व्यंग्य उपन्यास लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
व्यंग्य उपन्यास लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, जून 19, 2020

उपन्यास विधा में व्यंग्य के जनक श्रीलाल शुक्ल और बुन्देलखण्ड


उपन्यास विधा में व्यंग्य के जनक श्रीलाल शुक्ल और बुन्देलखण्ड
राग दरबारी' पढ़कर याद आती आपबीती ...वीरेन्द्र जैन
यह बहुमत से मान ही लिया गया है कि कथा कविता, निबन्ध, नाटक, उपन्यास आदि की तरह व्यंग्य कोई अलग विधा नहीं है और वह किसी भी विधा में अपनी उपस्थिति बता सकता है। परसाई जी ने उसे एक स्प्रिट कहा है। ज्यादातर व्यंग्य निबन्ध विधा में लिखे गये हैं जो पहले गम्भीर लेखन के लिए जानी जाने वाली विधा रही है इसलिए व्यंग्यात्मक निबन्धों को अलग विधा होने का भ्रम उत्पन्न हुआ। तभी श्रीलाल शुक्ल जी ने उपन्यास में व्यंग्य लिख कर जो धमाका किया उसने यह साबित कर दिया कि व्यंग्य अलग विधा नहीं है और वह किसी भी विधा में पाया जा सकता है।
शुक्लजी का ‘राग दरबारी’ एक ऐसा यथार्थवादी उपन्यास में जिसमें तीन सौ तीस से अधिक पृष्ठों तक कथा के साथ साथ व्यंग्य चलता रहता है। न कहीं कथा कमजोर पड़ती है और ना ही व्यंग्य। एक समझौते के बाद मिली आज़ादी के बाद जो व्यवस्था विकसित हुयी उसमें भले ही साम्प्रदायिकता के कारण जनित विभाजन में हिंसा घटित हुयी हो किंतु सत्ता अहिंसक तरीके से स्थानांतरित हुयी। इसका परिणाम यह हुआ कि देश संविधान से कम अपितु लचीला संविधान देश के हिसाब से चलने लगा। राज परिवारों की विशिष्टता और उनके प्रति भक्ति बनी रही व जातिवाद समेत सारी बुराइयां यथावत रहीं साथ ही नई बुराइयां भी पैदा होती रहीं। पदों के नाम जरूर बदल गये किंतु चरित्र नहीं बदले। और उपन्यास लेखन के काल छठे दशक तक तो गाँवों में बिल्कुल भी नहीं बदले। इस उपन्यास में आजादी के बाद स्थापित व्यवस्था का पुरानी बुराइयों से घालमेल का चित्रण है।
1968 में प्रकाशित इस उपन्यास की समीक्षा मैंने 1969 की कादम्बिनी के किसी अंक में पढी थी जिसके दो वाक्य तो मन में गड़ से गये थे। एक कि ‘ट्रक आता देख कर उसकी बांछें खिल गयीं, अब ये शरीर में जहाँ कहीं भी होती हों’ और दूसरा ‘ कुछ घूरे, घूरे से भी बदतर’। उसी समय यह तय कर लिया था कि यह उपन्यास जरूर पढूंगा। दतिया जैसे नगर के किसी पुस्तकालय में नई किताबें मंगाने का बजट नहीं होता था और किसी बड़े नगर जाकर सजिल्द किताबें खरीदने का बजट हमारे पास नहीं होता था। याद नहीं कि यह किताब कैसे कब पढने को मिली किंतु इस बीच में इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल गया और किताब की मोटाई से ज्यादा उसकी प्रशंसा पढ सुन चुका था। 2008 में जब इस किताब के प्रकाशन के पचासवें वर्ष के आयोजन हुए तब याद आया कि प्रकाशन के बाद इस किताब का हर वर्ष एक नया संस्करण आता रहा है, और इस पर सीरियल भी बन चुका है।
