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सोमवार, जून 22, 2020

संस्मरण के. पी. सक्सेना लेखक नहीं लिक्खाड़ थे


संस्मरण
के. पी. सक्सेना लेखक नहीं लिक्खाड़ थे

वीरेन्द्र जैन
के.पी.सक्सेना पत्रिकाओं के व्यंग्य लेखक के रूप में जाने जाते रहे या कहना चाहिए कि व्यंग्य लेखक के रूप में भी जाने जाते रहे, पर उन्होंने जब भी लिखने का जो लक्ष्य बनाया उसमें सफलता पायी। पत्रिकाओं में निरंतर सक्रिय लेखन की लगन मुझे उनके लेखन से ही मिली और इस तरह वे मेरे मार्गदर्शक रहे। उनके लेखन की मात्रा, विषय वैविध्य और निरंतरता को देख कर आश्चर्य और ईर्षा होती थी।
      मैं एक छोटे ‘ए’ क्लास बैंक हिन्दुस्तान कमर्सियल बैंक में नौकरी करता था और ऐसा करते हुये देश के कोने कोने में पन्द्रह साल के दौरान मेरे दस ट्रासफर हुये, क्योंकि इस बैंक में अधिकारियों के ट्रांसफर पूरे देश में कहीं भी हो सकते थे। इसी काल में मुझे एक बार हरदोई जिले के बेनीगंज में पदस्थ होना पड़ा जो लखनऊ के निकट था, अतः मेरी शनिवार की शाम और रविवार लखनऊ में ही गुजरता था। यशपाल और नागरजी के बाद की पीढी के लखनऊ में समकालीन लेखकों में के पी का नाम सर्वाधिक चमकीला नाम था। वे अमीनाबाद के पास गुईन रोड पर किराये से रहते थे। उन दिनों मुझे लेखकों के पते तक याद रहते थे। लखौरी ईंटों से बना वह बड़े दरवाजे वाला घर था। उनसे पहली मुलाकात करने से पहले मैंने उन्हें जो पत्र लिखा था उसे न मिलना उन्होंने बताया था, पर उसके बाद भी मेरे नाम और लेखन से परिचित होने की जानकारी देकर उन्होंने थोड़ा सुख दिया था जिससे उनके साथ जल्दी सहज हो सका था। बाद में उन्होंने ही मुझे सूर्य कुमार पान्डेय और अनूप श्रीवास्तव आदि से मिलवाया था जिनसे बाद में लम्बा सम्पर्क और मित्रता रही। अभी बाद के दिनों में वे रामनगर में रहने लगे थे जहाँ उनके पड़ोस में नागरजी के पुत्र का मकान था और कभी कभी नागरजी भी वहाँ आते रहते थे। एक बार जब मैं रामनगर में उनसे मिलने गये तो वे मुझे नागरजी से मिलवाने भी ले गये थे।
      वे उन दिनों लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर थे और देश के प्रमुख राज्य की राजधानी के प्रमुख स्टेशन पर कार्यरत रहते हुए भी विपुल लेखन करते थे। उन दिनों आरक्षण की आज जैसी सुविधा नहीं थी तथा मुझे दतिया जाते समय ट्रेन में स्थान दिलाने की व्यवस्था उन्होंने दर्ज़नों बार की। वे ऐसी बातें बताना भी नहीं भूलते थे कि उनके कार्यालय की जिस कुर्सी पर मैं बैठा हूं उसी पर परसों कमलापति त्रिपाठी बैठे थे। ऐसी बातें सुन कर गर्व होता था। उन्होंने मुझे यह भी बताया था कि इतना लेखन करने के बाद भी उन्होंने कभी लेखन के लिए नौकरी से छुट्टी नहीं ली। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नवनीत, माधुरी आदि उस समय की राष्ट्रव्यापी लोकप्रिय पारिवारिक पत्रिकाएं थीं जिनके होली. दिवाली, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, आदि अवसरों पर निकलने वाले विशेषांक के पी की रचनाओं के बिना पूरे नहीं होते थे। वे लखनऊ के दो प्रमुख दैनिक अखबारों में साप्ताहिक स्तम्भ लिखा करते थे, और देश भर की हिन्दी की प्रमुख पत्रिकाओं की माँग को पूरा करते थे। जब दूरदर्शन और इतने सारे प्राईवेट चैनल नहीं थे तब आकाशवाणी के हास्य व्यंग्य के रेडियो नाटक बहुत चाव से सुने जाते थे और के पी उनके प्रमुख लेखकों में से एक