शुक्रवार, जनवरी 17, 2020

सन्देश सम्प्रेषण तो गाँधी जी से सीखें


सन्देश सम्प्रेषण तो गाँधी जी से सीखें

वीरेन्द्र जैन
कोई वाक्य या वक्तव्य, सन्देश तब ही बन पता है, जब वह उन लोगों तक सम्प्रेषित हो सके जिन्हें वह सम्बोधित किया गया है। यदि वक्तव्य सम्प्रेषित हो सकने में असमर्थ रह जाता है तो उस कथ्य का महत्व उस समय शून्य रहता है। कोई भी सन्देश एकांगी नहीं हो सकता क्योंकि उसमें देने वाले और ग्रहण करने वाले दो पक्ष होते हैं। इन दोनों के बीच समन्वय अनिवार्य है। जहाँ जैसा समन्वय सम्भव हो पाता है, वैसा ही सन्देश सम्प्रेषित हो पाता है, और वैसी ही कार्यवाही सम्भव हो पाती है।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महात्मा गाँधी ऐसे नेता रहे जिनका सन्देश देश की जनता तक सरलता से सम्प्रेषित हो सका। इसी गुण के कारण वे दूसरे नेताओं की तुलना में प्रभावी नेतृत्व कर सके। गाँधीजी में सन्देश सम्प्रेषण की अद्भुत क्षमता थी। वे सम्प्रेषण की प्रत्येक सम्भव विधि का बेहद कुशलता से उपयोग करते थे। 
सन 1918 के कलकत्ता अधिवेशन में महामना तिलक ने अंग्रेजी में बहुत सारगर्भित भाषण दिया पर गान्धीजी ने महसूस किया कि अधिवेशन में उपस्थित चार सौ प्रतिनिधियों में से अधिकांश तक उनकी बात नहीं पंहुच सकी है। गाँधीजी का क्रम आने पर उन्होंने सभा से पूछा कि अगर आप कहें तो मैं हिन्दी में बोलूं? उनके इस सवाल पर सभा की ओर से भरपूर सहमति का स्वर सुनायी दिया। उस दिन गाँधीजी के भाषण पर बार-बार करतल ध्वनि गूंजी। बाद में तिलक जी ने कहा कि अगली बार मैं भी हिन्दी में बोलूंगा। अपने श्रोताओं तक सन्देश पहुंचा सकने वाली भाषा के चुनाव के प्रति गाँधीजी सदैव सजग रहे। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ही उन्होंने राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना की थी। इसी दौरान इस समिति का कार्यालय मद्रास [चेन्नई] में खोलने का फैसला कितना दूरगामी था।
शिक्षित और साक्षर लोगों तक पहुंचने के लिए उन्होंने ‘हरिजन’ और ‘यंग इंडियन’ नामक समाचार पत्र निकाले व उनका सम्पादन किया। अपने अफ्रीका प्रवास के दौरान भी उन्होंने वहाँ ‘इंडियन ओपीनियन‘ नामक अखबार निकाला था जिससे वे अनुभव सम्पन्न हुये थे। आज की तरह अपने पक्ष का टेलीविजन और रेडियो स्टेशन न होते हुए भी उन्होंने अपनी बात को देश के कोने कोने में पहुंचाया।
गांधीजी आस्तिक थे और अपने आपको वैष्णव बताते हुये भी उन अर्थों में धार्मिक नहीं थे जिन अर्थों में आज इस शब्द का प्रयोग होता है और जो जोड़ने से अधिक लोगों को बांटने के काम अधिक आता है। गाँधीजी धार्मिक होने को जोड़ने के काम में लेते थे। उनके आश्रम में तथा आश्रम के बाहर की दिनचर्या में भी प्रार्थना अनिवार्य होती थी। इन प्रार्थनाओं में गाये जाने वाले भजनों का चयन गाँधीजी ने स्वयं किया था। जिनके बोल सामाजिक एकता का सन्देश देते थे। ‘रघुपति राघव राजाराम, पतित के पावन सीताराम’ के साथ ‘ अल्लाह ईश्वर एकहि नाम , सबको सन्मति दे भगवान’ भी सम्मलित था। उनके प्रिय भजनों में “ वैष्णवजन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाणे है’ था जो कि वैष्णवजनों के आचरणों को परिभाषित करती है। उनकी प्रार्थना सभा में सभी धर्मों की प्रार्थनाएं सम्मलित होती थीं जिन्हें हर जाति और धर्म के सभी उपस्थित एक साथ गाते थे।
भले ही उन दिनों आज की राजनीति के समान ‘प्रैस मैनेजमेंट’ का काम नहीं किया जाता था, पर गाँधीजी प्रैस के महत्व को समझते थे। उनके आश्रमों में मेहमान पत्रकारों का सदैव स्वागत था और उनका समुचित ध्यान रखा जाता था। उनकी दांडी यात्रा के दौरान बी बी सी लन्दन के दो पत्रकार पूरी यात्रा के समय उनके साथ रहे और प्रतिदिन सूचनाएं भेजते रहे जिससे गाँधी जी के आन्दोलन के अभिनव प्रयोग पूरी दुनिया तक पहुंचते रहे। दांडी यात्रा नमक बनाने के लिए कानून तोड़ने की घोषित यात्रा थी। नमक जो हर घर के लिए जरूरी चीज होने के कारण सबसे जुड़ी थी।
