रविवार, अप्रैल 26, 2015

रंगीन अँधेरों का समय



रंगीन अँधेरों का समय
वीरेन्द्र जैन

यह नई तकनीकों का दौर है इसलिए अब अँधेरे काले ही नहीं होते वे रंगीन भी हो सकते हैं और हमें सच न देख पाने की वैसी ही परिस्तिथियां पैदा कर सकते हैं, जैसी कि चकाचौंध करती है। काले अँधेरे को झेलने के अभ्यस्त लोगों को इस दौर में लम्बे समय तक यह पता भी नहीं चल पाता कि वे अँधेरे में हैं। पिछले दिनों एक मध्यम वर्गीय गृहणी ने बहुत गम्भीर होकर कहा था कि आज मैं कल्पना भी नहीं कर पाती कि जब टेलीविजन के चौबीस घंटे चलने वाले चैनल नहीं थे तो महिलाएं अपना समय कैसे काटती थीं। इन रंगीन चैनलों ने उनके खाली समय को अपनी तरह से भर दिया है, और उन्हें यह पता नहीं चल पा रहा कि उन्हें नई तरह से कैद कर दिया गया है। इस कैद में चैनलों के मालिक और उनके विज्ञापनदाता सतही समझ के लोगों को सतही सम्वेदनाओं के द्वारा अपना माल बेचने की कोशिश करते हैं। अब बाज़ार से स्वाद तो मंगा लिया जाता है किंतु खुद के द्वारा प्यार और मेहनत से बनाये गये पकवानों को परोसने और निरंतर प्रयोगधर्मी पाक कौशल से प्रशंसा पाने का सुख समाप्त हो गया है। एक विज्ञापन में दादी माँ छुप कर बाज़ार का तैयार मसाला प्रयोग करके अपनी झूठी प्रशंसा का सुख लेती दिखायी जाती है, किंतु चंचल पोती उसका राज खोल देती है।  
कई दशक पहले लगभग सभी शिक्षा संस्थानों में सांस्कृतिक गतिविधियों से सम्बन्धित वार्षिक कार्यक्रम होते रहे थे जिनके द्वारा छात्रों की रचनात्मक गतिविधियों को सामने लाने उन्हें परखने, सजाने संवारने और प्रोत्साहित करने का काम होता था किंतु अब उनकी जगह भारी भरकम भुगतान पर किसी फिल्म या टीवी कार्यक्रम से जुड़े रहे किसी आर्केस्ट्रा ग्रुप को बुला लिया जाता है। अब छात्रों के बीच शिक्षा के साथ समानांतर रूप से सांस्कृतिक बीज पल्लवित पुष्पित होने बन्द हो गये। अब शिक्षा जगत में अच्छे कैरियर के लिए बैल की तरह जुते युवाओं और कलात्मक रुचि वाले युवाओं के वर्ग अलग अलग हैं। कलात्मक रुचि के युवाओं के लक्ष्य भी फिल्म और टीवी के कलाकार बनना, लाखों रुपयों में बिकने वाली पेंटिंग के स्तर तक पहुँचना या मँहगा संगीतज्ञ बनना हो गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस क्षेत्र में भी घर में बनने वाले स्वादिष्ट खाने की जगह होटल से लाया गया भोजन या तैयार मसालों द्वारा होटल जैसा ही भोजन घर में तैयार करने की कोशिशें होती हैं, जिससे घरेलू कलाएं विस्मृत हो रही है। अब विवाह के लिए मुलाकात के समय शायद ही किसी लड़की से गीत संगीत सम्बन्धित ज्ञान के बारे में पहले की तरह पूछा जाता हो या वह चयन का आधार बनता हो। शौकिया कलाकार निरंतर कम हो रहे हैं। कवि गोष्ठियां लगभग बन्द या फ्लाप होने लगी हैं किंतु व्यापारियों या उनके क्लबों द्वारा बड़े बज़ट वाले कवि सम्मेलन होने लगे हैं जिनमें लाखों रुपया पारिश्रमिक लेने वाले कवि अपनी वर्षों पुरानी सतही सम्वेदनाओं वाली गीत रचनाएं या