सोमवार, जून 29, 2020

एक सरल व्यंग्यकार – शंकर पुंताम्बेकर


एक सरल व्यंग्यकार – शंकर पुंताम्बेकर

हिंदी के प्रख्यात व्यंगकार डा.शंकर ...








वीरेन्द्र जैन
हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, और रवीन्द्रनाथ त्यागी जैसे चार गुम्बजों के बाद जो दूसरा क्रम आता है उनमें शंकर पुंताम्बेकर का नाम प्रमुख लोगों में लिया जा सकता है।
थोड़ा दूर से शुरू करना पड़ेगा। मेरी दतिया में एक विभूति थे जिन्हें राम प्रसाद कटारे के नाम से जाना जाता था व बाद में वे दादाजी कहलाये। वे जाति से गहोई वैश्य थे और व्यवसाय से सर्राफ, किंतु स्वतंत्रता के बाद वे पुरानी रियासत रही दतिया में सर्वाधिक सक्रिय संस्कृति पुरुष के रूप में पहचाने गये। जब भी किसी सांस्कृतिक आयोजन की भूमिका बनती थी तो सबसे पहले उनका नाम लिखा जाता था। कवि सम्मेलन हो, रामलीला हो, गीता के प्रवचन हों, संगीत सभा हो, हाकी का मैच हो या कुश्ती वे सभी के आयोजन में कार्यकारिणी के प्रमुख पद पर बैठाये जाते थे और यथा सम्भव आर्थिक मदद भी करते थे। कलाकार उनके घर मेहमान होते थे और किसी भी क्षेत्र के प्रत्येक नामी व्यक्ति के नगर में आने पर उनका दर स्वागत के लिए खुला रहता था। मित्रता में उनके लिए उम्र का कोई बन्धन नहीं था। वे मेरे पिता के भी मित्र रहे थे, मेरे भी और मेरे बेटे के उम्र के लोगों के भी। मैंने और उनने रजनीश को साथ साथ पढा था, पर मैं तो केवल पाठक रहा पर उनने रजनीश के सहजता के सन्देश को जीवन में उतार लिया। मुक्त हास्य. कोई बनावट नहीं, कोई औपचारिकता नहीं। जब तक उनके हाथ में पैसा रहा तब तक उनने खुल कर खर्च किया। मैं मजाक में कहता था कि वे साहित्य प्रेमी नहीं साहित्यकारप्रेमी हैं। उनकी कोशिश तो पूरे परिवार को संस्कृति के क्षेत्र में लाने की थी किंतु चार में से एक पुत्र ओम कटारे फिल्म और नाटक के क्षेत्र में सफल हुये व एक पुत्री संगीत के क्षेत्र में। यह भूमिका मैंने इसलिए बाँधी है क्योंकि ऐसे ही मेरे एक मित्र भोपाल में थे और वे थे जब्बार ढाकवाला जो हर लोकप्रिय कला व समाज सेवा के क्षेत्र में चर्चित विभूतियों का स्वागत करने को आतुर रहते थे। वे मध्य प्रदेश में प्रशासनिक अधिकारी थे व बाद में आईएएस होकर विभिन्न पदक्रम में रहे किंतु वे व्यंग्यकार और कवि भी थे। उन्हें मित्र कहने वाले बहुत सारे लोग मिल जायेंगे किंतु वे दिल से मुझे मित्र मानते थे। परिणाम यह होता था कि विशिष्ट लोगों की मेजबानी में मुझे बराबरी से उनका साथ देना होता था, जो मुझे भी अप्रिय नहीं लगता था। नामी लोगों से मिल कर ‘बेनामी’ लोग भी खुश हो लेते हैं।
उनके पास पद था, स्टाफ था, संसाधन थे इसलिए उनका आमंत्रण लोग स्वीकार कर लेते थे। ऐसे ही एक अवसर पर मेरी पहली मुलाकात 1995 में शंकर पुण्ताम्बेकर जी से जब्बार के निवास पर हुयी, जो किसी आयोजन में भोपाल आने के बाद उनके घर आमंत्रित थे। याद पड़ता है कि उस समय ज्ञान चतुर्वेदी और अंजनी चौहान भी वहाँ  थे। अपनी कुरेदने की आदत में मैंने उनसे अन्य सवालों के बीच पूछ लिया था कि परसाई और शरद जोशी में से आप किसको अपने लेखन के निकट पाते हैं? उन्हें बुरा लगा था और बोले कि यह सवाल ठीक नहीं है, ज्ञानजी ने भी उनकी बात का समर्थन किया था और मैं मुस्करा कर रह गया था। तब तक मैंने उनकी रचनाएं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में पढी तो थीं व उनके कद से परिचित था किंतु कोई रचना विशेष दिमाग में दर्ज नहीं हो पायी थी।
ऐसे ही सहज बातचीत के अन्दाज में मैंने उनसे कहा कि कभी दतिया में मेरे मकान के एक हिस्से में भी एक पुंताम्बेकर जी रहते थे जो टेलीफोन विभाग में थे। वे बोले कि वह मेरा भतीजा है और मैं पिछले दिनों उसके मकान के गृह प्रवेश में दतिया गया था तब मैंने तुम्हारे बारे में भी पूछा था [ धर्मयुग में मेरे नाम के साथ दतिया लगा होने के कारण बहुत सारे लोगों को दतिया के साथ मैं याद आता रहा हूं] इस तरह मेरी उनसे आत्मीयता स्थापित हो गयी। पत्रिकाओं में प्रकाशित परिचित लोगों की रचनाएं प्राथमिकता में पढ ली जाती हैं और इस तरह उनके ज्यादातर व्यंग्य मैंने पढ लिये।
हिन्दी में पहली पीढी के जितने भी प्रसिद्ध व्यंग्यकार हुये हैं वे या तो स्वतंत्र लेखक हुये हैं या अधिकारी। भाषा व साहित्य का अध्यापन उनका व्यवसाय नहीं रहा। किंतु ग्वालियर और विदिशा में रह कर पढे पुंताम्बकर जी अंत तक हिन्दी साहित्य के अध्यापन से जुड़े रहे। वे मध्य प्रदेश में ही जन्मे और कुछ वर्षों तक यहीं अध्यापन भी किया। बाद में वे जलगाँव चले गये थे, जहाँ एक कालेज में प्राध्यपक रहे। उनकी रचनाओं में उनका अध्यापक नजर आता है। मुझे याद आ रहा है कि एक बार कलकत्ता में आयोजित जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन में राजेन्द्र यादव ने कहा था कि कालेज के प्रोफेसर लोग या तो कविताएं लिखते हैं या आलोचना क्योंकि कहानी लिखने में जान लगती है।  
मेरी पहली व्यंग्य पुस्तक 1984 में छपी थी. फिर उसके बाद नौकरी छोड़ने तक मैं लेखन में उतना सक्रिय नहीं रह सका जितना कि पहले था। बीस साल बाद जब दूसरी किताब आयी तो उसी समय लखनऊ में अट्टहास का कार्यक्रम आ गया और राग दरबारी के यशस्वी लेखक श्रीलाल शुक्ल जी से पुस्तक का विमोचन कराने का लालच पैदा हो गया। वे उस कार्यक्रम के अंतर्गत होने वाली गोष्ठी के मुख्य अतिथि थे और उसी कार्यक्रम में विमोचन हो गया। इसी वर्ष का अट्टहास सम्मान पुंताम्बेकर जी को मिला था। अस्सी वर्ष की उम्र में वे बेटी को साथ लेकर आये थे जिनकी उम्र भी लगभग पचपन-साठ वर्ष के असपास रही होगी और गलतफहमी से बचने के लिए उन्हें बार बार बेटी का परिचय कराना पड़ रहा था। सादगी से रहने वालों के साथ ऐसा संकट भी पैदा हो सकता है, तब यह महसूस हुआ था। मैंने आपस में मित्रों से कहा था कि दिल्ली से आने वाले लोगों को तो अपनी साथी महिला का परिचय पत्नी के रूप में कराना पड़ता है ताकि कोई बेटी न समझ ले, पर यहाँ मामला उल्टा है।
जल्दी में प्रतियां कम आ पायी थीं, जो विमोचन के लिए मंच पर दी गयी प्रतियों में ही निबट गयीं, फिर भी मैंने एक प्रति पुंताम्बेकर जी के लिए सुरक्षित रखी और् गैस्ट हाउस में लौट कर भेंट की। उनसे आग्रह किया कि फुरसत निकाल कर पढॆ और अपनी प्रतिक्रिया जरूर दें। जलगांव पहुंच कर उन्होंने पत्र लिखा कि अभी वे अपनी पुस्तक में व्यस्त हैं और इस काम से मुक्त होते ही जरूर लिखेंगे। मुझे लगा कि यह बहानेबाजी है और यह सोच मन मसोस कर बैठ गया कि मैं खुद भी तो कई पुस्तकों को पढने तक का समय नहीं निकाल पाता जिन्हें प्रेमी मित्रों ने बहुत आग्रह पूर्वक भेंट की हुयी होती है, फिर पुंताम्बेकर जी तो बड़े लेखक हैं।
लगभग एक वर्ष वाद उनका पत्र आया और अलग लिफाफे में लम्बी समीक्षा मिली। उन्होंने औपचारिकता नहीं निभायी थी अपितु एक एक रचना को गहराई से जांच कर लिखा था और मुझे व जवाहर चौधरी को अपने समकालीनों में महत्वपूर्ण बतलाया था। आम तौर पर मैं प्रशंसा से खुश नहीं होता हूं क्योंकि मेरे परिवेश में मुँह पर की गयी प्रशंसा को विश्वसनीय नहीं माना जाता रहा है, पर उन्होंने उसी समीक्षा में लगे हाथ जो कमजोरियां भी गिनायी थीं उससे भरोसा बनता था। उन्होंने लिखा था-
'हम्माम के बाहर' भी वीरेन्द्र जैन लिखित छोटीबड़ी रचनाओं का एक ऐसा व्यंग्य संग्रह है जिसे सुधी पाठक बारबार पढ़ना चाहेगा। हरीश नवल, रामविलास जांगिड़, अरविन्दर निपारी, जवाहर चौधरी जैसे कुछ लेखक इधर व्यंग्य में ऐसा कुछ लिख रहे हैं जिसे पढ़कर ऐसा लगता है कि व्यंग्य पक्की सड़क पर है। वीरेन्द्र जैन भी ऐसे ही लेखकों में सें हैं। इनका पहला व्यंग्य संग्रह था 'एक लुहार की' जो बीस वर्ष पूर्व छपा था। जैन इस बीच यदि धीमी गति से न लिखते, मैदान में कलम के साथ कमर कसे डंटे रहते तो इस लंबे अवकाश में उनके अवश्य ही चारपाँच संग्रह प्रकाशित हो जाते। इस दशा में वे औरों के संग्रहों के लिए फ्लैप मैटर लिखते, स्वयं अपने संग्रह के लिए इसकी खातिर मुहताज न होते। हाँ, जैन की कलम में ऐसी ही धार है जो ग्रंथ संरचना के अभाव में लोगों तक पहुंच नहीं पायी। कुछकुछ यही स्थिति जवाहर चौधरी के साथ है। दुख की बात है कि गुणात्मकता के आधार पर जैन और चौधरी को व्यंग्यजगत् ठीक से जानता ही नहीं।
मेरे धन्यवाद पत्र के उत्तर में उन्होंने मूल्यांकन के क्षेत्र में चल रही धांधलियों के बारे में बिना नाम लिये इंगित किया था। बाद में उनसे पत्र व्यवहार जारी रहा और वे तत्परता से पत्रोत्तर देते रहे। बहुत छोटे छोटे अक्षरों में भी उनकी लिखावट इतनी स्पष्ट होती थी कि कोई भी शब्द पढने के लिए निगाह पर जोर नहीं देना पड़ता था।
जैसे सरल वे रहन सहन में थे वैसे ही लेखन में भी। जैसे बिना जोर लगाये भी महत्वपूर्ण बात बोली जा सकती है वैसा ही उनका लेखन भी था। खेद की बात है कि खुद उन पर बहुत कम लिखा गया।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
  

