गुरुवार, जून 24, 2010

यह मध्यप्रदेश है प्यारे


यह मध्यप्रदेश है प्यारे
एक दिन के अखबार की खबरें
वीरेन्द्र जैन
आज जून माह की चौबीस तारीख है।
पर तारीख से क्या कोई भी हो, क्या फर्क पड़ता है। रोज की तरह अखबार वाला अखबार का बन्डल थमा गया है। पूरी आधा किलो खबरें जिनमें कम से कम तीन सौ ग्राम विज्ञापन होंगे। शरीर उदास और शिथिल है और चाहता है कि पठनीय कुछ कम हो तो दिमाग के साथ जबरदस्ती न करना पड़े। पर खबरें तो खबरें हैं और वे भी मध्य प्रदेश की जहाँ भारतीय संस्कृति के सिपहसालार बैठे हैं। जरा आप भी मुलाहिज़ा कीजिए।



  • लोकायुक्त ने कहा है कि प्रदेश में नौ मंत्रियों और पचास अफसरों की जांच चल रही है तथा पिछले दिनों आय से अधिक सम्पत्ति अर्जित करने सम्बन्धी शिकायतों पर सतत्तर छापे मारे गये।
    ग्वालियर में शिवपुरी लिंक रोड पर स्वास्थ मंत्री अनूप मिश्रा, जो प्रदेश के बड़े बड़े शिक्षा माफियों से होड़ ले रहे हैं, के परिजनों जिनमें उनके भाई, साले, और अन्य रिश्तेदार सम्मलित हैं, नेआई पी एस कालेज की ज़मीन विवाद को लेकर गोलीबारी की जिसमें एक व्यक्ति की घटना स्थल पर ही मौत हो गयी और तीन महिलाओं समेत अनेक घायल हो गये। पुलिस अपराधियों को बचाने की कोशिश में लगी हुयी है और नाराज ग्रामीण लाश को रख कर चक्काजाम किये बैठे हैं।

  • भाजपा विधायक जितेन्द्र डागा भोपाल विकास प्राधिकरण के सीईओ मदन गोपाल रूसिया की सन्दिग्ध मौत के मामले में गत तीन दिनों से सीबीआई की पूछताछ का सामना कर रहे हैं, और उन पर घेरा कसता जा रहा है। श्री डागा संसद में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज के नजदीकी हैं।

  • एक मंत्री विजय शाह के कर्मचारी की पत्नी ने अपने पति पर आरोप मंत्रीजी के साथ हमबिस्तर होने के लिए दबाव बनाने का आरोप लगाया था जिसे पुलिस ने पति और सास ससुर के खिलाफ दहेज प्रताड़ना का मामला बना कर रिपोर्ट दर्ज़ की है।

  • प्रदेश के पर्यटन खेल और युवक क्ल्याण मंत्री तुकोराव जी पवार की तबियत अचानक बिगड़ गयी और उन्हें चक्कर आने लगे। प्रदेश को याद है कि जब चुनावों के दौरान उन्होंने एक एस डी एम पर अनुचित पक्ष लेने के लिए दबाव डाला था और चुनाव आयुक्त की कार्यवाही पर उन्हें जेल भेजने के आदेश हुये थे तब भी उनकी तबियत अचानक बिगड़ी थी व वे जेल की जगह अस्पताल चले गये थे जहाँ सब से धड़ल्ले से मिलते रहे थे व हाई कोर्ट से जमानत मिल जाने पर बिना डिस्चार्ज हुये ही भाग लिये थे।

  • ये खबरें तो उन अलिखित खबरों के अलावा हैं कि प्रदेश के पूर्व मंत्री कमल पटेल हत्या के आरोप में जमानत न मिलने के कारण जेल में हैं और एक दूसरे पूर्व मंत्री रुस्तम सिंह भी बहू द्वारा दहेज प्रताड़ना के आरोप पर जेल भेजे गये।

  • मध्य प्रदेश के कर्मचारी जिस राज्य वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने का ढाई साल से इंतज़ार कर रहे हैं, वह फाइल ही गायब हो गयी है। फाइल कहाँ है किसी को पता नहीं।
    जिन मंत्रियों के परिवार जनों परिचितों और यहाँ तक कि ड्राइवरों तक के लाकरों से करोड़ों रुपये बरामद हुये थे उनकी फाइलें तो जैसे इनक्कम टैक्स विभाग दबा कर ही बैठ गया है, सो खबरें भी नहीं आ रहीं।

  • शेष अखबार भोपाल गैस की बदबू और गैस पीड़ित संगठनों के नेताओं के विकसित स्वास्थ आदि के चित्रों से भरी हुयी हैं
    ये मध्यप्रदेश है प्यारे जहाँ सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे दम तोड़ते रहते हैं और किसान पलायन करते रहते हैं।
    वीरेन्द्र जैन
    2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
    अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
    मो. 9425674629