थे। बाद में उन्होंने टीवी के लिए भी लिखा। हास्य व्यंग्य के नाटकों के अलावा उन्होंने कुछ गम्भीर नाटक भी लिखे हैं जिनमें से एक पर कभी मेरे अनुजसम मित्र इंजीनियर राजेश श्रीवास्तव ने लघु फिल्म बनानी चाही थी। उनसे अनुमति लेने के लिए हम लोग उनके ग्वालियर प्रवास के दौरान प्रदीप चौबे के निवास पर गये थे पर उन्होंने यह कहते हुए अनुमति देने में असमर्थता व्यक्त की थी क्योंकि उस नाटक पर फिल्मांकन की अनुमति वे पहले ही ओमपुरी को दे चुके थे। उस नाटक के कई भाषाओं में हुए अनुवाद और उसके प्रभाव में घटित घटनाएं भी उन्होंने विस्तार से बतायी थीं जिससे उनके व्यक्तित्व के कुछ अनछुये पहलू ज्ञात हुये थे। शरद जोशी के साथ उन्होंने भी कवि सम्मेलनों में गद्य व्यंग्य पाठ प्रारम्भ किया था और अपने क्षेत्र में वर्षों सक्रिय रहे।
      बाद में वे फिल्म लेखन से जुड़े और लगान जैसी बहुचर्चित और बहुप्रशंसित फिल्म भी लिखी जो अनेक राष्ट्रीय पुरस्कार लेने के साथ आस्कर पुरस्कार तक के लिए नामित हुयी थी। पिछले दिनों में कादम्बिनी के पुराने अंक पलट रहा था तो एक अंक में मुझे केपी सक्सेना का नींबू के गुणों पर लिखा एक लेख मिला। उससे मुझे याद आया कि उन्होंने धर्मयुग में रेलवे गार्डों की चुनौतीपूर्ण कार्यपद्धति से लेकर ‘शरबत का मुहर बन्द गिलास- दशहरी आम’ तक पर मुख्य लेख लिखा था। वे वनस्पति शास्त्र में स्नातकोत्तर थे। उन्होंने बच्चों के लिए भी लिखा।
      लखनऊ के दौरान हुयी मुलाकातों के दौर में एक बार उन्होंने कहा था कि वे ऐसे किसी पत्र पत्रिका के लिए नहीं लिखते जो लेखक को पारिश्रमिक नहीं देती। उनका कहना था कि पत्रिका प्रकाशन के क्षेत्र में प्रकाशक को कागज़ वाला मुफ्त में कागज़ नहीं देता, कम्पोज़िंग सैटिंग वाला मुफ्त में काम नहीं करता, मुद्रक अपनी दर से भुगतान लेता है, डाकवाले अपना पूरा शुल्क वसूलते हैं और हाकर अपना कमीशन लेते हैं, तो फिर लेखक ही ऐसा क्यों रहे जो मुफ्त में अपनी रचना दे, और अपना अवमूल्यन कराये। उनके इन विचारों के प्रभाव में मैंने भी कई वर्षों तक ऐसी किसी पत्रिका के लिए नहीं लिख कर अपना नुकसान किया क्योंकि मैं साहित्यिक [लघु] पत्रिकाओं से कटा रहा।
      एक बार वे अमीनाबाद में एक पत्रिका की दुकान पर अचानक मिल गये और तपाक से बोले कि बहुत दिनों से तुम्हरी कोई रचना नहीं पढी, आजकल कहाँ व्यस्त हो! विडम्बना यह थी कि उस सप्ताह और माह की अनेक प्रमुख पत्रिकाओं में मेरी रचनाएं प्रकाशित थीं जिन्हें मैंने वहीं दिखा भी दीं। फिर हँसते हुए बोले कि बुरा मत मानना मैं लिखने और नौकरी में इतना व्यस्त रहता हूं कि दूसरों की रचनाएं कम ही पढ पाता हूं, अब ये सारी रचनाएं पढूंगा। मैं एक बार 1995 के अट्टहास के कार्यक्रम में गया और उन्हें फोन करके पूछा कि क्या वे आ रहे हैं, तो बोले कि मैं तो अट्टहास के कार्यक्रम में तब आऊंगा जब मुझे पुरस्कार मिलेगा। उस वर्ष का पुरस्कार नरेन्द्र कोहली जी को दिया गया था। [याद आ गया तो बताता चलूं कि कोहली जी से मुलाकात में मैंने पहली बार कम्प्यूटर की महिमा जानी थी जब उन्होंने बताया था कि नौकरी से मुक्त होकर वे अपने कमरे में कम्प्यूटर पर ही लिखते हैं और वहीं से फैक्स पर भेज देते हैं। ऐसा करते हुए वे हफ्तों तक घर से बाहर नहीं निकलते। ऐसा ही कर सकने का एक सपना मेरे अन्दर घर कर गया था। ]
