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रविवार, नवंबर 05, 2023

फिल्म समीक्षा 12वीं फेल संवेदनशीलता से प्रेरणादायक सत्य कथा का फिल्मीकरण

 

फिल्म समीक्षा 12वीं फेल

संवेदनशीलता से प्रेरणादायक सत्य कथा का फिल्मीकरण  

वीरेन्द्र जैन


कोई कहानी कितनी भी काल्पनिक हो किंतु जब उस पर फिल्म बनती है तो उसके दृश्य पटकथा लेखक के अपने अनुभव स्मृतियों और अध्यन से जुड़े होते हैं जिन्हें गूंथ कर वह कहानी को मौलिक रूप देने की कोशिश करता है। मिर्ज़ा गालिब का एक शे’र है –

देखिए तकरीर की लज्जत कि उसने जो कहा

सुनने वाला भी ये समझे ये हमारे दिल में है

12वीं फेल  की पटकथा बिल्कुल सच्ची घटना पर आधारित है जो फिल्म बनने से पहले उपन्यास के रूप में और विभिन्न समाचार कथाओं के माध्यम से चर्चित हो चुकी है। यह सत्यकथा इतनी घटना प्रधान है कि विधु विनोद चोपड़ा जैसे जाने माने फिल्मकार को फिल्म निर्माण के लिए उपयुक्त लगी। चम्बल जैसे क्षेत्र में जहाँ बात बात में बन्दूकें निकाल कर गोलियों की भाषा में बात की जाती है। जहाँ की महिलाएं भी अपनी आन के लिए युवाओं को बन्दूक के प्रयोग से रोकती नहीं अपितु प्रोत्साहित करती हैं, वहां का एक निम्न आर्थिक स्थिति वाला परिवार स्थानीय विधायक से टकराने पर सरकारी मशीनरी की ज्यादतियों का शिकार होता है। जब वहां एक ईमानदार पुलिस अधिकारी पदस्थ होता है तो वह विधायक के स्कूल में चलने वाला नकल का गोरखधन्धा बन्द करा देता है जिससे सभी लड़के फेल हो जाते हैं, जिनमें कथा नायक भी है। वह हार कर जुगाड़ नामक स्थानीय रूप से जोड़े हुए वाहन से सवारियां ढोने लगता है जो विधायक की बस की आमदनी को कम कर देती है। पुलिस की मदद से विधायक उसे भी बन्द करा देता है। ईमानदार पुलिस अधिकारी विधायक से बिना डरे इसमें उसकी मदद करता है। इससे वह अधिकारी उसका आदर्श बन जाता है जो अपने साहस का मूल मंत्र ईमानदारी और सच्चाई को बतलाता है। कथा नायक तय करता है कि वह पुलिस अधिकारी बनेगा और ईमानदारी से समाज हित में काम करेगा। अभावों में रहते हुए ही वह कठोर मेहनत से यूपीएससी की परीक्षा पास कर डीवायएसपी बन जाता है। साथियों का विश्वास प्राप्त करता है, एक आई आर एस की परीक्षा में बैठने वाली लड़की का प्रेम जीतता है और दोनों अधिकारी बन कर ईमानदारी से काम करते हुए खुश रहते हैं।

इस घटना को फिल्म में बदलते हुए फिल्मकार जो दृश्य और संवाद दर्शाते हैं वे बहुत महत्वपूर्ण हैं और बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाते हैं। चम्बल का असल इलाका जो इस क्षेत्र पर बनने वाली फिल्मों में इससे पहले केवल फिल्म ‘बैंडिट क्वीन‘ में ही इतनी स्वाभाविकता में दर्शाया गया था। वहां के घर, गाँव, लोग, उनके स्वभाव, उनकी बोली, उनकी मुखरता, और उनका अपना कानून सब कुछ वैसा ही है जैसा चम्बल को जानने वाले जानते हैं। ‘राग दरबारी’ के वैद्यजी जैसे विधायक हैं जो स्कूल से लेकर बस तक, पंचायत व पुलिस थाने को अपनी जागीर समझ कर संचालित करते हैं। शिक्षा ही नहीं आवागमन के साधन भी उसी काल के हैं और असहमत होने पर पुलिस और अधिकारी किसी को भी अपराधी बना कर छोड़ सकते हैं।

