मंगलवार, जनवरी 28, 2020

इमरजैंसी का पूर्वाभास और मुक्तिबोध बकौल अशोक वाजपेयी


इमरजैंसी का पूर्वाभास और मुक्तिबोध बकौल अशोक वाजपेयी 

वीरेन्द्र जैन
देश में चल रहे हालात को देख कर, एक पुरानी घटना याद आ गयी। कई वर्ष पहले राजनन्दगाँव [छत्तीसगढ] में आयोजित ‘त्रिधारा’ संगोष्ठी में व्याख्यान देते हुए प्रसिद्ध कवि आलोचक अशोक वाजपेयी ने कहा था-
“मुक्तिबोध द्वारा 1962-63 में कविता ‘अंधेरे में’ लिखी गयी थी। वे परम अर्थ में राजनीतिक कवि हैं, और वो परम अर्थ यह है कि जो होने जा रहा है, राजनीति के क्षेत्र में उसका जितना गहरा पूर्वाभास मुक्तिबोध में है, वैसा कम से कम हिन्दी के किसी और कवि को मैं नहीं जानता। आप [श्रोता] चतुर सुजान हैं, मैं हिन्दी का अबोध विद्यार्थी हूं, इसलिए हो सकता है आपको मेरे हिन्दी ज्ञान में थोड़ी थोड़ी दया आये, तो उसे जरूर दिखाइये। लेकिन मैं नहीं जानता कि किसी में ऐसा पूर्वाभास हो। आप ‘अंधेरे में’ को पढिये, जो 1962-63 में लिखी गयी और 1976 में इमरजैसी है। बारह बरस बाद , और उसके ऐसे अनेक दृश्य आप देख सकते हैं जो मुक्तिबोध ने इमरजैंसी ‘देख’ कर लिखे हैं। मैं एक अंश आपको पढ कर सुनाता हूं-
“कर्नल ब्रिग्रेडियर, जनरल, मार्शल
कई और सेनापति सेनाध्यक्ष
चेहरे, वे मेरे जाने बूझे से लगते
उनके चित्र समाचार पत्रों में छपे थे
उनके लेख देखे थे
भई वाह!  
उनमें कई प्रकांड आलोचक, विचारक
जगमगाते कविगण,
मंत्री भी उद्योगपति और विद्वान
यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात्
डोमाजी उस्ताद
और हालांकि वो एक ऐसी दुनिया है
जिसमें कहीं आग लग गई है
कहीं गोली लग गई है
सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक
चिंतक, शिल्पकार और नर्तक चुप हैं
उनके खयाल से ये सब गप है
मात्र किवदंती “
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अशोक वाजपेयी ने अपनी विनम्रता और उसके प्रदर्शन हेतु स्वयं को हिन्दी का अबोध विद्यार्थी कहा। वे अपने क्षेत्र के अप्रतिम विद्वान और अध्येता हैं। सच तो यह है कि अशोक वाजपेयी और उनके आसपास रहने वाले कवि, आलोचक छन्द कविता को बहुत हिकारत की दृष्टि से देखते रहे हैं, अन्यथा 1959 में प्रकाशित मुकुट बिहारी सरोज के गीत संकलन ‘किनारे के पेड़’ में प्रकाशित एक गीत “ सब प्रश्नों के उत्तर दूंगा, लेकिन आज नहीं “ में भी इमरजैंसी का वैसा ही पूर्वाभास देख लिया गया था। इस गीत की कुछ पंक्तियां यहां प्रस्तुत हैं-
सब प्रश्नों के उत्तर दूंगा, लेकिन आज नहीं
आज इसलिए नहीं, कि तुम मन की कर लो
बाकी बचे न एक, खूब तबियत भर लो
आज बहुत अनुकूल ग्रहों की बेला है
चूको मत, अपने अरमानों को वर लो
कल की साइत जो आयेगी
सारी कालिख धो जायेगी
इसलिए कि अंधियारे की होती उम्र दराज नहीं
सब प्रश्नों के उत्तर दूंगा, लेकिन आज नहीं
आज सत्य की गतिविधियों पर पहरे हैं
क्योंकि स्वार्थ के कान, जन्म से बहरे हैं
ले दे के अपनी बिगड़ी बनवा लो तुम
निर्णायक इन दिनों बाग में ठहरे हैं
कल ऐसी बात नहीं होगी
ऐसी बरसात नहीं होगी
इसलिए कि दुनिया में रोने का आम रिवाज नहीं
सब प्रश्नों के उत्तर दूंगा, लेकिन आज नहीं ..................
मुझे लगता है कि बातचीत के अन्दाज में व्यंग्य गीत रचने वाले सरोज जी अपनी तरह के अनूठे कवि रहे हैं। उनका छन्द विधान व विषय सबसे अलग तो थे ही, वे पूरी तरह एक राजनीतिक कवि थे।
मुक्तिबोध कवि के साथ एक बहुत अच्छे विचारक और लेखक भी थे। मेरे जैसे गैर साहित्यिक पाठकों को वे कवि की तुलना में विचारक अधिक अच्छे लगते हैं। मुकुट बिहारी सरोज, और उनके समय के अनेक नागुर्जनों, शीलों, व केदारनाथ अग्रवालों को नई कविता के विश्वविद्यालयी आलोचकों ने हाशिए पर धकेला हुआ है। साहित्य की पुस्तकों, व पत्रिकाओं में इन लोगों के साहित्य पर कम से कम लिखा गया है। जो छुटपुट लिखा भी गया है, वह उनके लेखक संगठन वालों ने ही लिखा है, इसलिए भी उसको कम महत्व मिल सका है।
मैं याद दिलाना चाहूंगा कि मुक्तिबोध की सन्दर्भित कविता सर्व प्रथम हैदराबाद से निकलने वाली ‘कल्पना’ पत्रिका में प्रकाशित हुयी थी तथा उसका शीर्षक था “सम्भावनाओं के दीप अंधेरे में”। यह बात मुझे कल्पना के सम्पादकीय मंडल के वरिष्ठ सदस्य मुनीन्द्र जी ने बतायी थी।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