      उनकी हस्तलिपि बहुत सुन्दर थी। बिल्कुल टंकित से छोटे सुन्दर और साफ स्पष्ट अक्षरों से उनका लिखा अलग से पहचाना जा सकता था। अपनी व्यस्तताओं के बाद भी वे कभी कभी पत्रों के संक्षिप्त उत्तर देने का समय निकाल लेते थे। उनके व्यंग्यों में लखनऊ की तहज़ीब उफनती थी जिनमें मिर्ज़ा नामक एक पात्र तो लखनऊ की मिलीजुली संस्कृति और मुहब्बत से सराबोर नौक झोंक का प्रतीक बन गया था। कभी चकल्लस के कार्यक्रम में हेमा मालिनी की उपस्थिति को गौरव के साथ बताने वाले के पी को बाद में अनेक पुरस्कार मिले। पुरस्कारों सम्मानों ने उनके दायित्व को बढाया और पद्मश्री मिलने के बाद उन्होंने ‘लगान’ जैसी फिल्म लिखी, जिसने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की। अटल जी की सरकार में जिस वर्ष उन्हें पद्मश्री मिली थी उसके कुछ ही पहले उन्होंने भाजपा की सदस्यता ली थी। मैंने आदतन उन्हें बधाई देते हुए भी पत्र में अपना असंतोष व्यक्त किया था।   
      उनकी रचनाओं के संकलनों के पुस्तकाकार प्रकाशन तो बहुत हुये किंतु उन्होंने जो भी लिखा वह फुटकर ही लिखा। किताब के लिए लिखी गयी उनकी किताबें कम ही होंगीं। वे सरल, सहज, बोधगम्य और रोचक लिखते थे। उनकी रचनाएं एक बार में ही पढी जाने वाली संतुलित आकार की होती थीं। हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी और रवीन्द्र नाथ त्यागी, के बाद व्यंग्य लेखन में जो नाम अपना स्थान बना रहे थे केपी का नाम भी प्रमुख नामों में एक है।
      श्री से. रा. यात्री की तरह ही वे अपने नाम के संक्षिप्तीकरण से ही इतने विख्यात थे कि बहुत ही कम लोगों को पता होगा कि के.पी का पूरा नाम कालिका प्रसाद सक्सेना था जो किसी किताब या पत्र पत्रिका में कभी नहीं लिखा गया। जब भी उनका समग्र लेखन रचनावली के रूप में प्रकाशित होगा तो वह आकार में अनेक रचनावलियों को पीछे छोड़ देगा।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.]
मो. 09425674629               


शुक्रवार, जून 19, 2020

उपन्यास विधा में व्यंग्य के जनक श्रीलाल शुक्ल और बुन्देलखण्ड


उपन्यास विधा में व्यंग्य के जनक श्रीलाल शुक्ल और बुन्देलखण्ड
राग दरबारी' पढ़कर याद आती आपबीती ...वीरेन्द्र जैन
यह बहुमत से मान ही लिया गया है कि कथा कविता, निबन्ध, नाटक, उपन्यास आदि की तरह व्यंग्य कोई अलग विधा नहीं है और वह किसी भी विधा में अपनी उपस्थिति बता सकता है। परसाई जी ने उसे एक स्प्रिट कहा है। ज्यादातर व्यंग्य निबन्ध विधा में लिखे गये हैं जो पहले गम्भीर लेखन के लिए जानी जाने वाली विधा रही है इसलिए व्यंग्यात्मक निबन्धों को अलग विधा होने का भ्रम उत्पन्न हुआ। तभी श्रीलाल शुक्ल जी ने उपन्यास में व्यंग्य लिख कर जो धमाका किया उसने यह साबित कर दिया कि व्यंग्य अलग विधा नहीं है और वह किसी भी विधा में पाया जा सकता है।
शुक्लजी का ‘राग दरबारी’ एक ऐसा यथार्थवादी उपन्यास में जिसमें तीन सौ तीस से अधिक पृष्ठों तक कथा के साथ साथ व्यंग्य चलता रहता है। न कहीं कथा कमजोर पड़ती है और ना ही व्यंग्य। एक समझौते के बाद मिली आज़ादी के बाद जो व्यवस्था विकसित हुयी उसमें भले ही साम्प्रदायिकता के कारण जनित विभाजन में हिंसा घटित हुयी हो किंतु सत्ता अहिंसक तरीके से स्थानांतरित हुयी। इसका परिणाम यह हुआ कि देश संविधान से कम अपितु लचीला संविधान देश के हिसाब से चलने लगा। राज परिवारों की विशिष्टता और उनके प्रति भक्ति बनी रही व जातिवाद समेत सारी बुराइयां यथावत रहीं साथ ही नई बुराइयां भी पैदा होती रहीं। पदों के नाम जरूर बदल गये किंतु चरित्र नहीं बदले। और उपन्यास लेखन के काल छठे दशक तक तो गाँवों में बिल्कुल भी नहीं बदले। इस उपन्यास में आजादी के बाद स्थापित व्यवस्था का पुरानी बुराइयों से घालमेल का चित्रण है।