गाँधीजी ने अपनी वेषभूषा और व्यवहार से भी निरंतर सन्देश दिया। केवल एक धोती पहिन कर लन्दन में गोलमेज कांफ्रेंस में जाकर उन्होंने प्रैस के माध्यम से पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर व परोक्ष में अपने स्वाधीनता संघर्ष की ओर आकर्षित किया। उनसे कहा गया था कि ब्रिटिश शासन के नियमों व परम्परा के अनुसार ही कपड़े पहिन कर आयें किंतु उन्होंने इसे नहीं माना। जब वायसराय ने उनसे पूछा कि गाँधी आपके कपड़े कहाँ हैं? तो उन्होंने उत्तर दिया कि न केवल मेरे अपितु मेरे पूरे देशवासियों के कपड़े तो आप अंग्रेजों ने लूट लिये हैं, और यही बात कहने मैं यहाँ आया हूं। स्मरणीय है कि भगत सिंह ने पार्लियामेंट में जो बम फेंका था वह इतना शक्तिशाली था कि उससे कई जानें जा सकती थीं, किंतु उन्होंने बम को ऐसे स्थान पर फेंका जिससे किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ। उसके बाद उन्होंने स्वयं गिरफ्तारी दी और कहा कि यह धमाका तो मैंने बहरों को अपनी बात सुनाने के लिए किया है। कहते हैं कि बम फेंकने की जिम्मेवारी लेने के लिए भगत सिंह और चन्द्र शेखर आज़ाद के बीच बहस भी हुयी थी क्योंकि आज़ाद खुद यह काम करना चाहते थे। पर भगत सिंह जो बहुत उच्च स्तर के बौद्धिक थे, ने कहा कि मुकदमें की बहस के माध्यम से हम अपना सन्देश पूरे देश को दे सकते हैं, और यह काम मैं बेहतर कर सकता हूं। उल्लेखनीय है कि भगत सिंह ने उक्त प्रकरण में अपनी बहस खुद की थी।
किसी के द्वारा कई पन्नों में गाँधीजी की निन्दा का पत्र आने पर गाँधीजी ने उसमें से आलपिन निकाल ली और कहा कि इस सब में यही एक काम की चीज है। उन्होंने सही ही कहा था कि मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है। वे अपने प्रत्येक काम से अपना सन्देश देते थे।
गाँधीजी जब माउंट्बेटन से मिलने गये तो उनके कमरे में कूलर चल रहा था। फ्रीडम एट मिडनाइट के लेखक लपियर कालिंस के अनुसार तब भारत में चलने वाला शायद वह एकमात्र कूलर रहा होगा। गाँधीजी बोले मुझे सर्दी लग रही है, ऐसा कह कर उन्होंने बातचीत से पहले वहाँ का कूलर बन्द करा दिया। ऐसा कर के उन्होंने सन्देश दिया कि तुम्हारी मशीनों से मैं चमत्कृत नहीं हूं, व हमें बराबरी से बात करनी होगी। इस समय भी उन्होंने अपनी ओर से कोई बात नहीं छेड़ी, केवल अपनी उस घड़ी की चर्चा करते रहे जो चोरी चली गयी थी। परोक्ष में वे कह रहे थे कि राजा तेरे राज्य में मेरी घड़ी भी सुरक्षित नहीं है।
उनका एक चम्मच था जिससे वे दही खाते थे । जब वह चम्मच टूट गयी तो उन्होंने उसमें एक खपच्ची बाँध ली और लगातार उसका उपयोग करते रहे। जब लेडी माउंटबेटन ने मेज पर नाश्ता लगवाया तो उन्होंने अपनी थैली में से वही टूटा चम्मच और दही निकाल लिया और बोले अपना नाश्ता मैं खुद लाया हूं। उस साम्राज्य के प्रतिनिधि के सामने जिसके राज्य में सूरज नहीं डूबता था, ऐसा व्यवहार कर के गाँधी अपनी विनम्र चुनौती रखते थे। इस व्यवहार का सन्देश दूर दूर तक गया।
साबरमती आश्रम का नियम था कि चाहे जिस जाति का व्यक्ति आकर रुके, उसे अपना पाखाना खुद ही साफ करना होगा। यह एक परम्परागत समाज में विद्रोह का संगीत था। देश काल परिस्तिथि को देखते हुए स्वच्छता के लिए उन्होंने आज की तरह घर घर शौचालय का सन्देश नहीं दिया अपितु इतना कहा कि शौच जाने के बाद उसे वहीं की मिट्टी से दबा देना चाहिए, ताकि गन्दगी न फैले।
आज़ादी की लड़ाई का अपना सन्देश व्यापक स्तर तक पंहुचाने के लिए उन्होंने कितने कितने रूप धरे। समाज सुधारक, महात्मा, प्राकृतिक चिकित्सक, कुष्टरोगियों के सेवक, रैडक्रास वालंटियर, सम्पादक, लेखक, संगठनकर्ता,आदि आदि। जिस व्यक्ति के पास जिस माध्यम से सन्देश जा सकता है, उसे पहुंचाना उनका काम था। विभिन्न तरह के लोगों के बीच विभिन्न तरीकों से ही जुड़ा जा सकता है। खेद की बात तो यह है कि उनकी सम्प्रेषण शक्ति को उनके नाम से राजनीति करने वाले नहीं अपना रहे जबकि विघटनकारी ताकतें उनके औजारों का दुरुपयोग कर रही हैं।
वीरेन्द्र जैन
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