बुधवार, जून 23, 2010

अकेले होने पर भी यात्राएं स्थगित नहीं होतीं


अकेले होने पर भी यात्राएँ स्थगित नही होतीं
वीरेन्द्र जैन

नेता बेईमान हैं, अफसर नाकारा और भ्रष्ट हैं, कर्मचारी बिना रिश्वत लिये कोई काम करने को तैयार नही हैं, पत्रकार दलाल हो गये, न्यायाधीश मुँह देखे का न्याय करते हैं, प्रकरण ल्रंबित रहते हैं, जॉचें असंतोष को टालने का बहाना हैं आदि- आदि आरोप पूरे देश के नागरिक उछालते रहते हैं और साथ साथ सब कुछ सहते रहते हैं।
लोकतंत्र में यथा प्रजा तथा राजा का सिद्वांत लागू होता है, किंतु हम अपने दोषों को देखने की कोशिश नहीं करते हैं और न ही किसी गलत बात के प्रति सक्रिय अंसतोष ही व्यक्त करते हैं। ऐसे सुझावों पर एक सधा हुआ- सा उत्तर हमारे पास होता है कि ' हम अकेले क्या कर सकते हैं ' या 'हमारे किये क्या होता है?' असल में इस तरह की बातें एक बहाना भर होती हैं, जबकि थोड़े से श्रम और थोड़े से त्याग के द्वारा हम अपना विरोध दर्ज करा कर एक बड़ा समूह पैदा कर सकते हैं उदाहरण के लिए हम इतना तो कर ही सकते है कि किसी बेईमान नेता नाकारा अफसर व भ्रष्ट कर्मचारी को सम्मान न दें। उसका अभिवादन न करें व उसके अभिवादन का उत्तर न दें। प्रत्येक भ्रष्ट व बेईमान व्यक्ति अतिरिक्त रूप से अर्जित धन को कहीं न कहीं निवेश करता है। हम ऐसे संस्थानों का निषेध कर सकते हैं। हमें चाहिए कि हम भ्रष्ट नेता द्वारा संचालित स्कूलों में अपने बच्चों को प्रवेश न दिलाएँ, उनकी दुकानों और शोरूमों से सामान न खरीदें। उनके पेट्रोल- पंपों, गैस एजेंसियों से संभव होने पर भी खरीदी न करे। उनके द्वारा संचालित सरकारी ठेकों की जानकारीयॉ रखें और गुणवत्ता पर ध्यान रखें व किसी भी विचलन की जानकारी होने पर संबधित अधिकारियों को सूचित करें भले ही अपना नाम गुप्त रखें। विकल्प होने पर उनके मकानों, भवनों को किराये से न लें और लें तो अधिक किराया न दें। नियम से उनके विचलन की जानकारी उनके विरोधियों तक पहुँचावें। इस कार्य के लिए कुछ गुमनाम पोस्टकार्ड भेजकर भी काम चलाया जा सकता है। बाद में सूचना के विस्तार की तलाश तो उनके विरोधी भी कर सकते है।
प्रसिद्व फिल्मीसितारों, गायकों, संगीतकारों, क्रिकेट खिलाड़ियों को हम उनके संबधित गुणों के कारण सम्मान देते है, पर उनके द्वारा प्रचारित खाद्य सामग्री, पेय पदार्थो या दूसरे गृह- उपयोगी उपकरण खरीद कर हम लुटते भी हैं कोशिश करें कि इससे बच सकें क्योकि अपने प्रशंसकों को उक्त सामग्री खरीदनें की प्रेरणा देने के बदले में ये करोड़ों रूपये लेकर आपको मूर्ख समझकर आपकी भावनाओं को परोक्ष रूप से भुनाते हैं। इनको दिया गया धन व मीडिया के विज्ञापनों में व्यय किया गया अरबों रूपया हमारी ही जेब से जाता है। यदि हम उपभोक्ता सामग्री के प्रयोगों से संबधित जानकारी का परस्पर आदान-प्रदान करते रहें तो कम व्यय में समतुल्य सामग्री से भी वांछित परिणाम प्राप्त कर सकते हैं। एक समूह के लोग उपभोक्ता सामग्री को थोक में खरीदकर कर और आपस में बांटकर फुटकर दुकानदार का मुनाफा बचा सकते हैं।
अपना विरोध व असहमतियों को व्यक्त करने के लिए हम समाचार पत्रों के संपादक के नाम पत्र स्तंभ का समुचित उपयोग कर सकते हैं। जिस विभाग, अधिकारी या नेता से हम अंसतुष्ट हैं, उसके दरवाजे से निकलते समय अपने वाहन का हॉर्न तेज स्वर में बजाते हुए गुजर कर भी अपना विरोध दर्शा सकते हैं। भ्रष्ट और बेईमान अफसर के विदाई समारोहों का बहिष्कार करके भी उसे एक सन्देश दे सकते हैं।
एक बहुत बड़ा भ्रम यह छाया हुआ है कि हम चुनाव में जो वोट देते हैं वह किसी को जिताने के लिए देते हैं। इस भ्रम में पड़ कर हम अपनी पंसद के उस उम्मीदवार और दल की उपेक्षा कर जाते हैं, जिसके जीतने की संभावनाएं कम बतायी जा रही हों। इस बात की कहीं कोई गांरटी नही होती कि जिसको आप वोट दे रहे हैं वही जीतेगा और जीतेगा तो आपका उपकार मानकर आपका साथ देगा। आमतौर पर हमारे क्षेत्र में जीते हुए उम्मीद्वार किसी देवी- देवता या संत- मंहत के प्रति कृतज्ञ होते हुए देखे जाते हैं। प्रत्येक वोट का अपना महत्व होता है तथा विजयी दल और उम्मीद्वार सदैव ही यह दृष्टि में रखते हैं कि किसी विरोध पक्ष और उम्मीद्वार को कितने वोट मिलते हैं। इस तरह वे हवा का रूख पहचान कर अपने कार्य की दिशा तय करते हैं। वोट गुप्त होता है तथा यदि आप किसी दल या उम्मीद्वार के मुखर समर्थक नही होते हैं तो किसी को पता नही रहता कि आपने किसे वोट दिया है। इसलिए आपकी ईमानदारी का तक़ाजा यह है कि अपने सिद्वांतों के अनुकूल व्यक्ति और दल को वोट देकर एक स्पष्ट संदेश दें।
सामानों से भरे बाजार में हम अतिक्रमणकारी दुकानदारों से सामान नहीं खरीदकर उन्हें एक संदेश दे सकते हैं। थोड़ा सा कष्ट उठाकर हम उस दुकान तक जा सकते है, जो अपनी दुकान की सीमा तक ही सामान रखता है, जिसके यहॉ पार्किग की उचित सुविधा है, जो दरें सही व सुनिशचित रखता है तथा बिल बनाकर सही सामान देता है। बाजार की प्रतियोगिता का लाभ हम सामाजिक नियमों के पालन कराने की दिशा में उठा सकते है। सांप्रदायिक और जातिवादी शक्तियों को सहायता पहुँचाने वाली दुकानों का भी बहिष्कार किया जा सकता है।
आमतौर पर हम बहुमत के नाम पर नियमों- नीतियों के विचलनों को स्वीकार करने लगते है और परोक्ष रूप में उनमें शमिल हो जाते है, जबकि हम अकेले होते हुए भी अपने स्तर पर अपना विरोध व्यक्त कर सकते हैं, यदि आप अपने हिस्से की ईमानदारी लागू करते रहते हैं, तो वह निरर्थक नहीं जाती भले ही तात्कालिक रूप से बहुत स्पष्ट परिणाम नज़र नही आ रहे हों। इसमें कम से कम इतना तो होता ही है कि उसमें शमिल नहीं होने लगते और उसके विरोध में चिंतन की एक धारा सतत प्रवाहमान रहती है।
अकेला चना भाड़ भले ही न फोड़ पाए पर भडभूंजे की ऑख फूटने के बाद भाड़ के फूटने में ज्यादा देर नही लगती है। हमें देखना होगा कि कि हम अपना विरोध कैसे व्यक्त करने की स्थिति में हैं।बिना किसी भय और दुस्साहस के भी बहुत कुछ किया जा सकता है।
-- वीरेन्द्र जैन
2\1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शनिवार, जून 12, 2010

