैं और उनके इरादे क्या हैं। विश्वव्यापी मंदी के समय में हम बहुत ही खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं व इतिहास बताता है कि मंदी और युद्धों के बीच कैसे सम्बंध रहे हैं।
यह जाना जाना चाहिये कि आखिर बिना पूरी पुष्टि किये हुये संघ परिवार के लोग इतने सक्रिय क्यों हो गये जबकि उन्होंने अपने संगठन में अनेक सेवानिवृत्त सैनिक अधिकारी भरती कर रखे हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

मंगलवार, सितंबर 15, 2009

बदले की भावना

आखिर क्या बुराई है बदले की भावना में
वीरेन्द्र जैन
हमारे देश का सामाजिक संविधान कुछ धार्मिक कथाओं में वर्णित चरित्रों, घटनाओं और आदर्शौ के आधार पर चलता रहा है। इन कथाओं में हम रिशतों को परिभाषित व उसी अनुसार निधर्रित होते हुये देखते हैं और अच्छे व बुरे की पहचान करते हुये सामजिक मूल्य ग्रहण करते रहे हैं। इन कथाओं में जो एक चीज हम बहुत ही सामान्य पाते हैं वह है बदले की भावना। राम कथा में ही रावण जैसे राक्षस को मारने का फैसला उसके द्वारा छल पूर्वक सीता हरण करने के कारण लिया गया बताते हैं तथा इसी तरह अन्य कथाओं में भी कथा नायकों द्वारा समाजविरोधी तत्वों का विनाश किसी व्यक्तिगत रंजिश के कारण ही संभव हुआ पाते हैं। इतिहास में भी दर्ज हैं कि अगर औरंगजेब ने शिवाजी को बड़े मनसबदारों की पंक्ति में खड़ा कर दिया होता तो वे औरंगजेब के विरोधी न होकर उसके पक्ष में लड़ने वाले राजाओं की तरह जाने जाते।
आज की लोकतांत्रिक राजनीति में हम आये दिन देखते हैं कि जब भी किसी नेता के विरूद्ध कोई कानूनी कार्यवाही की जाती है तो वह इसे बदले की भावना से की गयी कार्यवाही कह कर सत्तारूढ दल को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करता है और यदि सत्ता में हुआ तो दूसरे गुट के नेता को दोष देने की कोशिश करता है। उक्त आरोपियों का ऐसा बयान देश के संवैधानिक कानूनों में खुला अविशवास और उनके अपमान का सूचक होता है। आखिर बदले की भावना से भी की गयी कानूनी कार्यवाही यदि नियमानुसार है तो उसे करने में दोष ही क्या है?
हमारे कानून के अनुसार जब तक कि कोई दोषी साबित न हो जाये वह आरोपी ही माना जाता है तथा जब तक फैसला नहीं हो जाता तब तक वे आरोपी ही कहलाते हैं। प्रत्येक आरोप की एक जाँच प्रक्रिया है व विधिवत भरपूर समय देकर प्रकरण चलता है। इस दौरान आरोपियों को अपने आप को निर्दोष साबित करने का भरपूर अवसर रहता है। यदि यह साबित हो जाता है कि आरोपी निर्दोष था व जाँच अधिकारी अथवा शिकायतकर्ता ने उसे जानबूझ कर फॅंसाने की कोशिश की है तो उस पर भी प्रकरण दर्ज किया जा सकता है।
हमारे देश में इतने मुकदमे लम्बित हैं कि अगर सारी अदालतें बिना किसी छु़टिट्ओं के लगातार भी बैठें तो भी लगभग 150 साल उन्हें सुलझाने में लग जावेंगे। लोकतंत्र में प्रत्येक पाचँ साल में सरकार का नवीनीकरण होतहै इसलिए नये आने वाले शासन को अपना अभियान कुछ लागों से प्रारंभ करना पड़ता है। पर यदि ऐसे लोग किसी राजनीतिक दल के सदस्य होते हैं तो उनका आरोप होता है कि ये कार्यवाही उन्हें अनावशयक रूप से झूठे फॅसाने के लिए की जा रही है ऐसा आरोप लगाते हुये वे न केवल