शुक्रवार, जनवरी 17, 2020

फिल्म समीक्षा छपाक – ब्लैक का अगला संस्करण


फिल्म समीक्षा
छपाक – ब्लैक का अगला संस्करण 
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वीरेन्द्र जैन
हमारे देश में भी अच्छी फिल्में बन रही हैं जिनमें बहुत सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक समस्याएं उठायी गयी हैं, किंतु उनकी समीक्षा बहुत स्थूल ढंग से हो रही है। दीपिका पाडुकोण की फिल्म छपाक के साथ भी ऐसा ही हुआ है। तेजाब के हमले से घायल होकर बच गयी लड़कियों की समस्या पर केन्द्रित कथा पर यह फिल्म बनायी गयी है। संयोग से या सोचे समझे ढंग से जे एन यू के छात्रों पर हुए हमलों के विरोध में सहानिभूति प्रदर्शित करने पहुंची दीपिका पाडुकोण की प्रशंसा और विरोध में यह फिल्म चर्चित भी हुयी। विरोध के किसी भी रूप को सहन न कर पाने वाली सरकारी पार्टी के लोगों ने बिना इसकी महत्ता व संवेदना पर विचार किये, फिल्म का अन्ध विरोध करवा दिया। फिल्म के बाक्स आफिस पर सफल या असफल होना तो अलग बात है, किंतु इस सब में सरकार का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। एक सामाजिक समस्या पर बनी फिल्म का विरोध ही नहीं, उस पर झूठे साम्प्रदायिक आरोप लगवाने में भी सरकारी पार्टी नहीं चूकी। ऐसा लग रहा था कि जैसे फिल्म के सफल होते ही सरकार को गिर जाने का खतरा पैदा हो गया है।
फिल्म की कथा या कहें कि घटना केवल इतनी है कि घर की आर्थिक स्थिति से परेशान एक लड़की पढाई छोड़ कर एक टेलर मास्टर के पास सिलाई सीखने लगती है, और लड़की की उम्र से बड़ा प्रशिक्षक टेलर बदले में उसे अपनी सम्पत्ति समझने लगता है। इस सब से अनजान लड़की जब अपने पुराने सहपाठी से मिलती है तो नाराज टेलर मास्टर अपनी बहिन की मदद से उस के चेहरे पर तेजाब फेंक देता है। पीड़ित लड़की इसी क्रम में एक ऐसे एनजीओ के सम्पर्क में आती है जो तेजाब के हमले से शिकार लड़कियों पर ही काम कर रहा होता है। यह संयोग है कि उक्त लड़की की इलाज में मदद वह गृहस्वामिनी करती है, जिसके यहाँ उसका पिता खानसामा था, और उसकी ही एक एडवोकेट मित्र दोषी को सजा दिलाने में मदद करती है। इन लोगों का प्रयास या कहें कि संघर्ष सफल होता है और न केवल हमलावरों को सजा मिलती है अपितु राज्य सरकारों द्वारा एसिड की बिक्री पर नियंत्रण रखने का आदेश भी मिलता है।