1968 में प्रकाशित इस उपन्यास की समीक्षा मैंने 1969 की कादम्बिनी के किसी अंक में पढी थी जिसके दो वाक्य तो मन में गड़ से गये थे। एक कि ‘ट्रक आता देख कर उसकी बांछें खिल गयीं, अब ये शरीर में जहाँ कहीं भी होती हों’ और दूसरा ‘ कुछ घूरे, घूरे से भी बदतर’। उसी समय यह तय कर लिया था कि यह उपन्यास जरूर पढूंगा। दतिया जैसे नगर के किसी पुस्तकालय में नई किताबें मंगाने का बजट नहीं होता था और किसी बड़े नगर जाकर सजिल्द किताबें खरीदने का बजट हमारे पास नहीं होता था। याद नहीं कि यह किताब कैसे कब पढने को मिली किंतु इस बीच में इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल गया और किताब की मोटाई से ज्यादा उसकी प्रशंसा पढ सुन चुका था। 2008 में जब इस किताब के प्रकाशन के पचासवें वर्ष के आयोजन हुए तब याद आया कि प्रकाशन के बाद इस किताब का हर वर्ष एक नया संस्करण आता रहा है, और इस पर सीरियल भी बन चुका है।
रागदरबारी से मेरा एक नाता और भी रहा है कि इस उपन्यास में वर्णित जन जीवन बुन्देलखण्ड से उठाया गया है, और उसके सभी चरित्र बहुत साफ साफ समझ में आ जाते हैं। बुन्देलखण्ड के स्वभाव में ही धारदार व्यंग्य बसा हुआ है, परसाईजी इसी की उपज हैं। रगदरबारी के बारे में श्रीलाल जी ने बताया था कि वे कभी उत्तर प्रदेश के राठ नामक कस्बे में एसडीएम थे और उसी दौरान उन्होंने जो नोट्स लिये थे उसी आधार पर पूरा उपन्यास रचा गया है। राठ के पास एक कस्बा था हरपालपुर जो आबादी में तो छोटा था किंतु उसकी एक विशेषता थी कि वह झांसी मानिकपुर लाइन का रेलवे स्टेशन था जो राठ, छतरपुर, नौगाँव खजुराहो, के लोगों के लिए भी रेलवे की सुविधाएं देने का काम करता था, क्योंकि उस समय नदियों पर पुल नहीं होने के कारण सारा दारोमदार इसी स्टेशन पर था। यह राठ की सीमा के इतने निकट था कि रेल की एक लाइन हरपालपुर [मध्यप्रदेश] में आती थी और दूसरी राठ [उत्तर प्रदेश] की सीमा में। एक बड़े क्षेत्र की फसल उत्पाद को यहीं से रेल वैगनों द्वारा बाहर भेजा जाता था इसलिए एक सम्पन्न गल्ला मंडी थी। बैंक था, एक आइल मिल था और एक सुगर मिल भी था। जब जवाहरलाल नेहरू 1958 में पहली बार खजुराहो आये थे तो उन्हें भी हरपालपुर ही उतरना पड़ा था क्योंकि तब खजुराहो में हवाई अड्डा नहीं बना था। तब तक खजुराहो के मन्दिर संरक्षित भी नहीं थे और विनोबा भावे जैसे लोग इन मूर्तियों पर फट्टी लटका कर छुपा देने वाले बयान दे चुके थे। नेहरू जी की इस यात्रा के बाद ही खजुराहो विश्व पर्यटन की दिशा मॆ अग्रसर हो सका और संरक्षित होकर इसकी मूर्तियों की चोरी रुक सकी। राठ के पास ही अपनी लाठी से फैसला करवाने वाला महोबा और बाँदा जिला है जो राठ को प्रभावित करता है। कहा जाता है कि लम्बे अर्से तक अवैध हथियार बनाने के गृह उद्योग वहाँ से संचालित रहे हैं। दतिया में पढाई के दौरान मुझ से कुछ वर्ष जूनियर एक लड़का राजू भटनागर, जिसने बाद में डकैती में बड़ा नाम कमाया, इसी राठ का रहने वाला था।