यूपीएससी की तैयारी में हिन्दी मीडियम से पढ कर निकले प्रतिभावानों की समस्या हो या कमजोर आर्थिक स्थिति वाले छात्रों के दिल्ली जैसे महानगरों में रहने खाने की समस्या हो, ट्यूटोरियल संस्थानों के शोषण हों या जीवन स्तर में पिछड़ने की कुण्ठाएं हों सब कुछ दर्शाया गया है। फिल्म थ्री ईडियट की तरह पिता की इच्छाओं को पूरी करने के लिए पढने वाले सम्पन्न परिवारों के बच्चों का दर्द भी सामने आया है। यूपीएससी के चयनकर्ताओं के दृष्टिकोण और संस्थान की अभिजात्य संस्कृति भी दृष्टिगोचर होती है जिसमे सामान्य परिवार से आने वाला बुझ सा जाता है। पुलिस व्यवस्था और कानूनों के बारे में सामान्य पुलिस वाले भी उतने ही अनभिज्ञ होते हैं जितनी जनता व कानून और अंग्रेजी के आगे पुलिस क व्यवहार बदल जाता है। कुल मिला कर यह एक राजनीतिक फिल्म भी है जिसमें अटल बिहारी की कविता- हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा, काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूं, गीत नया गाता हूं। थीम सौंग की तरह बार बार आता है। एक बार चुनाव हारने के बाद की पहली सभा में अटल जी ने अपने अन्दाज में डमरू बजाने की तरह हाथ घुमाते हुए कहा था- हम चुनाव जरूर हारे हैं, पर हिम्मत नहीं हारे। यूपीएससी परीक्षा के साक्षात्कार लेने वाले अधिकारी तो कथा नायक के एक उत्तर में प्रतिक्रिया देते हैं कि उसे तो पोलटिक्स ज्वाइन कर लेना चाहिए।

फिल्म के पात्रों के चयन में जिस कौशल का प्रयोग किया गया है वह अद्भुत है। वे सब के सब  स्वाभाविक लगते हैं। सभी ने भूमिका के साथ न्याय किया है और अपने संवेदनशील अभिनय से वे दर्शकों की आँखों को भिगो सकने में समर्थ हुये हैं। कला दिल से जोड़ती है और यह फिल्म दर्शकों के मर्म को स्पर्श करने में सफल हुयी है।

स्वतंत्रता के बाद देश में जो बड़े आन्दोलन हुये हैं, उनके मूल में भ्रष्टाचार का विरोध ही रहा है। 1975 में गुजरात का छात्र आन्दोलन तत्कालीन मुख्यमंत्री पर लगे भ्रष्टाचार से ही प्रारम्भ हुआ था जिसे जयप्रकाश नारायण आगे ले गये थे और फिर इमरजैंसी की स्थिति बनी थी। 1989 में राजीव गाँधी पर बोफोर्स काण्ड के कमीशन के आरोप में सत्ता परिवर्तन हुआ था। अन्ना और केजरीवाल का आन्दोलन भी भ्रष्टाचार के खिलाफ ही आन्दोलन था और मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ भी टू जी, थ्री जी, फोर जी, आदि के आरोपों के कारण सरकार बदली थी और मोदी को मौका मिल गया था। इस फिल्म का मूल स्वर भी प्रशासनिक भ्रष्टाचार के खिलाफ ईमानदारी को स्थापित करने का है। यही कारण रहा है कि इसके साथ ही सरकार द्वारा प्रोत्सहित अभिनेत्री कंगना रनौत की फिल्म तेजस उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्रियों के प्रमोशन के बाद भी पिट गयी और ‘12वीं फेल’ पास हो गयी। यह फिल्म इस लायक है कि इसे टैक्सफ्री करके स्कूल कालेज के छात्रों को दिखाये जाने के शो आयोजित किये जाने चाहिए। सुना जा रहा है कि यह दक्षिण भारत की कई भाषाओं में डब करके प्रदर्शित की जा रही है। यह अच्छी बात है। फिल्म के नायक विक्रांत मैसी से उम्मीदें जगती हैं वे अभिनय की दुनिया में बहुत आगे जायेंगे।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