तोंदों को बाहर से गुदगुदाने वाला हास्य परोस कर मनोरंजन करते हैं। इस व्यवसाय में अति प्रचार द्वारा कलाकारों को इतना बढा चढा दिया जाता है कि उनको सामने सुनने का सुख किसी ऎतिहासिक घटना में सम्मलित होने जैसा लगता है, अन्यथा आजकल टीवी, डीवीडी, और इंटरनेट पर उन्हीं के मुख से गायी गयी वे ही रचनाएं सहज रूप में मौजूद हैं। जल्दी ही रिकार्ड होकर रचनाओं के बासी हो जाने से बचने के लिए व्यवसायी कवि बहुत सीमित मात्रा में ताजा ‘माल’ बाहर निकालता है पर समाचार पत्रों में साक्षात्कार देने की जुगाड़ जरूर जमाता है ताकि सेलीब्रिटी की तरह स्थापित होने की दिशा में अग्रसर हो सके। समाज को सम्वेदनहीन बनाया जा रहा है और शोक के समय पर नये तरह के रुदाले बुलवाये जाने लगे हैं, कामेडी सीरियलों में हँसी पीछे से जोड़ना पड़ रही है। जीवन को नकली सम्वेदनाओं से सजाया जाने लगा है।
सूचना की दुनिया में तो सबसे ज्यादा रंगीन अँधेरा फैलाया जा रहा है। यह रोचक है कि अखबारों के सरकुलेशन के आँकड़े बढ रहे हैं, उनके पेजों की संख्या बढ रही है, समाचार चैनल बढ रहे हैं, पत्रकारों की संख्या बढ रही है, पहले की तुलना में उनके वेतन और सरकारी पुरस्कार बढ रहे हैं, मुखर हो सकने की सम्भावना वाले पत्रकारों को सरकारी सुविधाएं बढ रही हैं पर खबरें कम से कम हो रही हैं। उक्त सारे पुरस्कार और सुविधाएं खबरों को दबाने, छुपाने या भटकाने के लिए दी जा रही हैं। खोजी पत्रकारिता लगभग समाप्त हो चुकी है, स्टिंग बन्द हो चुके हैं, विचारों का नयापन चर्चा में नहीं आ पाता क्योंकि इतना कचरा फैलाया जाता है कि उसमें से मोती ढूंढना मुश्किल होता है। कोई नहीं पूछ रहा कि इतना भारी भरकम अखबार छरहरे अखबार की तुलना में सस्ता और बेकार क्यों है! मोटे अखबारों में अक्षर कम पर चित्र अधिक छापे जा रहे हैं। समाज को उन सूचना माध्यमों से भर दिया गया है जिनमें ज्यादा रद्दी निकलती है। इस रद्दी में दो तीन पेज तो मुम्बइया फिल्मी गासिप और उनके रंगीन चित्रों से भरे रहते हैं। क्रिकेट में टूर्नामेंटवार, देशवार ही नहीं टीमवार, खिलाड़ीवार, खेल के मैदानवार रिकार्डों का अम्बार ही नहीं उसके खिलाड़ियों के प्रेम प्रसंग और विवाहों की खबरें खेलों के समाचारों से ज्यादा भरी होती हैं। सट्टेबाजी ने इनको और भी बढावा दिया है। इसी लोकप्रियता के आधार पर वे खिलाड़ी दुनिया भर के विज्ञापन भी कर लेते हैं।   
राजनीति में मोदीयुग के उदय में इसी मीडिया की भूमिका रही है। उनके चुनावी रणनीतिकारों ने न केवल प्रिंट और विजुअल मीडिया को ही भटकाया अपितु अदृश्य श्रोतों वाले सोशल मीडिया के नकली समर्थकों द्वारा झूठ और भ्रम पैदा करवाया गया। किराये के नाचने गाने वालों के साथ तो एक अवसर के लिए ही सौदा होता है। दूसरे अवसर पर अपनी प्रस्तुति देने के लिए उन्हें फिर से मेहनताना चाहिए होता है। केन्द्रीय मंत्री जनरल वी के सिंह ने  प्रैस को अनजाने में प्रैस्टीट्यूट नहीं कहा था। बाद में उसे केवल दस प्रतिशत तक सीमित