आम तौर पर समीक्षक इस या इस जैसी फिल्मों को यहीं तक देखते हैं, और उन पर लिखते हैं। किंतु फिल्म आगे तक जाती है। जीवन सम्पूर्णता में जिया जाता है, भले ही किसी समय विशेष में एक विशेष समस्या दूसरी बातों को हाशिये पर रखती हैं। एसिड हमले से पीड़ित एक महिला का इलाज और कानूनी लड़ाई जीवन के शेष हिस्से को खत्म नहीं कर देती। सौन्दर्य बोध केवल चेहरे तक ही सीमित नहीं होता अपितु व्यक्ति के मानवीय गुण भी उसके सौन्दर्य को प्रकट करते हैं। व्यक्ति चाहता है कि अपने चेहरे के आकर्षण के अलावा उसके गुणों के कारण भी उसे पसन्द किया जाये। चेहरा विकृत हो जाने से उसके जीवन की दूसरी आवश्यकताएं समाप्त नहीं हो जातीं। उसे जिन्दा रहने के लिए रोटी कपड़ा और मकान की भी जरूरत होती है जिसके लिए एक अदद सवैतनिक नौकरी की जरूरत होती है। जब अच्छे अच्छे चेहरों तक को नौकरी के लाले पड़ रहे हों तब विकृत होकर असामान्य चेहरे वालों को नौकरी कौन देता है। हमलावरों को मिली सजा, या एसिड बिक्री पर लगी रोक उसके जीवन की अन्य समस्याओं को राहत नहीं देतीं। उसे विकलांग श्रेणी का भी नहीं समझा जाता। बस में माँएं अपने बच्चों को पीड़िता की ओर देखने से रोक्ती हैं और कई बच्चे उसे देख कर चीख पड़ते हैं, जिसे सुन कर अपने आप से घृणा होने लगती है। एक विकृत चेहरे वाली महिला को भी जीवन में प्रेम और दैहिक साथ की जरूरत होती है, किंतु प्लास्टिक सर्जरी के बाद भी विपरीत लिंग के लोगों की आंखों में वह आकर्षण नहीं टपकता, जो एसिड अटैक से पहले दिखता था। उल्लेखनीय है कि कुछ दिनों पहले एक फिल्म आयी थी, जिसमें जब एक विकलांग लड़की की बहिन उसका जन्मदिन मनाती है और उससे वांछित उपहार पूछती है तो वह कहती है कि मैं सेक्स करना चाहती हूं।
इसी तरह फिल्म ब्लैक में गूंगी बहरी नायिका को उसका वयोवृद्ध शिक्षक होठों पर उंगली रख कर संवाद सिखाता है, किंतु एक युवा लड़की के होठों पर उंगली रखने से जनित संवेदनाएं अपने निकट रह रहे पुरुष के प्रति आकर्षण पैदा करती हैं, जिससे शिक्षक नैतिक असमंजस में फंस जाता है। यह फिल्म भी बताती है कि उस दिव्यांग लड़की के जीवन की समस्याएं, सम्वाद के लिए भाषा के ज्ञान आने तक समाप्त नहीं हो जातीं। फिल्म में इस बात को चित्रित किया गया था किंतु फिल्म पर विचार करने वालों ने अपनी समीक्षाओं में इस बात का कहीं उल्लेख नहीं किया। छपाक भी परोक्ष रूप से ब्लैक में उभारी गयी बात को ही आगे बढाती है।
छपाक की निर्देशक मेघना गुलजार और सह निर्मात्री व नायिका दीपिका पाडुकोण ने यह फिल्म बना कर बहुत साहसिक काम किया है। फिल्म बाक्स आफिस पर बहुत ज्यादा सफल नहीं हो सकी है किंतु घाटा भी नहीं दे रही। दीपिका के दुस्साहस की दाद दी जाना चहिए कि उसने मुख्यधारा की नायिका रहते हुए इस विशिष्ट भूमिका को चुना। इतना ही नहीं उसने अपनी भूमिका के प्रति पूरा पूरा न्याय किया है। मेघना का निर्देशन सफल है। दीपिका की भूमिका फिल्म के बाहर पूरे देश के स्तर पर भी सफल है। ऐसे ही साहस कला को ज़िन्दा रखते हैं।
 वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023 मो. 9425674629            