रागदरबारी से मेरा एक नाता और भी रहा है कि इस उपन्यास में वर्णित जन जीवन बुन्देलखण्ड से उठाया गया है, और उसके सभी चरित्र बहुत साफ साफ समझ में आ जाते हैं। बुन्देलखण्ड के स्वभाव में ही धारदार व्यंग्य बसा हुआ है, परसाईजी इसी की उपज हैं। रगदरबारी के बारे में श्रीलाल जी ने बताया था कि वे कभी उत्तर प्रदेश के राठ नामक कस्बे में एसडीएम थे और उसी दौरान उन्होंने जो नोट्स लिये थे उसी आधार पर पूरा उपन्यास रचा गया है। राठ के पास एक कस्बा था हरपालपुर जो आबादी में तो छोटा था किंतु उसकी एक विशेषता थी कि वह झांसी मानिकपुर लाइन का रेलवे स्टेशन था जो राठ, छतरपुर, नौगाँव खजुराहो, के लोगों के लिए भी रेलवे की सुविधाएं देने का काम करता था, क्योंकि उस समय नदियों पर पुल नहीं होने के कारण सारा दारोमदार इसी स्टेशन पर था। यह राठ की सीमा के इतने निकट था कि रेल की एक लाइन हरपालपुर [मध्यप्रदेश] में आती थी और दूसरी राठ [उत्तर प्रदेश] की सीमा में। एक बड़े क्षेत्र की फसल उत्पाद को यहीं से रेल वैगनों द्वारा बाहर भेजा जाता था इसलिए एक सम्पन्न गल्ला मंडी थी। बैंक था, एक आइल मिल था और एक सुगर मिल भी था। जब जवाहरलाल नेहरू 1958 में पहली बार खजुराहो आये थे तो उन्हें भी हरपालपुर ही उतरना पड़ा था क्योंकि तब खजुराहो में हवाई अड्डा नहीं बना था। तब तक खजुराहो के मन्दिर संरक्षित भी नहीं थे और विनोबा भावे जैसे लोग इन मूर्तियों पर फट्टी लटका कर छुपा देने वाले बयान दे चुके थे। नेहरू जी की इस यात्रा के बाद ही खजुराहो विश्व पर्यटन की दिशा मॆ अग्रसर हो सका और संरक्षित होकर इसकी मूर्तियों की चोरी रुक सकी। राठ के पास ही अपनी लाठी से फैसला करवाने वाला महोबा और बाँदा जिला है जो राठ को प्रभावित करता है। कहा जाता है कि लम्बे अर्से तक अवैध हथियार बनाने के गृह उद्योग वहाँ से संचालित रहे हैं। दतिया में पढाई के दौरान मुझ से कुछ वर्ष जूनियर एक लड़का राजू भटनागर, जिसने बाद में डकैती में बड़ा नाम कमाया, इसी राठ का रहने वाला था।
इसी हरपालपुर में मुझे लगभग आठ साल गुजारने पड़े। मेरे पिता की नौकरी के अंतिम दो वर्षों में उनका ट्रांसफर दतिया से हरपालपुर हो गया था व एक साल मैंने पढाई छोड़ दी थी इसलिए आवारगी के दिन हरपालपुर में काटे. फिर मेरी नौकरी भी यहीं बैंक में लगी और लगभग पाँच साल यहाँ बाबूगीरी की। उसके लगभग दस साल बाद यहीं बैंक मैनेजर होकर आया और तीन साल से अधिक काटे। कुल मिला कर कहने का आशय यह है कि राग दरबारी जैसे हर चरित्र को उसी दौर में मैंने भी निकट से देखा जिस आधार पर एक और राग दरबारी रचा जा सकता है।
वैसे ही वैद्यजी, वैसे ही रुप्पन, बद्री, शनीचर, लंगड़, यहाँ तक कि रंगनाथ और बेला तक सब के सब किसी न किसी दूसरे नाम से यहाँ मिल सकते हैं। घनघोर उमस और गर्मी में किसी वैद्य की दालान में रोजगारहीन शनीचर अंडरवियर की बत्तियां बनाते देखे जा सकते हैं। अगर रागदरबारी का यह प्रसंग आपको समझ में नहीं आया हो तो बता दूं कि अनेक लोग पट्टे के ढीले अन्डरवियर और जेबदार बंडी पहिने रहते थे और खाली समय की बेचैनी में उसी अंडरवियर को दिये की बत्ती बनाने के अन्दाज में जांघ पर से ऊपर की ओर मोड़ते और फिर उन बत्तियों को खोलते रहते हैं। यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसे तामिलनाडु के लोग कुछ कुछ समय के बाद अपनी लुंगी को ऊपर चढा लेते हैं और फिर नीचे कर लेते हैं।