इसी हरपालपुर में मुझे लगभग आठ साल गुजारने पड़े। मेरे पिता की नौकरी के अंतिम दो वर्षों में उनका ट्रांसफर दतिया से हरपालपुर हो गया था व एक साल मैंने पढाई छोड़ दी थी इसलिए आवारगी के दिन हरपालपुर में काटे. फिर मेरी नौकरी भी यहीं बैंक में लगी और लगभग पाँच साल यहाँ बाबूगीरी की। उसके लगभग दस साल बाद यहीं बैंक मैनेजर होकर आया और तीन साल से अधिक काटे। कुल मिला कर कहने का आशय यह है कि राग दरबारी जैसे हर चरित्र को उसी दौर में मैंने भी निकट से देखा जिस आधार पर एक और राग दरबारी रचा जा सकता है।
वैसे ही वैद्यजी, वैसे ही रुप्पन, बद्री, शनीचर, लंगड़, यहाँ तक कि रंगनाथ और बेला तक सब के सब किसी न किसी दूसरे नाम से यहाँ मिल सकते हैं। घनघोर उमस और गर्मी में किसी वैद्य की दालान में रोजगारहीन शनीचर अंडरवियर की बत्तियां बनाते देखे जा सकते हैं। अगर रागदरबारी का यह प्रसंग आपको समझ में नहीं आया हो तो बता दूं कि अनेक लोग पट्टे के ढीले अन्डरवियर और जेबदार बंडी पहिने रहते थे और खाली समय की बेचैनी में उसी अंडरवियर को दिये की बत्ती बनाने के अन्दाज में जांघ पर से ऊपर की ओर मोड़ते और फिर उन बत्तियों को खोलते रहते हैं। यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसे तामिलनाडु के लोग कुछ कुछ समय के बाद अपनी लुंगी को ऊपर चढा लेते हैं और फिर नीचे कर लेते हैं।
रागदरबारी में पढने से पहले ही मैंने हरपालपुर में उर्फ की भाषा सुन और सीख ली थी। यहाँ भी यह प्रेमी प्रेमिकाओं की गुप्त भाषा थी, जिसे युवा लोग आपस मे बोल कर गुप्तवार्तालाप भी कर लेते थे और मजे भी ले लेते थे। युवाओं को छत पर ‘तीतर लड़ाने की मुद्रा’ में बैठे हुए देखा है और छतों छतों दूसरे के घरों में लांघते हुए भी देखा है। दूसरे के घरों की महिलाओं का चरित्र हनन करना लोगों के शगल में शामिल था। मेरे निवास की बालकनी ऐसी थी जिसमें से सड़क के एक छोर से दूसरे छोर तक के मकान दिखते थे। एक बार उसी सड़क पर रहने वाले एक ‘सज्जन’ फुरसत के क्षणों में सड़क के प्रत्येक घर के महिला पुरुषों के चरित्र का रंगीन इतिहास बता रहे थे। उन्होंने अपना घर छोड़ कर सभी घरों के बारे में रस ले ले कर यह तक बता दिया कि फलां के लड़के की शक्ल किससे मिलती है। मुझे इस कथा वार्ता में इसलिए आनन्द आया क्योंकि मेरी बालकनी से उन सज्जन का घर भी दिखता था जिसमें घटित घटनाओं का मैं प्रत्यक्षदर्शी था।
आजादी के पच्चीस वर्ष बाद भी यहाँ ब्राम्हणों, ठाकुरों और दूसरी जातियों के बीच वही अंतर रहा। दलितों को कुछ आर्थिक सुविधाएं तो मिलती गयीं किंतु सवर्णों की सुविधाओं, और पदों व सम्पत्ति में कोई कमी नहीं आयी। जातियों में भेद बराबर बना रहा। कुछ बड़ी जमीनों के मालिक थे जिनके साथ साथ बरछी लिए हुए गार्ड चलते थे जिन्हें साना कहा जाता था। यहीं से प्रेरणा लेकर मैंने एक व्यंग्य कथा लिखी थी ‘थानेदार की लड़की’।  प्राइवेट स्कूलों और सोसाइटियों का भी लगभग वही हाल था जैसा कि रागदरबारी में वर्णित है। रागदरबारी में चक्की चलाने की तरह ही स्कूलों के मास्टर इस तरह दूसरे धन्धे करते रहते थे कि अध्यापन उनका साइड बिजनेस माना जा सकता है।
हरपालपुर के बारे में इतना ज्यादा लिखने पर भी मैं कह सकता हूं कि कम लिखा है और औसत निकाल कर कहना चाह्ता हूं कि इसके पीछे यह बताने का भाव है कि ‘शिवपाल गंज’ मुझे दूसरे नगरों में पैदा हो कर बड़े होने वालों की तुलना में अधिक साफ साफ दिखायी दिया है। जब इसका पेपर बैक संस्करण आया जो कुल जमा चालीस रुपये का था तब से मैंने उपहार देने के अवसर पर इसे ही सर्वश्रेष्ठ पाया।