सोमवार, जून 22, 2020

संस्मरण के. पी. सक्सेना लेखक नहीं लिक्खाड़ थे


संस्मरण
के. पी. सक्सेना लेखक नहीं लिक्खाड़ थे

वीरेन्द्र जैन
के.पी.सक्सेना पत्रिकाओं के व्यंग्य लेखक के रूप में जाने जाते रहे या कहना चाहिए कि व्यंग्य लेखक के रूप में भी जाने जाते रहे, पर उन्होंने जब भी लिखने का जो लक्ष्य बनाया उसमें सफलता पायी। पत्रिकाओं में निरंतर सक्रिय लेखन की लगन मुझे उनके लेखन से ही मिली और इस तरह वे मेरे मार्गदर्शक रहे। उनके लेखन की मात्रा, विषय वैविध्य और निरंतरता को देख कर आश्चर्य और ईर्षा होती थी।
      मैं एक छोटे ‘ए’ क्लास बैंक हिन्दुस्तान कमर्सियल बैंक में नौकरी करता था और ऐसा करते हुये देश के कोने कोने में पन्द्रह साल के दौरान मेरे दस ट्रासफर हुये, क्योंकि इस बैंक में अधिकारियों के ट्रांसफर पूरे देश में कहीं भी हो सकते थे। इसी काल में मुझे एक बार हरदोई जिले के बेनीगंज में पदस्थ होना पड़ा जो लखनऊ के निकट था, अतः मेरी शनिवार की शाम और रविवार लखनऊ में ही गुजरता था। यशपाल और नागरजी के बाद की पीढी के लखनऊ में समकालीन लेखकों में के पी का नाम सर्वाधिक चमकीला नाम था। वे अमीनाबाद के पास गुईन रोड पर किराये से रहते थे। उन दिनों मुझे लेखकों के पते तक याद रहते थे। लखौरी ईंटों से बना वह बड़े दरवाजे वाला घर था। उनसे पहली मुलाकात करने से पहले मैंने उन्हें जो पत्र लिखा था उसे न मिलना उन्होंने बताया था, पर उसके बाद भी मेरे नाम और लेखन से परिचित होने की जानकारी देकर उन्होंने थोड़ा सुख दिया था जिससे उनके साथ जल्दी सहज हो सका था। बाद में उन्होंने ही मुझे सूर्य कुमार पान्डेय और अनूप श्रीवास्तव आदि से मिलवाया था जिनसे बाद में लम्बा सम्पर्क और मित्रता रही। अभी बाद के दिनों में वे रामनगर में रहने लगे थे जहाँ उनके पड़ोस में नागरजी के पुत्र का मकान था और कभी कभी नागरजी भी वहाँ आते रहते थे। एक बार जब मैं रामनगर में उनसे मिलने गये तो वे मुझे नागरजी से मिलवाने भी ले गये थे।
      वे उन दिनों लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर थे और देश के प्रमुख राज्य की राजधानी के प्रमुख स्टेशन पर कार्यरत रहते हुए भी विपुल लेखन करते थे। उन दिनों आरक्षण की आज जैसी सुविधा नहीं थी तथा मुझे दतिया जाते समय ट्रेन में स्थान दिलाने की व्यवस्था उन्होंने दर्ज़नों बार की। वे ऐसी बातें बताना भी नहीं भूलते थे कि उनके कार्यालय की जिस कुर्सी पर मैं बैठा हूं उसी पर परसों कमलापति त्रिपाठी बैठे थे। ऐसी बातें सुन कर गर्व होता था। उन्होंने मुझे यह भी बताया था कि इतना लेखन करने के बाद भी उन्होंने कभी लेखन के लिए नौकरी से छुट्टी नहीं ली। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नवनीत, माधुरी आदि उस समय की राष्ट्रव्यापी लोकप्रिय पारिवारिक पत्रिकाएं थीं जिनके होली. दिवाली, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, आदि अवसरों पर निकलने वाले विशेषांक के पी की रचनाओं के बिना पूरे नहीं होते थे। वे लखनऊ के दो प्रमुख दैनिक अखबारों में साप्ताहिक स्तम्भ लिखा करते थे, और देश भर की हिन्दी की प्रमुख पत्रिकाओं की माँग को पूरा करते थे। जब दूरदर्शन और इतने सारे प्राईवेट चैनल नहीं थे तब आकाशवाणी के हास्य व्यंग्य के रेडियो नाटक बहुत चाव से सुने जाते थे और के पी उनके प्रमुख लेखकों में से एक थे। बाद में उन्होंने टीवी के लिए भी लिखा। हास्य व्यंग्य के नाटकों के अलावा उन्होंने कुछ गम्भीर नाटक भी लिखे हैं जिनमें से एक पर कभी मेरे अनुजसम मित्र इंजीनियर राजेश श्रीवास्तव ने लघु फिल्म बनानी चाही थी। उनसे अनुमति लेने के लिए हम लोग उनके ग्वालियर प्रवास के दौरान प्रदीप चौबे के निवास पर गये थे पर उन्होंने यह कहते हुए अनुमति देने में असमर्थता व्यक्त की थी क्योंकि उस नाटक पर फिल्मांकन की अनुमति वे पहले ही ओमपुरी को दे चुके थे। उस नाटक के कई भाषाओं में हुए अनुवाद और उसके प्रभाव में घटित घटनाएं भी उन्होंने विस्तार से बतायी थीं जिससे उनके व्यक्तित्व के कुछ अनछुये पहलू ज्ञात हुये थे। शरद जोशी के साथ उन्होंने भी कवि सम्मेलनों में गद्य व्यंग्य पाठ प्रारम्भ किया था और अपने क्षेत्र में वर्षों सक्रिय रहे।
      बाद में वे फिल्म लेखन से जुड़े और लगान जैसी बहुचर्चित और बहुप्रशंसित फिल्म भी लिखी जो अनेक राष्ट्रीय पुरस्कार लेने के साथ आस्कर पुरस्कार तक के लिए नामित हुयी थी। पिछले दिनों में कादम्बिनी के पुराने अंक पलट रहा था तो एक अंक में मुझे केपी सक्सेना का नींबू के गुणों पर लिखा एक लेख मिला। उससे मुझे याद आया कि उन्होंने धर्मयुग में रेलवे गार्डों की चुनौतीपूर्ण कार्यपद्धति से लेकर ‘शरबत का मुहर बन्द गिलास- दशहरी आम’ तक पर मुख्य लेख लिखा था। वे वनस्पति शास्त्र में स्नातकोत्तर थे। उन्होंने बच्चों के लिए भी लिखा।
      लखनऊ के दौरान हुयी मुलाकातों के दौर में एक बार उन्होंने कहा था कि वे ऐसे किसी पत्र पत्रिका के लिए नहीं लिखते जो लेखक को पारिश्रमिक नहीं देती। उनका कहना था कि पत्रिका प्रकाशन के क्षेत्र में प्रकाशक को कागज़ वाला मुफ्त में कागज़ नहीं देता, कम्पोज़िंग सैटिंग वाला मुफ्त में काम नहीं करता, मुद्रक अपनी दर से भुगतान लेता है, डाकवाले अपना पूरा शुल्क वसूलते हैं और हाकर अपना कमीशन लेते हैं, तो फिर लेखक ही ऐसा क्यों रहे जो मुफ्त में अपनी रचना दे, और अपना अवमूल्यन कराये। उनके इन विचारों के प्रभाव में मैंने भी कई वर्षों तक ऐसी किसी पत्रिका के लिए नहीं लिख कर अपना नुकसान किया क्योंकि मैं साहित्यिक [लघु] पत्रिकाओं से कटा रहा।
      एक बार वे अमीनाबाद में एक पत्रिका की दुकान पर अचानक मिल गये और तपाक से बोले कि बहुत दिनों से तुम्हरी कोई रचना नहीं पढी, आजकल कहाँ व्यस्त हो! विडम्बना यह थी कि उस सप्ताह और माह की अनेक प्रमुख पत्रिकाओं में मेरी रचनाएं प्रकाशित थीं जिन्हें मैंने वहीं दिखा भी दीं। फिर हँसते हुए बोले कि बुरा मत मानना मैं लिखने और नौकरी में इतना व्यस्त रहता हूं कि दूसरों की रचनाएं कम ही पढ पाता हूं, अब ये सारी रचनाएं पढूंगा। मैं एक बार 1995 के अट्टहास के कार्यक्रम में गया और उन्हें फोन करके पूछा कि क्या वे आ रहे हैं, तो बोले कि मैं तो अट्टहास के कार्यक्रम में तब आऊंगा जब मुझे पुरस्कार मिलेगा। उस वर्ष का पुरस्कार नरेन्द्र कोहली जी को दिया गया था। [याद आ गया तो बताता चलूं कि कोहली जी से मुलाकात में मैंने पहली बार कम्प्यूटर की महिमा जानी थी जब उन्होंने बताया था कि नौकरी से मुक्त होकर वे अपने कमरे में कम्प्यूटर पर ही लिखते हैं और वहीं से फैक्स पर भेज देते हैं। ऐसा करते हुए वे हफ्तों तक घर से बाहर नहीं निकलते। ऐसा ही कर सकने का एक सपना मेरे अन्दर घर कर गया था। ]
      उनकी हस्तलिपि बहुत सुन्दर थी। बिल्कुल टंकित से छोटे सुन्दर और साफ स्पष्ट अक्षरों से उनका लिखा अलग से पहचाना जा सकता था। अपनी व्यस्तताओं के बाद भी वे कभी कभी पत्रों के संक्षिप्त उत्तर देने का समय निकाल लेते थे। उनके व्यंग्यों में लखनऊ की तहज़ीब उफनती थी जिनमें मिर्ज़ा नामक एक पात्र तो लखनऊ की मिलीजुली संस्कृति और मुहब्बत से सराबोर नौक झोंक का प्रतीक बन गया था। कभी चकल्लस के कार्यक्रम में हेमा मालिनी की उपस्थिति को गौरव के साथ बताने वाले के पी को बाद में अनेक पुरस्कार मिले। पुरस्कारों सम्मानों ने उनके दायित्व को बढाया और पद्मश्री मिलने के बाद उन्होंने ‘लगान’ जैसी फिल्म लिखी, जिसने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की। अटल जी की सरकार में जिस वर्ष उन्हें पद्मश्री मिली थी उसके कुछ ही पहले उन्होंने भाजपा की सदस्यता ली थी। मैंने आदतन उन्हें बधाई देते हुए भी पत्र में अपना असंतोष व्यक्त किया था।   
      उनकी रचनाओं के संकलनों के पुस्तकाकार प्रकाशन तो बहुत हुये किंतु उन्होंने जो भी लिखा वह फुटकर ही लिखा। किताब के लिए लिखी गयी उनकी किताबें कम ही होंगीं। वे सरल, सहज, बोधगम्य और रोचक लिखते थे। उनकी रचनाएं एक बार में ही पढी जाने वाली संतुलित आकार की होती थीं। हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी और रवीन्द्र नाथ त्यागी, के बाद व्यंग्य लेखन में जो नाम अपना स्थान बना रहे थे केपी का नाम भी प्रमुख नामों में एक है।
      श्री से. रा. यात्री की तरह ही वे अपने नाम के संक्षिप्तीकरण से ही इतने विख्यात थे कि बहुत ही कम लोगों को पता होगा कि के.पी का पूरा नाम कालिका प्रसाद सक्सेना था जो किसी किताब या पत्र पत्रिका में कभी नहीं लिखा गया। जब भी उनका समग्र लेखन रचनावली के रूप में प्रकाशित होगा तो वह आकार में अनेक रचनावलियों को पीछे छोड़ देगा।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.]
मो. 09425674629               