यह उसका जन्म दिन था जो अब नहीं है


12 जून उसका जन्म दिन था जो अब नहीं है
वीरेन्द्र जैन
आज 12 जून है
आज उसका जन्म दिन है।
है नहीं था, क्योंकि वह अब इस दुनिया में नहीं है। वैसे जो लोग दुनिया में नहीं रहते उनका भी जन्म दिन मनाया जाता है, पर इस मामले में ऐसा नहीं है। यह जन्म दिन उसके जाने के साथ ही चला भी गया।
यह एक पहेली नहीं है, एक सच्चाई है, एक कठोर सच्चाई। और यह सच्चाई इस तरह है कि यह तारीख मेरे स्कूल सार्टिफिकेट में लिखी हुयी है, मेरी जन्म तिथि के रूप में। पर मुझे उसका पता ही नहीं था। अब ऐसा भी नहीं है कि बिल्कुल पता नहीं था, जब भी कभी कोई फार्म भरना होता जिसमें जन्म तिथि का कालम होता तो यह तिथि याद आ जाती। वैसे नौकरी की आपाधापी में यह तिथि जाने कब निकल जाती पता ही नहीं चलता। हाँ कभी उम्र गिनना होती तो उस तिथि का निकल जाना याद आता था।
पर जबसे उससे दोस्ती हुयी उसे यह तिथि याद रहती थी। ऐसा नहीं कि उसने अपने मोबाइल में फीड कर रखी हो और सुबह सुबह उसकी घंटियाँ उसे याद दिला जाती हों, अपितु ऐसा भी होता था कि हफ्तों पहले उसके पास कोई 12 जून की किसी दावत या कार्यक्रम का निमंत्रण लेकर आता तो उसे याद रहता कि उस शाम वह फ्री नहीं है, उस शाम उसे मेरे साथ बाहर डिनर पर जाना है।
सुबह सुबह फोन की बजने वाली घंटी उसकी ही होती थी और औपचारिक ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ चुहलबाजी भी होती थी जिसमें इतनी उम्र दराज़ होने की बातें होती थीं जिस उम्र और दशा में जीना बोझ लगने लगता है। फिर शाम का प्रोग्राम तय होता जिसमें मैं उसकी पत्नी और वह मिला कर कुल तीन लोग होते। तीनों लोग मिल कर साथ शाकाहारी खाना खाते और फिर उसके बाद आइसक्रीम खाते थे। जाते जाते वह एक बार फिर गले मिल कर बधाई देता और हम अलग हो जाते। उसने पहले से तय कर रखा था कि मेरा साठवाँ जन्म दिन किस साल पड़ेगा और उस साल बड़ा जश्न होना चाहिए। मेरे जैसे संकोची जीव के लिए वह सचमुच असहज था किंतु उसके द्वारा तय किया हुआ कार्यक्रम असफल नहीं हो सकता था। मेरे मना करने पर उसने कहा भई ज़िन्दगी में आदमी एक बार ही साठ साल का होता है हर साल तो नहीं होता। सो उसने मुझ पर केन्द्रित एक पत्रिका का विशेषांक निकलवाया, हाल बुक किया, एक संस्था को आयोजन की ज़िम्मेवारी सौंपी, सभी साहित्यिक बिरादरी को आमंत्रित किया तथा भोपाल के पूरे मीडिया को सूचित करने के लिए अपने स्टेनो को लगाया और एक साधारण सा आयोजन एक भव्य आयोजन में बदल गया।
शायद उसे आभास भी नहीं रहा होगा कि यह अंतिम जन्म दिन है। गत 19 अप्रैल को वह अपने रिटायर्मेंट से पहले वाली आखिरी एल टी सी में शेष रह गये देश को देखने निकला था और हरिद्वार से टिहरी की ओर जाते हुये उसकी कार एक हजार फीट गड्ढे में गिरी जिसमें पति पत्नी दोनों ही नहीं बचे। जन्म दिन की कथा उसी से शुरू हुयी थी और उसी के साथ ही खत्म भी हो गयी तो मैं कैसे कह दूं कि यह मेरा जन्म दिन है, यह तो उसका जन्म दिन था जो उसी के साथ ही खत्म भी हो गया, जो अब कभी नहीं आयेगा।
उस दोस्त का नाम था ज़ब्बार ढाकवाला जो एक वरिष्ठ आई ए एस ही नहीं एक कवि व्यंगकार कथाकार भी था और जो अपनी पत्नी तरन्नुम ढाकवाला के साथ रिटायरमेंट से पहले वाली आखिरी एल टी सी में देखने को शेष बचे रह गये देश का भ्रमण करने निकले थे व उत्तरपूर्व के यात्रा के बाद उत्तरांचल में टिहरी के पास एक हज़ार फीट गहरी खाई में कार के गिर जाने पर एक साथ जीने मरने का वादा निभाते हुए चल बसे।
असल में 12 जून, मेरा नहीं, उसका जन्म दिन था जो उसी के साथ चला गया।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629








गुरुवार, जून 10, 2010

भोपाल गैस काण्ड- फैसला तो हो गया न्याय कब होगा


भोपाल गैस काण्ड का फैसला तो हो गया पर न्याय कब होगा
वीरेन्द्र जैन
आज भोपाल शहर सारी दुनिया में जाना जाता है किंतु यह अपने सबसे बड़े तालाब के कारण नहीं, लम्बे समय तक बेगमों के शासन के कारण नहीं, यहाँ के लोकप्रिय शायरों के कारण नहीं अपितु 1984 में हुये ज़हरीले भोपाल गैस काण्ड के कारण जाना जाता है। लगभग वैसे ही जैसे कि जापान का हिरोशिमा और नागासाकी जाना जाता है। सारी दुनिया को पता है कि भोपाल में यूनियन कार्बाइड जैसी अमरीकी कम्पनी का कारखाना था जो शहर के बीचों बीच था। एक दिसम्बर की रात में इस कारखाने से ज़हरीली मिक गैस का रिसाव हुआ जिसने पूरे शहर के निचले इलाकों को प्रभावित किया था जहाँ ज्यादातर गरीब लोग रहते थे। तीन हज़ार लोग तो तुरंत ही मर गये थे तथा जो लाखों लोग प्रभावित हुये थे उनमें से पन्द्रह हज़ार कुछ ही दिनों में मौत के शिकार हो गये। गैस पीड़ित होने का दावा करने वाले चार लाख पचहत्तर हज़ार लोगों को उनके आवेदनों के आधार पर अदालतों ने गैस पीड़ित स्वीकार किया है।
जैसा कि होता आया है, वैसे ही इस भीषण दुर्घटना की भी जाँच बैठी, और जैसा कि होता आया है जाँच का दिखावा पीड़ितों के पक्ष में बताया गया, किंतु जैसा कि होता आया है जाँच धन कुबेर विदेशी फैक्ट्री मालिक के नेताओं के साथ मधुर सम्बन्धों, विदेश विभाग के दबाओं और जाँच कर्ताओं पर इनके अंकुश की भेंट चढ गयी। इस बीच उच्च न्यायालयों ने थोड़ा सा मुआवजा घोषित करवा दिया जिसे पाने के लिए मोहताज और तिकड़मबाज मिल कर टूट पड़े। यह वैसा ही था जैसे अपने पीछे भागती आ रही भीड़ को भटकाने के लिए कोई लुटेरा नोट फैंकते हुए भागे और पीछा करने वाले अपना ध्यान नोट बटोरने में लगा कर पीछा करना छोड़ दें। गरीबों की मजबूरी होती है कि ज़िन्दा रहने के लिए की जाने वाली ज़द्दोज़हद में वे अपनी लड़ाई दूर तक नहीं ले जा पाते और मरते खटते रोटी कमाने की लड़ाई में बड़े दुश्मन के सामने अपने को हारा हुआ ही महसूस करके रह जाते हैं। परिणाम यह हुआ कि कोई बड़ा जन आन्दोलन खड़ा नहीं हो पाया। कुछ संस्थाएं खड़ी हुयीं पर वे झूठे सच्चे मुआवजे दिलाने की लड़ाई में उलझ कर रह गयीं। कई संस्थाओं के पदाधिकारी साइकिल से हवाई जहाज का सफर करने लगे और झोपड़ी से निकलकर बंगलों में रहने लगे।
किंतु अपने देश में जो शासन प्रणाली चल रही है उसका नाम लोकतंत्र है और चाहे जैसे होते हों पर चुनाव होते हैं। नियत समय पर होने वाले इन चुनावों के लिए नेताओं को जनता के पास आना होता है। उनके वोट पाने के लिए उन्हें कुछ सपने दिखाने होते हैं, कुछ लालच देने होते हैं, और अतीत में हुयी ज्याद्तियों के खिलाफ न्याय के वादे करना होते हैं। भोपाल का ज़हरीली गैस काण्ड भी इसी राजनीति का शिकार हुआ। चुनाव के समय न्याय के वादे किये गये, भोपाल के सभी वार्डों को गैस पीड़ित घोषित करने का लालच दिया जाता रहा किंतु प्रदेश के दौनों ही प्रमुख दल भाजपा और कांग्रेस इसी कम्पनी से चुनाव का चन्दा लेते रहे।
लम्बे समय तक चली जाँच के बाद मुकदमा दर्ज़ किया गया जिसे खींचा जाता रहा, इसका खुलासा फैसला आने के बाद प्रकरण दायर करने वाली संस्था सीबीआई के पूर्व अधिकारी बी के लाल ने यह कह कर किया ही है कि विदेश मंत्रालय के अधिकारियों ने वारेन एंडर्सन के मामले में आगे न बढने की सलाह के बाद जाँच प्रभावित हुयी थी। तत्कालीन मुख्य मंत्री ने किसके दबाव में वारेन एंडेर्सन को सरकारी हवाई जहाज उपल्ब्ध कराके सुरक्षित वापिस भेजा था इसका खुलासा होना अभी बाकी है।