रखने वाली सफाई भी बयान को नकारने वाली नहीं थी अपितु उसे गोलमोल बनाने की कोशिश थी क्योंकि उन्होंने दस प्रतिशत को चिन्हित नहीं किया गया था। उनकी सफाई से प्रैस का कोई भी हिस्सा नब्बे प्रतिशत में आ सकता है और कोई भी दस प्रतिशत में आ सकता है। अपने अपराधबोध के कारण ही प्रैस अपने विरोध को दूर तक नहीं ले जा सकी तथा नरेन्द्र मोदी ने भी परोक्ष में जनरल की बात से खुद को और पार्टी को अलग नहीं किया। भाजपा के प्रशंसक पत्रकार श्री वेद प्रताप वैदिक ने भी वी के सिंह की बात का समर्थन यह कह कर किया कि सभी ऐसे नहीं हैं और कुछ पत्रकार तो देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से भी ज्यादा समझदार हैं, जिसका अर्थ यह हुआ कि प्रैस के एक हिस्से को वे भी दोषी मानते हैं, पर किस हिस्से को, यह स्पष्ट नहीं करते। पत्रकार कलम का मज़दूर होता है पर जब अचानक ही कुछ पत्रकारों की धन दौलत और हैसियत में अकूत वृद्धि देखने को मिले तो यह स्वीकार कर लेना चहिए कि यह वृद्धि जनता के सामने सच्चाई छुपाने, जानबूझ कर गलत छवि गढने के बदले में देश की जनता के धन को लूटने वाले भ्रष्ट नेताओं, व्यापारियों, ठेकेदारों, और अधिकारियों के माध्यम से पहुँची होगी। एक पत्रकार द्वारा किया गया भ्रष्ट आचरण पूरे समाज और लोकतांत्रिक व्यवस्था को नुकसान पहुँचाता है। आखिर क्या कारण है कि भ्रष्टाचार के अम्बारों में से किसी के प्रकटीकरण का काम प्रैस के द्वारा नहीं हुआ अपितु पत्रकार सरकारी गोपनीय सूचनाओं को पूंजीपतियों तक पहुँचाने का काम करते हुए पहचाने गये। जो खुद को लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहता है वह शेष तीन खम्भों को तो कलंकित करने की शक्ति चाहता है पर अपने वर्ग में पल रहे अँधेरे की ओर इंगित नहीं करता। यह साहस केवल जनसत्ता के पूर्व सम्पादक प्रभाष जोशी ने किया था तब चुनावों के थोड़े समय तक पेड न्यूज की चर्चा चली थी जो अब बन्द हो चुकी है जबकि चुनावों के अलावा भी जो प्रतिदिन पेड न्यूज चलती है वह ज्यादा खतरनाक होती है। प्रैस की पवित्रता तब ही स्वीकार हो सकेगी जब वह निर्मम होकर अपने वर्ग में पल रहें दोषियों को भी उजागर करे। सम्वेदनहीन कला जब मनोरंजन मात्र बन रही हो और वह मनोरंजन सही सूचनाओं को ढकने के लिए प्रयोग में लाया जा रहा हो तो ऐसे मनोरंजन की अति का विरोध कला का विरोध नहीं कहा जा सकता। कौन सा लेखक, कलाकार, पत्रकार किन समकालीनों के बीच में से कब धनधान्य से पुरस्कृत और सम्मानित हो जाये इसका कोई कारण सरकारें बताने को तैयार नहीं। पुरस्कार किसी का सम्मान ही नहीं बढाता अपितु पुरस्कृत के समकालीनों में हताशा या उत्तेजना भी जगाता है, विशेष रूप से जब वे पुरस्कार पक्षपातपूर्ण लग रहे हों, व सच को दबाने छुपाने के लिए दिये जा रहे हों। चौथे खम्भे को अपराध बोध से भर देने के बाद उसे न केवल ब्लैकमेल ही किया जाने लगा है अपितु देश की  सबसे भ्रष्ट राजनीति करने वाले उसे प्रैस्टीट्यूट कह रहे हैं और वह दाँत