संस्मरण,
प्रदीप चौबे
कोई
बतलाये कि हम बतलायें क्या
वीरेन्द्र
जैन
वरिष्ठ व्यंग्य कवि माणिक वर्मा की तरह
प्रदीप भी मूलतयः गजलगो थे. व्यंग्यजल नाम उन्होंने ही दिया. एक तरह से हिन्दी में
स्टेंडअप कामेडी के जनक वे ही थे. बाद में शरद जोशी गद्य व्यंग्य पाठ लेकर मंच पर
अवतरित हुये जिसकी शुरुआत मिनी गद्य रचनाओं से प्रदीप कर चुके थे। शरद जोशी भी मंच
पर पढने के लिए जिन रचनाओं को तैयार करते थे उनमें एक ही विषय पर छोटी छोटी
फब्तियां संकलित की हुयी होती थीं। शरद जोशी ने इस कला में महारत हासिल कर ली थी। प्रदीप
और शरद जी दोनों ही लोगों को रचना पाठ की राष्ट्रव्यापी ख्याति रामावतार चेतन के
चकल्लस के मंच से मिली थी। मैं भी चेतन जी के आत्मीय लोगों में से था और इस प्रकार
चकल्लस परिवार का सदस्य था, यद्यपि उनकी पत्रिका रंग में निरंतर छपने वाला मैं कभी
चक्कलस के मंच पर नहीं गया, जबकि चेतन जी ने मेरे संकलन से रचना भी चुन कर रखी थी
कि चकल्लस के मंच पर मुझे कौन सी रचना पढनी चाहिए।
प्रदीप के साथ मेरी एक और समानता थी, उन्होंने
ग्वालियर में जो एकल काव्य/ रचना पाठ का महत्वपूर्ण कार्यक्रम शुरू किया था वैसा
ही उससे पूर्व कभी मैंने सोचा था। भरतपुर में एक समिति भी बना ली थी जिसमें मंच के
ही एक और कवि धनेश फक्कड़ भी साथ थे। पहले कवि के रूप में निर्भय हाथरसी का चयन भी
कर लिया था किंतु प्रदीप जैसी कर्मठता के
अभाव में योजना को कार्यान्वित नहीं कर सका। बहुत बाद जब प्रदीप ने उसे पूरा कर
दिखाया तो मुझे अपनी जैसी योजना के सफल होने पर बहुत खुशी हुयी थी, लगा था कि मैं
गलत नहीं सोच रहा था। प्रारम्भ संस्था की रचना पाठ की इस श्रंखला में उन्होंने देश
के प्रमुख रचनाकारों को क्रमशः बुलाया जिसमें कृष्ण बिहारी नूर और के पी सक्सेना
सहित एक दो और कार्यक्रम सुनने का अवसर मुझे भी मिला। इस वार्षिक कार्यक्रम में ग्वालियर
नगर के सुधी श्रोता और समर्थ साहित्य प्रेमी स्वरुचि से एकत्रित होते थे। भरोसा
जगता था कि साहित्य के प्रति प्रेम अभी जिन्दा है व सम्प्रेषणीय साहित्य ही
प्रेमचन्द, और परसाई की परम्परा को आगे बढायेगा।
प्रदीप बेलिहाज होकर खुल कर बात करते
थे. जबकि मेरे अन्दर सदैव एक संकोच सा रहा। मैं सोच कर बोलता रहा कि किसी को बात बुरी न लग जाये. प्रदीप और ज्ञान
चतुर्वेदी दोनों की स्पष्टवादिता मुझे पसन्द रही है क्योंकि मेरे खुद के अन्दर
उसका अभाव रहा है। वे देश के सुप्रसिद्ध कवि शैल चतुर्वेदी के सगे छोटे भाई थे
जिसका पता मुझे तब लगा जब आगरा में आयोजित उनके परिवार में होने वाले विवाह समारोह
का आमंत्रण मिला। उन्होंने न तो अपनी पहचान शैल चतुर्वेदी के भाई के रूम में बनाई
और न ही उनके भाई होने को ही भुनाया।
उनके कृतित्व को हास्यकवि तक सीमित नहीं किया जा
सकता, भले ही वे हास्य व्यंग्य के शिखर के कवियों में थे और मंच पर प्रतिष्ठित अन्य कवियों की तुलना में