रविवार, जून 21, 2020

गाँधी के देश में विशिष्ट होने का रोग


गाँधी के देश में विशिष्ट होने का रोग

वीरेन्द्र जैन
पिछले तीस सालों में देश के अन्दर सुविधाजीवी मध्यम वर्ग की संख्या में तेज वृद्धि हुयी है और उसी के अनुरूप उपभोक्ता सामग्री की मांग भी बढी। इसी दौरान दुनिया के बाज़ार पर चीन ने कब्जा जमाया और भारत के बाजार पर छा गया। उसने अपना सामान बेचने के लिए यूरोपीय देशों की तरह संस्कृति का निर्यात नहीं किया अपितु भारत समेत दुनिया भर के देशों की संस्कृतियों के अनुरूप माल का उत्पादन किया। उदाहरणार्थ भारत की महिलाओं के लिए उसने सिन्दूर का निर्माण किया और आज पूरे देश की हिन्दू महिलाएं चीन में निर्मित सिन्दूर का प्रयोग कर रही हैं। वाहनों की सामग्री से लेकर मोबाइल व इलेक्ट्रोनिक्स का पूरा बाजार चाइनीज सामान से पटा पड़ा है। देश में कोरोना के प्रारम्भ स्थल और चीन के साथ हिंसक सीमा संघर्ष एक ही समय में घटित हुये। परिस्थितियां ऐसी हुयीं कि उचित समय पर कदम न उठाने की केन्द्र सरकार की अपरिपक्वता साफ नजर आने लगीं। किंतु खरीदे हुए मीडिया व अन्धभक्तों की फौज ने सारे गुस्से की दिशा को भटका दिया। सरल जनता बिना जाने समझे चीनी सामान खरीदने को ही सारी समस्या समझ बैठी और उसके बहिष्कार को पेचीदा अर्थव्यवस्था तक का हल समझने लगी। उम्मीद की जा रही है कि कोरोना के लाकडाउन से बैठ गयी अर्थ व्यवस्था, कमर से टूट चुका निम्न और मध्यम वर्ग को चीनी सामान के बहिष्कार के बहाने सादगी और स्वदेशी का सन्देश पहुंच रहा है, जो सामाजिक परिवर्तन को दिशा देगा। गांधीजी के 150वें जन्मवर्ष में शायद इसी बहाने से उन्हें श्रद्धांजलि दी जा सके।  
      जाति, धर्म, लिंग, वर्ण, भाषा, रंग, आदि का कोई भेद किये बिना सभी को समान नागरिकता देने वाली हमारी आदर्श संवैधानिक व्यवस्था में व्यक्तिवादी राजनीति के उभार ने देश के लोकतंत्र को बहुत नुकसान पहुँचाया है। दुखद है कि देश के बहुत सारे क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनीतिक दल व्यक्ति आधारित हैं व उन्होंने बहुत सारे छुटभैए राजनीतिक कार्यकर्ताओं में जल्दी विशिष्ट होने की बीमारी बो दी है। सिद्धांतविहीन राजनीतिक दलों के सदस्यों में ऐसे लोगों की संख्या समुचित है जो स्वयं को समाज में विशिष्ट बनाने के लिए ही दल की खास ‘वर्दी’ में दल के नेताओं के इर्दगिर्द मंडराते रहते हैं। न वे दल की घोषित नीतियों की जानकारी रखते हैं और न ही उसके घोषणापत्र की। सत्तारूढ दल के कार्यकर्ता सरकारी सुविधाएं हथियाने के लिए तो सरकारी अधिकारियों को प्रभावित करने के चक्कर में रहते हैं किंतु सरकार के विकास व निर्बल वर्ग के सशक्तिकरण कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के बारे में जानने समझने की कोई जरूरत नहीं समझते, जिससे जनता के हित में लायी गयी अच्छी अच्छी योजनाएं भी जनभागीदारी के अभाव में सफल नहीं हो पातीं।
वे किसी लाइन में लगना पसन्द नहीं करते, व अपने वाहनों पर नम्बर प्लेट की जगह अपने दल का नाम और दल में अपने पद का उल्लेख किये मिलते हैं, ताकि ट्रैफिक के नियमों का बिना पालन किये चल सकें। उन्हें सब कुछ अतिरिक्त और उस क्रम से पहले चाहिए होता है, जिसके वे पात्र हैं। सरकारी व अर्धसरकारी विभागों के गैस्ट हाउस, डाकबंगले, सरकिट हाउस, रैस्ट हाउस, फारेस्ट या पर्यटन विभाग के होटल आदि को वे अपनी ससुराल समझते हैं व मंत्रियों विधायकों के इशारों पर इनमें नियम विरुद्ध अतिथि बने रहते हैं। मुफ्तखोरी की यही आदत उन्हें सदैव ही उस दल में रहने को प्रेरित करती है, जो सत्ता में होता है, और सत्ता बदलते ही वे तुरंत दल ही नहीं अपितु अपना आका भी बदल लेते हैं।
      विशिष्टता के प्रदर्शन हेतु सुरक्षा गार्ड लेने के लिए लोग झूठे खतरे की कहानियां गढते हैं। स्मरणीय है कि अपना रुतबा बढाने के लिए बाबा भेष में रहने वाले आयुर्वैदिक दबाओं के व्यापारी ने दस वर्ष पूर्व अपने हेलीकाप्टर में एक नकली आतंकी को सुतली बम के साथ बैठा लिया था ताकि उन्हें ज़ेड सुरक्षा माँगने का आधार मिल सके। बाद में पुलिस की सख्त पूछताछ में वह व्यक्ति टूट गया था व उसने सबकुछ सच सच बता दिया था कि सच्ची कहानी क्या थी। ऐसी एक नहीं ढेरों किंवन्दतियां चर्चा में हैं। देश में पुलिस बल की बेहद कमी होने के बाद भी विशिष्ट होने के लिए बहुत सारे लोगों ने अनावश्यक रूप से गार्ड लिये हुये हैं। पिछले दिनों जब सुप्रीम कोर्ट ने अपात्रों को सुरक्षा गार्ड उपलब्ध कराने व पुलिस फोर्स की कमी के बहाने अपराधों पर अंकुश न लगाने पर फटकार लगायी थी तब यह बात सामने आयी थी कि लोगों के अहं को तुष्ट करने में आम आदमी के अधिकारों की कितनी उपेक्षा हो रही है।
      जिन सांसदों विधायकों को एक दिन के लिए भी सदन की सदस्यता लेने पर जीवन भर के लिए पैंशन और दीगर सुविधाएं उपलब्ध करायी जाती हैं, उन्हें उसके साथ साथ अपने उद्योग, व्यापार, मनोरंजन, और चिकित्सकीय या वकालत समेत अनेक आय अर्जित करने वाले काम करने की कोई मनाही नहीं है। यहाँ तक कि जो चुनावों के दौरान सदन में पहुँचने के लिए सारे वैध-अवैध तरीके अपनाते हैं वे ही चुने जाने के बाद अपने इन्हीं व्यवसायों में लिप्त रहते हुए सदन में कम से कम उपस्थित रहते हैं। पूर्व सांसद या विधायक होने की विशिष्टताके नाते वे ट्रैन की उच्च श्रेणी में एक व्यक्ति को साथ लेकर कितनी भी यात्राएं कर सकते हैं, व उनके लिए  आरक्षण का अतिरिक्त कोटा उपलब्ध रहता है। सरकारी डाकबंगलों, आदि में भी वे निःशुल्क या रियायती दरों पर प्राथामिकता पा सकते हैं। जिस संसद