निपोर रहा है। हीरो हीरोइनों के सहारे चुनाव की नैया पार लगाने वाले अपने प्रिय कार्पोरेट घरानों को मीडिया हाउस पर अधिकार कर लेने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। अब समाचार चैनलों पर भी मनोरंजक कार्यक्रमों या फूहड़ हास्य के कार्यक्रम अधिक आने लगे हैं और दूर दराज की फील्ड रिपोर्टिंग बिल्कुल गायब हो गयी है। एक अखबार तो ‘नो निगेतिव न्यूज’ का नारा उछाल कर समाचार दबाने का खुला खेल खेलने लगा है जिसके बदले में विदेश की धरती पर देश के प्रधानमंत्री से प्रशंसा पा चुका है।
 चौथे खम्भे में आयी विकृतियों से लोकतंत्र पर बड़ा खतरा मंडराने लगा है।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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मंगलवार, अप्रैल 14, 2015

मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के लिए ब्राम्हणों, सवर्णों को पुरस्कार



मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के लिए ब्राम्हणों, सवर्णों को पुरस्कार
वीरेन्द्र जैन

केन्द्र और राज्य दोनों ही जगह मनु स्मृति को संविधान की जगह देने का विचार रखने वाले लोगों की सरकार बन जाने के बाद मध्य प्रदेश में यह तय पाया गया कि अब वर्षों से रुके हुए पत्रकारिता के पुरस्कार वितरित किये जाना चाहिए। एक हिन्दुत्व वाली पार्टी की सरकार जब पुरस्कार वितरित करती है तो जाहिर है कि किसी मुस्लिम या दलित पत्रकार को पुरस्कार योग्य कैसे समझा जा सकता है। यही कारण है कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जब पिछले दिनों पत्रकारिता पुरस्कार दिये तो उनमें से एक भी मुस्लिम और दलित नहीं था। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में माखनलाल चतुर्वेदी के नाम से चल रहे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का देश में बड़ा नाम है और उससे हर जाति वर्ग के प्रतिभाशाली छात्र प्रतिवर्ष निकलते रहे हैं जो प्रदेश और देश के राष्ट्रीय मीडिया संस्थानों में काम कर रहे हैं। यदि प्रदेश में इस दलित मुस्लिम वर्ग के किसी पत्रकार को पुरस्कार के योग्य नहीं समझा गया तो यह संकेतक है कि या तो उक्त वर्गों को शिक्षा में या/और रोजगार में उचित स्थान नहीं मिल पा रहा। यदि ऐसा नहीं है तो तय है कि पुरस्कार के लिए चयन में निष्पक्षता की कमी रह गयी है। कितना अच्छा हो अगर सूचना के अधिकार के इस युग में चयन प्रक्रिया के सारे तथ्य सार्वजनिक हों।
पुरस्कारों के लिए पाँच सदस्यों की जूरी बनायी गयी थी इनमें से चार सर्व श्री मदन मोहन जोशी, श्री शरद द्विवेदी, श्री जय कृष्ण गौड़, श्री जयराम शुक्ला [सभी ब्राम्हण] और श्री महेश श्रीवास्तव सम्मलित थे। स्पष्ट है कि लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटने वाले इस युग में सरकार द्वारा तय की गयी जूरी में बहुमत से फैसला हुआ होगा।