रागदरबारी में पढने से पहले ही मैंने हरपालपुर में उर्फ की भाषा सुन और सीख ली थी। यहाँ भी यह प्रेमी प्रेमिकाओं की गुप्त भाषा थी, जिसे युवा लोग आपस मे बोल कर गुप्तवार्तालाप भी कर लेते थे और मजे भी ले लेते थे। युवाओं को छत पर ‘तीतर लड़ाने की मुद्रा’ में बैठे हुए देखा है और छतों छतों दूसरे के घरों में लांघते हुए भी देखा है। दूसरे के घरों की महिलाओं का चरित्र हनन करना लोगों के शगल में शामिल था। मेरे निवास की बालकनी ऐसी थी जिसमें से सड़क के एक छोर से दूसरे छोर तक के मकान दिखते थे। एक बार उसी सड़क पर रहने वाले एक ‘सज्जन’ फुरसत के क्षणों में सड़क के प्रत्येक घर के महिला पुरुषों के चरित्र का रंगीन इतिहास बता रहे थे। उन्होंने अपना घर छोड़ कर सभी घरों के बारे में रस ले ले कर यह तक बता दिया कि फलां के लड़के की शक्ल किससे मिलती है। मुझे इस कथा वार्ता में इसलिए आनन्द आया क्योंकि मेरी बालकनी से उन सज्जन का घर भी दिखता था जिसमें घटित घटनाओं का मैं प्रत्यक्षदर्शी था।
आजादी के पच्चीस वर्ष बाद भी यहाँ ब्राम्हणों, ठाकुरों और दूसरी जातियों के बीच वही अंतर रहा। दलितों को कुछ आर्थिक सुविधाएं तो मिलती गयीं किंतु सवर्णों की सुविधाओं, और पदों व सम्पत्ति में कोई कमी नहीं आयी। जातियों में भेद बराबर बना रहा। कुछ बड़ी जमीनों के मालिक थे जिनके साथ साथ बरछी लिए हुए गार्ड चलते थे जिन्हें साना कहा जाता था। यहीं से प्रेरणा लेकर मैंने एक व्यंग्य कथा लिखी थी ‘थानेदार की लड़की’।  प्राइवेट स्कूलों और सोसाइटियों का भी लगभग वही हाल था जैसा कि रागदरबारी में वर्णित है। रागदरबारी में चक्की चलाने की तरह ही स्कूलों के मास्टर इस तरह दूसरे धन्धे करते रहते थे कि अध्यापन उनका साइड बिजनेस माना जा सकता है।
हरपालपुर के बारे में इतना ज्यादा लिखने पर भी मैं कह सकता हूं कि कम लिखा है और औसत निकाल कर कहना चाह्ता हूं कि इसके पीछे यह बताने का भाव है कि ‘शिवपाल गंज’ मुझे दूसरे नगरों में पैदा हो कर बड़े होने वालों की तुलना में अधिक साफ साफ दिखायी दिया है। जब इसका पेपर बैक संस्करण आया जो कुल जमा चालीस रुपये का था तब से मैंने उपहार देने के अवसर पर इसे ही सर्वश्रेष्ठ पाया।
मैं पुस्तकों के विमोचन को प्रमोशन ही मानता रहा हूं और उसमें कोई विश्वास नहीं रहा। इसका मजाक उड़ाते हुए मैंने एक व्यंग्य लिखा था ‘विमोचन तो कराना है’। किंतु जब मेरी व्यंग्य की दूसरी किताब आयी उसी समय अट्टहास लखनऊ का वार्षिक कार्यक्रम था। श्रीलाल शुक्ल के हाथों अपनी पुस्तक का विमोचन कराने का लालच में नहीं छोड़ सका। मैंने अट्टहास कार्यक्रम के सबकुछ अनूप श्रीवास्तव को फोन किया कि अगर श्रीलाल जी कार्यक्रम में होंगे तो मैं आना चाहता हूं। अनूप मेरे पुराने मित्रों में से हैं और उसी मित्रता के अन्दाज में उन्होंने कहा कि आ जाओ, तुम्हें कौन रोकता है। श्रीलाल जी वैसे ही प्रशासनिक अधिकारी थे और रागदरबारी को गोदान व मैला आंचल के बाद ग्राम्य जीवन पर लिखी गयी श्रेष्ठकृति बताये जाने के कारण उनसे सम्मानजनक  दूरी सी बनी रही। यह तो बाद में पता चला कि वे बहुत सहज व्यक्ति थे। मैं गया और किताब ‘हम्माम के बाहर भी’ का विमोचन श्रीलाल जी के हाथों हुआ। पता नहीं कि यह संयोग था या प्रयोग था कि विमोचन उसी समय हुआ जब लखनऊ की पूरी प्रैस गोष्ठी में आये