जो प्रकरण अदालत में चल रहा होता है उस पर अदालत का सम्मान करने के नाम कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता- शांततः कोर्ट चालू आहे-। अदालत जारी रही, मुकदमा चलता रहा एक दो तीन चार नहीं अपितु पूरे पच्चीस साल तक न्याय की प्रतीक्षा बनी रही। भोपाल गैस पीड़ितों के नाम पर संस्थाएं गठित हुयीं जो क्रमशः गैस पीड़ितों को मुआवजा जैसी खैरात दिलाने या उनके मुहल्ले में पानी बिजली आदि जैसी ज़रूरी सुविधाएं दिलाने की राजनीति करती रहीं। बहुत सारी संस्थाओं के प्रमुख बड़े अधिकारियों के साथ बैठने, बड़े नेताओं के साथ विमर्श करने और मीडिया को बाइट देते देते स्टार बनते गये। गैस पीड़ितों की लड़ाई उनका धन्धा बनता गया, और धन्धे को कोई भी जल्दी बन्द नहीं करना चाहता।
अदालत ज़ारी रही न्यायाधीश बदलते रहे और उन्नीसवें न्यायाधीश ने अपना फैसला सुनाया जिसमें सभी आरोपियों को सजा मिली केवल दो साल की। कानून यही कहता है और दलीलें अदालतों को इसी फैसले तक पहुँचाती है। इसके बाद आरोपियों को तुरंत जमानत भी मिल गयी । उन्हें आगे फैसले के खिलाफ उच्च न्यायलयों में जाने का अधिकार है। ये अदालतें अगर इसी गति से चलीं तो जब फैसला आयेगा तब न न्याय को तरसती आँखें रहेंगीं और न ही आरोपी रहेंगे। रह जायेगा केवल दो-तीन दिसम्बर 1984 की रात का काला इतिहास और पीढितों द्वारा अपने वंशजों को दी हुयी आनुवांशिक बीमारियां।
फैसला सबूतों, दलीलों, गवाहियों, और धाराओं के आधार पर होता है न कि भावनाओं के आधार पर, न की भीड़ की माँग के आधार पर। और यह कोई अकेला फैसला थोड़े ही है। इसी मध्य प्रदेश में पिछले दिनों अनेक ऐसे फैसले हुये हैं जिनमें न्यायाधीश को खुद लिखना पड़ा है कि अभियोजन की रुचि आरोपियों को सजा दिलाने में नहीं थी। इसी तरह इस में भी फैसला तो हुआ पर न्याय नहीं मिला।
मेरे एक न्यायाधीश मित्र एक किस्सा सुनाते थे कि गाँव के एक दबंग ने एक युवती के साथ ऐसी यौनिक छेड़छाडं कर उसका ऐसा अपमान कर दिया था जिसका कानून में अधिकतम दण्ड पचास रुपया था। अपने फैसले में न्यायाधीश ने उक्त दण्ड दिया। अपराधी ने हँसते हुये कहा कि जज साहब हमारे पास सौ का नोट है खुल्ले नहीं है सो आप एक बार और वैसा ही काम कर लेने दो और उसकी सजा भी सुना दो। बाद में उन्होंने उस पर अदालत की मानहानि का मुकदमा चलाया यह अलग बात है किंतु जज तो वही सजा दे सकता है जिसे अभियोजन ने सिद्ध किया है और जिसके लिए जितनी सजा का प्रावधान है।
इस फैसले में यह बात भुला देनी पड़ी कि सजा से न केवल अपराधियों को दण्डित ही किया जाता है अपितु दूसरे लोगों को यह सन्देश भी दिया जाता है कि अगर तुम ऐसा करोगे तो तुम्हें ऐसी ही सजा मिलेगी। अब कोई भी फैक्ट्री वाला पन्द्रह हजार लोगों को मौत के मुँह में धकेल सकता है, चार लाख पचहत्तर हजार लोगों और उनकी अगली पीढियों को रोगग्रस्त बना सकता है एक पूरे हरे भरे ऎतिहासिक शहर को जहरीला बना सकता है, और उस घटना के पच्चीस साल बाद उसे कुल दो साल की सजा मिलेगी। ऐसी ही सजाओं पर रुचिरा जैसी मासूमों की मौत के लिए ज़िम्मेवार देश के राठौर सजा के बाद अदालत के बाहर आकर मुस्कराते हैं। उनकी यह मुस्कान हमारी व्यवस्था के खिलाफ एक हिकारत भरी टिप्पणी होती है।
नई आर्थिक नीति आने के बाद विदेशी कम्पनियों के लिए पलक पाँवड़े बिछाने वाली सरकारें बड़े गर्व के साथ घोषित करती हैं कि उन्होंने इंसपेक्टर राज्य को समाप्त कर दिया है। ऐसा इसलिए किया क्योंकि इंसपेक्टर फैक्ट्री मालिकों की जाँच करते रहते थे और व्यवस्था की कमजोरियों के अनुरूप उन पर सख्त दबाव बनाते थे। उद्द्योगपतियों के ये सतारूढ हितैषी उन फैक्ट्री मालिकों के हित में यह भुला देते हैं कि इंस्पेक्टरों का ठीक तरह काम न करना उनके शासन प्रशासन की कमजोरी होती है कि न कि इंस्पेक्टर के काम की। अगर शासन प्रशासन ईमानदार है तो कोई इंसपेक्टर बेईमान नहीं हो सकता। इंसपेक्टरों के महत्व को भुलाया नहीं जा सकता।
इस नीति में विदेशी कम्पनियों के लिए दरवाज़े ही नहीं खोल दिये गये हैं अपितु चौखटें तक निकाल कर फेंक दी गयी हैं, उन्हें आमंत्रण देते हुये राज्य में औद्योगिक शांति को ‘विज्ञापित’ किया जाता है जिसका मतलब यह होता है कि श्रम प्रतिरोध हीन शोषण के लिए उपलब्ध है। मजदूर संगठन लगभग समाप्त प्रायः हैं। हाल ही में बाल्को, जेपी, कोल्फील्ड आदि में जन हानि वाली दुर्घाटनाएं घट चुकी हैं किंतु कोई बड़ा आन्दोलन सक्रिय नहीं हो सका। राजनीति में बड़ा हिस्सा वकील हथियाते जा रहे हैं और यही वकील ऊंची ऊंची फीस पर बड़ी बड़ी विदेशी कम्पनियों के “विधिक सलाहकार” होते हैं। जिस दिन ऐसे दलालों की पूरी सूची सामने आयेगी उस दिन आँखें खुली रह जायेंगीं।
भोपाल गैस काण्ड का यह विलम्बित फैसला सारे राजनीतिक दलों और समाज के लिए एक चेतावनी है कि आगे रास्ता किस तरफ को जाता है, और अगर इसे रोकने की कोशिश नहीं हुयी तो देश के सामने वही विकल्प बचेगा जिसे प्रधानमंत्रीजी आज देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बतलाते रहते हैं, और जिसका प्रसार देश के 180 जिलों तक हो गया बताया जा रहा है।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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रविवार, जून 06, 2010