सन्देश सम्प्रेषण तो गाँधी जी से सीखें


सन्देश सम्प्रेषण तो गाँधी जी से सीखें

वीरेन्द्र जैन
कोई वाक्य या वक्तव्य, सन्देश तब ही बन पता है, जब वह उन लोगों तक सम्प्रेषित हो सके जिन्हें वह सम्बोधित किया गया है। यदि वक्तव्य सम्प्रेषित हो सकने में असमर्थ रह जाता है तो उस कथ्य का महत्व उस समय शून्य रहता है। कोई भी सन्देश एकांगी नहीं हो सकता क्योंकि उसमें देने वाले और ग्रहण करने वाले दो पक्ष होते हैं। इन दोनों के बीच समन्वय अनिवार्य है। जहाँ जैसा समन्वय सम्भव हो पाता है, वैसा ही सन्देश सम्प्रेषित हो पाता है, और वैसी ही कार्यवाही सम्भव हो पाती है।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महात्मा गाँधी ऐसे नेता रहे जिनका सन्देश देश की जनता तक सरलता से सम्प्रेषित हो सका। इसी गुण के कारण वे दूसरे नेताओं की तुलना में प्रभावी नेतृत्व कर सके। गाँधीजी में सन्देश सम्प्रेषण की अद्भुत क्षमता थी। वे सम्प्रेषण की प्रत्येक सम्भव विधि का बेहद कुशलता से उपयोग करते थे। 
सन 1918 के कलकत्ता अधिवेशन में महामना तिलक ने अंग्रेजी में बहुत सारगर्भित भाषण दिया पर गान्धीजी ने महसूस किया कि अधिवेशन में उपस्थित चार सौ प्रतिनिधियों में से अधिकांश तक उनकी बात नहीं पंहुच सकी है। गाँधीजी का क्रम आने पर उन्होंने सभा से पूछा कि अगर आप कहें तो मैं हिन्दी में बोलूं? उनके इस सवाल पर सभा की ओर से भरपूर सहमति का स्वर सुनायी दिया। उस दिन गाँधीजी के भाषण पर बार-बार करतल ध्वनि गूंजी। बाद में तिलक जी ने कहा कि अगली बार मैं भी हिन्दी में बोलूंगा। अपने श्रोताओं तक सन्देश पहुंचा सकने वाली भाषा के चुनाव के प्रति गाँधीजी सदैव सजग रहे। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ही उन्होंने राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना की थी। इसी दौरान इस समिति का कार्यालय मद्रास [चेन्नई] में खोलने का फैसला कितना दूरगामी था।
शिक्षित और साक्षर लोगों तक पहुंचने के लिए उन्होंने ‘हरिजन’ और ‘यंग इंडियन’ नामक समाचार पत्र निकाले व उनका सम्पादन किया। अपने अफ्रीका प्रवास के दौरान भी उन्होंने वहाँ ‘इंडियन ओपीनियन‘ नामक अखबार निकाला था जिससे वे अनुभव सम्पन्न हुये थे। आज की तरह अपने पक्ष का टेलीविजन और रेडियो स्टेशन न होते हुए भी उन्होंने अपनी बात को देश के कोने कोने में पहुंचाया।
गांधीजी आस्तिक थे और अपने आपको वैष्णव बताते हुये भी उन अर्थों में धार्मिक नहीं थे जिन अर्थों में आज इस शब्द का प्रयोग होता है और जो जोड़ने से अधिक लोगों को बांटने के काम अधिक आता है। गाँधीजी धार्मिक होने को जोड़ने के काम में लेते थे। उनके आश्रम में तथा आश्रम के बाहर की दिनचर्या में भी प्रार्थना अनिवार्य होती थी। इन प्रार्थनाओं में गाये जाने वाले भजनों का चयन गाँधीजी ने स्वयं किया था। जिनके बोल सामाजिक एकता का सन्देश देते थे। ‘रघुपति राघव राजाराम, पतित के पावन सीताराम’ के साथ ‘ अल्लाह ईश्वर एकहि नाम , सबको सन्मति दे भगवान’ भी सम्मलित था। उनके प्रिय भजनों में “ वैष्णवजन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाणे है’ था जो कि वैष्णवजनों के आचरणों को परिभाषित करती है। उनकी प्रार्थना सभा में सभी धर्मों की प्रार्थनाएं सम्मलित होती थीं जिन्हें हर जाति और धर्म के सभी उपस्थित एक साथ गाते थे।
भले ही उन दिनों आज की राजनीति के समान ‘प्रैस मैनेजमेंट’ का काम नहीं किया जाता था, पर गाँधीजी प्रैस के महत्व को समझते थे। उनके आश्रमों में मेहमान पत्रकारों का सदैव स्वागत था और उनका समुचित ध्यान रखा जाता था। उनकी दांडी यात्रा के दौरान बी बी सी लन्दन के दो पत्रकार पूरी यात्रा के समय उनके साथ रहे और प्रतिदिन सूचनाएं भेजते रहे जिससे गाँधी जी के आन्दोलन के अभिनव प्रयोग पूरी दुनिया तक पहुंचते रहे। दांडी यात्रा नमक बनाने के लिए कानून तोड़ने की घोषित यात्रा थी। नमक जो हर घर के लिए जरूरी चीज होने के कारण सबसे जुड़ी थी।