हुए किसी वरिष्ठ साहित्यकार की बाइट ले रही थी सो उसका कोई फोटो संरक्षित नहीं है। गनीमत रही कि समाचार पत्रों की खबरों में यह खबर दर्ज रही। अगले दिन में प्रेम जनमेजय के साथ उनके निवास पर धन्यवाद देने भी गया और किताब को पढ कर प्रतिक्रिया देने का आग्रह भी किया। बाद में पत्र से पूछने पर उन्होंने लिखा कि मैंने पढी तो थी किंतु लिखने का ध्यान नहीं रहा। किताबें पढ कर में एक लाइब्रेरी को दे देता हूं। मेरे लिए यह पत्र ही बड़ी बात थी, सो उसी से संतोष कर लिया।
उनकी मयनोशी के किस्से भी दूसरे बड़े साहित्यकारों की तरह सुने थे जिसमें से एक श्री से रा यात्री जी ने सुनाया था। इमरजैंसी में अन्य प्रतिबन्धों के अलावा शराब बन्दी भी की गयी थी। शुक्ल जी उस समय उत्तर प्रदेश के गृह सचिव थे, जब यात्रीजी पहुंचे तो उन्होंने उनके स्वागत में बोतल खोली और बोले यार ये परदे तो डाल दो आखिर मैं इस प्रदेश का गृह सचिव हूं। वे सरल और सादगी पसन्द थे और हिन्दी व्यंग्य के शीर्ष स्तम्भ होते हुए भी खुद को उपन्यासकार ही मानते रहे। वे कहते थे कि ‘रागदरबारी’ को भले ही कालजयी पहचान मिली हो किंतु में अपने उपन्यास ‘ मकान ‘ से अधिक संतुष्ट हूं। जनवादी लेखक संघ के जयपुर में आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में जब उनको मुख्य अतिथि बनाया गया था तब इस चयन से असंतुष्ट वेणुगोपाल से मेरी असहमति थी, जिसे संतुष्टि में बदलने की बहस के बाद में खुश था। मेरे अनेक मित्र उन्हें श्रीलाल शुक्ल की जगह रागदरबारी ही कहते थे।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629


  

शुक्रवार, जून 04, 2010

श्रीलाल शुक्ल और राग दरबारी


श्रीलाल शुक्ल और रागदरबारी
वीरेन्द्र जैन
इसमें कोई सन्देह नहीं कि हिन्दी व्यंग्य के भीष्मपितामह हरिशंकर परसाई ही माने जाते हैं किंतु गत शताब्दी के सातवें दशक में अपने व्यंग्य उपन्यास रागदरबारी के प्रकाशन के बाद श्रीलाल शुक्लजी ने अपनी कुर्सी परसाई जी के बगल में ही डलवा ली थी। यह बिल्कुल वैसा ही था जैसे कि मतभेद निराकरण कार्यक्रम में दो उपप्रधानमंत्री या दो उपमुख्यमंत्री बना दिये जाते हैं।
रागदरबारी आजादी के बाद स्थापित हुयी व्यवस्था में ग्राम्य जीवन की समीक्षा है। 1947 के बाद उत्तर भारत के गाँवों में जन्मी विसंगतियों को एक उपन्यास में समेट कर रख देना व पूरे उपन्यास में व्यंग्य की धार को सतत बनाये रखना बहुत कौतुकपूर्ण लगता है। एक दृश्य देखिये- 'ऐसे भुखमरे वातावरण में अखाड़े क्या खा कर या खिला कर चलते? कुछ वर्ष पहले गांव के लड़के कसरत और कुश्ती से चूर-चूर होकर लौटते तो कमसे कम उन्हें भिगोये हुये चने और मट्ठे का सहारा था। अब वह सहारा भी टूटने लगा था। यह और इस प्रकार के बई तथ्य मिलकर कुछ ऐसा वातावरण पैदा कर रहे थे कि गांव में निकम्मा बन जाने के सिवाय और दूसरा कार्यक्रम ही नहीं मिलता था। वे फटे पुराने पर रंगीन पतलूनों पायजामों के सहारे अपनी दुबली पतली टांगों को ढक कर और सीने पर गोश्त हो या न हो, सीने के अंदर सायराबानू के साथ सोने का अरमान भर कर, गली कूचों में पान की पीक फैलाते हुये निरूद्देश्य घूमा करते थे। उनमें से बहुत से कभी कभी खेतों, कारखानों और