इमरजैंसी का
पूर्वाभास और मुक्तिबोध बकौल अशोक वाजपेयी
वीरेन्द्र जैन
देश में चल रहे हालात को देख कर, एक पुरानी घटना याद आ गयी। कई वर्ष पहले
राजनन्दगाँव [छत्तीसगढ] में आयोजित ‘त्रिधारा’ संगोष्ठी में व्याख्यान देते हुए
प्रसिद्ध कवि आलोचक अशोक वाजपेयी ने कहा था-
“मुक्तिबोध द्वारा
1962-63 में कविता ‘अंधेरे में’ लिखी गयी थी। वे परम अर्थ में राजनीतिक कवि हैं,
और वो परम अर्थ यह है कि जो होने जा रहा है, राजनीति के क्षेत्र में उसका जितना
गहरा पूर्वाभास मुक्तिबोध में है, वैसा कम से कम हिन्दी के किसी और कवि को मैं
नहीं जानता। आप [श्रोता] चतुर सुजान हैं, मैं हिन्दी का अबोध विद्यार्थी हूं,
इसलिए हो सकता है आपको मेरे हिन्दी ज्ञान में थोड़ी थोड़ी दया आये, तो उसे जरूर
दिखाइये। लेकिन मैं नहीं जानता कि किसी में ऐसा पूर्वाभास हो। आप ‘अंधेरे में’ को
पढिये, जो 1962-63 में लिखी गयी और 1976 में इमरजैसी है। बारह बरस बाद , और उसके
ऐसे अनेक दृश्य आप देख सकते हैं जो मुक्तिबोध ने इमरजैंसी ‘देख’ कर लिखे हैं। मैं
एक अंश आपको पढ कर सुनाता हूं-
“कर्नल
ब्रिग्रेडियर, जनरल, मार्शल
कई और सेनापति
सेनाध्यक्ष
चेहरे, वे मेरे जाने
बूझे से लगते
उनके चित्र समाचार
पत्रों में छपे थे
उनके लेख देखे थे
भई वाह!
उनमें कई प्रकांड
आलोचक, विचारक
जगमगाते कविगण,
मंत्री भी उद्योगपति
और विद्वान
यहाँ तक कि शहर का
हत्यारा कुख्यात्
डोमाजी उस्ताद
और हालांकि वो एक
ऐसी दुनिया है
जिसमें कहीं आग लग
गई है
कहीं गोली लग गई है
सब चुप, साहित्यिक
चुप और कविजन निर्वाक
चिंतक, शिल्पकार और
नर्तक चुप हैं
उनके खयाल से ये सब
गप है
मात्र किवदंती “
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अशोक वाजपेयी ने अपनी विनम्रता और उसके प्रदर्शन हेतु स्वयं को हिन्दी का अबोध
विद्यार्थी कहा। वे अपने क्षेत्र के अप्रतिम विद्वान और अध्येता हैं। सच तो यह है
कि अशोक वाजपेयी और उनके आसपास रहने वाले कवि, आलोचक छन्द कविता को बहुत हिकारत की
दृष्टि से देखते रहे हैं, अन्यथा 1959 में प्रकाशित मुकुट बिहारी सरोज के गीत
संकलन ‘किनारे के पेड़’ में प्रकाशित एक गीत “ सब प्रश्नों के उत्तर दूंगा, लेकिन
आज नहीं “ में भी इमरजैंसी का वैसा ही पूर्वाभास देख लिया गया था। इस गीत की कुछ
पंक्तियां यहां प्रस्तुत हैं-
सब प्रश्नों के
उत्तर दूंगा, लेकिन आज नहीं
आज इसलिए नहीं, कि
तुम मन की कर लो
बाकी बचे न एक, खूब
तबियत भर लो
आज बहुत अनुकूल
ग्रहों की बेला है
चूको मत, अपने
अरमानों को वर लो
कल की साइत जो आयेगी
सारी कालिख धो
जायेगी
इसलिए कि अंधियारे
की होती उम्र दराज नहीं
सब प्रश्नों के
उत्तर दूंगा, लेकिन आज नहीं
आज सत्य की
गतिविधियों पर पहरे हैं
क्योंकि स्वार्थ के
कान, जन्म से बहरे हैं
ले दे के अपनी बिगड़ी
बनवा लो तुम
निर्णायक इन दिनों
बाग में ठहरे हैं
कल ऐसी बात नहीं
होगी
ऐसी बरसात नहीं होगी
इसलिए कि दुनिया में
रोने का आम रिवाज नहीं
सब प्रश्नों के
उत्तर दूंगा, लेकिन आज नहीं ..................
मुझे लगता है कि बातचीत के अन्दाज में व्यंग्य गीत रचने वाले सरोज जी अपनी तरह
के अनूठे कवि रहे हैं। उनका छन्द विधान व विषय सबसे अलग तो थे ही, वे पूरी तरह एक
राजनीतिक कवि थे।
मुक्तिबोध कवि के साथ एक बहुत अच्छे विचारक और लेखक भी थे। मेरे जैसे गैर
साहित्यिक पाठकों को वे कवि की तुलना में विचारक अधिक अच्छे लगते हैं। मुकुट
बिहारी सरोज, और उनके समय के अनेक नागुर्जनों, शीलों, व केदारनाथ अग्रवालों को नई
कविता के विश्वविद्यालयी आलोचकों ने हाशिए पर धकेला हुआ है। साहित्य की पुस्तकों,
व पत्रिकाओं में इन लोगों के साहित्य पर कम से कम लिखा गया है। जो छुटपुट लिखा भी
गया है, वह उनके लेखक संगठन वालों ने ही लिखा है, इसलिए भी उसको कम महत्व मिल सका
है।
मैं याद दिलाना चाहूंगा कि मुक्तिबोध की सन्दर्भित कविता सर्व प्रथम हैदराबाद
से निकलने वाली ‘कल्पना’ पत्रिका में प्रकाशित हुयी थी तथा उसका शीर्षक था
“सम्भावनाओं के दीप अंधेरे में”। यह बात मुझे कल्पना के सम्पादकीय मंडल के वरिष्ठ
सदस्य मुनीन्द्र जी ने बतायी थी।
वीरेन्द्र जैन
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