और विधानसभाओं में करोड़पति सदस्यों की संख्या बढती ही जा रही है उन सब को भूतपूर्व सदस्य होने के बाद भी पेंशन और विशेष सुविधाएं मिलना और उनमें निरंतर बढोत्तरी होते जाना चिंताजनक बात है। जब समाजिक रूप से पिछड़े वर्ग को नौकरियों में आरक्षण देने में क्रीमी लेयर का अवरोध लगाया जा सकता है तो करोड़पति सांसदों को आरक्षण और विशेष सुविधाएं देने के बारे में निजी आय की कोई सीमा क्यों तय नहीं की जा सकती। उल्लेखनीय है कि बहुत सारे अरबपति व्यापारी तो कुछ विशेष सुविधाओं और नियम विरुद्ध व्यापारिक लाभों के लिए ही दौलत के सहारे सदस्य बनकर सुपात्र उम्मीदवार को सदन में पहुँचने से वंचित कर देते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार देश के सभी बड़े उद्योगपतियों के प्रतिनिधि सदन में मौजूद हैं जो अपने चुने जाने के लिए चुनावों को विकृत करने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। इसी तरह विभिन्न गम्भीर अपराधों के आरोपी तो अपने अपने प्रकरणों को लम्बा खिंचवाने या गवाहों को बदलवाने या सबूतों को मिटाने के लिए ही सदन की सदस्यता लेना चाहते हैं। सदन के सदस्य बनने के बाद उसके कुछ वकील सदस्यों की आय में हुयी अकूत वृद्धि तो चौंकाने वाली है जो एक वेबसाइट ‘माईनेताडाटइंफो’ [myneta.info] पर देखी जा सकती है। स्मरणीय है कि गत वर्षों में लोकसभा प्रतिवर्ष औसतन 71 दिन बैठी जिसमें लोकसभा की कार्यवाही न चलने देने व वाक आउट वाले दिन भी सम्मलित हैं। इसके बाद भी वेतन और भत्ते उन्हें पूरे पूरे मिलते रहे हैं। अनेक राज्यों की विधान सभाओं में भी यह औसत 16 से 31 दिन का आता है। उल्लेखनीय है कि विधायिका के ये प्रतिनिधि कार्यपालिका के दैनिन्दिन कार्यों में निरंतर अनाधिकार हस्तक्षेप करने में लगे रहते हैं। पिछले दिनों ही मध्यप्रदेश के कुछ वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों को असमय स्थानांतरित करने का कारण यह बताया गया था कि वे जनप्रतिनिधियों को महत्व नहीं देते थे।          
      विशिष्टता केवल अधिकारों या सुविधाओं के मामले तक ही सीमित नहीं की जा सकती। जब हमने कुछ लोगों को विशिष्ट बना ही दिया है तो जिम्मेवारियों के बारे में भी उन्हें विशिष्ट बनाना चाहिए। एक विशिष्ट व्यक्ति यदि किसी अपराध में दोषी पाया जाता है तो उसे असाधारण दण्ड भी मिलना चाहिए। बहुत सारे मामलों में देखा गया है कि विशिष्ट व्यक्ति अपनी विशिष्टता व विशेष सम्पर्कों के प्रभाव में कानून के उपकरणों को प्रभावित करने में सफल हो जाता है और उसे कभी कभी बड़ी मुश्किल से ही बहुत लम्बे समय बाद सजा मिल पाती है। उनकी सजा इसलिए भी अधिक होना चाहिए क्योंकि जिस समय उन्हें जेल में होना चाहिए था वे विशेष सुविधाओं का लाभ ले रहे थे तथा जनता को गलत आदर्श देते हुए कार्यपालिका के कार्यों में अनुचित हस्तक्षेप कर रहे थे। जमानत देने के मामले में भी उनके विशेष प्रभाव के खतरे को अनुमानित कर के ही विचार किया जाना चाहिए। विशिष्ट व्यक्तियों के प्रकरणों के निबटारे के लिए फास्ट ट्रैक कोर्टों की कोई उपलब्धियां नहीं दिखतीं। महिलाओं के उत्पीड़न सम्बन्धी मामलों में आरोपों को झेल रहे जनप्रतिनिधियों के प्रकरणों को सबसे आगे रखना चाहिए। उन्हें टिकिट देने की सिफारिश करने वालों और मंत्रिपद देने वालों से भी पूछा जाना चाहिए कि क्या उनकी पार्टी के पास सम्बन्धित आरोपी को टिकिट देने का कोई विकल्प नहीं था और अगर था तो उन्होंने परोक्ष में आरोपी की मदद क्यों करना चाही?  
      संजय गान्धी की मृत्यु भी ऐसा ही एक हादसा था जो विशिष्टता के दंभ में उड़ान भरने [एवीयेशन] के नियमों और तय ड्रैस के खिलाफ पाजामा कुर्ता और चप्पल पहिन कर हवाई जहाज उड़ाने की कोशिश कर रहे थे। दूसरी ओर उरुग्वे के एक राष्ट्रपति थे  जोसे मुजिका.[पूरा नाम जोसे एल्बर्टो पेपे मुजिका कोर्डैनो] इन्हें दुनिया का सबसे गरीब राष्ट्रपति की संज्ञा दी गई है।  यह जिस तरह का जीवन जीते थे, वैसा जीवन कोई फकीर ही जी सकता था. जोसे मुजिका उरुग्वे के राष्ट्रपति भवन के बजाय अपने दो कमरे के मकान में रहते थे. सुरक्षा के नाम पर बस दो पुलिसकर्मी की सेवा लेते थे. सामान्य लोगों की तरह कुएं से पानी भरते और अपने कपड़े खुद धोते थे. वो अपनी पत्नी के साथ मिलकर फूलों की खेती करते ताकि कुछ एक्स्ट्रा आमदनी हो सके. खेती के लिए ट्रैक्टर खुद चलाते और इसके खराब होने पर खुद ही मैकेनिक की भांति ठीक भी करते थे। कोई नौकर-चाकर अपनी सेवा के लिए नहीं रखते थे. अपनी बहुत पुरानी फॉक्सवैगन बीटल गाड़ी को खुद चलाकर ऑफिस जाते थे. बस ऑफिस जाते समय वह कोट-पैंट पहनते थे। एक देश के राष्ट्रपति को जो भी सुविधाएं मिलनी चाहिए, इन्हें वो सारी सुविधाएं दी गई थीं. पर इन्होंने इन सुविधाओं को लेने से इनकार कर दिया. वेतन के तौर पर इन्हें मिलता था हर महीने 13300 डॉलर जिसमें से 12000 डॉलर गरीबों को दान दे देते थे. बाकी बचे 1300 डॉलर में से 775 डॉलर छोटे कारोबारियों को देते थे. अगर आपको कहीं से भी ऐसा लगता है कि शायद उरुग्वे एक गरीब देश है, इसीलिए यहां का राष्ट्रपति भी गरीब था, तो यह आपका भ्रम है. उरुग्वे में प्रति माह प्रति व्यक्ति की औसत आय 50000 रुपये है।
देखना होगा कि गान्धी की मूर्तियां लगाने व सड़कों के नाम गान्धीमार्ग रखने के अलावा हमारे सूट पर सूट व गाड़ियों पर गाड़ियां बदलने वाले राजनेता स्वदेशी और सादगी के लिए क्या करते हैं।  
वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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शुक्रवार, जून 19, 2020