जेलों के चक्कर भी लगा आते थे। जो वहाँ जाते हुये हिचकते थे, वे स्थानीय कालिजों में बांगड़ूपन की शिक्षा ग्रहण करने के लिए चले आते थे। ये कालेज प्राय: किसी स्थानीय जननायक की प्रेरणा से शिक्षा प्रचार के लिए, और वास्तव में उसके लिए विधानसभा या लोकसभा के चुनावों की जमीन तैयार करने के उद्देश्य से, खोले जाते थे, और उनका मुख्य कार्य कुछ मास्टरों और सरकारी अनुदानों का शोषण करना था। ये कालिज सिर्फ जमाने के फैशन के हिसाब से बिना आगा पीछा सोचे हुये चलाये जा रहे थे और यह निश्चय था कि वहॉ पढने वाले अपनी 'रियाया' वाली हैसियत छोड़ कर कभी ऊपर जाने की कोशिश नहीं करेंगे और ऊँची नौकरियाँ और व्यवसाय जिनके हाथ में है, उनके एकाधिकार को इन कालिजों से कोई खतरा पैदा नहीं होगा।''
रागदरबारी की लोकप्रियता और उस लोकप्रियता का गत चालीस साल से निरंतर बने रहना इस बात का प्रमाण है कि अच्छी पुस्तकों को किसी आलोचक या पुरस्कार दिलाने वाले दलाल की आवश्यकता नहीं होती। रागदरबारी के लेखक को जो पुरस्कार मिले हैं, वे दरअसल पुरस्कार देने वालों को उन्हें देने पड़े हैं,ं वरना उनके पुरस्कारों और उनकी चयन समितियों की इज्जत मिट्टी में मिल जाती जिससे मिट्टीी की इज्जत के खराब होने का खतरा पैदा हो जाता। राग दरबारी का लेखक पूरी तटस्थता के साथ बिना किसी राग के परिवेश का अवलोकन करता है। वह परंपरागत दोषों को भी अपना होने के नाम से सराहता नहीं है अपितु उनकी भी खिल्ली उड़ाता है। उदाहरणार्थ- औरतें चिचिया रहीं थीं जिसे अगर कोई आकाशवाणी वाला सुन लेता तो कहता कि लोकगीत गाया जा रहा है।
आम तौर पर अफसरों को लेखक की तरह प्रतिष्ठित होने में सामान्य लेखक से अधिक श्रम लगता है क्योंकि आजकल टुच्चे किस्म के लालची, चारणवृत्ति के चापलूस आलोचक अफसरों की रचनाओं का ऐसा महिमामंडन करने लगे हैं कि आम पाठकों को उबकाई आने लगती है इसलिए आम पाठक अफसरों की रचनाओं को प्रथम दृष्टया गम्भीरता से नहीं लेते। बहुत सारे अफसरों को तो अच्छी रचनाओं के बाबजूद अपनी पहचान बनाने में इसी कारणवश कठिनाई आती है। पर श्रीलाल जी की रागदरबारी को जिसने भी पढा वह उसके कथ्य और प्रस्तुतीकरण को दूसरों के साथ बांटने को उतावला हो गया। मैंने स्वयं न जाने कितनी बार 'रागदरबारी' की प्रतियाँ खरीद व दूसरों को भेंट में देकर उससे अधिक का धन्यवाद बटोरा है जितना उसी मूल्य की दूसरी कोई वस्तु उपहार में देने पर नहीं मिलता। 'रागदरबारी' की मेरी कई प्रतियॉ चुरायी गयीं और पढने के लिए दी गयी कई प्रतियाँ वापिस नहीं लौटायी गयीं। गाँव में रहने वाले मित्रों में से प्रत्येक ने अपने गाँव में कोई न कोई वैद्यजी रूप्पन रंगनाथ बेला और लंगड़ पहचान लिये, जो देश के लाखों शिवपालगंजों में अब भी लगातार विचरण कर रहे हैं।
