जे एन यू, लेफ्ट,
संघी और नकाबपोश
वीरेन्द्र जैन
नाथूराम गोडसे ने जब महात्मा गाँधी की हत्या की थी तो वह उनके किसी प्रशंसक की
तरह हाथ जोड़े हुये आया था और उन्हीं जुड़े हुये हाथों में उसने पिस्तौल छुपा रखी
थी, जिसमें से तीन गोलियां उसने गाँधीजी के सीने में उतार दी थीं।
जिन लाल कृष्ण अडवाणी ने पूरे भारत में घूम घूम कर कमल का फूल पेंट किये डीसीएम
टोयटा को रथ बता कर, व बाबरी मस्ज़िद को गुलामी का प्रतीक प्रचारित कर अयोध्या जाने
के लिए मासूम भक्तों की भीड़ जोड़ी थी, उन्होंने ही बयान दिया था कि ‘मैं तो उन्हें मस्जिद
तोड़ने से रोक रहा था, पर वे मेरी भाषा नहीं समझ सके और वह इमारत टूट गयी’।
योजनाबद्ध तरीके से अटल बिहारी वाजपेयी को दिल्ली और संसद में मोर्चा सम्हालने के
लिए भेज दिया गया था, उन्होंने संसद में कहा था कि मस्ज़िद टूटने पर अडवाणी जी का
चेहरा आंसुओं से भरा हुआ था, अर्थात वे तो दुखी थे। इस दोहरे चरित्र से दुखी होकर
ही बाल ठाकरे ने कहा था कि बाबरी मस्जिद तोड़ने की मैं जिम्मेवारी लेता हूं इसे
हमारे लोगों ने तोड़ा। क्या मराठी लोग इतनी हिन्दी भी नहीं समझते कि उन्हें किस बात
के लिए रोका जा रहा है।
भाजपा की असमंजस हमेशा यह रही कि वे जिम्मेवारी से तो बचना चाहते हैं किंतु भोले
भक्तों के बीच उसका चुनावी लाभ भी लेना चाहते हैं, इसलिए जब भाजपा शासित चार
राज्यों की सरकारें दंगों के कारण भंग कर दी गयीं तो उसके बाद हुये चुनाव में उनका
नारा था ‘ जो कहा सो किया’ । अब लोग समझ लें कि उन्होंने क्या कहा था और क्या
किया। यह ऐसे चतुर सुजानों की भाषा थी जिनकी चतुराई जगह जगह से टपकी फिर रही हो।
गुजरात में 2002 के नरसंहार में लगभग तीन हजार मुसलमानों की हत्या करके उनके
घर और दुकानें लूट ली गयी थीं उनमें से 962 मृतकों का तो पोस्टमार्टम हुआ इसलिए
सरकारी तौर पर स्वीकार कर लिये गये और शेष गायब बताये गये। किसी को भी इस नरसंहार के
लिए फांसी नहीं हुयी। इतने बड़े नरसंहार के बाद भी अभियोजन की मदद से सारे आरोपी
छूट गये या जमानत पर अपनी पूरी जिन्दगी गुजार देंगे। उसी नरसंहार की याद दिलाते
हुए कर्नाटक के एक भाजपा विधायक ने हाल ही में कहा कि मुसलमान न भूलें कि 2002 में
गुजरात में क्या हुआ था और वह दुहराया भी जा सकता है। ऐसा ही एक दिन में साफ कर
देने का बयान हरियाणा के एक विधायक ने दिया है। इसका मतलब यह कि ‘ अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो’ की तरह
अर्थ कुछ और है व आशय कुछ और है।
जे एन यू छात्र संघ के चुनावों में हर राजनीतिक विचारधारा के छात्र संगठन भाग
लेते हैं, और एक ही मंच से एक दूसरे की विचारधारा के खिलाफ खुल कर बहस करते हैं।
वहाँ की संस्कृति में वैचारिक मतभेद कभी हिंसक नहीं हुये थे क्योंकि वामपंथ वहाँ
मुख्यधारा में था व भाजपा के छात्र संगठन एबीवीपी को वहाँ के छात्रों ने कभी
गम्भीरता से नहीं लिया। प्रखर छात्रों व प्रोफेसरों द्वारा साम्प्रदायिकता की मुखर
आलोचना के प्रभाव में छात्रों के बीच एबीवीपी अछूत की तरह रहा व अनेक द्लों में
विभाजित वामपंथ ही वहाँ की मुख्यधारा रहा। किंतु किसी भी तरह सत्ता हथिया लेने में
कुशल मोदी सरकार के केन्द्र में आने के बाद वे जे एन यू छात्रसंघ में अपना स्थान
बना कर वहाँ की मुख्यधारा को बदल देना चाहते थे। उल्लेखनीय है कि 2014 में ही
सुब्रम्यम स्वामी ने कहना शुरू कर दिया था कि जे एन यू को बन्द कर देना चाहिए। सच
तो यह है कि जे एन यू के छात्र जो सच्चाई सामने लाते थे उससे इनके झूठ के गुब्बारे