मध्य प्रदेश सरकार ने सात पुरस्कारों में सात-सात लोगों को कुल उननचास पुरस्कार प्रदान किये इन उननचास पुरस्कारों में कोई भी मुस्लिम नहीं है और कोई भी दलित नहीं है। आज मीडिया में बहुत सारी महिलाएं पत्रकारिता के क्षेत्र में हैं और बहुत अच्छा काम कर रही हैं किंतु महिला वर्ग में केवल एक पुरस्कार दिया गया। यह मात्र संयोग हो तो अच्छा है किंतु ऐसा है नहीं कि उननचास पुरस्कारों/सम्मानों में से तीस से अधिक अर्थात 62 प्रतिशत घोषित रूप से ब्राम्हण हैं और कुछ अन्य की उपजातियों से भी ब्राम्हण होने के संकेत मिलते हैं। इतने ब्राम्हणों को सम्मानित करने का पुण्य प्राप्त करने के अवसर से गदगद मुख्यमंत्री ने किसी महाराजा की तरह उसी स्थल पर इक्यावन हजार के पुरस्कार को एक लाख का घोषित कर दिया और इक्यावन हजार का चैक तुरंत देते हुए शेष राशि उनके खातों में जमा कराने की घोषणा कर दी। उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश सरकार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब चल रही है और भूमि अधिग्रहण के कानून से आतंकित किसान मौसम की मार से आत्महत्याएं कर रहे हैं तब बिना किसी मांग के इसी वर्ष से दी गयी मुख्यमंत्री की यह उदारता सन्देह पैदा करती है।
यद्यपि कुछ पुरस्कार बहुत ही सुयोग्य व्यक्तियों जैसे श्री राम विद्रोही, श्री सतीश एलिया, श्री प्रमोद भार्गव श्रीमती रानी शर्मा, आदि को मिले हैं जिन्हें ये पुरस्कार बहुत पहले ही मिल जाने चाहिए थे ताकि उन्हें ऐसे समूहों में सम्मलित नहीं होना पड़ता, पर योग्यता का स्वाभिमान अपने कामों के लिए स्वयं आवेदन करने की स्थिति तक बहुत मजबूरियों में ही पहुँच सकता है।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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बुधवार, अप्रैल 01, 2015

आदर्श, नीति और पाखण्ड से घिरा आम आदमी पार्टी का संकट



आदर्श, नीति और पाखण्ड से घिरा आम आदमी पार्टी का संकट
वीरेन्द्र जैन
       आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ चले एक आन्दोलन से जन्मी पार्टी है, जो अपना लक्ष्य संसदीय लोकतंत्र में तलाशने के लिए उसी गहरे कुँए में उतर गयी जिसमें इससे पहले भी उतर कर कई दूसरे आन्दोलन डूब  चुके थे। स्वतंत्रता आन्दोलन से जन्मी काँग्रेस जिसके सदस्य कभी आज़ादी की लड़ाई के लिए जेल गये थे, चुनावी पार्टी बनने के बाद उसके सदस्य तरह तरह के घोटालों में जेल जाने लगे। गुजरात में तत्कालीन मुख्यमंत्री चिमन भाई पटेल पर लगे आरोपों के विरोध से शुरू हुआ जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन जनता पार्टी द्वारा सरकार बना लेने के बाद बिखर गया। वीपी सिंह ने भी बोफोर्स सौदों में दलाली के खिलाफ राजनीति के नये समीकरण जोड़े थे जो अपनी सरकार को भ्रष्ट समर्थकों से बचाने के लिए मंडल कमीशन की कूटनीति तक चले गये और कमंडल आन्दोलन का बीज बो गये। कांशीराम का गैर सवर्ण आन्दोलन बहुजन समाज पार्टी चलाने के चक्कर में दलित जातियों का समर्थन बेचने की दुकान में बदल गया और दलित की बेटी दौलत की बेटी के रूप में पहचानी जाने