मैं पुस्तकों के विमोचन को प्रमोशन ही मानता रहा हूं और उसमें कोई विश्वास नहीं रहा। इसका मजाक उड़ाते हुए मैंने एक व्यंग्य लिखा था ‘विमोचन तो कराना है’। किंतु जब मेरी व्यंग्य की दूसरी किताब आयी उसी समय अट्टहास लखनऊ का वार्षिक कार्यक्रम था। श्रीलाल शुक्ल के हाथों अपनी पुस्तक का विमोचन कराने का लालच में नहीं छोड़ सका। मैंने अट्टहास कार्यक्रम के सबकुछ अनूप श्रीवास्तव को फोन किया कि अगर श्रीलाल जी कार्यक्रम में होंगे तो मैं आना चाहता हूं। अनूप मेरे पुराने मित्रों में से हैं और उसी मित्रता के अन्दाज में उन्होंने कहा कि आ जाओ, तुम्हें कौन रोकता है। श्रीलाल जी वैसे ही प्रशासनिक अधिकारी थे और रागदरबारी को गोदान व मैला आंचल के बाद ग्राम्य जीवन पर लिखी गयी श्रेष्ठकृति बताये जाने के कारण उनसे सम्मानजनक  दूरी सी बनी रही। यह तो बाद में पता चला कि वे बहुत सहज व्यक्ति थे। मैं गया और किताब ‘हम्माम के बाहर भी’ का विमोचन श्रीलाल जी के हाथों हुआ। पता नहीं कि यह संयोग था या प्रयोग था कि विमोचन उसी समय हुआ जब लखनऊ की पूरी प्रैस गोष्ठी में आये हुए किसी वरिष्ठ साहित्यकार की बाइट ले रही थी सो उसका कोई फोटो संरक्षित नहीं है। गनीमत रही कि समाचार पत्रों की खबरों में यह खबर दर्ज रही। अगले दिन में प्रेम जनमेजय के साथ उनके निवास पर धन्यवाद देने भी गया और किताब को पढ कर प्रतिक्रिया देने का आग्रह भी किया। बाद में पत्र से पूछने पर उन्होंने लिखा कि मैंने पढी तो थी किंतु लिखने का ध्यान नहीं रहा। किताबें पढ कर में एक लाइब्रेरी को दे देता हूं। मेरे लिए यह पत्र ही बड़ी बात थी, सो उसी से संतोष कर लिया।
उनकी मयनोशी के किस्से भी दूसरे बड़े साहित्यकारों की तरह सुने थे जिसमें से एक श्री से रा यात्री जी ने सुनाया था। इमरजैंसी में अन्य प्रतिबन्धों के अलावा शराब बन्दी भी की गयी थी। शुक्ल जी उस समय उत्तर प्रदेश के गृह सचिव थे, जब यात्रीजी पहुंचे तो उन्होंने उनके स्वागत में बोतल खोली और बोले यार ये परदे तो डाल दो आखिर मैं इस प्रदेश का गृह सचिव हूं। वे सरल और सादगी पसन्द थे और हिन्दी व्यंग्य के शीर्ष स्तम्भ होते हुए भी खुद को उपन्यासकार ही मानते रहे। वे कहते थे कि ‘रागदरबारी’ को भले ही कालजयी पहचान मिली हो किंतु में अपने उपन्यास ‘ मकान ‘ से अधिक संतुष्ट हूं। जनवादी लेखक संघ के जयपुर में आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में जब उनको मुख्य अतिथि बनाया गया था तब इस चयन से असंतुष्ट वेणुगोपाल से मेरी असहमति थी, जिसे संतुष्टि में बदलने की बहस के बाद में खुश था। मेरे अनेक मित्र उन्हें श्रीलाल शुक्ल की जगह रागदरबारी ही कहते थे।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629


  

शुक्रवार, मई 10, 2019

संस्मरण, प्रदीप चौबे कोई बतलाये कि हम बतलायें क्या


संस्मरण,  प्रदीप चौबे
कोई बतलाये कि हम बतलायें क्या
वीरेन्द्र जैन






