तो फिर चीन से कौन लड़वाना चाहता है और क्यों?
वीरेन्द्र जैन
आइये 20 सितम्बर के अखबार उठा कर मुखपुष्ठ की खबरें पढें। आजकल प्रकाशन की जो तकनीक है उस कारण कोई सा भी अखबार उठा लें इनमें ज्यादा भेद नहीं होता। मुखपृष्ठ की जो प्रमुख खबर है उसका लब्बो लुआब यह है कि पिछले दिनों अखबारों में जो चीन का हमला शुरू हो गया था वह हमारे प्रधानमंत्री ने शांत कर दिया।
मनमोहन सरकार ने चीनी घुसपैठ की खबर को सिरे से नकारते हुए मीडिया पर ही हमला बोल दिया है। विदेश मंत्रालय, सेना और एनएसए का कहना है कि चीन की ओर से भारत चीन सीमा पर घुसपैठ अथवा अतिक्रमण की घटनाओं में कोई वृद्धि नहीं हुयी है। मीडिया इस मामले को बढा चढा कर प्रस्तुत कर रहा है।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम के नारायनन ने कहा है कि चीनी सेना द्वारा अतिक्रमण में कोई वृद्धि नहीं हुयी है और चिंता की कोई बात नहीं है।
विदेश सचिव निरूपमा राव ने कहा कि चीनी घुसपैठ को लेकर छपी खबरें अतिरंजित हैं। हकीकत यह है कि भारत-चीन सीमा पर कई दशकों से शांति कायम है। दोनों देशों के बीच संवाद की कारगर प्रणाली कायम है।
सेना प्रमुख दीपक कपूर ने कहा कि अतिक्रमण की घटनाएं पिछले सालों की अपेक्षा इस साल बढी नहीं हैं। मीडिया को इस मसमले को बढा चढा कर पेश नहीं करना चाहिये।
वहीं इसी तारीख के अखबार में प्रकाशित खबर के अनुसार-
· नई दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने जम्मू कशमीर, उत्तराखण्ड, एवं सिक्किम में चीन की सेना द्वारा सीमा अतिक्रमण की रिपोर्टों पर चिंता व्यक्त करते हुये कहा है कि केन्द्र सरकार को चीन के साथ दृढता से पेश आना चाहिए। चीन के अतिक्रमण पर लिखे गये संपादकीय में संघ के मुखपत्र आर्गनाइजर ने मनमोहन सरकार को सलाह दी है कि वह पूर्व की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार की विदेश नीति से सबक ले।
· इससे पूर्व आरएसएस के संगठनों ने विभिन्न प्रदेशों की राजधानियों और मीडिया वाले स्थानों पर चीन के खिलाफ प्रर्दशन किये थे व पुतले झन्डे आदि दहन किये थे।
ये घटनाक्रम कोई मामूली घटनाक्रम नहीं है। सवाल उठता है कि जो पार्टी अपनी सरकार के समय बार बार कहती रही है कि रक्षा और विदेश जैसे राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर राजनीति नहीं होना चाहिये वही एक अविश्वसनीय खबर के आधार पर देश का मनोबल और व्यवस्था को कमजोर क्यों करना चाह रही है जबकि 1962 में ऐसे ही दुष्प्रचार से प्रभावित होकर संसद में देश की सरकार पर जो दबाव बना दिया गया था उसके दुष्परिणाम हमने लम्बे समय तक भुगते हैं। जवाहरलाल नेहरू जिस पंचशील के सिद्धांत पर चलकर देश को विकास के रास्ते पर ले जा रहे थे उससे भटक कर हमने अपनी आय का बहुत बड़ा हिस्सा रक्षा उपकरणों के आयात में लगाना शुरू कर दिया था व आज भी हमारा रक्षा बजट दूसरी जरूरी मदों की तुलना में बहुत अधिक है। यद्यपि यह तय है कि पाकिस्तान के अस्थिर शासन और विभिन्न समयों पर शासन करने वाले फौजी शासकों, जो अमरीकी निर्देशों और धन से संचालित होते हैं, से हमें लगातार खतरा बना रहता है। हम लोग हमेशा से जो आरोप लगाते रहते थे और अमरीका जिसे मानता नहीं था कि पाकिस्तान अमरीकी सहायता से मिलने वाली राशि को भारत के खिलाफ स्तेमाल करता रहता है, उसे पिछले दिनों परवेज मुशर्रफ ने स्वीकार करके आइना दिखा दिया है।