लगी। यही परिणाम अन्ना को आगे रख कर केजरीवाल द्वारा चलाये गये आन्दोलन का हुआ जो चुनावी राजनीतिक दल में बदलते ही उन आरोपों से घिर गया जिसके खिलाफ उन्होंने शुरुआत की थी। चुनाव लड़ने वाली कम्युनिष्ट पार्टियां भी अपने आन्दोलन के लिए चुनाव न लड़ने वाली कम्युनिष्ट पार्टियों से अधिक नहीं कर सकीं अपितु गलत दलों से चुनावी समझौते के प्रयोग कर अपनी धार खो बैठीं और ठहराव की शिकार हुयीं।   
       आन्दोलन की शुरुआत आदर्श से होती है इसलिए उसमें त्याग लगन और समर्पण वाले लोग जुटते हैं और  उसमें खुशी मह्सूस करते हैं, किंतु राजनीतिक दल बनते ही उसे प्रतिद्वन्दी व प्रतियोगी दलों से चुनावी चुनौती मिलती है और वे उन सत्ता लोलुप गिरोहों की चुनौती का सामना करने को ही अपना मुख्य लक्ष्य बना लेते हैं। इसके लिए वे चुनाव जीतने और सत्ता पाने के लिए समझौते करने, चुनावी फंड एकत्रित करने व विरोधियों पर अनैतिक हमले करने से भी नहीं चूकते। आन्दोलनों की लोकप्रियता से मिले समर्थन से जब चुनाव जीतने की सम्भावनाएं बलवती हो जाती हैं तो तरह तरह के निहित स्वार्थ उनके आस पास घिरने लगते हैं और संसाधनों की प्रचुरता द्वारा संचालन अपने हाथ में ले लेते हैं।
       आम आदमी पार्टी का मुख्य संकट यही है कि चुनावी पार्टी में बदल चुके इस समूह को उसी आन्दोलन के मानदण्डों से ही मापने की कोशिश की जा रही है। योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण द्वारा उठाये गये सवाल गलत नहीं हैं किंतु उन्हें किस तरह से और किस उद्देश्य से सार्वजनिक रूप से उठाया गया है यह चौंकाता है, क्योंकि वे   चुनावी पार्टी की रणनीति का भांडा फोड़ के अपने नेता को बेईमान बताने की कोशिश करते प्रतीत होते हैं। बहुत सम्भव है कि चुनावी फंड एकत्रित करने के लिए आन्दोलन की पुरानी नैतिकिता से कुछ विचलन किया गया हो किंतु जब तक यह साबित न हो रहा हो कि कथित विचलन व्यक्तिगत हित के लिए किया गया है तब तक ये सारे आरोप सार्वजनिक नहीं होने चाहिए थे। योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे लोग अगर आन्दोलन को चुनावी पार्टी में बदलने के प्रति सहमत रहे थे तो उन से यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि वे यह नहीं समझते होंगे कि अपनी पार्टी की जीत की सम्भावनाओं को धूमिल करके परोक्ष में उन राजनीतिक शक्तियों को मदद पहुँचायी जा रही है जिनके खिलाफ आन्दोलन प्रारम्भ किया गया था, और उसी लक्ष्य को पाने के लिए अब चुनाव लड़ा जा रहा है।
       जब से अरविन्द का गाली गलौज वाली भाषा का स्टिंग सार्वजनिक हुआ है तब से चारों और उनके आन्दोलन वाले समर्थक निराश नजर आते हैं और विरोधियों के कदमसे कदम मिला कर उनकी आलोचना कर रहे हैं । किसी को भी यह उम्मीद नहीं थी कि वे उम्र में वरिष्ठ और नेतृत्वकारी साथी रहे लोगों के प्रति अपनी भाषा में उस स्तर तक पहुँच जायेंगे कि अपने पद और कद को भूल जायेंगे। कहते हैं कि भावावेश में आदमी अपनी स्वाभाविक भाषा