गाँधीजी ने अपनी वेषभूषा और व्यवहार से भी निरंतर सन्देश दिया। केवल एक धोती पहिन कर लन्दन में गोलमेज कांफ्रेंस में जाकर उन्होंने प्रैस के माध्यम से पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर व परोक्ष में अपने स्वाधीनता संघर्ष की ओर आकर्षित किया। उनसे कहा गया था कि ब्रिटिश शासन के नियमों व परम्परा के अनुसार ही कपड़े पहिन कर आयें किंतु उन्होंने इसे नहीं माना। जब वायसराय ने उनसे पूछा कि गाँधी आपके कपड़े कहाँ हैं? तो उन्होंने उत्तर दिया कि न केवल मेरे अपितु मेरे पूरे देशवासियों के कपड़े तो आप अंग्रेजों ने लूट लिये हैं, और यही बात कहने मैं यहाँ आया हूं। स्मरणीय है कि भगत सिंह ने पार्लियामेंट में जो बम फेंका था वह इतना शक्तिशाली था कि उससे कई जानें जा सकती थीं, किंतु उन्होंने बम को ऐसे स्थान पर फेंका जिससे किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ। उसके बाद उन्होंने स्वयं गिरफ्तारी दी और कहा कि यह धमाका तो मैंने बहरों को अपनी बात सुनाने के लिए किया है। कहते हैं कि बम फेंकने की जिम्मेवारी लेने के लिए भगत सिंह और चन्द्र शेखर आज़ाद के बीच बहस भी हुयी थी क्योंकि आज़ाद खुद यह काम करना चाहते थे। पर भगत सिंह जो बहुत उच्च स्तर के बौद्धिक थे, ने कहा कि मुकदमें की बहस के माध्यम से हम अपना सन्देश पूरे देश को दे सकते हैं, और यह काम मैं बेहतर कर सकता हूं। उल्लेखनीय है कि भगत सिंह ने उक्त प्रकरण में अपनी बहस खुद की थी।
किसी के द्वारा कई पन्नों में गाँधीजी की निन्दा का पत्र आने पर गाँधीजी ने उसमें से आलपिन निकाल ली और कहा कि इस सब में यही एक काम की चीज है। उन्होंने सही ही कहा था कि मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है। वे अपने प्रत्येक काम से अपना सन्देश देते थे।
गाँधीजी जब माउंट्बेटन से मिलने गये तो उनके कमरे में कूलर चल रहा था। फ्रीडम एट मिडनाइट के लेखक लपियर कालिंस के अनुसार तब भारत में चलने वाला शायद वह एकमात्र कूलर रहा होगा। गाँधीजी बोले मुझे सर्दी लग रही है, ऐसा कह कर उन्होंने बातचीत से पहले वहाँ का कूलर बन्द करा दिया। ऐसा कर के उन्होंने सन्देश दिया कि तुम्हारी मशीनों से मैं चमत्कृत नहीं हूं, व हमें बराबरी से बात करनी होगी। इस समय भी उन्होंने अपनी ओर से कोई बात नहीं छेड़ी, केवल अपनी उस घड़ी की चर्चा करते रहे जो चोरी चली गयी थी। परोक्ष में वे कह रहे थे कि राजा तेरे राज्य में मेरी घड़ी भी सुरक्षित नहीं है।
उनका एक चम्मच था जिससे वे दही खाते थे । जब वह चम्मच टूट गयी तो उन्होंने उसमें एक खपच्ची बाँध ली और लगातार उसका उपयोग करते रहे। जब लेडी माउंटबेटन ने मेज पर नाश्ता लगवाया तो उन्होंने अपनी थैली में से वही टूटा चम्मच और दही निकाल लिया और बोले अपना नाश्ता मैं खुद लाया हूं। उस साम्राज्य के प्रतिनिधि के सामने जिसके राज्य में सूरज नहीं डूबता था, ऐसा व्यवहार कर के गाँधी अपनी विनम्र चुनौती रखते थे। इस व्यवहार का सन्देश दूर दूर तक गया।
साबरमती आश्रम का नियम था कि चाहे जिस जाति का व्यक्ति आकर रुके, उसे अपना पाखाना खुद ही साफ करना होगा। यह एक परम्परागत समाज में विद्रोह का संगीत था। देश काल परिस्तिथि को देखते हुए स्वच्छता के लिए उन्होंने आज की तरह घर घर शौचालय का सन्देश नहीं दिया अपितु इतना कहा कि शौच जाने के बाद उसे वहीं की मिट्टी से दबा देना चाहिए, ताकि गन्दगी न फैले।
आज़ादी की लड़ाई का अपना सन्देश व्यापक स्तर तक पंहुचाने के लिए उन्होंने कितने कितने रूप धरे। समाज सुधारक, महात्मा, प्राकृतिक चिकित्सक, कुष्टरोगियों के सेवक, रैडक्रास वालंटियर, सम्पादक, लेखक, संगठनकर्ता,आदि आदि। जिस व्यक्ति के पास जिस माध्यम से सन्देश जा सकता है, उसे पहुंचाना उनका काम था। विभिन्न तरह के लोगों के बीच विभिन्न तरीकों से ही जुड़ा जा सकता है। खेद की बात तो यह है कि उनकी सम्प्रेषण शक्ति को उनके नाम से राजनीति करने वाले नहीं अपना रहे जबकि विघटनकारी ताकतें उनके औजारों का दुरुपयोग कर रही हैं।
वीरेन्द्र जैन
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मो. 9425674629