....पर भाजश के अनाथों की देखभाल कौन करेगा?


पर भाजश के अनाथों की देखभाल कौन करेगा !
वीरेन्द्र जैन
भारतीय जनशक्ति की संस्थापक और सुप्रीमो रहने के बाद उसे छोड़ देने वाली उमा भारती ने अपने ताज़ा बयान में कहा है कि एक राजनीतिज्ञ और साध्वी का जीवन व्यतीत करते हुये उन्हें काफी समय हो गया है लेकिन पारिवारिक ज़िम्मेवारी क्या होती है इसका अहसास पहली बार हो रहा है। उन्होंने कहा कि वे अब पारवारिक दायित्वों का निर्वहन करना चाहती हैं और फिलहाल एक साल राजनीति से दूर रहेंगीं। इस अवधि में वे बड़े भाई स्वामी लोधी के बच्चों नीलू और नीतूकांता की देखभाल करेंगीं। [ श्री स्वामी लोधी की पत्नी ने पिछले साल ही भोपाल में अज्ञात कारणों से अपने निवास में आत्महत्या कर ली थी, तथा सुश्री भारती उनके बच्चों को अपने बच्चों के समान ही प्यार दुलार देती रही हैं]। इस अवसर पर उन्होंने भाजपा में वापिसी के सवाल और उसमें पुनर्प्रवेश से सम्बन्धित अवरोधों से जुड़े किसी भी सवाल का उत्तर नहीं दिया।
मध्य प्रदेश के गत विधानसभा चुनाव में उन्होंने प्रदेश की सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे जिसमें से पाँच उम्मीदवारों ने जीत दर्ज़ की थी और गैर मान्यता प्राप्त उनकी भारतीय जनशक्ति पार्टी को बारह लाख वोट मिले थे जो इस बात का प्रमाण है कि बहुत सारे लोगों ने अपने भविष्य को उनके साथ नत्थी किया था। भाजपा में पुनर्वापिसी की सम्भावना दिखते ही वे प्रदेश के इन बारह लाख लोगों के भविष्य को अधर में छोड़ते हुये लाल कृष्ण आडवाणी और संघ मुख्यालय के चक्कर लगाने लगीं थीं, किंतु भाजपा के प्रादेशिक नेताओं ने जब उनकी वापिसी का तीव्र विरोध किया तो पार्टी नेतृत्व को उनको दिया आश्वासन छोड़ देना पड़ा। अपने वादे से मुकर जाना इस पार्टी के लिए कोई नई बात नहीं है उनके वरिष्ठ उपाध्यक्ष रहे कल्याण सिंह तो राष्ट्रीय एकता परिषद को बाबरी मस्ज़िद की सुरक्षा के सम्बन्ध में दिये आश्वासन से मुकर गये थे जिसे पूरे देश ने इसे अपने साथ हुआ धोखा माना था।
जब उमा भारती ने भारतीय जनशक्ति के सुप्रीमो पद से त्यागपत्र दिया था तब पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष पद पर विराजे श्री संघ प्रिय गौतम ने कहा था कि न तो उमा भारती भाजपा में जा रही हैं और ना ही मैं जा रहा हूं वे बीमार हैं और उन्हें पैरों में गम्भीर बीमारी है वे इसलिए पद त्याग रही हैं।
भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को बेहद अशालीन भाषा में याद करने वाली और मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान पर बड़ा मल्हरा चुनाव के दौरान अपनी हत्या करवाने तक का आरोप लगाने वाली सुश्री भारती अपने अस्थिर निर्णयों के लिए भी जानी जाती हैं। गत उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने हिन्दू एकता के नाम पर अपने उम्मीदवार वापिस ले लिये थे [किंतु उनके निर्देश को नकारते हुये कुछ उम्मीदवार तो फिर भी मैदान में रह गये थे जिनमें से एक तो जीत भी गया था।] पर फिर भी हिन्दू एकता की दशा यह रही थी कि पार्टी चौथे नम्बर पर रही थी। इसी तरह गुजरात विधान सभा चुनाव के दौरान उन्होंने गुरूजी की आज्ञा के नाम पर गुजरात चुनाव से अचानक अपने उम्मीदवारों को अपने नाम वापिस ले लेने के निर्देश दिये थे जिस कारण कुछ जगहों पर उन्हें अपमानित भी होना पड़ा था। उनके समर्थकों में अधिकांश भाजपा से असंतुष्ट लोग ही हैं और भाजपा नेताओं के साथ उनके विरोध इतने व्यक्तिगत स्तर के हैं कि ना तो वे लौटकर भाजपा में जा सकते हैं और ना ही भाजपा अब उन लोगों की वरिष्ठता और सक्रियता के अनुरूप कोई पद देने की स्तिथि में है। सवाल उठता है कि ऐसे में उमाजी की पार्टी के पाँच विधायक और हज़ारों छुटभइए नेताओं की दिशा क्या होगी ? वे किधर जायेंगे ? उनके भी परिवारिक दयित्व हैं, जिनके रहते हुए भी वे राजनीति में रुचि लेते रहे हैं, वे अब किनके बच्चों को खिला कर अपना समय बिताएंगे।
उमा भारती बाबरी मस्ज़िद विध्वंस में सह अभियुक्त हैं और उनकी सच्ची गवाही भाजपा के कुछ वरिष्ठ नेताओं को खतरा पैदा कर सकती है, इसलिए ही उन्हें साधा गया था व भाजपा में वापिसी का लालच दिया गया था किंतु प्रदेश के भाजपा नेतृत्व के द्वारा हुये विरोध ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। उनकी उम्मीद अभी टूटी नहीं है और यही कारण है कि वे अपने स्वभाव के विपरीत, अभी तक, भाजपा नेताओं के खिलाफ बोलने से बच रहीं हैं। भाजपा को उन्हें प्रवेश देना ही पड़ेगा। साल भर से पहले अगर उन्हें मौका मिलता है तो वे हिन्दू एकता, राम मन्दिर या गुरू के आदेश के नाम पर अपने पारिवारिक दायित्वों को भी छोड़ने की घोषणा कर सकती हैं।
दूसरा सवाल यह है कि क्या सन्यास से वापिसी या मध्याविधि अवकाश सम्भव है? ऐसा होने पर उसका सन्यास रूप एक धोखा माना जाता है। क्या अवकाश के बाद पुनः उसी रूप में लौटना हो सकता है ? मान लें कि हो भी जाये तो क्या लोगों के मन में वही श्रद्धा बनी रहेगी जिसके नाम पर कोई सन्यासी राजनीतिक लाभ उठाता रहा हो ? यदि ऐसा नहीं होता है तो फिर राजनीतिज्ञ के रूप में उनकी और क्या पहचान है ! तय है कि उमा भारती के समर्थकों को अब अपना रास्ता अलग तलाशना प्रारम्भ कर देना चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, जून 04, 2010