किसी भी लोकप्रिय व्यक्ति के मित्र होने का दावा बहुत लोग करते हैं जबकि वह उतने लोगों से घनिष्ठता नहीं रख पाता, पर मेरे और प्रदीप चौबे के रिश्ते तब बने थे जब वे उतने लोकप्रिय नहीं थे. जितने बाद में हो गये थे। हम लोग पत्रिकाओं में साथ साथ प्रकाशित होना शुरू हुये. तब लिखने वालों की इतनी भीड़ नहीं हुआ करती थी और प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाएं लिखने पढने का शौक रखने वाले लोग पढ लिया करते थे। तब किताबों के प्रकाशन की भी आज कल जैसी बाढ नहीं आयी थी। 1977 के किसी माह में जबलपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका व्यंग्यम में हम लोग साथ साथ मय पते के छपे तो उन्हें पता चला कि मैं भी बैंक की नौकरी में हूं. हम दोनों लोगों ने एक दूसरे को एक ही तारीख को पत्र लिखे और हमारे वे पहले पत्र क्रास कर गये. दोनों ने एक दूसरे की रचनाओं की तारीफ एक साथ की थी, इसीलिए वह 'अहो रूपम अहो ध्वनिम' नहीं थी. तब से लगातार हम लोगों के बीच पत्र व्यवहार रहा। मजे की बात तो यह है कि तब वे अपने डील डौल के कारण अलग से पहचान में आने वाले प्रदीप नहीं थे और तब टीवी इंटरनैट भी नहीं था इसलिए 1982 में जब नागपुर मैं हम लोगों की पहली मुलाकात निश्चित हुयी तब प्रदीप ने लिखा था कि मैं हरे रंग का स्वेटर पहिने होऊंगा उससे पहचान लेना। मैं तब नागपुर में पदस्थ था। बाद में मेल मुलाकातों के किस्से तो बहुत सारे हैं। प्रदीप क्रमशः मंच पर लोकप्रिय होते गये और उन्होंने समझदारी यह की कि बैंक में प्रमोशन नहीं लिया और कैशियर ही बने रहे जिससे उन पर कोई बन्धन लागू नहीं हुआ। इससे उन्हें कवि सम्मेलन के मंचों पर जाने के लिए भरपूर स्वतंत्रता मिली।
वरिष्ठ व्यंग्य कवि माणिक वर्मा की तरह प्रदीप भी मूलतयः गजलगो थे. व्यंग्यजल नाम उन्होंने ही दिया. एक तरह से हिन्दी में स्टेंडअप कामेडी के जनक वे ही थे. बाद में शरद जोशी गद्य व्यंग्य पाठ लेकर मंच पर अवतरित हुये जिसकी शुरुआत मिनी गद्य रचनाओं से प्रदीप कर चुके थे। शरद जोशी भी मंच पर पढने के लिए जिन रचनाओं को तैयार करते थे उनमें एक ही विषय पर छोटी छोटी फब्तियां संकलित की हुयी होती थीं। शरद जोशी ने इस कला में महारत हासिल कर ली थी। प्रदीप और शरद जी दोनों ही लोगों को रचना पाठ की राष्ट्रव्यापी ख्याति रामावतार चेतन के चकल्लस के मंच से मिली थी। मैं भी चेतन जी के आत्मीय लोगों में से था और इस प्रकार चकल्लस परिवार का सदस्य था, यद्यपि उनकी पत्रिका रंग में निरंतर छपने वाला मैं कभी चक्कलस के मंच पर नहीं गया, जबकि चेतन जी ने मेरे संकलन से रचना भी चुन कर रखी थी कि चकल्लस के मंच पर मुझे कौन सी रचना पढनी चाहिए।
प्रदीप के साथ मेरी एक और समानता थी, उन्होंने ग्वालियर में जो एकल काव्य/ रचना पाठ का महत्वपूर्ण कार्यक्रम शुरू किया था वैसा ही उससे पूर्व कभी मैंने सोचा था। भरतपुर में एक समिति भी बना ली थी जिसमें मंच के ही एक और कवि धनेश फक्कड़ भी साथ थे। पहले कवि के रूप में निर्भय हाथरसी का चयन भी कर लिया था किंतु प्रदीप जैसी  कर्मठता के अभाव में योजना को कार्यान्वित नहीं कर सका। बहुत बाद जब प्रदीप ने उसे पूरा कर दिखाया तो मुझे अपनी जैसी योजना के सफल होने पर बहुत खुशी हुयी थी, लगा था कि मैं गलत नहीं सोच रहा था। प्रारम्भ संस्था की रचना पाठ की इस श्रंखला में उन्होंने देश के प्रमुख रचनाकारों को क्रमशः बुलाया जिसमें कृष्ण बिहारी नूर और के पी सक्सेना सहित एक दो और कार्यक्रम सुनने का अवसर मुझे भी मिला। इस वार्षिक कार्यक्रम में ग्वालियर नगर के सुधी श्रोता और समर्थ साहित्य प्रेमी स्वरुचि से एकत्रित होते थे। भरोसा जगता था कि साहित्य के प्रति प्रेम अभी जिन्दा है व सम्प्रेषणीय साहित्य ही प्रेमचन्द, और परसाई की परम्परा को आगे बढायेगा।