गुरुवार, जनवरी 09, 2020

जे एन यू, लेफ्ट, संघी और नकाबपोश


जे एन यू, लेफ्ट, संघी और नकाबपोश
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वीरेन्द्र जैन
नाथूराम गोडसे ने जब महात्मा गाँधी की हत्या की थी तो वह उनके किसी प्रशंसक की तरह हाथ जोड़े हुये आया था और उन्हीं जुड़े हुये हाथों में उसने पिस्तौल छुपा रखी थी, जिसमें से तीन गोलियां उसने गाँधीजी के सीने में उतार दी थीं।
जिन लाल कृष्ण अडवाणी ने पूरे भारत में घूम घूम कर कमल का फूल पेंट किये डीसीएम टोयटा को रथ बता कर, व बाबरी मस्ज़िद को गुलामी का प्रतीक प्रचारित कर अयोध्या जाने के लिए मासूम भक्तों की भीड़ जोड़ी थी, उन्होंने ही बयान दिया था कि ‘मैं तो उन्हें मस्जिद तोड़ने से रोक रहा था, पर वे मेरी भाषा नहीं समझ सके और वह इमारत टूट गयी’। योजनाबद्ध तरीके से अटल बिहारी वाजपेयी को दिल्ली और संसद में मोर्चा सम्हालने के लिए भेज दिया गया था, उन्होंने संसद में कहा था कि मस्ज़िद टूटने पर अडवाणी जी का चेहरा आंसुओं से भरा हुआ था, अर्थात वे तो दुखी थे। इस दोहरे चरित्र से दुखी होकर ही बाल ठाकरे ने कहा था कि बाबरी मस्जिद तोड़ने की मैं जिम्मेवारी लेता हूं इसे हमारे लोगों ने तोड़ा। क्या मराठी लोग इतनी हिन्दी भी नहीं समझते कि उन्हें किस बात के लिए रोका जा रहा है।
भाजपा की असमंजस हमेशा यह रही कि वे जिम्मेवारी से तो बचना चाहते हैं किंतु भोले भक्तों के बीच उसका चुनावी लाभ भी लेना चाहते हैं, इसलिए जब भाजपा शासित चार राज्यों की सरकारें दंगों के कारण भंग कर दी गयीं तो उसके बाद हुये चुनाव में उनका नारा था ‘ जो कहा सो किया’ । अब लोग समझ लें कि उन्होंने क्या कहा था और क्या किया। यह ऐसे चतुर सुजानों की भाषा थी जिनकी चतुराई जगह जगह से टपकी फिर रही हो।
गुजरात में 2002 के नरसंहार में लगभग तीन हजार मुसलमानों की हत्या करके उनके घर और दुकानें लूट ली गयी थीं उनमें से 962 मृतकों का तो पोस्टमार्टम हुआ इसलिए सरकारी तौर पर स्वीकार कर लिये गये और शेष गायब बताये गये। किसी को भी इस नरसंहार के लिए फांसी नहीं हुयी। इतने बड़े नरसंहार के बाद भी अभियोजन की मदद से सारे आरोपी छूट गये या जमानत पर अपनी पूरी जिन्दगी गुजार देंगे। उसी नरसंहार की याद दिलाते हुए कर्नाटक के एक भाजपा विधायक ने हाल ही में कहा कि मुसलमान न भूलें कि 2002 में गुजरात में क्या हुआ था और वह दुहराया भी जा सकता है। ऐसा ही एक दिन में साफ कर देने का बयान हरियाणा के एक विधायक ने दिया है। इसका मतलब यह कि         ‘ अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो’ की तरह अर्थ कुछ और है व आशय कुछ और है।
जे एन यू छात्र संघ के चुनावों में हर राजनीतिक विचारधारा के छात्र संगठन भाग लेते हैं, और एक ही मंच से एक दूसरे की विचारधारा के खिलाफ खुल कर बहस करते हैं। वहाँ की संस्कृति में वैचारिक मतभेद कभी हिंसक नहीं हुये थे क्योंकि वामपंथ वहाँ मुख्यधारा में था व भाजपा के छात्र संगठन एबीवीपी को वहाँ के छात्रों ने कभी गम्भीरता से नहीं लिया। प्रखर छात्रों व प्रोफेसरों द्वारा साम्प्रदायिकता की मुखर आलोचना के प्रभाव में छात्रों के बीच एबीवीपी अछूत की तरह रहा व अनेक द्लों में विभाजित वामपंथ ही वहाँ की मुख्यधारा रहा। किंतु किसी भी तरह सत्ता हथिया लेने में कुशल मोदी सरकार के केन्द्र में आने के बाद वे जे एन यू छात्रसंघ में अपना स्थान बना कर वहाँ की मुख्यधारा को बदल देना चाहते थे। उल्लेखनीय है कि 2014 में ही सुब्रम्यम स्वामी ने कहना शुरू कर दिया था कि जे एन यू को बन्द कर देना चाहिए। सच तो यह है कि जे एन यू के छात्र जो सच्चाई सामने लाते थे उससे इनके झूठ के गुब्बारे की हवा निकल जाती थी।