गुरुवार, जनवरी 09, 2020

जे एन यू, लेफ्ट, संघी और नकाबपोश


जे एन यू, लेफ्ट, संघी और नकाबपोश
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वीरेन्द्र जैन
नाथूराम गोडसे ने जब महात्मा गाँधी की हत्या की थी तो वह उनके किसी प्रशंसक की तरह हाथ जोड़े हुये आया था और उन्हीं जुड़े हुये हाथों में उसने पिस्तौल छुपा रखी थी, जिसमें से तीन गोलियां उसने गाँधीजी के सीने में उतार दी थीं।
जिन लाल कृष्ण अडवाणी ने पूरे भारत में घूम घूम कर कमल का फूल पेंट किये डीसीएम टोयटा को रथ बता कर, व बाबरी मस्ज़िद को गुलामी का प्रतीक प्रचारित कर अयोध्या जाने के लिए मासूम भक्तों की भीड़ जोड़ी थी, उन्होंने ही बयान दिया था कि ‘मैं तो उन्हें मस्जिद तोड़ने से रोक रहा था, पर वे मेरी भाषा नहीं समझ सके और वह इमारत टूट गयी’। योजनाबद्ध तरीके से अटल बिहारी वाजपेयी को दिल्ली और संसद में मोर्चा सम्हालने के लिए भेज दिया गया था, उन्होंने संसद में कहा था कि मस्ज़िद टूटने पर अडवाणी जी का चेहरा आंसुओं से भरा हुआ था, अर्थात वे तो दुखी थे। इस दोहरे चरित्र से दुखी होकर ही बाल ठाकरे ने कहा था कि बाबरी मस्जिद तोड़ने की मैं जिम्मेवारी लेता हूं इसे हमारे लोगों ने तोड़ा। क्या मराठी लोग इतनी हिन्दी भी नहीं समझते कि उन्हें किस बात के लिए रोका जा रहा है।
भाजपा की असमंजस हमेशा यह रही कि वे जिम्मेवारी से तो बचना चाहते हैं किंतु भोले भक्तों के बीच उसका चुनावी लाभ भी लेना चाहते हैं, इसलिए जब भाजपा शासित चार राज्यों की सरकारें दंगों के कारण भंग कर दी गयीं तो उसके बाद हुये चुनाव में उनका नारा था ‘ जो कहा सो किया’ । अब लोग समझ लें कि उन्होंने क्या कहा था और क्या किया। यह ऐसे चतुर सुजानों की भाषा थी जिनकी चतुराई जगह जगह से टपकी फिर रही हो।
गुजरात में 2002 के नरसंहार में लगभग तीन हजार मुसलमानों की हत्या करके उनके घर और दुकानें लूट ली गयी थीं उनमें से 962 मृतकों का तो पोस्टमार्टम हुआ इसलिए सरकारी तौर पर स्वीकार कर लिये गये और शेष गायब बताये गये। किसी को भी इस नरसंहार के लिए फांसी नहीं हुयी। इतने बड़े नरसंहार के बाद भी अभियोजन की मदद से सारे आरोपी छूट गये या जमानत पर अपनी पूरी जिन्दगी गुजार देंगे। उसी नरसंहार की याद दिलाते हुए कर्नाटक के एक भाजपा विधायक ने हाल ही में कहा कि मुसलमान न भूलें कि 2002 में गुजरात में क्या हुआ था और वह दुहराया भी जा सकता है। ऐसा ही एक दिन में साफ कर देने का बयान हरियाणा के एक विधायक ने दिया है। इसका मतलब यह कि         ‘ अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो’ की तरह अर्थ कुछ और है व आशय कुछ और है।
जे एन यू छात्र संघ के चुनावों में हर राजनीतिक विचारधारा के छात्र संगठन भाग लेते हैं, और एक ही मंच से एक दूसरे की विचारधारा के खिलाफ खुल कर बहस करते हैं। वहाँ की संस्कृति में वैचारिक मतभेद कभी हिंसक नहीं हुये थे क्योंकि वामपंथ वहाँ मुख्यधारा में था व भाजपा के छात्र संगठन एबीवीपी को वहाँ के छात्रों ने कभी गम्भीरता से नहीं लिया। प्रखर छात्रों व प्रोफेसरों द्वारा साम्प्रदायिकता की मुखर आलोचना के प्रभाव में छात्रों के बीच एबीवीपी अछूत की तरह रहा व अनेक द्लों में विभाजित वामपंथ ही वहाँ की मुख्यधारा रहा। किंतु किसी भी तरह सत्ता हथिया लेने में कुशल मोदी सरकार के केन्द्र में आने के बाद वे जे एन यू छात्रसंघ में अपना स्थान बना कर वहाँ की मुख्यधारा को बदल देना चाहते थे। उल्लेखनीय है कि 2014 में ही सुब्रम्यम स्वामी ने कहना शुरू कर दिया था कि जे एन यू को बन्द कर देना चाहिए। सच तो यह है कि जे एन यू के छात्र जो सच्चाई सामने लाते थे उससे इनके झूठ के गुब्बारे की हवा निकल जाती थी।