उपन्यास विधा में व्यंग्य के जनक श्रीलाल शुक्ल और बुन्देलखण्ड


उपन्यास विधा में व्यंग्य के जनक श्रीलाल शुक्ल और बुन्देलखण्ड
राग दरबारी' पढ़कर याद आती आपबीती ...वीरेन्द्र जैन
यह बहुमत से मान ही लिया गया है कि कथा कविता, निबन्ध, नाटक, उपन्यास आदि की तरह व्यंग्य कोई अलग विधा नहीं है और वह किसी भी विधा में अपनी उपस्थिति बता सकता है। परसाई जी ने उसे एक स्प्रिट कहा है। ज्यादातर व्यंग्य निबन्ध विधा में लिखे गये हैं जो पहले गम्भीर लेखन के लिए जानी जाने वाली विधा रही है इसलिए व्यंग्यात्मक निबन्धों को अलग विधा होने का भ्रम उत्पन्न हुआ। तभी श्रीलाल शुक्ल जी ने उपन्यास में व्यंग्य लिख कर जो धमाका किया उसने यह साबित कर दिया कि व्यंग्य अलग विधा नहीं है और वह किसी भी विधा में पाया जा सकता है।
शुक्लजी का ‘राग दरबारी’ एक ऐसा यथार्थवादी उपन्यास में जिसमें तीन सौ तीस से अधिक पृष्ठों तक कथा के साथ साथ व्यंग्य चलता रहता है। न कहीं कथा कमजोर पड़ती है और ना ही व्यंग्य। एक समझौते के बाद मिली आज़ादी के बाद जो व्यवस्था विकसित हुयी उसमें भले ही साम्प्रदायिकता के कारण जनित विभाजन में हिंसा घटित हुयी हो किंतु सत्ता अहिंसक तरीके से स्थानांतरित हुयी। इसका परिणाम यह हुआ कि देश संविधान से कम अपितु लचीला संविधान देश के हिसाब से चलने लगा। राज परिवारों की विशिष्टता और उनके प्रति भक्ति बनी रही व जातिवाद समेत सारी बुराइयां यथावत रहीं साथ ही नई बुराइयां भी पैदा होती रहीं। पदों के नाम जरूर बदल गये किंतु चरित्र नहीं बदले। और उपन्यास लेखन के काल छठे दशक तक तो गाँवों में बिल्कुल भी नहीं बदले। इस उपन्यास में आजादी के बाद स्थापित व्यवस्था का पुरानी बुराइयों से घालमेल का चित्रण है।
1968 में प्रकाशित इस उपन्यास की समीक्षा मैंने 1969 की कादम्बिनी के किसी अंक में पढी थी जिसके दो वाक्य तो मन में गड़ से गये थे। एक कि ‘ट्रक आता देख कर उसकी बांछें खिल गयीं, अब ये शरीर में जहाँ कहीं भी होती हों’ और दूसरा ‘ कुछ घूरे, घूरे से भी बदतर’। उसी समय यह तय कर लिया था कि यह उपन्यास जरूर पढूंगा। दतिया जैसे नगर के किसी पुस्तकालय में नई किताबें मंगाने का बजट नहीं होता था और किसी बड़े नगर जाकर सजिल्द किताबें खरीदने का बजट हमारे पास नहीं होता था। याद नहीं कि यह किताब कैसे कब पढने को मिली किंतु इस बीच में इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल गया और किताब की मोटाई से ज्यादा उसकी प्रशंसा पढ सुन चुका था। 2008 में जब इस किताब के प्रकाशन के पचासवें वर्ष के आयोजन हुए तब याद आया कि प्रकाशन के बाद इस किताब का हर वर्ष एक नया संस्करण आता रहा है, और इस पर सीरियल भी बन चुका है।
रागदरबारी से मेरा एक नाता और भी रहा है कि इस उपन्यास में वर्णित जन जीवन बुन्देलखण्ड से उठाया गया है, और उसके सभी चरित्र बहुत साफ साफ समझ में आ जाते हैं। बुन्देलखण्ड के स्वभाव में ही धारदार व्यंग्य बसा हुआ है, परसाईजी इसी की उपज हैं। रगदरबारी के बारे में श्रीलाल जी ने बताया था कि वे कभी उत्तर प्रदेश के राठ नामक कस्बे में एसडीएम थे और उसी दौरान उन्होंने जो नोट्स लिये थे उसी आधार पर पूरा उपन्यास रचा गया है। राठ के पास एक कस्बा था हरपालपुर जो आबादी में तो छोटा था किंतु उसकी एक विशेषता थी कि वह झांसी मानिकपुर लाइन का रेलवे स्टेशन था जो राठ, छतरपुर, नौगाँव खजुराहो, के लोगों के लिए भी रेलवे की सुविधाएं देने का काम करता था, क्योंकि उस समय नदियों पर पुल नहीं होने के कारण सारा दारोमदार इसी स्टेशन पर था। यह राठ की सीमा के इतने निकट था कि रेल की एक लाइन हरपालपुर [मध्यप्रदेश] में आती थी और दूसरी राठ [उत्तर प्रदेश] की सीमा में। एक बड़े क्षेत्र की फसल उत्पाद को यहीं से रेल वैगनों द्वारा बाहर भेजा जाता था इसलिए एक सम्पन्न गल्ला मंडी थी। बैंक था, एक आइल मिल था और एक सुगर मिल भी था। जब जवाहरलाल नेहरू 1958 में पहली बार खजुराहो आये थे तो उन्हें भी हरपालपुर ही उतरना पड़ा था क्योंकि तब खजुराहो में हवाई अड्डा नहीं बना था। तब तक खजुराहो के मन्दिर संरक्षित भी नहीं थे और विनोबा भावे जैसे लोग इन मूर्तियों पर फट्टी लटका कर छुपा देने वाले बयान दे चुके थे। नेहरू जी की इस यात्रा के बाद ही खजुराहो विश्व पर्यटन की दिशा मॆ अग्रसर हो सका और संरक्षित होकर इसकी मूर्तियों की चोरी रुक सकी। राठ के पास ही अपनी लाठी से फैसला करवाने वाला महोबा और बाँदा जिला है जो राठ को प्रभावित करता है। कहा जाता है कि लम्बे अर्से तक अवैध हथियार बनाने के गृह उद्योग वहाँ से संचालित रहे हैं। दतिया में पढाई के दौरान मुझ से कुछ वर्ष जूनियर एक लड़का राजू भटनागर, जिसने बाद में डकैती में बड़ा नाम कमाया, इसी राठ का रहने वाला था।
इसी हरपालपुर में मुझे लगभग आठ साल गुजारने पड़े। मेरे पिता की नौकरी के अंतिम दो वर्षों में उनका ट्रांसफर दतिया से हरपालपुर हो गया था व एक साल मैंने पढाई छोड़ दी थी इसलिए आवारगी के दिन हरपालपुर में काटे. फिर मेरी नौकरी भी यहीं बैंक में लगी और लगभग पाँच साल यहाँ बाबूगीरी की। उसके लगभग दस साल बाद यहीं बैंक मैनेजर होकर आया और तीन साल से अधिक काटे। कुल मिला कर कहने का आशय यह है कि राग दरबारी जैसे हर चरित्र को उसी दौर में मैंने भी निकट से देखा जिस आधार पर एक और राग दरबारी रचा जा सकता है।