अधिक सारगर्भित रचनाएं प्रस्तुत करते थे। किसी व्यंग्य विचार को रूपक में ढालने और
उसे मंच पर प्रस्तुत करने में वे बेजोड़ थे। वे हास्य व्यंग्य की रचनाओं के पाठ को बैंक
की नौकरी की तरह आजीविका का साधन मानते थे, किंतु उनकी असली प्रतिभा का नमूना उनकी
गज़लों, और उनके द्वारा सम्पादित और प्रकाशित वार्षिक पत्रिका प्रारम्भ की रचनाओं
के चयन में दिखती है जिसके अंकों में दुनिया भर के श्रेष्ठतम गज़लकारों की
श्रेष्ठतम रचनाएं संकलित हैं। एक साक्षात्कार में जब सुप्रसिद्ध कहानीकार और पहल
के सम्पादक ज्ञानरंजन से पूछा गया कि आपने कथा लेखन क्यों बन्द कर दिया तो
उन्होंने प्रतिप्रश्न किया था कि आप पहल के सम्पादन को रचनाकर्म क्यों नहीं मानते।
प्रदीप ने ‘प्रारम्भ’ में प्रकाशित करने के लिए जिन रचनाओं के अम्बार को खंगाल कर मोती
चुने होंगे वह काम कोई सामान्य प्रतिभा का व्यक्ति नहीं कर सकता। वे जिन पत्रिकाओं
से जुड़े रहे उनसे उनकी रुचि और समझ का पता चलता है। मैंने दर्जनों बार उनके हाथ में
सारिका, धर्मयुग और हंस के अंक देखे और देख कर अच्छा लगा। वे ज्यादा अपने से लगे।
एक गज़ल में उनका एक मिसरा था- यादों का
दरवाजा बा है, आना है तो आ जाओ। मैंने पूछा यह ‘बा’ क्या है, तो बोले तुम रोज ही
तो प्रयोग करते होगे, जैसे मुँह बाना, अर्थात खुला हुआ। मैंने इस शब्द का ऐसा
प्रयोग पहली बार ही देखा था। ऐसे ही याद आया कि हम लोग अट्टहास के कार्यक्रम में
लखनऊ के गैस्ट हाउस में साथ साथ रुके हुये थे, कि डिनर हेतु आदरणीय उदय प्रताप
सिंह जी के साथ जाने का कार्यक्रम बन गया। तब ही पता चला कि आदरणीय नीरज जी भी
वहीं रुके हुये हैं तो हम सभी श्रद्धालुओं ने कुछ समय उनके साथ गुजारने का मन
बनाया। उस दिन नीरज जी ने कहा था कि आप लोग फिल्मी गीतों को ज्यादा महत्व नहीं
देते पर शोले के एक गीत में जो कहा गया है कि – स्टेशन से गाड़ी जब छूट जाती है तो
एक दो तीन हो जाती है। बताओ इससे पहले इस एक दो तीन हो जाने का प्रयोग हिन्दी के
किस गीत में हुआ है। प्रदीप चौबे ने कई नये प्रयोग किये थे। शब्दों की तोड़ फोड़ में
निर्भय हाथरसी भी माहिर थे।
पिछले दिनों जब प्रदीप के युवा पुत्र
का आकस्मिक निधन भोपाल में हो गया था तब मैं भोपाल में नहीं था, लौट कर आने पर पता
चला। सोचा फोन करूं, पर हिम्मत नहीं हुयी। सोचता रह गया, सच्ची सम्वेदना के समय
मेरे बोल नहीं फूटते। मुनीर नियाजी की वह नज़्म रह रह कर याद आती है – हमेशा देर कर
देता हूं मैं.......।
प्रदीप जी भी चले गये। जिन विशिष्ट
लोकप्रिय लोगों से मित्रता की दम पर खुद के हीनता बोध को ढक लिया करता था, वे घटते
जा रहे हैं। प्रकृति का नियम ही है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629
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