प्रदीप बेलिहाज होकर खुल कर बात करते थे. जबकि मेरे अन्दर सदैव एक संकोच सा रहा। मैं सोच कर बोलता रहा  कि किसी को बात बुरी न लग जाये. प्रदीप और ज्ञान चतुर्वेदी दोनों की स्पष्टवादिता मुझे पसन्द रही है क्योंकि मेरे खुद के अन्दर उसका अभाव रहा है। वे देश के सुप्रसिद्ध कवि शैल चतुर्वेदी के सगे छोटे भाई थे जिसका पता मुझे तब लगा जब आगरा में आयोजित उनके परिवार में होने वाले विवाह समारोह का आमंत्रण मिला। उन्होंने न तो अपनी पहचान शैल चतुर्वेदी के भाई के रूम में बनाई और न ही उनके भाई होने को ही भुनाया।
 उनके कृतित्व को हास्यकवि तक सीमित नहीं किया जा सकता, भले ही वे हास्य व्यंग्य के शिखर के कवियों में थे  और मंच पर प्रतिष्ठित अन्य कवियों की तुलना में अधिक सारगर्भित रचनाएं प्रस्तुत करते थे। किसी व्यंग्य विचार को रूपक में ढालने और उसे मंच पर प्रस्तुत करने में वे बेजोड़ थे। वे हास्य व्यंग्य की रचनाओं के पाठ को बैंक की नौकरी की तरह आजीविका का साधन मानते थे, किंतु उनकी असली प्रतिभा का नमूना उनकी गज़लों, और उनके द्वारा सम्पादित और प्रकाशित वार्षिक पत्रिका प्रारम्भ की रचनाओं के चयन में दिखती है जिसके अंकों में दुनिया भर के श्रेष्ठतम गज़लकारों की श्रेष्ठतम रचनाएं संकलित हैं। एक साक्षात्कार में जब सुप्रसिद्ध कहानीकार और पहल के सम्पादक ज्ञानरंजन से पूछा गया कि आपने कथा लेखन क्यों बन्द कर दिया तो उन्होंने प्रतिप्रश्न किया था कि आप पहल के सम्पादन को रचनाकर्म क्यों नहीं मानते। प्रदीप ने ‘प्रारम्भ’ में प्रकाशित करने के लिए जिन रचनाओं के अम्बार को खंगाल कर मोती चुने होंगे वह काम कोई सामान्य प्रतिभा का व्यक्ति नहीं कर सकता। वे जिन पत्रिकाओं से जुड़े रहे उनसे उनकी रुचि और समझ का पता चलता है। मैंने दर्जनों बार उनके हाथ में सारिका, धर्मयुग और हंस के अंक देखे और देख कर अच्छा लगा। वे ज्यादा अपने से लगे।
एक गज़ल में उनका एक मिसरा था- यादों का दरवाजा बा है, आना है तो आ जाओ। मैंने पूछा यह ‘बा’ क्या है, तो बोले तुम रोज ही तो प्रयोग करते होगे, जैसे मुँह बाना, अर्थात खुला हुआ। मैंने इस शब्द का ऐसा प्रयोग पहली बार ही देखा था। ऐसे ही याद आया कि हम लोग अट्टहास के कार्यक्रम में लखनऊ के गैस्ट हाउस में साथ साथ रुके हुये थे, कि डिनर हेतु आदरणीय उदय प्रताप सिंह जी के साथ जाने का कार्यक्रम बन गया। तब ही पता चला कि आदरणीय नीरज जी भी वहीं रुके हुये हैं तो हम सभी श्रद्धालुओं ने कुछ समय उनके साथ गुजारने का मन बनाया। उस दिन नीरज जी ने कहा था कि आप लोग फिल्मी गीतों को ज्यादा महत्व नहीं देते पर शोले के एक गीत में जो कहा गया है कि – स्टेशन से गाड़ी जब छूट जाती है तो एक दो तीन हो जाती है। बताओ इससे पहले इस एक दो तीन हो जाने का प्रयोग हिन्दी के किस गीत में हुआ है। प्रदीप चौबे ने कई नये प्रयोग किये थे। शब्दों की तोड़ फोड़ में निर्भय हाथरसी भी माहिर थे।
पिछले दिनों जब प्रदीप के युवा पुत्र का आकस्मिक निधन भोपाल में हो गया था तब मैं भोपाल में नहीं था, लौट कर आने पर पता चला। सोचा फोन करूं, पर हिम्मत नहीं हुयी। सोचता रह गया, सच्ची सम्वेदना के समय मेरे बोल नहीं फूटते। मुनीर नियाजी की वह नज़्म रह रह कर याद आती है – हमेशा देर कर देता हूं मैं.......।
प्रदीप जी भी चले गये। जिन विशिष्ट लोकप्रिय लोगों से मित्रता की दम पर खुद के हीनता बोध को ढक लिया करता था, वे घटते जा रहे हैं। प्रकृति का नियम ही है। 
वीरेन्द्र जैन
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