वैसे ही वैद्यजी, वैसे ही रुप्पन, बद्री, शनीचर, लंगड़, यहाँ तक कि रंगनाथ और बेला तक सब के सब किसी न किसी दूसरे नाम से यहाँ मिल सकते हैं। घनघोर उमस और गर्मी में किसी वैद्य की दालान में रोजगारहीन शनीचर अंडरवियर की बत्तियां बनाते देखे जा सकते हैं। अगर रागदरबारी का यह प्रसंग आपको समझ में नहीं आया हो तो बता दूं कि अनेक लोग पट्टे के ढीले अन्डरवियर और जेबदार बंडी पहिने रहते थे और खाली समय की बेचैनी में उसी अंडरवियर को दिये की बत्ती बनाने के अन्दाज में जांघ पर से ऊपर की ओर मोड़ते और फिर उन बत्तियों को खोलते रहते हैं। यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसे तामिलनाडु के लोग कुछ कुछ समय के बाद अपनी लुंगी को ऊपर चढा लेते हैं और फिर नीचे कर लेते हैं।
रागदरबारी में पढने से पहले ही मैंने हरपालपुर में उर्फ की भाषा सुन और सीख ली थी। यहाँ भी यह प्रेमी प्रेमिकाओं की गुप्त भाषा थी, जिसे युवा लोग आपस मे बोल कर गुप्तवार्तालाप भी कर लेते थे और मजे भी ले लेते थे। युवाओं को छत पर ‘तीतर लड़ाने की मुद्रा’ में बैठे हुए देखा है और छतों छतों दूसरे के घरों में लांघते हुए भी देखा है। दूसरे के घरों की महिलाओं का चरित्र हनन करना लोगों के शगल में शामिल था। मेरे निवास की बालकनी ऐसी थी जिसमें से सड़क के एक छोर से दूसरे छोर तक के मकान दिखते थे। एक बार उसी सड़क पर रहने वाले एक ‘सज्जन’ फुरसत के क्षणों में सड़क के प्रत्येक घर के महिला पुरुषों के चरित्र का रंगीन इतिहास बता रहे थे। उन्होंने अपना घर छोड़ कर सभी घरों के बारे में रस ले ले कर यह तक बता दिया कि फलां के लड़के की शक्ल किससे मिलती है। मुझे इस कथा वार्ता में इसलिए आनन्द आया क्योंकि मेरी बालकनी से उन सज्जन का घर भी दिखता था जिसमें घटित घटनाओं का मैं प्रत्यक्षदर्शी था।
आजादी के पच्चीस वर्ष बाद भी यहाँ ब्राम्हणों, ठाकुरों और दूसरी जातियों के बीच वही अंतर रहा। दलितों को कुछ आर्थिक सुविधाएं तो मिलती गयीं किंतु सवर्णों की सुविधाओं, और पदों व सम्पत्ति में कोई कमी नहीं आयी। जातियों में भेद बराबर बना रहा। कुछ बड़ी जमीनों के मालिक थे जिनके साथ साथ बरछी लिए हुए गार्ड चलते थे जिन्हें साना कहा जाता था। यहीं से प्रेरणा लेकर मैंने एक व्यंग्य कथा लिखी थी ‘थानेदार की लड़की’।  प्राइवेट स्कूलों और सोसाइटियों का भी लगभग वही हाल था जैसा कि रागदरबारी में वर्णित है। रागदरबारी में चक्की चलाने की तरह ही स्कूलों के मास्टर इस तरह दूसरे धन्धे करते रहते थे कि अध्यापन उनका साइड बिजनेस माना जा सकता है।
हरपालपुर के बारे में इतना ज्यादा लिखने पर भी मैं कह सकता हूं कि कम लिखा है और औसत निकाल कर कहना चाह्ता हूं कि इसके पीछे यह बताने का भाव है कि ‘शिवपाल गंज’ मुझे दूसरे नगरों में पैदा हो कर बड़े होने वालों की तुलना में अधिक साफ साफ दिखायी दिया है। जब इसका पेपर बैक संस्करण आया जो कुल जमा चालीस रुपये का था तब से मैंने उपहार देने के अवसर पर इसे ही सर्वश्रेष्ठ पाया।
मैं पुस्तकों के विमोचन को प्रमोशन ही मानता रहा हूं और उसमें कोई विश्वास नहीं रहा। इसका मजाक उड़ाते हुए मैंने एक व्यंग्य लिखा था ‘विमोचन तो कराना है’। किंतु जब मेरी व्यंग्य की दूसरी किताब आयी उसी समय अट्टहास लखनऊ का वार्षिक कार्यक्रम था। श्रीलाल शुक्ल के हाथों अपनी पुस्तक का विमोचन कराने का लालच में नहीं छोड़ सका। मैंने अट्टहास कार्यक्रम के सबकुछ अनूप श्रीवास्तव को फोन किया कि अगर श्रीलाल जी कार्यक्रम में होंगे तो मैं आना चाहता हूं। अनूप मेरे पुराने मित्रों में से हैं और उसी मित्रता के अन्दाज में उन्होंने कहा कि आ जाओ, तुम्हें कौन रोकता है। श्रीलाल जी वैसे ही प्रशासनिक अधिकारी थे और रागदरबारी को गोदान व मैला आंचल के बाद ग्राम्य जीवन पर लिखी गयी श्रेष्ठकृति बताये जाने के कारण उनसे सम्मानजनक  दूरी सी बनी रही। यह तो बाद में पता चला कि वे बहुत सहज व्यक्ति थे। मैं गया और किताब ‘हम्माम के बाहर भी’ का विमोचन श्रीलाल जी के हाथों हुआ। पता नहीं कि यह संयोग था या प्रयोग था कि विमोचन उसी समय हुआ जब लखनऊ की पूरी प्रैस गोष्ठी में आये हुए किसी वरिष्ठ साहित्यकार की बाइट ले रही थी सो उसका कोई फोटो संरक्षित नहीं है। गनीमत रही कि समाचार पत्रों की खबरों में यह खबर दर्ज रही। अगले दिन में प्रेम जनमेजय के साथ उनके निवास पर धन्यवाद देने भी गया और किताब को पढ कर प्रतिक्रिया देने का आग्रह भी किया। बाद में पत्र से पूछने पर उन्होंने लिखा कि मैंने पढी तो थी किंतु लिखने का ध्यान नहीं रहा। किताबें पढ कर में एक लाइब्रेरी को दे देता हूं। मेरे लिए यह पत्र ही बड़ी बात थी, सो उसी से संतोष कर लिया।
उनकी मयनोशी के किस्से भी दूसरे बड़े साहित्यकारों की तरह सुने थे जिसमें से एक श्री से रा यात्री जी ने सुनाया था। इमरजैंसी में अन्य प्रतिबन्धों के अलावा शराब बन्दी भी की गयी थी। शुक्ल जी उस समय उत्तर प्रदेश के गृह सचिव थे, जब यात्रीजी पहुंचे तो उन्होंने उनके स्वागत में बोतल खोली और बोले यार ये परदे तो डाल दो आखिर मैं इस प्रदेश का गृह सचिव हूं। वे सरल और सादगी पसन्द थे और हिन्दी व्यंग्य के शीर्ष स्तम्भ होते हुए भी खुद को उपन्यासकार ही मानते रहे। वे कहते थे कि ‘रागदरबारी’ को भले ही कालजयी पहचान मिली हो किंतु में अपने उपन्यास ‘ मकान ‘ से अधिक संतुष्ट हूं। जनवादी लेखक संघ के जयपुर में आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में जब उनको मुख्य अतिथि बनाया गया था तब इस चयन से असंतुष्ट वेणुगोपाल से मेरी असहमति थी, जिसे संतुष्टि में बदलने की बहस के बाद में खुश था। मेरे अनेक मित्र उन्हें श्रीलाल शुक्ल की जगह रागदरबारी ही कहते थे।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629