श्रीलाल शुक्ल और राग दरबारी


श्रीलाल शुक्ल और रागदरबारी
वीरेन्द्र जैन
इसमें कोई सन्देह नहीं कि हिन्दी व्यंग्य के भीष्मपितामह हरिशंकर परसाई ही माने जाते हैं किंतु गत शताब्दी के सातवें दशक में अपने व्यंग्य उपन्यास रागदरबारी के प्रकाशन के बाद श्रीलाल शुक्लजी ने अपनी कुर्सी परसाई जी के बगल में ही डलवा ली थी। यह बिल्कुल वैसा ही था जैसे कि मतभेद निराकरण कार्यक्रम में दो उपप्रधानमंत्री या दो उपमुख्यमंत्री बना दिये जाते हैं।
रागदरबारी आजादी के बाद स्थापित हुयी व्यवस्था में ग्राम्य जीवन की समीक्षा है। 1947 के बाद उत्तर भारत के गाँवों में जन्मी विसंगतियों को एक उपन्यास में समेट कर रख देना व पूरे उपन्यास में व्यंग्य की धार को सतत बनाये रखना बहुत कौतुकपूर्ण लगता है। एक दृश्य देखिये- 'ऐसे भुखमरे वातावरण में अखाड़े क्या खा कर या खिला कर चलते? कुछ वर्ष पहले गांव के लड़के कसरत और कुश्ती से चूर-चूर होकर लौटते तो कमसे कम उन्हें भिगोये हुये चने और मट्ठे का सहारा था। अब वह सहारा भी टूटने लगा था। यह और इस प्रकार के बई तथ्य मिलकर कुछ ऐसा वातावरण पैदा कर रहे थे कि गांव में निकम्मा बन जाने के सिवाय और दूसरा कार्यक्रम ही नहीं मिलता था। वे फटे पुराने पर रंगीन पतलूनों पायजामों के सहारे अपनी दुबली पतली टांगों को ढक कर और सीने पर गोश्त हो या न हो, सीने के अंदर सायराबानू के साथ सोने का अरमान भर कर, गली कूचों में पान की पीक फैलाते हुये निरूद्देश्य घूमा करते थे। उनमें से बहुत से कभी कभी खेतों, कारखानों और जेलों के चक्कर भी लगा आते थे। जो वहाँ जाते हुये हिचकते थे, वे स्थानीय कालिजों में बांगड़ूपन की शिक्षा ग्रहण करने के लिए चले आते थे। ये कालेज प्राय: किसी स्थानीय जननायक की प्रेरणा से शिक्षा प्रचार के लिए, और वास्तव में उसके लिए विधानसभा या लोकसभा के चुनावों की जमीन तैयार करने के उद्देश्य से, खोले जाते थे, और उनका मुख्य कार्य कुछ मास्टरों और सरकारी अनुदानों का शोषण करना था। ये कालिज सिर्फ जमाने के फैशन के हिसाब से बिना आगा पीछा सोचे हुये चलाये जा रहे थे और यह निश्चय था कि वहॉ पढने वाले अपनी 'रियाया' वाली हैसियत छोड़ कर कभी ऊपर जाने की कोशिश नहीं करेंगे और ऊँची नौकरियाँ और व्यवसाय जिनके हाथ में है, उनके एकाधिकार को इन कालिजों से कोई खतरा पैदा नहीं होगा।''
रागदरबारी की लोकप्रियता और उस लोकप्रियता का गत चालीस साल से निरंतर बने रहना इस बात का प्रमाण है कि अच्छी पुस्तकों को किसी आलोचक या पुरस्कार दिलाने वाले दलाल की आवश्यकता नहीं होती। रागदरबारी के लेखक को जो पुरस्कार मिले हैं, वे दरअसल पुरस्कार देने वालों को उन्हें देने पड़े हैं,ं वरना उनके पुरस्कारों और उनकी चयन समितियों की इज्जत मिट्टी में मिल जाती जिससे मिट्टीी की इज्जत के खराब होने का खतरा पैदा हो जाता। राग दरबारी का लेखक पूरी तटस्थता के साथ बिना किसी राग के परिवेश का अवलोकन करता है। वह परंपरागत दोषों को भी अपना होने के नाम से सराहता नहीं है अपितु उनकी भी खिल्ली उड़ाता है। उदाहरणार्थ- औरतें चिचिया रहीं थीं जिसे अगर कोई आकाशवाणी वाला सुन लेता तो कहता कि लोकगीत गाया जा रहा है।
आम तौर पर अफसरों को लेखक की तरह प्रतिष्ठित होने में सामान्य लेखक से अधिक श्रम लगता है क्योंकि आजकल टुच्चे किस्म के लालची, चारणवृत्ति के चापलूस आलोचक अफसरों की रचनाओं का ऐसा महिमामंडन करने लगे हैं कि आम पाठकों को उबकाई आने लगती है इसलिए आम पाठक अफसरों की रचनाओं को प्रथम दृष्टया गम्भीरता से नहीं लेते। बहुत सारे अफसरों को तो अच्छी रचनाओं के बाबजूद अपनी पहचान बनाने में इसी कारणवश कठिनाई आती है। पर श्रीलाल जी की रागदरबारी को जिसने भी पढा वह उसके कथ्य और प्रस्तुतीकरण को दूसरों के साथ बांटने को उतावला हो गया। मैंने स्वयं न जाने कितनी बार 'रागदरबारी' की प्रतियाँ खरीद व दूसरों को भेंट में देकर उससे अधिक का धन्यवाद बटोरा है जितना उसी मूल्य की दूसरी कोई वस्तु उपहार में देने पर नहीं मिलता। 'रागदरबारी' की मेरी कई प्रतियॉ चुरायी गयीं और पढने के लिए दी गयी कई प्रतियाँ वापिस नहीं लौटायी गयीं। गाँव में रहने वाले मित्रों में से प्रत्येक ने अपने गाँव में कोई न कोई वैद्यजी रूप्पन रंगनाथ बेला और लंगड़ पहचान लिये, जो देश के लाखों शिवपालगंजों में अब भी लगातार विचरण कर रहे हैं।