1949 की क्रान्ति के बाद का चीन कोई साम्राज्यवादी देश नहीं है। आज का औद्योगिक रूप से विकसित चीन भी अपने सस्ते औद्योगिक उत्पादनों के माध्यम से दुनिया के दूसरे औद्योगिक देशों का बाजार छीन रहा है। चीन के साथ हमारे मतभेद नक्शोंं पर खींची जाने वाली सीमा रेखाओं के मतभेद हैं और दोनों के ही पास पुराने पुराने नक्शे हैं। चार हजार किलोमीटर तक फैली इन सीमा रेखाओं में अधिकांश भाग बरफ से ढकी पहाड़ियों का है व वहाँ घास तक नहीं उगती है। 1962 में भी जब चीन तिब्बत के लिए इस विवादित सीमा रेखा क्षेत्र में मार्ग तैयार कर रहा था तब गलत अमरीकी सूचनाओं से प्रभावित कुछ सांसदों ने इसे हमला बता कर हमें वहाँ अपनी चौकियां स्थापित करने के लिए वातावरण तैयार कर दिया था जहॉ पर ना तो हमारे पास रसद पहुँचाने के मार्ग थे और ना ही हमारे सैनिकों के पास उपयुक्त हथियार व वहाँ के मौसम के अनुकूल कपड़े, टेंट तक थे। हमने सामरिक महत्व के अनुसार जहाँ पहली बार चौकियां स्थापित की थीं उस क्षेत्र को नक्शोंं में चीन अपना क्षेत्र मानता था व हमारी चौकियां स्थापित होने के कारण उसके मार्ग निर्माण में अवरोध आ गया था। माओ के शासन वाली चीन की तत्कालीन सरकार सैनिक बल में हमसे सशक्त थी। तिब्बत से सारी धनदौलत लेकर भागे दलाई लामा को शरण देने के कारण वे हमारी सरकार से असन्तुष्ट भी थे। परिणाम यह हुआ कि चीन ने हमारी नई बनायी गयी चौकियों से हमें काफी दूर तक पीछे खदेड़ दिया जिसमें हमारी जन धन की काफी हानि हुयी व देश का मनोबल टूटा। यह वही समय था जब नवसाम्राज्यवादी अमेरिका को हमारे देश में प्रवेश का अवसर मिला व मुख्य विपक्षी साम्यवादियों का स्थान साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद ने लेना प्रारंभ कर दिया। इसके दुष्परिणाम हम आज तक भुगत रहे हैं। हमारे देश को सीमा विवाद में चीन द्वारा हमें अपनी सीमा से पीछे घकेल देना तो याद रहा किंतु इस सत्य को साफ तौर पर रेखांकित नहीं किया गया कि उसके बाद चीन अपने आप ही अपनी सीमा में वापिस लौट गया था व उसके लिए कोई अर्न्तराष्ट्रीय दबाव जिम्मेवार नहीं था। यदि वह कोई साम्राज्यवादी देश होता तो बिना किसी सौदे के जीती हुयी जमीन छोड़ कर नहीं चला जाता। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम के नारायनन द्वारा 19 सितम्बर 2009 को करण थापर के टीवी कार्यक्रम डैविल्स एडवोकेट में साफ साफ कहा कि-
· यह बात गलत है कि चीन दबाव डालने की कोशिश कर रहा है। दोनों राष्ट्र शांति बनाये रखना चाहते हैं।
· मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि मीडिया इसे क्यों बढा चढा कर पेश कर रहा है। मीडिया की हद से ज्यादा प्रतिक्रिया समस्या पैदा कर सकती है इसलिए किसी अवांछित घटना को रोकने के लिए सावधान रहने की जरूरत है। नासमझी में किसी के धैर्य खो देने पर कुछ भी गलत हो सकता है।
· 2009 का भारत 1962 का भारत नहीं है। हम सचेत हैं और मैं सोचता हूँ कि हम ऐसी परिस्तिथि में नहीं पड़ें जिसे हम नहीं चाहते।
· चीनी समकक्ष दाई बिंगूओ के साथ वार्ता के नौ दौर के बाद इस समय एक साल पहले की तुलना में हम ज्यादा सहज हैं।
खेद है कि मिसाइलों और एटमी हथियारों के इस युग में भी देश के लोगों को बरगलाने के लिए वही कहानी फिर से दुहरायी जा रही है। प्रधानमंत्री और सेना प्रमुख के स्पष्टीकरण के बाद सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि देश की सुरक्षा और अस्मिता से जुड़ी इस खतरनाक अफवाह के पीछे कौन सी ताकतें हैं और उनके इरादे क्या हैं। विश्वव्यापी मंदी के समय में हम बहुत ही खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं व इतिहास बताता है कि मंदी और युद्धों के बीच कैसे सम्बंध रहे हैं।
यह जाना जाना चाहिये कि आखिर बिना पूरी पुष्टि किये हुये संघ परिवार के लोग इतने सक्रिय क्यों हो गये जबकि उन्होंने अपने संगठन में अनेक सेवानिवृत्त सैनिक अधिकारी भरती कर रखे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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