  

शुक्रवार, जून 12, 2020

रवीन्द्रनाथ त्यागी हिन्दी व्यंग्य के चतुर्थ स्तम्भ


रवीन्द्रनाथ त्यागी हिन्दी व्यंग्य के चतुर्थ स्तम्भ


वीरेन्द्र जैनरवीन्द्रनाथ त्यागी: 'जिसने देखा नहीं ...
आजादी के बाद जो हिन्दी व्यंग्य लिखा गया, उसके बारे में परसाई जी ने कहा कि साहित्य की दुनिया में जो व्यंग्य पहले शूद्र समझा जाता था अब उसकी जाति बदल गयी है और वह ठाकुर की श्रेणी में आ गया है। हिन्दी व्यंग्य की जाति बदलने के पचास साल में जिन लोगों के कारण यह घटना सम्भव हुयी उसमें प्रमुख रूप से चार लोगों का योगदान माना जाता है। वे हैं, हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, और रवीन्द्रनाथ त्यागी। इनमें परसाईजी और शरद जोशी तो कलमजीवी रहे हैं [भले ही इन्होंने भी छोटी मोटी सरकारी नौकरी कर के देखी है] , पर बाद में वे जीवन भर पूर्णकालिक लेखक रहे।  इसके विपरीत अपने लेखन काल में श्रीलाल शुक्ल और रवीन्द्रनाथ त्यागी दोनों ही अफसर रहे हैं।  श्रीलाल जी ने अपनी अफसरी के दौरान ही गहराई से लोक को देखा और उसका यथार्थ चित्रण कर रागदरबारी जैसी कालजयी कृति दी।
      त्यागी जी ने बचपन में भयंकर गरीबी देखी थी और संघर्ष से अपना स्थान प्राप्त किया। इस जीवन संघर्ष में उन्होंने जो खोया उसने उन्हें त्यागी से वैरागी बना दिया था। उन्होंने अपने पिता के भाई बन्धुओं की बेईमानियों व गैर जिम्मेवार, गुस्सैल, व आलसी पिता  की लापरवाही देखी। परिणाम स्वरूप पूरे परिवार का बेघर होना और इस सब से जनित जो दारुण गरीबी मिली उसका चित्रण अपने आत्मकथात्मक उपन्यास ‘अपूर्ण कथा’ में साफ साफ किया है। पिता भागकर ससुराल  के कच्चे मकान में आ गये थे। इस समय उनकी दो बड़ी बहिनें साथ थीं, व एक का विवाह हो चुका था। इस गरीबी में भी उनके कई बच्चे पैदा हुये जो अर्थाभाव के कारण जिन्दा नहीं बच सके थे व कफन के रूप में भी उन्हें कोई पुराना कपड़ा ही नसीब होता था। पिता ने घर के जेवर और बर्तन धीरे धीरे बेच दिये थे। वे उधार लेने के भी आदी थे, उसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। ऐसी भी दिवाली गुजरी थी जब मिठाई तो क्या घर में एक भी दिया नहीं जला था। आये दिन भूखे रहने की नौबत आती थी। पिता वैसे तो लाहौर में पढे हुये डाक्टर थे जहाँ उन्होंने साहित्य भी पढा था किंतु आलसी और गुस्सैल होने के कारण प्रैक्टिस नहीं चलती थी। त्यागीजी ने उनके लिए अकर्मण्य, स्वार्थी, निर्दयी, क्रूर और बेईमान जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है। वे उधार न चुकाने के कारण वसूली वालों से भी अपमानित होते रहते थे। त्यागीजी ने जो चित्रण किया है वह रोंगटे खड़े कर देने वाला है, बहिन की शादी एक ऐसे उम्रदराज अमीर से करना जिसकी दो पत्नियां पहले से ही मर चुकी हों, फिर उसकी बीमारी जिसमें उसके पति ने मायके भेज दिया हो और इलाज के लिए जो खर्चा वह भेजता था उससे इनके घर का खर्च चलना आदि। किसी तरह वे पड़ोसियों आदि की मदद से बिना फीस वाले संस्कृत स्कूल जाने लगे थे। कुछ स्कूल अध्यापकों और पड़ोसियों की मदद से उन्हें सीधे आठवी कक्षा में प्रवेश मिल गया। बाद में उनकी प्रतिभा के कारण उन्हें बजीफा मिलने लगा था जिससे घर का खर्च चलता था। वे पढने में तेज थे जिससे हाईस्कूल में प्रदेश में मेरिट में बाइसवें नम्बर पर आये। गरीबी के कारण मजबूरन किसी कस्बे के कालेज में प्रवेश लेना पड़ा जहाँ ट्यूशन करके व अधपेट रह कर उन्होंने पढाई की। इंटरमीडिएट में वे मेरिट में सातवें नम्बर पर आये, अतः अपने अध्यापकों की सलाह और सहयोग से उनके पत्र लेकर वे प्रयाग विश्व विद्यालय में प्रवेश लेने चले गये। उनकी इस पढाई के लिए उनकी मां और बहिन ने सूत कात कात कर पैसे जुटाये थे।
मुफ्त के संस्कृत स्कूल में पढने और घर में उनके पिता द्वारा संकलित संस्कृत साहित्य ने उन्हें विशिष्टता दिलायी। प्रयाग में उनके सहपाठी दुष्यंत कुमार, कमलेश्वर, रामावतार चेतन, रमेश कुंतल मेघ आदि रहे। यह वही समय था जब हिन्दी उर्दू साहित्य के दिग्गज निराला, पंत, पदुमलाल पन्नालाल बख्शी, महादेवी वर्मा, अश्क, धर्मवीर भारती, फिराक, बच्चन, और जगदीश गुप्त वहां होते थे। वाचस्पति पाठक, प्रकाश चन्द गुप्त, अमृत राय, सुरेन्द्रपाल जैसे लोगों ने उन्हें प्रोत्साहन दिया।
त्यागी जी के गद्य लेखन में व्यंग्य की जो बुनावट रहती है उसका एक उदाहरण देखें जो उन्होंने अपने साहित्यिक योगदान के बारे में बताते हुए कहा। वे कहते हैं कि मैं मूलतः कवि ही रहा। आषाड़ के मेघ, भाद्रपद की सांझ,शरद की पूर्णिमा, पलाश के दहकते फूल और सुन्दर कम उम्र लड़कियों के होंठ मुझे भयानक परेशानियों में भी हमेशा अपनी ओर आकृष्ट करते रहे। व्यंग्य और हास्य का लिखना तो महज एक इत्तफाक ही रहा जिसका सारा श्रेय सम्पादकों को जाता है जिन्होंने कविताएं नहीं छापीं। ‘उनको दुआएं दो मुझे कातिल बना दिया’।   
जिस पराग प्रकाशन ने मेरा पहला व्यंग्य संग्रह छापा था, उसी ने उन दिनों कमल किशोर गोयनका के सम्पादन में ‘रवीन्द्रनाथ त्यागी की प्रतिनिधि रचनाएं’ नाम से एक संकलन छापा था जिसमें न केवल उनकी कविताएं थीं अपितु व्यंग्य, लेख, समीक्षाएं, साक्षात्कार, आत्म रचना आदि भी थे। सन्दर्भ आ गया तो बता ही दूं कि जिस समय मेरी पुस्तक आयी थी उसी समय उसी प्रकाशन से अभिनेत्री दीप्ति नवल की भी कविता की किताब आयी थी, और रायल्टी के लिए कहने पर प्रकाशक कहता था हमलोग पहले अपनी लागत निकालते हैं; देखिए आपकी पुस्तक अभी रायल्टी देने लायक नहीं बिकी है, जबकि दीप्ति जी की किताब तो खत्म भी हो गयी। सो रायल्टी की जगह सावधानी की दृष्टि से हम उसके प्रकाशन की किताबे लें आते थे। रवीन्द्रनाथ त्यागी की उक्त किताब भी मैं इसी योजना के अंतर्गत 25% कमीशन पर ले आया था। इसी में उनके आत्मकथात्मक उपन्यास अपूर्ण कथा का पहला भाग छपा था। त्यागी जी ने अपनी आत्मकथा का दूसरा भाग भी लिखा था जो लोगों के सामने नहीं आ पाया। वह मुझे पेपरबैक में देखने को मिला था। इसमें उनके जीवन के दुखों से आगे की कथा मौजूद थी।
त्यागी जी गुदगुदा कर ज्ञान देने वाले लेखकों में रहे हैं इसलिए पसन्दीदा लेखकों में शामिल थे। कुछ उनके आत्मकथात्मक उपन्यास ‘अपूर्ण कथा’ व ‘आत्मकथ्य गर्दिश के दिन’ का प्रभाव और कुछ यहाँ वहाँ से मिली जानकारियों से मेरे दिमाग में जो कथा बनी वह यह थी कि “ जब वे प्रयाग पहुंचे तो उन्हें एक और कृपालु मिल गये। उन्होंने इस प्रतिभावान युवा को न केवल अपने घर में शरण दी अपितु उनकी पढाई का खर्च उठाना भी मंजूर कर लिया। उनकी प्रतिभा ने विश्व विद्यालय में भी अपना असर दिखाया और धर्मवीर भारती तक उनके मुरीद हो गये व अपनी साहित्यिक संस्था परिमल में शामिल किया। इसी दौरान उन्हें अपनी सहपाठी से प्रेम हुआ और बात शिक्षा व नौकरी के बाद शादी के वादे तक पहुंची। किंतु इसी समय जिन सज्जन ने उन्हें अभिभावक की तरह मदद दी थी उनके मन में कुछ दूसरा ही सपना पल रहा था। उन्होंने अपनी भांजी का विवाह उनके साथ करने का तय कर रखा था। उपकृत त्यागीजी को उनका फैसला मानना पड़ा। संवेदनशील त्यागी जी के मन पर इसका गहरा आघात लगा।  अपनी शैक्षणिक योग्यता व प्रतिभाके कारण यूपी पीएससी परीक्षा उत्तीर्ण की व 1955 में इंडियन डिफेंस सर्विस एकाउंट ज्वाइन की। बड़े पद पर नौकरी मिली किंतु वे डिप्रैशन के शिकार हो जाते थे। जब 1979-80 में मैं गाजियाबाद में पदस्थ था तब मेरे आफिस नवयुग मार्केट के बगल में एक फाइनेंस कम्पनी का कार्यालय था जिसके मैनेजर मिस्टर मलिक कभी डिफेंस में त्यागी जी के साथ काम करते थे। उन्होंने भी त्यागी जी की अस्वस्थता और उसके सुने हुए कारणों के बारे में बताया था।“  [ यह बाद में पता चला कि यह कहानी सच नहीं थी]