मेरा एक मित्र 'रागदरबारी' को इस मायने में क्रांतिकारी उपन्यास मानता है क्योंकि वह पूरी व्यवस्था के प्रति गहरी घृणा बोता है। पूरे उपन्यास में कहीं भी आशा की कोई किरण नजर नहीं आती। लेखक को गाँव, व्यवस्था, लोगों के चरित्रों आदि किसी में भी भरोसा नहीं रहा है। अब गांवों में पाखंड ढोंग विसंगति कामचोरी, काइयांपन आलस्य हरामखोरी गंदगी के सिवा कुछ भी नहीं है। वह जिसकी भी पूंछ उठाता है वही मादा निकलता है। रागदरबारी पढने के बाद गाँव और देश का गुण गाने वाले गीत तक हास्यास्पद लगने लगते हैं। 'अहा ग्राम्यजीवन भी क्या है' जैसी कविताएं बचकानी लगने लगती हैं। पाठक अपनी और समाज की विवशता पर हँसता सा लगता है पर यही निरीहता उसमें व्यवस्था बदलाव की एक बेचैनी पैदा करती है। रागदरबारी पढने के बाद कोई ये कहता नहीं मिला कि इसमें गाँव का सही चित्रण नहीं है या जो भी कुछ हो रहा है ठीक हो रहा है।
गॉवों पर थोपी गयी नैतिकता की असलियत का जो पर्दा श्रीलालशुक्ल ने उठाया है उसके पीछे तो सभी ने झांका हुआ था पर सच सच कहने का साहस केवल उन्होंने ही उठाया हुआ है। महिलाओं के बराबरी पर आने के प्रयास में पहला हमला उसके चरित्र पर ही किया जाता है और अपनी लोलुपता में सब नैतिकतावादी उस पर भरोसा करके मानस मैथुन करते रहते हैं।
''- हैs! दिल्लगी मत करो! गम्भीर बात को हंसी में मत उड़ाओं। हम रसिकों को रेत में न खिचेड़ो। चोला छोड़ेगी तो अपने पति के संग ही। उससे पहले नहीं मरेगी। औरत बड़ी सख्तजान होती है। सती भी कहाँ होना चाहती है, वो तो धरम करम का कोड़ा पड़ता है, नहीं तो......। वैद्यजी रूआंसे हो कर बोले, अजी अब कहाँ धरम करम, सती धर्म की तो ऐसी तैसी हो गयी। पति मरते ही रोजगार को भागती है। कुसहर ने कहा, चुप रहो वैद्यजी। हाँ, खुद ही तो कहते हो कि रांड़ें रोती नहीं और तुम खुद पुरानी रांड़ों की तरह रो रहे हो। बुलाओ अपने शनीचर फटीचर को, बड़ा गंजहा बना फिरता था, साले की कमर पर लात मार कर बेला शिवपालगंज की प्रधान बन गयी। सपने में भी ऐसा सोचा था? यह बुरा समय देखने को ही तुम उम्र का सैकड़ा पार कर गये।
प्रभुमाया! वैद्यजी कराहे। लड़की कभी गली में नहीं निकली थी। कुसहर हँसा, वैद्यजी हाँ, रूप्पन और रंगनाथ छतो- छतों आ कर ही रस चूस लिए।
-वैद्यजी सच्ची बात बताऊँ? नंगा आदमी नंगई पर खुल्लम खुल्ला आ गया है, बेला को खूंटे से छुड़ा कर क्या ले गया, पूरा सत निचोड़ कर पी रहा है। आगे बढ कर बोला, बेला प्रधानी हथिया ले, सम्भाल मैं लूंगा। जैसे तुझे सम्भाल लिया।
ग्राम्य जीवन पर जो भी उपन्यास और कहानियाँ लिखी गयी हैं उनमें रागदरबारी सर्वाधिक यथार्थवादी उपन्यास है और उसे उसी तरह का महत्व हासिल है जो कि गोदान और मैला आंचल को है पर इसमें व्यंग्य इसके गेटअप को ज्यादा चमक देता है और ज्यादा पठनीय बनाता है (भले ही उसके आकर्षण में उसके महत्वपूर्ण कथ्य के उपेक्षित रह जाने का खतरा भी रहता है]।
उनके व्यंग्य की तुलना केवल पाकिस्तान के उर्दू लेखक मुश्ताक अहमद यूसुफी से ही हो सकती है पर यूसुफी के पास भी कथानक की कमी होती है। शुक्लजी की विशेषता यह है कि रागदरबारी अपने आप में एक स्वतंत्र उपन्यास है जो व्यंग्य में ऐसे डूबा है जैसे कि चाशनी में जलेबी डूबी रहती है तथा अपनी मिठास के बाबजूद एक अलग शक्ल और रंगरूप से अपनी पहचान रखती है। यदि दोनों की तुलना की जाये तो हम कह सकते हैं कि श्रीलालजी जलेबी बनाते हैं जिसके लिए चाशनी की जरूरत पड़ती है जबकि यूसुफीजी के पास चाशनी का भंडार है जिसे खपाने के लिए वे उसी मात्रा में मिष्ठान्न बना रहे होते हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र