सत्ता में बैठे अपने विरोधी पर ही आरोप लगा रहे होते हैं अपितु यह भी कह रहे होते हैं कि पूरी न्याय प्रणाली सत्तारूढ दल की गुलाम होती है इसलिए उन्हें न्याय नहीं मिल सकेगा। यह न्याय के प्रति उनके अविशवास को प्रकट करता है। हो सकता है कि कुछ हद तक यह सही भी हो किंतु केवल अपने ऊपर आरोप लगने के बाद ऐसे विचार प्रकट करना किसी राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता। यदि न्याय प्रणाली समेत किसी भी व्यवस्था में कोई दोष है तो उसे दूर करने के लिए राजनीतिक दलों और कार्यकर्ताओं को उन पर आरोप लगने से पूर्व भी निरंतर कार्य करना चाहिये। आखिर इससे पहले वे ऐसा क्यों नहीं कर रहे होते?
मेरी दृष्टि में यदि बदले की भावना से भी न्यायसंगत कार्यवाही होती है तो वह स्वागत योग्य है क्योंकि आखिर कहीं न कहीं से तो शुरूआत करना ही होगी। यदि एक धर्मनिरपेक्ष सरकार आयकर के छापों का प्रारंभ साम्प्रदायिक दलों के सदस्यों और उनको वित्तीय मदद देने वालों से करते हैं तो उसमें दुहरा फायदा है। जहाँ एक ओर छुपाये गये आयकर की वसूली होती है तो दूसरी ओर देश विरोधी साम्प्रदायिकता को पल्लवित पोषित करने वालों पर लगाम लगती है। विभिन्न सरकारें यही प्राथमिकता विरोधी दलों से जुड़े संदिग्ध माफिया गिराहों व असामाजिक तत्वों के साथ कर सकती हैं। अतिक्रमण हटाने के मामले में भी यह प्रक्रिया परिण्ाामदायी सिद्ध होगी।
राजनीतिक दलों के सदस्य होने के आधार पर किसी को भी कानून से कोई छूट नहीं दी जानी चाहिये क्योंकि बहुत सारे दलों में कानून से सुरक्षा पाने के लिए ही अनेक अपराधी सम्मिलित हो गये हैं जो कार्यवाही होने पर अपनी राजनीतिक हैसियत का कवच पहिन लेते हैं। राजनीतिक विरोधियों को प्राथमिकता पर रखने का एक लाभ यह भी होगा कि फिर वे भी पलट कर सत्तारूढ दल के सदस्यों में छुपे अपराधियों के खिलाफ अपनी जानकारियों को सार्वजनिक करेंगे जिससे सरकार स्वत: ही लाभान्वित होंगी। यह प्रक्रिया प्रशासनतंत्र को साफसुथरा बनाने में मददगार होगी। देखने में यह आ रहा है कि अभी अपराधों का सहकार चल रहा है और सत्ता व विपक्ष में सम्मिलित नेताओं में यह समझ सी बन गयी है कि ना हम तुम्हें छेड़ें और ना ही तुम हमारे मामले में अपनी चाेंच डालो। जनता के सामने पिछली सरकार पर तरह तरह से आरोप लगाने वाला विपक्षी दल सत्ता पाने के बाद उदार बन जाता है क्यों कि वह स्वयं भी उसी रास्ते पर जाने के लिए तैयार होकर आता है जिसकी आलोचना करते करते उन्होंने सत्ता हथियायी होती है। होना तो यह चाहिये कि किसी भी आरोपी को किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल का सदस्य बनने से रोक लगाये जाने के प्रावधान हों, अथवा उन्हें चुनाव में खड़े होने से वंचित किया जा सके। यदि ऐसा नहीं किया जा सकता तो कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है कि यदि कोई आरोपी चुन लिया जाये तो उस पर चल रहे प्रकरणों की सुनवाई किसी फास्ट ट्रैक अदालत से नियमित रूप से करवायी जाये। हमारे चुने हुये सदस्यों को जो अनेक विशोष सुविधाएॅ मिली हुयी हैं तो यह एक विशोष सुविधा और मिलने से हमारे सदन दाग रहित सदस्यों के सदन बन सकेंगे।

वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शुक्रवार, सितंबर 11, 2009

जन अस्वीकृतियों के संदेशों को बहकाने के प्रयास

क्या ये जनअस्वीकृति के संदेशों को बहकाने के प्रयास हैं
वीरेन्द्र जैन
भाजपा जो राजग का नेतृत्व कर रही थी वह लोकसभा के चुनावों में न केवल मतों की संख्या व प्रतिशत में अपितु सीटों की संख्या में भी जनता द्वारा बुरी तरह नकार दी गयी है जबकि उसके राजग सहयोगियों को उतना नुकसान नहीं हुआ है। इन चुनावों में प्रमुख घटक जनता दल(यू) ने न केवल अपने समर्थन में ही वृद्धि की है अपितु भाजपा की गिरावट को भी थोड़ा टेका दिया है। स्मरणीय है कि चुनावों के दौरान ही आत्मविश्वास से भरे नीतीश कुमार ने राजग गठबंधन व खासतौर पर भाजपा की नीतियों से असहमतियां व्यक्त की थीं व उनके दूसरे मोर्चों के साथ गठबंधन करने की अफवाहें भी फैली थीं। कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने तो सार्वजनिक सभा में उनकी प्रशंसा करके उन्हें अपने गठबंधन के साथ जुड़ने का आवाहन भी किया था।
इस पराजय के बाद पराजय पर विचार किया जाना स्वाभाविक था जो बाल आप्टे के नेतृत्व में गठित समिति के द्वारा किया गया। उसकी रिपोर्ट भी सोंपी गयी तथा जिसके कुछ निष्कर्ष प्रैस को लीक भी किये गये थे किंतु पिछले दिनों पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने ऐसी किसी समिति और रिपोर्ट से ही इंकार कर दिया। उल्लेखनीय यह है कि भाजपा की पराजय के लिए उसके कुछ वरिष्ठ और बहुचर्चित नेताओं को जिम्मेवार ठहराने की खबरें बहुत तेजी से फैलायी गयी हैं तथा भाजपा के ही कुछ नेताओं ने सार्वजनिक बयान देकर, पार्टी के हार के लिए कुछ ऐसे वरिष्ठ नेताओं पर उंगली उठायी है जो स्वयं ही रिटायर होने जा रहे थे। स्मरणीय है कि 2006 में आडवाणीजी ने भाजपा कार्यकर्ताओं की एक सभा में कहा था कि अगला चुनाव आपको अटल आडवाणी के बिना ही लड़ना होगा। पूरे देश में यह हवा बनायी गयी कि भाजपा अपनी गलत और जनविरोधी नीतियों के कारण जनता द्वारा नहीं नकारी गयी अपितु वह तो लालकृष्ण आडवाणी राजनाथ सिंह अरूण जेटली आदि की गलत चुनावी रणनीतियों के कारण हारी। उनके इस कुटिलता भरे प्रयास को प्रायोजित मीडिया और भेड़चाल मीडिया ने फैला दिया जबकि सच यह है कि जनता के बीच भाजपा की साम्प्रदायिक और षड़यंत्रकारी राजनीति की पहचान के कारण हार हुयी है। उनके मुँह से नकाब उठाने का काम धर्मनिरपेक्षता के लिए काम करने वाले दलों और संगठनों ने लगातार किया तथा पिछली यूपीए सरकार का गठन भी इसी आधार पर हुआ था।
यह एक पुरानी कूटनीति है कि अपनी राजनीति के विरोध को एक नेता पर केन्द्रित कर के कुछ दिनों के लिए उसे दल या नेतृत्व से अलग कर दो ताकि जनता का विरोध भी उसके साथ ही चला जाये तथा संगठन बचा रहे। यह ऐसा ही है जैसे कि किसी नगर में बड़ी दुर्घटना हो जाने पर वहाँ के कलैक्टर, एसपी का ट्रांसफर कर दिया जाता है ताकि जनता का तात्कालिक गुस्सा शांत हो सके, जबकि वह कलैक्टर एसपी आदि उसके लिए दूर दूर तक जिम्मेवार नहीं होते। स्मरणीय है कि अस्सी के दशक में जब मध्यप्रदेश में तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरेन्द्र कुमार सखलेचा पर भ्रष्टाचार के तीखे आरोप लगे थे तब उन आरोपों को और अधिक हवा देकर ठीक चुनावों से पहले उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया था जिससे पूरी पार्टी भ्रष्टाचार के आरोपों से बच गयी थी जबकि सच यह था कि उन कारनामों के लिए सखलेचा जी अकेले जिम्मेवार नहीं थे।
गत दिनों आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद ने जोरशोर से कहा कि भाजपा को हिंदुत्व व राम मंदिर आन्दोलन से दूर जाने के कारण जनता ने हराया। उनके ये बयान बेहद अतार्किक और भ्रामक हैं। ऐसा तब माना जा सकता था जब भाजपा के वोटरों ने भाजपा को वोट न देकर हिंदूमहासभा या शिवसेना को वोट दिया होता। यह कैसे हो सकता है कि हिंदुत्व और राम मंदिर आन्दोलन में पिछड़ने पर जनता उस भाजपा की जगह, जो अब भी दबे छुपे ढंग से इन आंदोलनों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करती रहती है, नाराज होकर डंके की चोट पर धर्मनिरपेक्षता की पक्षधर पार्टियों को वोट दे दे। भाजपा का घटा हुआ वोट कांग्रेस व दूसरी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के पक्ष में गया है न कि किसी दूसरे हिन्दूवादी दल के पक्ष में गया है।
गत दिनों भाजपा ने ईवीएम मशीनों में संभावित दुरूप्योग की शिकायत जोर शोर से करने के प्रयास किये। इससे पहले मध्यप्रदेश में भी विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस ने ऐसे ही आरोप लगाकर भाजपा शासन को घेरे में लेने के प्रयास किये थे। ऐसा लगता है कि ईवीएम मशीनों में तकनीकी गड़बड़ियों के बारे में भाजपा की जानकारियां किसी भी दूसरे से अधिक हैं अथवा वह अपनी गलत नीतियों को आरोपों के घेरे में आने से रोकने के लिए यहाँ वहाँ हमले कर रही है। इस कोशिश में वे यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि अपनी नीतियों के दोष को कहाँ पर थोपें- मशीन पर, हिंदुत्व से दूरी पर, या नेताओं पर!
आडवाणीजी संघ के वरिष्ठ प्रचारक से जनसंघ गठन के लिए भेजे गये पुराने नेता हैं तथा उन्होंने अपना पूरा जीवन संघ की विचारधारा के हित में लगाया है। वे उम्र दराज हो गये हैं व राजनीति से रिटायर होने के लिए तैयार हैं। उन्होंने बेहद चतुराई भरे कारनामों से भाजपा को चुनावों में सफलताएं दिलायी हैं तथा भाजपा को दो से दो सौ तक ले जाने में उनके (अनैतिक) योगदान को नकारना संघ परिवार की कृत्धनता होगी। इन चुनावों में भी उन्होंने सारे हथकंडे अपनाये थे पर भाजपा से जनता की नाराजी अधिक होने के कारण वे अटूट धन व साधनों का प्रवाह करने के बाद भी उसे सत्ता नहीं दिला सके। यह अवसर भाजपा को अपनी जनविरोधी नीतियों पर पुर्नविचार करने का अवसर है न कि अपने प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी पर ठीकरा फोड़ कर उसे अपमानजनक ढंग से बाहर निकाल देने का है। यह समय है कि जब भाजपा एक रामलीला पार्टी से एक राजनीतिक दल के रूप में प्रकट होने के बारे में सोच सकता है व आरएसएस से अपना पीछा छुड़ा सकती है। यदि वह अपना आकार बनाये रख सका तो भी उसे तत्कालीन सत्तारूढ दलों से असंतोष होने पर नकारात्मक वोटों का लाभ मिलता रह सकता है, अन्यथा उसका हश्र समाजवादियों की तरह होगा।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, सितंबर 07, 2009