2016 में ही इन्होंने देश के विरोध का आरोप उन छात्र नेताओं पर लगा दिया, जिन्होंने वैसा कुछ कहा ही नहीं था जैसा प्रचारित किया गया। उनके दुष्प्रचारक ही नहीं अपितु स्वयं प्रधानमंत्री, और गृहमंत्री तक छात्रों को अर्बन नक्सल या टुकड़े टुकड़े गैंग कहने लगे। देशद्रोह का  मुकदमा तक लगवाने की कोशिश की। जो सत्ता के शिखर पर बैठे हैं वे देशद्रोह जैसे आरोपों पर कार्यवाही करने की जगह इसे अपने राजनीतिक प्रतिद्वन्दियों के प्रति अवधारणा बनाने में प्रयोग करें तो शर्म आती है। सच तो यह है कि जो प्रचारित किया गया वैसा कोई मामला था ही नहीं।
जे एन यू में हाल में घटित घटनाओं के लिए जाँच बैठाने की औपचारिकता चल रही है किंतु हालिया रवैये को देखते हुए रिपोर्ट सत्य से बहुत दूर भी हो सकती है, जबकि लगभग सबको पता है कि अपराधी किसके भेजे हुये थे व पुलिस और सेक्युरिटी ने क्यों अपना काम नहीं किया। वी सी की राजनीतिक नियुक्ति से लेकर फीस बढाने और बाहर से बाहुबली लाकर अपने प्रभुत्व को बढाने में स्तेमाल करने तक जो काम देश की सत्तारूढ पार्टी का अध्यक्ष, गृह मंत्री व प्रधानमंत्री कर रहे हैं वह इन पदों की गरिमा को बहुत नीचे ले जा रहा है। अब तो नगर निगमों तक की राजनीति इन से ऊपर उठ रही है। दो राजनीतिक विचारधाराओं में मतभेद होना तो लोकतंत्र के स्वास्थ के लिए अच्छा है, किंतु देश की राजधानी में देश के सबसे महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय में  नकाबपोश आकर वहाँ के छात्रसंघ की महिला अध्यक्ष पर घातक हमला करें, अन्य महिला प्रोफेसरों समेत अनेक छात्रों पर हमला करें,  दो तीन घंटे तक आतंक का नंगा नाच करें और न वीसी कुछ करे, न सेक्युरिटी, न पुलिस तो खतरे की गम्भीरता को नापना जरूरी है। इसी राजधानी में ही राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री आदि भी रहते हैं। जब कोई ऐसा अपराधिक काम करता है जिसे वह सामने आकर नहीं कह पा रहा हो तब ही वह नकाब ओढ कर आता है। इन्हीं नकाबपोशों ने उन कमरों और कार्यालयों पर कोई हमला नहीं किया जिन के बाहर एबीवीपी या उनके संगठन से जुड़े होने के संकेत थे। यह भी अपने आप में साफ संकेत देता है, कि हमलावर कौन थे।
 सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़ रहा है कि देश की हालत बहुत खराब है व सरकार को तेजी से ध्यान देना चाहिए। सच तो यह है कि देश के सर्वोच्च पद पर बैठे हुए लोग भले ही निर्धारित ढंग से चुन कर आये हों किंतु वे अपने पद का निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं। लोकतंत्र की दुहाई भी तब ही दी जा सकती है जब दल के चुनावों में लोकतंत्र हो और पदों की उम्मीदवारी के लिए चयन भी लोकतांत्रिक तरीके से हो। व्यवस्था में निरंतर विचलन हो रहे हैं जो देश को गलत दिशा में धकेल रहे हैं। ईवीएम का लोकतंत्र सड़्कों के लोकतंत्र से पिछड़ रहा है। ऐसी दशा में गृहयुद्ध से लेकर विभाजन की ओर बढने तक कुछ भी असम्भव नहीं। देश में विश्वविद्यालय तब सही विपक्ष की भूमिका निभा रहे हैं, जब कि विपक्ष अपना काम नहीं कर रहा है। दिल्ली में राजनीतिक कर्यकर्ताओं की जगह जुझारू छात्र अमीर कजलवाश के इस शे’र में व्यक्त विश्वास के साथ सड़क पर ही हैं।
मिरे जुनूं का नतीजा जरूर निकलेगा
इसी सियाह समुन्दर से नूर निकलेगा
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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शुक्रवार, जनवरी 03, 2020