बुधवार, जून 02, 2010

एक वाहन नीति की ज़रुरत


एक वाहन नीति की ज़रूरत
वीरेन्द्र जैन
यातायात परिवहन व्यवस्था सुधारने के नाम पर जो कानून बने हैं और उन्हें पालन कराने के लिए पुलिस को जो अधिकार मिले हैं, उनका अक्सर दुरुपयोग ही होता है। ट्रैफिक पुलिस विभाग दुपहिया वाहन चालकों को हेलमेट लगवांने, कार चालकों को बेल्ट बन्धवाने और लाल बत्ती की गाड़ियों को सेल्यूट मारने जैसी कार्यवाहियों में वक्त बिताता रहता है। एक दो नियमों का पालन न करने वालों पर अर्थ दण्ड थोपने और उसके दबाव में अवैध वसूली में ट्रैफिक पुलिस इतनी तल्लीन रहती है कि उसे यातायात व्यवस्थित करने और सड़क दुर्घटनाएं रोकने का समय ही नहीं मिल पाता है।
गत एक दशक में वाहनों की संख्या कई कई गुना बढ गई है और यह संख्या नगरों कस्बों में तो पैदल चलने वालों से भी बहुत अधिक हो गई है। पेट्रोल के मँहगे होने के साथ साथ नये नये इंजनों वाले वाहन बाज़ार में उतारे जाते जो बहुत ही जल्दी स्पीड पकड़ लेते हैं, और तेज चलते हैं। प्राइवेट नगर वाहनों में गला काट प्रतियोगिता है और सवारियाँ पकड़ने के लिए घंटों रुके रहने के अलावा वे कार रेस की तरह वाहन दौड़ा कर आगे निकलने के प्रयास में रहते हैं। नव धनाड्य वर्ग ने अपने लाढ प्यर में किशोर किशोरियों को नये नये तरह के वाहन दिलवा दिये हैं जो उनके मन की ही तरह उड़ते हैं। भारी वाहन भी नगर के मध्य से गुजरते हुये अपनी गति में कोई परिवर्तन नहीं लाते और हाई वे की तरह वाहन दौड़ाते रहते हैं। ट्रैक्टर जिनमें से अधिकांश ने कृषि कार्य के नाम पर रियायती दरों पर रजिस्ट्रेशन कराया होता है नगरों में माल वाहन का काम धड़ल्ले से करते हैं और ईंटें, रेत, सरिया, और सीमेंट ढोते देखे जाते हैं। संकरी सड़कों पर वे सबसे अधिक जगह घेरते हैं और उनके चालक उन्हें उनकी पूरी सम्भव गति से दौड़ाते हैं। इनको ओवरटेक करने के कारण भी बहुत सारी दुर्घटनाएं होती हैं।
वाहन अधिक हो जने के कारण पार्किंग की भी गम्भीर समस्या पैदा हो गयी है जो दिन प्रति दिन बढती जा रही है। निवासों में जगह न होने के कारण बहुत सारे वाहन आम रास्तों पर पार्क किये जाते हैं जो अतिक्रमण कर मार्गों को और संकरा कर देते हैं। सार्वजनिक उपयोग के स्थानों, बाज़ारों, दफ्तरों, बैंकों ट्यूटोरियल क्लासों, आदि के सामने के मार्ग को पार्किंग के लिए प्रयोग किया जाता है जिससे कई बार तो रास्ता ही जाम हो जाता है। कहते हैं कि मुम्बई में जितना अतिक्रमण झुग्गी वालों ने नहीं किया है जितना कि सड़क पर कार पार्किंग करने वालों ने किया है।
महानगर और नगर तेज़ी से फल फूल रहे हैं। इन नगरों में गाँव और कस्बों के लोग निरंतर आकर बसते जा रहे हैं। इन लोगों का ट्रैफिक नियमों के पालन का अभ्यास उस जगह के जैसा होता है जहाँ से पलायन करके ये आये होते हैं, जिससे वे अपनी आदतों के अनुसार वाहन चलाते हुए कहीं से भी ओवरटेक कर जाते हैं और बिना संकेत दिये मुड़ जाते हैं। अधिकांश सार्वजनिक बड़े वाहनों के मालिकों के पास अपने गैरेज नहीं हैं ये लोग भी अपने वाहन सड़कों पर ही खड़े करते हैं, क्रेनें डम्पर आदि सड़कों पर खड़े देखे जाते हैं। लोडिंग वाहनों और टू सीटरों आदि के कोई स्थायी स्टेंड नहीं हैं और वे बस स्टापों के आस पास खड़े रह कर रास्ता जाम कर देते हैं, जबकि बस वाले भी एक दूसरे के समानांतर बसें खड़ी करके प्रतियोगिता करते हैं।
सड़कों की हालत इतनी खराब है कि नियम से चलना चाह रहे वाहन चालक को भी गड्ढा बचाने के लिए मज़बूरीवश अपने वाहन को गलत साइड पर ले जाना पड़ता है, जो कई बार दुर्घटनाओं का कारण बनता है। क्षतिग्रस्त सड़कें लम्बे समय तक सुधारी ही नहीं जातीं और सुधारी भी जाती हैं तो उनकी गुणवत्ता इतनी खराब होती है कि वे हफ्ते भर में ही फिर उखड़ जाती हैं। सड़कों के ठेकेदारों और इंजीनियरों के यहाँ पड़े आयकर छापों में करोड़ों रुपये इसी अनदेखी की बजह से निकलते हैं। क्षतिग्रस्त सड़कों पर इतनी धूल और गन्दगी उड़ती रहती है कि पीछे आने वाले वाहन चालकों की आंखें खराब करने के लिए और उनके अचानक बहक जाने की पूरी सम्भावनाएं रहती हैं।
ट्रैफिक विभाग में ट्रांसफर के लिए सिपाही से लेकर कमिश्नर तक की पोस्टिंग और ट्रांस्फर में जो लाखों का लेन देन चलता है वह आम आदमी की जान लेने वाले ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन और न चलने लायक वाहनों को चलने देने से ही पैदा होता है। किसी भी नगर में चलने वाले सार्वजनिक वाहनों की दशा उस प्रदेश की सरकार पर एक चलित टिप्पणी होती है क्योंकि खतरनाक वाहन तभी चलते हैं जब सरकार के कारिन्दे निहित स्वार्थ में उन्हें चलने देते हैं।
हमारे पास हमारी सड़कों की दशा, ट्रैफिक नियमों के ज्ञान, पेट्रोल डीज़ल की उपयोगिता, प्रदूषण आदि को ध्यान में रखते हुये कोई वाहन नीति नहीं है। कोई भी कभी भी किसी भी तरह का वाहन खरीद सकता है और चाहे जहाँ चला सकता है। राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की मदद के लिए बैंकों से ऋण सुविधा भी उपलब्ध करा दी गयी है जिससे अलाभकारी वाहन भी धड़ल्ले से खरीदे जाने लगे हैं। विकास के दौर में एक समय था जब चीन ने पेट्रोल चलित व्यक्तिगत वाहनों का उपयोग डाक्टरों, और पुलिस अधिकारियों आदि अनिवार्य सेवाओं वाले क्षेत्र तक सीमित किया हुआ था तब लाखों करोड़ों लोग सार्वजंनिक वाहनों या साइकिलों से गुजरते देखे जाते थे। हम आज अपनी गाढी कमाई को अनावश्यक रूप से पेट्रोल आयात करने में फूंक रहे हैं और वातावरण को प्रदूषित कर रहे हैं।, जिसका भुगतान ज़रूरी काम के लिए वाहन प्रयोग करने वाले भुगत रहे हैं।
ज़रूरी है कि राष्ट्रीय स्तर पर कोई वाहन नीति बनायी जाये जो-
· किसी भी वाहन को खरीदे जाने से पूर्व उसके चालक की आवश्यकता को सुनिश्चित करे।
· वाहन चालक के निवास और कार्यस्थल पर वाहन पार्किंग के स्थल होने को सुनिश्चित करे।
· ऊंची कीमत के बड़े वाहनों की खरीद के लिए पेन नम्बर और आय का प्रमाण अनिवार्य हो
· वाहन चालक के आपराधिक इतिहास के बारे में पड़ताल हो
· किसी क्षेत्र में चल सकने वाले वाहनों के संख्या तय हो और एक घर में वाहनों की संख्या उसके आयकर निर्धारण के अनुसार तय हो। नया वाहन खरीदने के पूर्व 15 साल पुराना कोई और वाहन घर में न होने का शपथ पत्र लिया जाये
· अवयस्क किशोर किशोरियों को वाहन का लाइसेंस न दिया जाये और उन्हें सार्वजनिक वाहन से यात्रा को प्रोत्साहित किया जाये
· प्रत्येक जगह स्कूटर स्टेंड बनाया जाये और गलत पार्किंग की शिकायत के लिए पुलिस एम्बुलेंस की तरह टोल फ्री नम्बर हो तथा उस पर तुरंत कार्यवाही हो।
· वाहनों की संख्या के अनुरूप ही सड़कों की गुणवत्ता और त्वरित मरम्मत सुनिश्चित की जाये।
· प्रत्येक वाहन चालक के पास एक चालान रिकार्ड पुस्तिका हो और जिस भूल के लिए पहले चालान कट चुका हो उसे दोहराने पर उसकी राशि दोगुनी करने की व्यवस्था हो।
· ग्राहकों को पार्किंग वाले बाज़ारों और सार्वजनिक स्थलों के प्रयोग को प्रोत्साहित करने के लिए विज्ञापनों का सहारा लिया जाये।
· ट्रैफिक पुलिस के काम में अनावश्यक राजनीतिक ह्स्तक्षेप रोका जाये और भ्रष्टाचार में पकड़े जाने वाले कर्मचारियों पर कठोर कार्यवाही की जाये।
वीरेन्द्र जैन
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