लिव इन और परंपरागत विवाह के घालमेल का गोलमाल

लिवइन और परंपरागत विवाह का घालमेल अनुचित
वीरेन्द्र जैन
विवाह, केवल दो देहों के शारीरिक सम्बंधों की सामाजिक व कानूनी स्वीकृति भर नहीं होती अपितु यह पति की सम्पत्ति में पत्नी का अधिकार और संतानों को विरासत कानून के अनुसार सम्पत्ति का अधिकार भी देता है। विवाह से पति पत्नी के अलावा भी परिवार में कई दूसरे रिश्ते बनते हैं। इसके विपरीत लिव इन रिलेशन केवल दो देहों के शारीरिक सम्बंधों को ही स्वीकृति देता था जो कुछ दिनों बाद सामाजिक स्वीकृति तो नहीं बनी पर कानूनी स्वीकृति बन गयी। आज अपने देश में भी हजारों लोग लिव इन रिलेशन के अर्न्तगत साथ रह रहे हैं पर ज्यादातर लोग अपनी पुत्री पुत्र या निकट के रिशतेदार का लिव इन रिलेशन पसंद नहीं करते। यह स्थिति बताती है कि इस रिश्ते को अभी सामाजिक स्वीकृति मिलना शेष है।
पिछले दिनों हमारे सुप्रीम कोर्ट ने 'लिव इन रिश्ते' को मान्यता देते हुये इस रिश्ते में शामिल महिला को पत्नी के समान अधिकार दे दिया है जो एक तरह से उसे सम्पत्ति का अधिकार दिया जाना है। इस अधिकार को यदि एक महिला(निर्बल वर्ग) को दिये गये अधिकार की तरह देखा जाये तब तक तो ठीक है किंतु इस अधिकार ने इस रिश्ते का स्वरूप ही बदल दिया है। ये रिश्ता असल में नारी की स्वतंत्रता और समानता का प्रतीक था जबकि विवाह उसकी परतंत्रता और परनिर्भरता का प्रतीक होता है। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने भले ही उसे धन का अधिकार दिया हो पर उसे फिर से उसी कैद की ओर का रास्ता खोल दिया है।
सामाजिक स्वीकृति की परवाह किये बिना जो महिला लिव इन रिलेशन में रहने का फैसला करती है वह अपनी मर्जी की मालिक होती है तथा उस पर इस रिश्ते को स्वीकार करने या बनाये रखने के लिए कोई दबाव नहीं होता। वह जब तक चाहे इस रिश्ते को परस्पर सहमति से बनाये रख सकती है और जब चाहे तब इसे तोड़ सकती है। यह रिश्ता समाज में निरंतर चल रहे उन अवैध संबंधों से भिन्न होता है जो पुरूष की सम्पन्नता या सबलता के आधार पर कोई महिला किसी लालच वासना या सुरक्षा की चाह में बनाती आयी है। लिव इन रिश्ते कमजोर महिलाओं द्वारा बनाये रिश्ते नहीं होते अपितु वे स्वतंत्रचेता आत्मनिर्भर महिलाओं द्वारा नारी को पुरूष की तुलना में दोयम न मानने की भावना को प्रतिध्वनित करने वाले रिश्ते हैं। ये रिश्ते अपढ अशिक्षित और कमजोर बुद्धि महिलाओं के रिश्ते नहीं हैं अपितु पढी लिखी बौद्धिक तथा अपना रोजगार स्वयं करने वाली महिलाओं के रिश्ते होते हैं। मेरी दृष्टि में सुप्रीमकोर्ट का उक्त फैसला लिव इन रिश्ते की मूल भावना पर आधात करता है क्योंकि लिव इन रिश्तों को यदि किसी समाज या कानून के आधार पर संचालित किया जाने लगेगा तो फिर वह अंतत: विवाह(बंधन) में ही बदल जायेगा जहाँ असहमति के कई खतरे होते हैं इसलिए सहमति को ऊपर से ओढ कर रहा जाता है। लिव इन रिश्ते को अपनानेवाली महिला को उस निर्बल महिला की तरह नहीं देखा जाता था जैसा कि अवैध संबधों में जीने वाली अपराधबोध से ग्रस्त महिला को देखा जाता रहा है क्योंकि लिव इन वाली महिला किसी संबंध को छुपा नहीं रही होती है, अपितु रूढियों से ग्रस्त समाज के प्रति विद्रोह का झंडा लेकर उनसे टकराने को तैयार खड़ी दिखती है।
कानून के अनुसार धनसम्पत्ति पर अधिकार केवल विवाहित महिलाओं को ही मिलना चाहिये क्योंकि वे मूलतय: कमजोर महिलायें हैं जबकि लिव इन रिलेशन वाली महिला कमजोर महिला नहीं होती। यदि हम अपने पुराणों की ओर देखें तो लिव इन रिश्ते की कुछ झलक दुष्यंत शकुंतला की कहानी में मिलती है जहाँ शकुन्तला न केवल दुष्यंत से अपने दौर का लिव इन (गंदर्भ विवाह) ही करती है अपितु अपने पुत्र को भी पैदा करती है व पालती है। वह दुष्यंत के पास भी पत्नी का अधिकार मांगने नहीं जाती है अपितु एक परिचित के पास मानवीय सहायता की दृष्टि से जाती है। दूसरी ओर दुष्यंत भी इस रिश्ते को दूर तक नहीं ले जाते इसलिए शकुतंला को लगभग भूल ही गये हैं। माना जाता है कि इसी रिश्ते से जन्मे पुत्र भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम भारत पड़ा है।
यदि हम दुनियां में लिव इन रिशतों के जन्म के समय को जाँचने की कोशिश करें तो हम पाते हैं कि ये रिश्ते उस समय विकसित हुये जब परिवार नियोजन की जरूरत ने नारी को माँ बनने या न बनने का अधिकार दे दिया। पशुओं के विपरीत मनुष्यों के बच्चों को अपना भोजन स्वयं अर्जित करने की दशा तक आने के लिए लम्बे समय तक पालना पड़ता है व इस दौर में नारी को अति व्यस्त व कमजोर भी रहना पड़ता है जो उसकी परनिर्भरता को बढाता रहा है, पर जैसे ही वह मातृत्व से स्वतंत्र हुयी वैसे ही उसने नारी स्वातंत्र का झंडा थाम लिया। नारी स्वतंत्रता और नारी अधिकार के सारे आंदोलन इसी दौर में विकसित हुये हैं। पुरूषों ने भी इन रिश्तों में विरासत के अधिकार से मुक्त दैहिक संबंधों के कारण स्वयं को स्वतंत्र महसूस किया इसलिए इसे अपनाने में किसी तरह की हिचक नहीं दिखायी। सुप्रीम कोर्ट का फैसला दूसरी ओर उस कमजोर विवाहित महिला के हितों पर भी आघात करता है जो केवल पति की धन सम्पत्ति के कारण कई बार अनचाहे भी वैवाहिक बंधन में बंधी रहती है। जब लिव इन रिश्तों वाली स्वतंत्र महिला उस परतंत्र महिला के सम्पत्ति के अधिकारों पर भी हक बनाने लगी तो वह महिला तो दो़नों ओर से लुटी महसूस करेगी। इसलिए इस अधिकार से उन महिलाओं को तो वंचित रखा ही जाना चाहिये जो शादीशुदा पुरूषों से लिव इन रिश्ता बनाती हैं। यदि लिव इन रिश्तों में भी उसी परंपरागत विवाह के मापदण्ड लागू रहे तो फिर लिव इन रिश्तों में भिन्नता कहाँ रही? यदि इस दशा में सुधार नहीं हुआ तो आपसी विश्वास को ही नहीं अपितु समानता की ओर बढ रहे नारी आदोलन का भी बहुत नुकसान पहुँचेगा।

वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, सितंबर 05, 2009

अहमद फ़राज़ की याद में

अहमद फराज हमारे दिल में बने हुये हैं
वीरेन्द्र जैन

अहमद फराज साहब से मेरी कभी मुलाकात नहीं हुयी किंतु उनके साथ मुहब्बत उनकी शायरी के साथ मुहब्बत होने के कारण हुयी। उनकी शायरी ने मेरे दिल में पहले जगह बना ली और बहुत बाद में पता चला कि बेपनाह मनपसंद शायरी का शायर कौन है। मैंने किसी मुशायरे की रिपोर्ट पढी थी जिसमें उदाहरण बतौर हर एक शायर की चार छह पंक्तियाँ दी गयी थीं। उन पंक्तियों में जो दिल को असीमित आनंद दे गयीं वे थीं-
सुना है लोग उसे आह भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झरते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
जैसा कि ऐसे अवसरों पर आम तौर पर किया करता रहा था मैं टेलीफोन की ओर दौड़ा जिससे कि अपने निकट के कविताप्रेमी दोस्तों को सुना सकूं। इस खुशी खुशी में मैं शायर का नाम याद रखना ही भूल गया और बात भी आयी गयी हो गयी। पर पंक्तियाँ दिल में खुब गयीं थीं जिन्हें सुनाने के लिए मैं मौके की तलाश में रहता था तथा कभी कभी तो बेमौके भी उन्हें सुनाने की भूल कर बैठता था।
असल में यह बात मुझे बहुत बाद में पता चली कि उक्त शेर पाकिस्तान के मशहूर शायर अहमद फराज की गजल के थे और यह भूल केवल मुझ से ही नहीं हुयी अपितु इस पूरी गजल पर मोहित होने वाले दुनिया में लाखों लोग इसी भूल के शिकार हुये हैं जो गजल में इतने खो गये कि उन्होंने शायर की खोज खबर ही नहीं ली। मुझे उसी समय कृष्ण बिहारी नूर का वह शेर याद आ गया जो केवल नूर साहब ही नहीं सारे अच्छे शायरों के दर्द को भी बयाँ करता है-
मैं तो गजल सुना के अकेला खड़ा रहा
सब अपने अपने चाहने वालों में खो गये
इसके बाद जब मैंने अहमद फराज को खोज खोज कर पढना प्रारंभ किया तब वे दिल मे गहरे उतरने लगे। इस मुहब्बत में इस जानकारी ने और भी इजाफा किया जब पता चला कि वे इकबाल, फैजअहमद फैज और अली सरदार जाफरी जैसे प्रगतिशील शायरों के फैन होने के बाद लेखन के क्षेत्र में उतरे थे तथा फैज और अली सरदार जाफरी ही शायरी में उनके मॉडल रहे थे। उनके लिए मेरे दिल में सम्मान का भाव तब और भी बढ गया जब यह मालूम हुआ कि वे पाकिस्तान में फौजी हुकूमत के हमेशा खिलाफ रहे व जियाउल हक के दौर में तीन साल तक आत्मनिर्वासन में ब्रिटेन कनाडा व यूरोप के दूसरे देशों में रहे। वे कहा करते थे कि आसपास घट रही दुखद घटनाओं के प्रति यदि मैं मूक र्दशक बना रहूंगा तो मेरी आत्मा कभी मुझे माफ नहीं करेगी। मैं और क्या कर सकता हूँ , सिवाय तानाशाही निजाम को यह बताने के कि उस जनता की निगाह में, जिसके मौलिक अधिकारों को उन्होंने हड़प लिया है, वे कहाँ ठहरते हैं। मैं सिविल नाफरमानी की घोषणा कर रहा हूं और सत्ता को बता देना चाहता हूँ कि मैं उससे जुड़ने व उसके आदेशों को मानने से इंकार कर रहा हूँ। अहमद फराज साहब ने कभी भी अभिव्यक्ति की पाबंदी को नहीं माना और जीवन भर अपने विचार खुल कर व्यक्त किये। उनके रचना कर्म पर नजर रखने वालों के साथ उनकी भी इस बात पर सहमति रही कि उनका सर्वश्रेष्ठ रचनाकर्म निर्वासन के दौर में ही रहा। इस दौर की उनकी एक रचना महाशरा को बहुत महत्वपूर्ण माना गया। भले ही ज्यादा लोग निम्नांकित गजल को उनके नाम से न जानते हों पर इस गजल को पसंद करने वाले उन्हें जानने वालों से कई गुना अधिक हैं-
रंजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
यह शेर उनकी निर्वासन के दौर में लिखी वतन को याद करने वाली गजलों में से एक है।
गुलामअली ने उनकी बहुत सारी गजलों को गाया है या दूसरे शब्दों में कहें कि उनके चुनाव के सबसे पसंदीदा शायरों में से एक हैं। उनकी एक गजल में वे बहुत गहरे उतरे हैं वह है-
ये आलम शौक का देखा न जाये
वो बुत हैं या खुदा देखा न जाये
कम लोगों को पता है कि ये शेर भी अहमद फराज का ही है जिसे लाखों प्रेमपत्रों में लाखों प्रेमियों ने बार बार लिखा होगा-
अब के बिछुड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुये फूल किताबों में मिलें
ढूंढ उजड़े हुये लोगों में बफा के मोती
ये खजाने तुझे मुमकिन है खराबों में मिलें
इस गजल का पहला शेर तो हजारों ट्रकों के पीछे लिखा हुआ भी मिलता है जो उस स्थान पर एक अलग ही अर्थ देता है।

अहमद फराज साहब की शिक्षा दीक्षा पेशावर यूनीवर्सिटी में हुयी जहाँ उन्होंने उर्दू और फारसी की पढाई की। वे जन्म से पश्तो बोलने वाले पश्तूनी थे पर उनकी रचनाओं की विशेषता है सरल हिन्दुस्तानी भाषा और आम जनजीवन से उठाये बिम्बों द्वारा अपनी बात कहना। इसी कारण से वे आम आदमी के दिल में सीधे उतर जाते हैं। उदाहरण देखें-
आशिकी बेदिली से मुश्किल है
फिर मुहब्बत उसी से मुश्किल है
इशक आगाज ही से मुश्किल है
सब्र करना अभी से मुश्किल है
14जनवरी 1931 को नौशेरा पाकिस्तान में जन्मे शैयद अहमद शाह को शायरी और उर्दू के प्रेम ने अहमद फराज बना दिया। वे रेडियो पाकिस्तान में स्क्रिप्ट रायटर भी रहे और पाक अकेदमी आफ लैटर्स के डायरेक्टर जनरल तथा बाद में चेयरमैन भी रहे । उन्होंने कुछ समय पेशावर यूनीवर्सिटी में प्रोफेसरी भी की। उनकी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं।

पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस पर वे सत्ताधीशों और अवाम दोनों को ही संबोधित करते हुये कहते हैं-
अब किसका जश्न मनाते हो, उस देस का जो तकसीम हुआ
अब किसके गीत सुनाते हो उस तनमन का जो नीम हुआ
उस परचम का जिसकी हुरमत बाजारों में नीलाम हुयी
उस मिट्टी का जिसकी हुरमत मंसूब उदू के नाम हुयी
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क्यों नंगे बदन की बात करो क्या रक्खा है इस किस्से में