2016 में ही इन्होंने देश के विरोध का आरोप उन छात्र नेताओं पर लगा दिया, जिन्होंने वैसा कुछ कहा ही नहीं था जैसा प्रचारित किया गया। उनके दुष्प्रचारक ही नहीं अपितु स्वयं प्रधानमंत्री, और गृहमंत्री तक छात्रों को अर्बन नक्सल या टुकड़े टुकड़े गैंग कहने लगे। देशद्रोह का  मुकदमा तक लगवाने की कोशिश की। जो सत्ता के शिखर पर बैठे हैं वे देशद्रोह जैसे आरोपों पर कार्यवाही करने की जगह इसे अपने राजनीतिक प्रतिद्वन्दियों के प्रति अवधारणा बनाने में प्रयोग करें तो शर्म आती है। सच तो यह है कि जो प्रचारित किया गया वैसा कोई मामला था ही नहीं।
जे एन यू में हाल में घटित घटनाओं के लिए जाँच बैठाने की औपचारिकता चल रही है किंतु हालिया रवैये को देखते हुए रिपोर्ट सत्य से बहुत दूर भी हो सकती है, जबकि लगभग सबको पता है कि अपराधी किसके भेजे हुये थे व पुलिस और सेक्युरिटी ने क्यों अपना काम नहीं किया। वी सी की राजनीतिक नियुक्ति से लेकर फीस बढाने और बाहर से बाहुबली लाकर अपने प्रभुत्व को बढाने में स्तेमाल करने तक जो काम देश की सत्तारूढ पार्टी का अध्यक्ष, गृह मंत्री व प्रधानमंत्री कर रहे हैं वह इन पदों की गरिमा को बहुत नीचे ले जा रहा है। अब तो नगर निगमों तक की राजनीति इन से ऊपर उठ रही है। दो राजनीतिक विचारधाराओं में मतभेद होना तो लोकतंत्र के स्वास्थ के लिए अच्छा है, किंतु देश की राजधानी में देश के सबसे महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय में  नकाबपोश आकर वहाँ के छात्रसंघ की महिला अध्यक्ष पर घातक हमला करें, अन्य महिला प्रोफेसरों समेत अनेक छात्रों पर हमला करें,  दो तीन घंटे तक आतंक का नंगा नाच करें और न वीसी कुछ करे, न सेक्युरिटी, न पुलिस तो खतरे की गम्भीरता को नापना जरूरी है। इसी राजधानी में ही राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री आदि भी रहते हैं। जब कोई ऐसा अपराधिक काम करता है जिसे वह सामने आकर नहीं कह पा रहा हो तब ही वह नकाब ओढ कर आता है। इन्हीं नकाबपोशों ने उन कमरों और कार्यालयों पर कोई हमला नहीं किया जिन के बाहर एबीवीपी या उनके संगठन से जुड़े होने के संकेत थे। यह भी अपने आप में साफ संकेत देता है, कि हमलावर कौन थे।
 सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़ रहा है कि देश की हालत बहुत खराब है व सरकार को तेजी से ध्यान देना चाहिए। सच तो यह है कि देश के सर्वोच्च पद पर बैठे हुए लोग भले ही निर्धारित ढंग से चुन कर आये हों किंतु वे अपने पद का निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं। लोकतंत्र की दुहाई भी तब ही दी जा सकती है जब दल के चुनावों में लोकतंत्र हो और पदों की उम्मीदवारी के लिए चयन भी लोकतांत्रिक तरीके से हो। व्यवस्था में निरंतर विचलन हो रहे हैं जो देश को गलत दिशा में धकेल रहे हैं। ईवीएम का लोकतंत्र सड़्कों के लोकतंत्र से पिछड़ रहा है। ऐसी दशा में गृहयुद्ध से लेकर विभाजन की ओर बढने तक कुछ भी असम्भव नहीं। देश में विश्वविद्यालय तब सही विपक्ष की भूमिका निभा रहे हैं, जब कि विपक्ष अपना काम नहीं कर रहा है। दिल्ली में राजनीतिक कर्यकर्ताओं की जगह जुझारू छात्र अमीर कजलवाश के इस शे’र में व्यक्त विश्वास के साथ सड़क पर ही हैं।
मिरे जुनूं का नतीजा जरूर निकलेगा
इसी सियाह समुन्दर से नूर निकलेगा
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629