बोलता है इसलिए उनके प्रशंसकों को यह लगना स्वाभाविक है कि शायद इससे पहले की उनकी भाषा नकली थी। दर्ज़नों पार्टियों और नेताओं से धोखा खाया हुआ देश सोचता है कि भाषा का यह नकलीपन कहीं उनकी राजनीति और नेतृत्व में भी तो नहीं! आलोचना के इस ज्वार में बातचीत में से यह सन्देश भुला दिया गया कि आखिर ऐसी क्या बात हो गयी कि आमतौर पर मृदुभाषी रहे अरविन्द के मन में इतनी कढुवाहट घुल गयी कि उन्हें ऐसी भाषा पर उतरना पड़ा। क्या आम आदमी पार्टी के नेताओं का आपसी रिश्ता यही था कि उसके कार्यकर्ता आपस में की गयी बातचीत को भी रिकार्ड कर लेते थे! यह तो अमर सिंह जैसी हरकत हुयी जिन्होंने अपने वकील प्रशांत भूषण की प्रोफेशनल बात को भी रिकार्ड कर के रखा था और उसका स्तेमाल राजनीति में कर दिया था। अगर दूसरा गुट इतना ही नैतिकितावादी था तो प्रोफेसर आनन्द कुमार का ब्लेकमेलिंग जैसी भाषा में यह कहना कि बात निकलेगी तो बेडरूम तक जायेगी किस बात का संकेत है? अगर उन्हें कुछ और भी जानकारी है तो उसे भी उसी समय बताना चाहिए था या अब बता देते।  
       आम तौर पर संघ परिवार से जुड़े लोग धर्मनिरपेक्षता पर बातचीत के दौरान मूल विषय से भटकाने के लिए धर्म निरपेक्षता और पंथ निरपेक्षता शब्द की व्याख्या करने लगते हैं और उन्हें बताना पड़ता है कि इस समय व्याकरण पर बात नहीं हो रही है और हम लोग अच्छी तरह जानते हैं कि हम इन शब्दों के किस प्रचलित अर्थ के अनुसार बात कर रहे हैं। प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव की सही बातें भी विषय से हट कर हैं, वे अभी बड़े समर्थन वाले जन नेता नहीं हैं व केजरीवाल गुट को नुकसान तो पहुँचा सकते हैं, या कहें कि पहुँचा ही चुके हैं किंतु आन्दोलन के आदर्शों को लाभ पहुँचाने की स्थिति में नहीं हैं। वे चाहते तो राजनीतिक दल बनाते समय अलग हो सकते थे या अभी अपने को अलग कर के बाद में ऐसे अवसर पर अपनी बात कह सकते थे जिससे आन्दोलन को लाभ मिलता। अब उन लोगों को लाभ मिलेगा जिनके आचरण उनसे भी बुरे हैं जिनके खिलाफ उन्होंने यह सब उठापटक की है। स्टिंग के बाद इस बात की सम्भावनाएं शेष नहीं रह गयी हैं कि दोनों गुट एक हो जायें और दो दल बन के एक पै एक ग्यारह हो सकें। अगर आम आदमी के किसी नेता पर इस सब से व्यक्तिगत लाभ लेने का कोई आरोप नहीं लग रहा है तो सवाल उठता है कि इससे हासिल क्या हुआ? और नई तरह की राजनीति के आन्दोलन के पक्ष में कौन है? जब आम चुनावों में तरह तरह के भ्रष्टाचार में जेल जा चुके और अपराधी नेता भी अच्छे बहुमत से चुनाव जीत जाते हैं तो बिना किसी रणनीति के किसी पर आरोप लगा देना क्षणिक लोकप्रियता प्राप्त कर लेने से अधिक क्या है?
       काश उन्होंने व्यापक जन समुदाय की उम्मीदों की रक्षा में बेहतर विकल्प देने तक धैर्य रखा होता। काश अरविन्द ने भावावेश में अपनी भाषा पर नियंत्रण रखा होता।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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