उनकी वह प्रिय गजल जब भी याद आ जाती है तो गुनगुनाने का मन करने लगता है। गजल इस प्रकार है-
सुना है लोग उसे ऑंख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उसको खराब हालों से
सो अपने आप को बरबाद करके देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्मेनम उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुजर के देखते हैं
सुना है उसको भी है शेरो शायरी से शगफ
सो हम भी मौजजे अपने हुनर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झरते हें
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बामे फलक से उतर के देखते हैं
सुना है हश्र हैं उसकी गजाल सी ऑंखें
सुना है उसको हिरन दशत भर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगुनू ठहर के देखते हैं
सुना है रात से बढ कर हें काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुजर के देखते हैं
सुना है उसके लवों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पै इल्जाम धर के देखते हैं
सुना है चश्म तसव्वुर से दश्ते इमकां में
पलंग जावे उसी की कमर को देखते हैं
सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है
कि फूल अपनी गवायें कतर के देखते हैं
बस इक निगाह से लूटे है काफिला दिल का
सो राहरांवे तमन्ना भी डर के देखते हैं
सुना है उसके शबिस्तां से मुतासिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं
किसे नसीब कि बेपैरहन उसे देखे
कभी कभी दरो दीवार घर के देखते हैं
कहानियाँ ही सही सब मुबालगे ही सही
अगर वो ख्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जायें
फराज आओ सितारे सफर के देखते हैं

शुक्रवार, सितंबर 04, 2009

प्रथम स्पंदन कथा शिखर सम्मान मृदुला गर्ग को


प्रियवर
सुप्रसिद्ध कथा लेखिका सुश्री उर्मिला शिरीष संयोजक स्पंदन द्वारा भेजे गए एक पत्र के अनुसार "स्पंदन" संस्था द्वारा प्रारंभ किये गये पुरस्कारों की श्रृंखला का प्रथम कथा पुरस्कार श्रीमती मृदुला गर्ग को देने की घोषणा हुयी है . पत्र की प्रति संलग्न है .
वीरेंद्र जैन

वस्तु की तरह बाज़ार में खडी देह

वस्तु की तरह बाजार में खड़ी हुई देह
वीरेन्द्र जैन

देश के सभी महानगरों में सेक्स व्यापार के रैकट पकड़े आने की खबर आम होती जा रही है। प्रति सप्ताह ऐसी कोई न कोई खबर समाचार पत्रों में बहुरूचि के साथ पढ़ी जाने लगी है। सैक्स व्यापार के मामले में देश का कानून सामाजिक नैतिकता की तुलना में बहुत भिन्न है इसलिए पकड़े गये लोगों को सजा नही हो पाती अपितु वे देर -सबेर बाइज्जत बरी हो जाते हैं। इन घटनाओं में नैतिक और सामजिक अपयश ही प्रमुख दण्डात्मक भूमिका निभाते हैं। पुलिस की रूचि भी इस अपयश के भय का दोहन करने के लालच वश ही होती है सामान्यत: इन कांडो में पकड़े गये पुरूष, अधिकारी कर्मचारी वर्ग अथवा समाज के सम्पन्न विचौलिया तबकों से सबंध रखते हैं इसलिए वे अपना नाम ना आने देने के बदले में यथासंभव 'आर्थिक दण्ड' देकर मामले को रफा दफा करवाने का प्रयास करते हैं और सफल भी हो जाते हैं। तय है कि प्रकाश में आये मामलों की तुलना में यह रोग बहुत तेजी से फैल रहा है जिसकी परोक्ष स्वीकृति एड्स के मरीजों की संख्या और उसके खिलाफ किये जा रहे व्यापक प्रचार अभियान के माध्यम से हमारी सरकारें कर ही रही हैं। विचारणीय यह है कि यह स्वीकृति क्यों पनप रही है तथा इसकी जड़ें कहॉ पर हैं।

पुरातन काल की सामन्ती व्यवस्था में वेश्यावृति एक समाज स्वीकृत धंधा था और सेठों तथा सामन्तों द्वारा अपना ऐश्वर्य प्रर्दशन का भी एक हिस्सा था। दूसरी और जासूसी के लिए विष कन्याएं तथा देवदासियों के रूप में भी इनकी धार्मिक स्वीकृति थी। लोकतंत्र में आधे अधूरे प्रवेश के बाद देश में मध्यम वर्ग तेजी से विकसित होने लगा जो मूलतय: निम्नवर्ग का वह ऊपरी हिस्सा था जो अपनी जाति या शिक्षा के कारण अपने को उच्चवर्ग समझने के भ्रम में पड़ा हुआ था तथा उसकी नकल करने की कोशिश करता रहता था। इस वर्ग में जो नैतिक मूल्य स्वीकृत थे उसके अनुसार ना तो वह वेश्या बाजार में सीना खोलकर जा सकता है और ना ही उसकी आर्थिक स्थिति रखैल या उप पत्नी रखने की थी इसलिए इस वर्ग ने अपने अंदर उच्च वर्ग जैसे आकांक्षाओं के पलते बीच का रास्ता खोज निकाला जो अवैध सबंधों से होकर जाता था चूंकि यह सामाजिक रूप से स्वीकार्य मार्ग नही था इसलिए इसे चोर रास्ते की तरह प्रयोग किया गया इसकी जानकारी इन अवैध सबंध रखने वालों और अधिक से अधिक उनके निकट रहने वालों तक ही हो पाती है जिससे इसकी व्यापकता के सही सही आंकड़े कभी उपलब्ध नहीं हो सके। किंन्तु व्यक्तिगत बातचीत में आत्मीय लोगों को मिलती सूचना से लगता है कि अनेक व्यक्ति कम ज्यादा कहीं न कहीं ऐसे किन्हीं सबंधों से जुड़े रहे हैं। चूंकि ये सम्बंध महिला पुरूषों के सबंध थे इसलिए इसी अनुपात में महिलाएं भी इनसे जुड़ी रही हैं। संयुक्त परिवार की व्यवस्था होने के कारण ऐसे बहुत सारे सम्बंध रिश्तेदारी, मित्र परिवार या पड़ोस में ही बनाये जाना सुविधाजनक रहा है। गत वर्षो में सुप्रसिद्व कथा पत्रिका हंस में अनेक लेखिकाओं ने अपनी आत्म रचनाओं के माध्यम से ऐसे सबंधों को स्वीकारा है। चूंकि ये लेखिकाएं विख्यात हो चुकी लेखिकाएं है और उनकी इस स्वीकृति से उनके व्यक्तिगत जीवन में सामाजिक सम्मान के कम हो जाने का कोई खतरा नहीं है इसलिए वे ऐसा सार्वजनिक स्वीकार कर सकी हैं, पर इससे यह पता चलता है कि यदि सार्वजनिक उद्घाटन के साहस की स्थिति अन्य महिलाओं को मिल जाये तो हमारे पूरे समाज की नैतिक मान्यताओं को करारा आघात लग सकता है। हमारे यहां परोक्ष रूप से यह स्वीकारा गया है कि 'त्रिया चरित्रं पुरूषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतो मनुष्य:'' किंतु क्या स्त्री का चरित्र बिना पुरूष का चरित्र गिरे गिर सकता है! अभी तो स्थिति यह है कि बलात्कार जैसा अपराध हो जाने पर भी परिवार के लोग स्वयं ही रिपोर्ट लिखाने से कतराते हैं।