संस्मरण श्रीकृष्ण सरल ने हास्य कविताएं भी लिखीं


संस्मरण
श्रीकृष्ण सरल ने हास्य कविताएं भी लिखीं
वीरेन्द्र जैन

यह श्रीकृष्ण सरल का जन्म शताब्दी वर्ष है। ठेठ बचपन में जिन लोगों की कविताओं ने रस पैदा किया था उनमें श्री चतुर्भुज चतुरेश, श्री वासुदेव गोस्वामी और श्रीकृष्ण सरल का नाम याद आता है। आज जिन सरल जी को लोग राष्ट्रवादी कविताओं के लिए जानते हैं, उनमें से कम ही लोगों को पता होगा कि सरल जी ने हास्य कविताएं भी लिखी हैं और उनकी हास्य कविताओं का एक संकलन पिछली सदी के छठे दशक में प्रकाशित हुआ था जिसका नाम था “ हैड मास्टर जी का पाजामा” । बचपन में मिले इस संकलन की हास्य कविताओं से मिले आनन्द ने भी कविताओं के प्रति मेरे आकर्षण में बढोत्तरी की थी।
पहले आम चुनाव में आरक्षित वर्ग की सीटों के लिए सुपात्र प्रतिनिधि नहीं मिले होंगे इसलिए जो जितने शिक्षित लोग मिले उन्हें ही कांग्रेस ने टिकिट देकर विधायक बनवा दिया था। ऐसे ही एक विधायक थे दतिया निवासी श्री राम दास चौधरी जो उस समय सम्भवतः दो या तीन क्लास तक पड़े थे। पता नहीं यह बात सच है या झूठ पर सवर्ण जगत में इसे लोग बहुत मजे लेकर सुनाते थे कि जब श्री चौधरी टीकमगढ जिले की किसी सीट से विधायक चुन कर आये तो उन्होंने लोगों से कहा कि वे एल एम ए [एम एल ए ] बन गये हैं। उस समय दतिया में जो दो तीन दर्जन सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय लोग रहे होंगे उनमें मेरे पिता भी आते थे क्योंकि उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था और चन्द्रशेखर आज़ाद के सहयोगी रहे थे। मेरे घर में उन दिनों अखबार आते थे और ज्ञानोदय [पुरानी] आती थी। दद्दा के प्रैस से छपीं किताबें भी थीं। श्री राम दास जी हमारे घर भी आते थे क्योंकि उन दिनों हमारा निवास नगर के बिल्कुल बीचों बीच था। बाद में रामदास जी चुनाव नहीं जीत सके थे किंतु वे सामाजिक रूप से सक्रिय रहना चाहते थे। उन्होंने नगर में एक पुस्तकालय स्थापित करना चाहा जिसमें मेरे पिता ने भी उनका सहयोग किया। पुस्तकालय का नाम अम्बेडकर पुस्तकालय रखा गया था और मेरे घर से भी ढेर सारी पुस्तकें उस पुस्तकालय को उपहार में दी गयीं थीं। प्रारम्भ में यह पुस्तकालय बीच बाजार में सुप्रसिद्ध समाजसेवी श्री राम प्रसाद कटारे की दुकान के सामने था।
इस पुस्तकालय में मैं और मेरी बहिन साधिकार पुस्तकें लेने जाते थे और इसी क्रम में हमें श्रीकृष्ण  सरल जी की पुस्तक “ हैड मास्टर जी का पाजामा” को पढने का सौभाग्य मिला था। इसकी अनेक कविताएं उस समय याद हो गयी थीं जिन्हें स्कूल के कार्यक्रमों में सुना कर लूटी गयी वाहवाही से ही वाहवाही का चस्का लगा था। एक कविता की पंक्तियां तो अभी तक याद हैं, जिनमें कविता का पात्र अपनी मोटी पत्नी के साथ सिनेमा देखने जाता है और कुछ देर हो जाने के कारण जब सीटें टटोलता हुआ आगे बढता है तो उस घटनाक्रम का चित्रण है-
फिल्म हो गयी थी चालू जब पहुंचे चित्र भवन में
अंधियारे में सीटें टटोलते बढते थे विचित्र उलझन में
एक सीट पर दुबले पतले भाई बैठे दब कर
खाली कुर्सी समझ, श्रीमती जी बैठीं उन्हीं पर
चिल्लाये वे मरा मरा मैं, कौन बला है आयी
आगे बढ कर श्रीमती ने आसन नई जमायी
खाली वार गया लेकिन, कुर्सी का केवल भ्रम था
वे धड़ाम से गिरीं, गिरा मानो यह एटम बम था ........
बाद में यदा कदा उनके बारे में सुनने को मिलता रहा कि उन्होंने देश के महापुरुषों की जीवन गाथाओं को छन्दबद्ध करके अनेक महाकाव्य रचे हैं। वे राष्ट्रीयता के कवि के रूप में पहचाने जाने लगे। किंतु प्रगतिशील, जनवादी कविता के ओर रुझान होने से मेरा ध्यान उनकी कृतियों की ओर नहीं गया।
1995 में मेरी पोस्टिंग भोपाल के बैरागढ में मेरे बैंक पंजाब नैशनल बैंक की एक उप शाखा के प्रबन्धक के रूप में हुयी। यह उप शाखा एक समाजसेवी संस्था सेवा सदन से जुड़ी कई संस्थाओं, व उनके कर्मचारियों के लिए विशेष रूप से खोली गयी थी। संस्था के ही एक पदाधिकारी मेरे बैंक में कर्मचारी भी थे। उन्होंने एक बार संस्था में राष्ट्रीय कवि के आने की सूचना दी तो मैंने नाम जानना चाहा। उन्होंने श्रीकृष्ण सरल जी का नाम बताया तो मेरी पुरानी स्मृतियां ताजा हो गयीं। मैंने उन्हें अपने बैंक में आमंत्रित करने का अनुरोध किया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। वे आये और जब मैंने उन्हें उनकी कृति के साथ जुड़ी स्मृतियों के बारे में बताया तो वे बहुत खुश हुये। वे काफी देर तक रुके, उन्होंने हम लोगों के साथ फोटो भी खिंचवाया। सेवा सदन ने उनकी कृतियों का पूरा सेट भी खरीदा, जिसके लिए उनकी यात्रा थी। इस पीढी के लोगों को अपनी किताबों के प्रकाशन और प्रमोशन में कोई संकोच नहीं होता था। सुप्रसिद्ध लेखक एक्टविस्ट हंसराज रहबर, भगत सिंह के साथी कामरेड शिव वर्मा, और कामरेड सव्यसाची जी भी अपनी किताबें खुद ही बेचते भी थे, पर इनकी किताबें बहुत सस्ती होती थीं जबकि सरल जी की किताबों का सैट बहुत मंहगा था जो संस्थाओं के लिए ही होता था।
आज अशोकनगर के एक साथी ने उनके और गिरिजा कुमार माथुर के बारे में लिख कर उनकी यादों को कुरेद दिया। ये दोनों विभूतियां अशोककनगर से ही जुड़ी थीं। उनकी स्मृति को नमन।  
वीरेन्द्र जैन
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