मेरा एक मित्र 'रागदरबारी' को इस मायने में क्रांतिकारी उपन्यास मानता है क्योंकि वह पूरी व्यवस्था के प्रति गहरी घृणा बोता है। पूरे उपन्यास में कहीं भी आशा की कोई किरण नजर नहीं आती। लेखक को गाँव, व्यवस्था, लोगों के चरित्रों आदि किसी में भी भरोसा नहीं रहा है। अब गांवों में पाखंड ढोंग विसंगति कामचोरी, काइयांपन आलस्य हरामखोरी गंदगी के सिवा कुछ भी नहीं है। वह जिसकी भी पूंछ उठाता है वही मादा निकलता है। रागदरबारी पढने के बाद गाँव और देश का गुण गाने वाले गीत तक हास्यास्पद लगने लगते हैं। 'अहा ग्राम्यजीवन भी क्या है' जैसी कविताएं बचकानी लगने लगती हैं। पाठक अपनी और समाज की विवशता पर हँसता सा लगता है पर यही निरीहता उसमें व्यवस्था बदलाव की एक बेचैनी पैदा करती है। रागदरबारी पढने के बाद कोई ये कहता नहीं मिला कि इसमें गाँव का सही चित्रण नहीं है या जो भी कुछ हो रहा है ठीक हो रहा है।
गॉवों पर थोपी गयी नैतिकता की असलियत का जो पर्दा श्रीलालशुक्ल ने उठाया है उसके पीछे तो सभी ने झांका हुआ था पर सच सच कहने का साहस केवल उन्होंने ही उठाया हुआ है। महिलाओं के बराबरी पर आने के प्रयास में पहला हमला उसके चरित्र पर ही किया जाता है और अपनी लोलुपता में सब नैतिकतावादी उस पर भरोसा करके मानस मैथुन करते रहते हैं।
''- हैs! दिल्लगी मत करो! गम्भीर बात को हंसी में मत उड़ाओं। हम रसिकों को रेत में न खिचेड़ो। चोला छोड़ेगी तो अपने पति के संग ही। उससे पहले नहीं मरेगी। औरत बड़ी सख्तजान होती है। सती भी कहाँ होना चाहती है, वो तो धरम करम का कोड़ा पड़ता है, नहीं तो......। वैद्यजी रूआंसे हो कर बोले, अजी अब कहाँ धरम करम, सती धर्म की तो ऐसी तैसी हो गयी। पति मरते ही रोजगार को भागती है। कुसहर ने कहा, चुप रहो वैद्यजी। हाँ, खुद ही तो कहते हो कि रांड़ें रोती नहीं और तुम खुद पुरानी रांड़ों की तरह रो रहे हो। बुलाओ अपने शनीचर फटीचर को, बड़ा गंजहा बना फिरता था, साले की कमर पर लात मार कर बेला शिवपालगंज की प्रधान बन गयी। सपने में भी ऐसा सोचा था? यह बुरा समय देखने को ही तुम उम्र का सैकड़ा पार कर गये।
प्रभुमाया! वैद्यजी कराहे। लड़की कभी गली में नहीं निकली थी। कुसहर हँसा, वैद्यजी हाँ, रूप्पन और रंगनाथ छतो- छतों आ कर ही रस चूस लिए।
-वैद्यजी सच्ची बात बताऊँ? नंगा आदमी नंगई पर खुल्लम खुल्ला आ गया है, बेला को खूंटे से छुड़ा कर क्या ले गया, पूरा सत निचोड़ कर पी रहा है। आगे बढ कर बोला, बेला प्रधानी हथिया ले, सम्भाल मैं लूंगा। जैसे तुझे सम्भाल लिया।
ग्राम्य जीवन पर जो भी उपन्यास और कहानियाँ लिखी गयी हैं उनमें रागदरबारी सर्वाधिक यथार्थवादी उपन्यास है और उसे उसी तरह का महत्व हासिल है जो कि गोदान और मैला आंचल को है पर इसमें व्यंग्य इसके गेटअप को ज्यादा चमक देता है और ज्यादा पठनीय बनाता है (भले ही उसके आकर्षण में उसके महत्वपूर्ण कथ्य के उपेक्षित रह जाने का खतरा भी रहता है]।
उनके व्यंग्य की तुलना केवल पाकिस्तान के उर्दू लेखक मुश्ताक अहमद यूसुफी से ही हो सकती है पर यूसुफी के पास भी कथानक की कमी होती है। शुक्लजी की विशेषता यह है कि रागदरबारी अपने आप में एक स्वतंत्र उपन्यास है जो व्यंग्य में ऐसे डूबा है जैसे कि चाशनी में जलेबी डूबी रहती है तथा अपनी मिठास के बाबजूद एक अलग शक्ल और रंगरूप से अपनी पहचान रखती है। यदि दोनों की तुलना की जाये तो हम कह सकते हैं कि श्रीलालजी जलेबी बनाते हैं जिसके लिए चाशनी की जरूरत पड़ती है जबकि यूसुफीजी के पास चाशनी का भंडार है जिसे खपाने के लिए वे उसी मात्रा में मिष्ठान्न बना रहे होते हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र