आज देश में 42 प्रतिशत से अधिक मध्यम वर्ग है, यह वर्ग वे सारी सुख- सुविधाएं प्राप्त करने के लिए उतावला हो गया है जो कभी केवल उच्च वर्ग को प्राप्त थीं। इस दौड़ में वह केवल उपभोक्ता सामग्री तक ही सीमित नही रह गया है अपितु लोक व्यवहार में भी उच्च वर्ग जैसा दिखावा करने का प्रयास करता है। दूसरी ओर वह वे सामाजिक मान्यताएं नकार नही सका है जो उसे सामंती समाज की ओर से मिली हैं। महानगरों के तेजी से फैलाव के पीछे भी मध्यम वर्ग के आर्थिक सामाजिक हालातों व विश्वासों में आये परिवर्तन का हाथ रहा है। संयुक्त परिवार को भंग करने और अपना स्वप्नलोक अलग बसाने में अब शर्म नही आती। एकल परिवारों के नई जगह बसने से एक नई सामाजिक नैतिकता ने आकार ग्रहण किया है जो बुजुर्ग पीढ़ी की नैतिकता से मुक्त होकर अपने नव मध्यवर्गीय सपनों वाला समाज बनाने में जुट गयी है।

मध्यम वर्ग के इस तेज विकास ने देश में एक बहुत बड़ा उपभोक्ता समुदाय भी पैदा किया है और इस बाजार को हथियाने में पश्चिमी औधोगिक देश उसी तेजी से आकर्षित भी हुये है। नई आर्थिक नीतियों को स्वीकारने के लिए बनाया गया दबाव और उसकी स्वीकृति इसी का परिणाम है। इस स्वीकृति के बाद हमने विदेशी सामानों के लिए अपने सारे खिड़की दरवाजे खोल दिये। अपने सामानों की बिक्री हेतु यह आवश्यक हो गया कि पश्चिमी देश हमारे देश में उस संस्कृति का भी विकास करें जिससे उनका सामान बिक सके। इस कार्य के लिए टेलीविजन चैनलों और इन्टरनैट का भरपूर इस्तेमाल होने लगा जिसके माध्यम से सैक्स से जुड़ी सतही सम्वेदनाओं को रात दिन परोसा जाने लगा। वातावरण में बनावटी फागुन और बंसत फैलाया जाने लगा। दूसरी ओर पुरानी शोषित व्यवस्था से नई शिक्षित नारी ने घर के बाहर कदम रखा तो उसे भटकाने वाली व्यवसायिक संस्कृति सामने खड़ी थी। जिस शोषित व्यवस्था से टकराने के लिए उसे जुझारू बनने की जरूरत थी उसकी जगह वह मॉड बनने के रास्ते भटक गयी। इस रास्ते पर उसे अपनी जवानी के बदले में धन धान्य युक्त सपनीला जीवन नजर आया। मन में सामाजिक मान्यताओं को बदलने का स्वीकार लिये हुए मध्यवर्गीय एकल परिवार भिन्न दिशा में बदलने लगा। परिवार नियोजन से सबंधित उपकरणों, औषधियों और उपचारों ने उसे गर्भधारण के सभी खतरों से सुरक्षित कर दिया।

जब देह व्यापार के रैकिट पकड़े जाने की खबरें सामाजिक चिंता की जगह लोक रूचि का विषय बनने लगें तो हमें इस सामाजिक अस्वस्थता की जड़ में छुपे आर्थिक राजनीतिक कारणों की पड़ताल करनी ही चाहिए यदि संभव हो तो उपचार भी तलाशना चाहिऐ।
---- वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

बुधवार, सितंबर 02, 2009

अब गोरखालैंड का क्या होगा?