की हवा निकल जाती थी।
2016 में ही इन्होंने देश के विरोध का आरोप उन छात्र नेताओं पर लगा दिया,
जिन्होंने वैसा कुछ कहा ही नहीं था जैसा प्रचारित किया गया। उनके दुष्प्रचारक ही
नहीं अपितु स्वयं प्रधानमंत्री, और गृहमंत्री तक छात्रों को अर्बन नक्सल या टुकड़े
टुकड़े गैंग कहने लगे। देशद्रोह का मुकदमा
तक लगवाने की कोशिश की। जो सत्ता के शिखर पर बैठे हैं वे देशद्रोह जैसे आरोपों पर
कार्यवाही करने की जगह इसे अपने राजनीतिक प्रतिद्वन्दियों के प्रति अवधारणा बनाने
में प्रयोग करें तो शर्म आती है। सच तो यह है कि जो प्रचारित किया गया वैसा कोई
मामला था ही नहीं।
जे एन यू में हाल में घटित घटनाओं के लिए जाँच बैठाने की औपचारिकता चल रही है
किंतु हालिया रवैये को देखते हुए रिपोर्ट सत्य से बहुत दूर भी हो सकती है, जबकि
लगभग सबको पता है कि अपराधी किसके भेजे हुये थे व पुलिस और सेक्युरिटी ने क्यों
अपना काम नहीं किया। वी सी की राजनीतिक नियुक्ति से लेकर फीस बढाने और बाहर से
बाहुबली लाकर अपने प्रभुत्व को बढाने में स्तेमाल करने तक जो काम देश की सत्तारूढ
पार्टी का अध्यक्ष, गृह मंत्री व प्रधानमंत्री कर रहे हैं वह इन पदों की गरिमा को
बहुत नीचे ले जा रहा है। अब तो नगर निगमों तक की राजनीति इन से ऊपर उठ रही है। दो
राजनीतिक विचारधाराओं में मतभेद होना तो लोकतंत्र के स्वास्थ के लिए अच्छा है,
किंतु देश की राजधानी में देश के सबसे महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय में नकाबपोश आकर वहाँ के छात्रसंघ की महिला अध्यक्ष
पर घातक हमला करें, अन्य महिला प्रोफेसरों समेत अनेक छात्रों पर हमला करें, दो तीन घंटे तक आतंक का नंगा नाच करें और न वीसी
कुछ करे, न सेक्युरिटी, न पुलिस तो खतरे की गम्भीरता को नापना जरूरी है। इसी राजधानी
में ही राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री आदि भी रहते हैं। जब कोई ऐसा अपराधिक
काम करता है जिसे वह सामने आकर नहीं कह पा रहा हो तब ही वह नकाब ओढ कर आता है।
इन्हीं नकाबपोशों ने उन कमरों और कार्यालयों पर कोई हमला नहीं किया जिन के बाहर
एबीवीपी या उनके संगठन से जुड़े होने के संकेत थे। यह भी अपने आप में साफ संकेत
देता है, कि हमलावर कौन थे।
सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़ रहा है कि देश की
हालत बहुत खराब है व सरकार को तेजी से ध्यान देना चाहिए। सच तो यह है कि देश के
सर्वोच्च पद पर बैठे हुए लोग भले ही निर्धारित ढंग से चुन कर आये हों किंतु वे
अपने पद का निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं। लोकतंत्र की दुहाई भी तब ही दी जा सकती है
जब दल के चुनावों में लोकतंत्र हो और पदों की उम्मीदवारी के लिए चयन भी
लोकतांत्रिक तरीके से हो। व्यवस्था में निरंतर विचलन हो रहे हैं जो देश को गलत दिशा
में धकेल रहे हैं। ईवीएम का लोकतंत्र सड़्कों के लोकतंत्र से पिछड़ रहा है। ऐसी दशा
में गृहयुद्ध से लेकर विभाजन की ओर बढने तक कुछ भी असम्भव नहीं। देश में
विश्वविद्यालय तब सही विपक्ष की भूमिका निभा रहे हैं, जब कि विपक्ष अपना काम नहीं
कर रहा है। दिल्ली में राजनीतिक कर्यकर्ताओं की जगह जुझारू छात्र अमीर कजलवाश के
इस शे’र में व्यक्त विश्वास के साथ सड़क पर ही हैं।
मिरे जुनूं का नतीजा
जरूर निकलेगा
इसी सियाह समुन्दर
से नूर निकलेगा
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
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