अब गोरखालैंड का क्या होगा?
वीरेन्द्र जैन
जिन्ना को उनकी उस छवि से भिन्न दर्शाने वाली छवि बनाने, जिसके आधार पर नफरत फैला कर संघ परिवार अपनी दुकान चलाता रहा था, के आरोप में जसवंत सिंह जैसे वरिष्ठ नेता को बिना सफाई मांगे पार्टी से निकाल दिया गया है। अपने निष्कासन के बाद जसवंत सिंह ने भाजपा के जो जो राज खोले हैं उससे भाजपा में दहशत का माहौल है, क्योंकि उनका सारा अस्तित्व ही इसी तरह के कारनामों से भरा हुआ है जिनके सामने आ जाने पर वे नैतिक रूप से झूठे और दोहरे चरित्र वाले प्रमाणित होते हैं। अब सवाल केवल जसवंत का ही नहीं रहा अपितु बंद दरवाजा खुल जाने का हो गया है जिससे दिनप्रति दिन कोई न कोई राज बाहर फूट कर आ रहा है। अरूण शौरी, भुवन चंद खण्डूरी, आदि का साहस उसके बाद ही फूट सका है जबकि असंतोष तो अन्दर ही अन्दर पनप रहा था।
इधर जसवंत सिंह ने संसद की लोकलेखा समिति के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने से इंकार कर दिया है जिसके लिए सुषमा स्वराज को उनके पास भेजा गया था। वे अब दार्जिलिंग से स्वतंत्र सांसद हैं व भाजपा ने जिस हथकण्डे के माध्यम से बंगाल में घुसने का दावा किया था वह भी फेल हो चुका है। स्मरणीय है कि बंगाल में नेपाल की सीमा से लगे दार्जिलिंग जिले में पिछले दो दशक से अलग राज्य बनाने का आन्दोलन चल रहा है जिसे वहाँ के सत्तारूढ मोर्चे ने राष्ट्रहित में कभी भी स्वीकार नहीं किया था भले ही उसके लिए कितनी भी कुर्बानी देनी पड़ी हो और अलग से विकास परिषद का गठन करके गोरखालैंड आन्दोलन के प्रमुख सुभाष घीसिंग को उसका प्रमुख बनाना पड़ा हो। पर पिछले दिनों गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के विस्तार के बाद फिर से अलग राज्य के बहाने अलगाव की मांग जोर पकड़ती जा रही थी व सत्तारूढ मोर्चे व सीपीएम के कार्यकर्ताओं पर खुले हमले बढते जा रहे थे। देश के अधिकांश राजनीतिक दल अलगाववाद के इस खतरे को समझ रहे थे व अलग राज्य की मांग के नाम पर चल रहे इस आंदोलन से दूरी बनाये हुये थे किंतु अपने राजनीतिक स्वार्थों के कारण राष्ट्रभक्ति का ढिंढोरा पीटने वाली भाजपा ने न केवल गोरखा जनमुक्ति मोर्चा से समझौता किया अपितु वहाँ से अपनी पार्टी के लिए उस सीट का सौदा कर लिया। उनके पास वहाँ कोई स्थानीय नेता नहीं था तथा वे खतरा उठाने के लिए संघ से आये किसी अपने खास आदमी को नहीं भेजना चाहते थे इसलिए उन्होंने बलि का बकरा बनाने के लिए पूर्व फौजी व अनुशासन का पालन करने वाले जसवंत सिंह को ही भेज दिया। संयोग से वे वहाँ से जीत भी गये।
उल्लेखनीय है कि अपनी विवादित पुस्तक के पिछले कवर पृष्ठ पर जसवंत सिंह के जीवन परिचय में लिखा हुआ है कि वे “दार्जिलिंग पर्वतीय राज्य” से लोकसभा के लिए चुने गये हैं। भले ही प्रकाशक का कहना है कि ऐसा गलती से हुआ है किंतु ऐसी गलती सहज गलती नहीं हो सकती जबकि जसवंत सिंह का कहना था कि वे उक्त पुस्तक के विमोचन के लिए अपनी पार्टी से बार बार कह रहे थे पर पहले विधानसभा चुनावों के नाम पर और फिर लोकसभा चुनावों के नाम पर इसे टाला गया था। अभी भी महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के नाम पर इसका विमोचन स्थगित करने की सलाहें दी गयीं थीं। यदि देश के विभाजन के लिए जिम्मेवार माने जाने वाले जिन्ना की पुस्तक में लेखक के जीवन परिचय के बारे में इतनी बड़ी भयंकर भूल हो सकती है कि उसे उस राज्य का सांसद बताया जाये जो अस्तित्व में ही नहीं है व जिसका गठन राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से ठीक नहीं है, तब गैर जिम्मेवारी की और क्या सीमा हो सकती है! खेद है कि फ्लैप पढ कर पुस्तक समीक्षा कर देने के लिए मशहूर नामवरसिंह का ध्यान भी इस बड़ी भूल पर नहीं गया।
अब सवाल है कि दार्जिलिंग के लोगों ने जिस उम्मीद में अपना सम्पूर्ण समर्थन एक बाहरी व्यक्ति और उनके क्षेत्र के लिए बाहरी पार्टी को दे दिया था, उनकी उम्मीदों को क्या होगा जो भाजपा के सत्ता में न आने के कारण पहले ही धूमिल हो चुकी थीं। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के केन्द्रीय समिति नेता अमर लामा कहते हैं कि उनका समझौता तो भाजपा के साथ हुआ था और वे भाजपा के साथ हैं व हमारी मांगों को भाजपा ही उठायेगी जबकि भाजपा के लोग इस मांग से सहमत नजर नहीं आते तथा उस मांग का प्रतिनिधित्व करने वालों के प्रतिनिधि को ही उन्होंने पार्टी से निकाल दिया है। दूसरी ओर मोर्चा प्रमुख और आन्दोलन के जाने माने नेता गुरूंग जसवंत सिंह के निरंतर सम्पर्क में बने हुये हैं व उनसे निरंतर न केवल फोन पर बात कर चुके हें अपितु दिल्ली आकर उनसे मिल भी चुके हैं।
यह एक अकेला मामला नहीं है। भाजपा नेता चुनाव जीतने और सरकार बनाने के लिए किसी भी तरह की मांग का समर्थन करने व मौखिक समझौता करने में देर नहीं करते पर उसके बाद सब अपने अपने स्वार्थ साधने में लग जाते हैं। चुनाव जीतने और सरकार बनाने में वे किसी से भी कैसा भी समझौता कर लेते हैं यही कारण है कि वे अकेली ऐसी पार्टी हैं जो सभी तरह की उन संविद सरकारों में सम्मिलित रही है जिन्होंने उसे आमंत्रित किया है। वे वीपी सिंह की सरकार में भी सम्मिलित होने के लिए उतावले थे किंतु बिना बाममोर्चे के समर्थन के सरकार बन नहीं रही थी व माकपा के हरकिशन सुरजीत ने साफ कह दिया था कि हमारा समर्थन तभी मिलेगा जब भाजपा को सरकार से बाहर रखा जायेगा। बाद में उन्हीं वीपीसिंह के खिलाफ उन्होंने अविश्वास प्रस्ताव रखा था और सरकार गिरा दी थी।
संघ के नेता भी अलग गोरखा लैंड बनाने के मामले में चुप्पी साधे हुये हैं व कुछ भी कहने से बचते हैं क्योंकि इसके खतरे से वे अनभिज्ञ नहीं हैं व अलग राज्य बनाने की वे कोई आवश्यकता नहीं समझते। तय है कि दार्जलिंग की जनता भी भाजपा के हाथों ठगी गयी है क्योंकि उन्होंने इस बार अभूतपूर्व एकता दिखायी थी व कठोर संघर्ष किया था। स्मरणीय है कि चुने जाने के बाद जसवंत सिंह ने भी अलग राज्य के बारे में अपने श्री मुख से कुछ नहीं कहा है और अब तो उनके पास कहने के लिए कुछ भी नहीं है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629