2004 में उनका निधन हुआ और उसकी खबर भी साहित्य जगत को उनके निधन से दो दिन बाद लगी। तब तक किसी अखबार में खबर नहीं छपी थी। वे फौज के उस एकाउंट्स विभाग के बड़े अफसर के रूप में सेवानिवृत हुये थे जो पूरे पश्चिम कमांड के फौजियों के वेतन पेंशन और एकाउंट के निरीक्षण का काम देखता था। मेरी उनसे कभी आमने सामने मुलाकात नहीं हुयी किंतु ज्ञान चतुर्वेदी के एक लेख से उनकी अफसरी की भव्यता का अनुमान किया जा सकता है। वे लिखते हैं कि वे जब देहरादून उनसे मिलने गये थे तो दो तीन फर्लांग पहले तो गाड़ी छोड़ना पड़ी थी और प्रवेश से पहले गार्ड ने परमीशन के लिए जो फोन किया था उसमें कहा था कि कोई “चतूरवेदी जी” आये हैं, और खुद को आपका फिरेंड बता रहे हैं।
मैं उन दिनों समाचार पत्रों में नियमित लेखन कर रहा था इसलिए न केवल साहित्यिक पत्रकारिता के रूप में अपितु अपने उस लेखक पर जिसे खूब पढता और निर्मल हास्य के लिए भरपूर पसन्द करता रहा हूं, श्रद्धांजलि लेख लिखना जरूरी था। उनका जीवन संघर्ष और उसके बारे में उनकी स्पष्टवादिता भी मुझे बहुत प्रभावित करती रही है। अपने गर्दिश के दिनों को बिना अतिरंजना के साफ साफ लिख देने वाला कोई छद्म नहीं ओढ सकता। त्यागीजी का यह पक्ष मुझे सदैव आकर्षित करता रहा है। असल में उनका व्यंग्य भी उस सच को कह देने से पैदा होता है, जिसे लोग छुपाते हैं।   
यहीं से कहानी शुरू होती है। मैंने लोकमत समाचार नागपुर और नई दुनिया के भोपाल संस्करण “राज्य की नई दुनिया’ में तुरंत श्रद्धांजलि लेख लिख दिया। इसी समय भोपाल से प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका अक्षरा ने डा. ज्ञान चतुर्वेदी से आग्रह किया कि त्यागी जी पर एक विशेषांक का सम्पादन करें, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। उन्होंने मुझे फोन कर के पूछा कि क्या तुम्हारा प्रकाशित लेख शामिल कर लें, तो मैंने खुशी जाहिर की। विशेषांक निकला और उसमें लेख सम्मलित हुआ। लेख में त्यागी जी की वह कथा लिख दी गयी जिसकी धारणा मैं ऊपर बताये अनुसार बना चुका था और जिसमें दबाव में किये गये विवाह को डिप्रैशन का कारण बताया गया था। भ्रम में उनकी पत्नी को उन पर अहसान करने वालों का पिता भी लिख दिया गया था जबकि वे उनके मामा या चाचा होते थे।
पत्रिका श्रीमती त्यागी तक भी पहुंची और स्वाभाविक रूप से उन्हें बुरा लगा। जो लगना ही चाहिए था। उन्होंने प्रेम जनमेजय, हरीश नवल और डा. ज्ञान चतुर्वेदी से बात की। हिन्दी व्यंग्य की अगली पीढी के इन तीनों प्रमुख लोगों ने अपूर्ण कथा के दूसरे भाग के प्रकाशित होने व मेरी कहानी से अनभिज्ञता व्यक्त की। मेरे पास भी अपूर्ण कथा भाग दो के प्रकाशित होने का कोई प्रमाण नहीं था पर ये विश्वास था कि ये मेरी कपोल कल्पना नहीं, भले ही गलतफहमी कुछ भी रही हो।  
श्रीमती त्यागी ने अपनी नाराजी व्यक्त करते हुए पत्रिका को निम्नांकित पत्र लिखा-
माननीय सम्पादक जी व श्री ज्ञान जी,
अक्षरा अभी शाम को मिली। फौरन पूरी की पूरी पढ कर ही रात को सोई। इतनी शानदार छपी है कि वास्तव में यादगार अंक है। सबके संस्मरण बहुत ही अच्छे हैं। मेरे पास आपको धन्यवाद देने के लिए शब्द नहीं हैं।
पर अब शिकायत की बात है। श्री वीरेन्द्र जैन का लेख जो पृष्ठ एक सौ साठ पर छपा है, उसमें पृष्ठ की अंतिम सात आठ पंक्तियां इतनी गलत व भ्रामक तथा चरित्र हनन करने वाली हैं कि मुझे बेहद दुख व क्रोध हुआ। सारे तथ्य वीरेन्द्र जी ने इतने तोड़ मरोड़ कर व न जाने कैसे लिख दियेहैं। [अ] पहली बात तो यह है कि त्यागी जी इतने दृढ प्रतिज्ञ व सच्चे आदमी थे कि यदि उन्होंने कभी किसी से शादी की बात तय की होती तो वे कभी भी पीछे हटने वाले नहीं थे। [ब] त्यागी जी ने कभी किसी का आश्रय नहीं लिया और वह अपने ही बल बूते पर प्रयाग गये और शिक्षा प्राप्त की। अतः किसी का भी प्रतिदान मांगने का प्रश्न ही नहीं था। [स] शायद वीरेन्द्र जी को मालूम ही नहीं है कि हम दोनों की सगाई पूरे साढे चार वर्ष पहिले ही हो चुकी थी। [द] त्यागी जी को डिप्रेशन विवाह के पूरे पन्द्रह वर्ष बाद हुआ ना कि वीरेन्द्र जी के लिखे हुए कारणों से। [घ] त्यागी जी को प्रयाग विश्वविद्यालय में लेक्चरर का पद नहीं मिला था क्योंकि उस समय के विभागाध्यक्ष व त्यागीजी के विचार नहीं मिलते थे। उन्होंने किसी मजबूरी में फौज के दफ्तर में एकाउंट्स आफीसर की सविस नहीं ज्वाइन की थी अपितु यूपी पीएससी के सिविल सर्विसेज की परीक्षा में बैठे तथा उसमें चुन लिये गये व 1955 में इंडियन डिफेंस एकांउट्स सर्विस ज्वाइन की थी जो कि देश की सर्वोच्च सेवाओं में से एक है।
अब मेरा अनुरोध है कि निम्न गलत तथ्य के बारे में इसे सही करवाइए- पृष्ठ 160 अंतिम छह सात लाइन हैं – ऐसे में उनकी प्रतिभा देख कर किसी ने उन्हें सहारा दिया अपने घर में रखा और पढाया लिखाया। पर वह व्यक्ति अपनी इस कृपा का प्रतिदान चाहता था। इस बीच इस युवा प्रतिभा का एक लड़की से प्रेम हो जाता है और अपने पैरों पर खड़े होकर शादी की बात भी तय हो जाती है किंतु जिसने उसे आश्रय दिया था उसने कुछ और ही सोच रखा था। प्रोफेसर बनने की इच्छा रखने वाले रवीन्द्रनाथ त्यागी को फौज के दफ्तर में एकाउंट आफीसर बनना पड़ा और आश्रयदाता की लड़की से शादी करने को विवश होना पड़ा। दिल और दिमाग पर इस अघात से वे डिप्रेशन के शिकार हो गये और बहुत दिनों तक उनको मानसिक चिकित्सक की देख रेख में रहना पड़ा।‘
श्री वीरेन्द्र जी लिखित में मुझ से क्षमा मांगें तथा पत्रिका के अगले अंक में सुधार छापें।
कष्ट के लिए क्षमाप्रार्थी हूं पर वास्तव में मैं इतनी आहत हूं कि अपने को रोक नहीं पाई। अपूर्ण कथा आत्मकथात्मक उपन्यास है शतप्रतिशत आत्मकथा नहीं, और उसमें भी उन्होंने ठीक से पढा नहीं। कुछ पढा और कुछ समझा है।
                                                      शुभाकांक्षी
                                                      शारदा त्यागी 
मेरा कोई इरादा त्यागी जी का चरित्र हनन या श्रीमती त्यागी को भावनात्मक ठेस पहुंचाना नहीं था इसलिए मैंने तुरंत निम्नांकित खेद पत्र लिख कर पत्रिका को भेज दिया जिसने दोनों पत्रों को अपने नोट के साथ अगले अंक में छाप दिया।
आदरणीया शारदा जी
      सादर अभिवादन
प्रस्तुत लेख गत तीस वर्षों में अपने प्रिय लेखक के सम्बन्ध में पढी सुनी गयी जानकारी पर आधारित श्रद्धांजलि और अपने समय की निर्ममता को पहचानने की दृष्टि से लिखा गया था।
यद्यपि मेरे द्वारा हुयी तथ्यात्मक त्रुटि मुझे मिली गलत सूचनाओं और निष्कर्षों पर आधारित है जिसके लिए मैं ह्रदय से दुखी और क्षमा प्रार्थी हूं तथा चाहता हूं कि मेरी यह क्षमा याचना, सम्बन्धित पत्रिका समेत अधिकतम माध्यमों में सार्वजनिक हो। उनके लघु उपन्यास अपूर्ण कथा पर नफीस आफरीदी की टिप्पणी [प्रतिनिधि रचनाएं पृष्ठ 336] तथा हिन्द पाकेट बुक में  अपूर्ण कथा में से याद रह गये अंश तथा त्यागी जी के दफ्तर में कार्यरत एक कोई मलिक नामक स्टाफ [जो बाद में [1979 में] गाजियाबाद के नवयुग मार्केट की किसी प्राईवेट फर्म में प्रबन्धक थे जो मेरी बैंक शाखा के निकट थी] से हुयी बातचीत के आधार पर निकाले निष्कर्षों के कारण यह भूल हुयी है। पर भूल निश्चित रूप से मेरी है जो मेरे ऊपर अधिक विश्वास होने के कारण ज्ञान चतुर्वेदी सहित कई सम्पादकों की नजरों से भी गुजर गयी। मैं इस भूल के लिए सचमुच बेहद दुखी हूं और यथाशीघ्र आपसे मिलकर भी क्षमा याचना करना चाहूंगा। मुझे विश्वास है कि आप अपने विशाल ह्रदय से मुझे क्षमा करेंगीं। मैं उपरोक्त प्रकाशित लेखों में से अपनी भूलवश की गयी टिप्पणी को वापिस लेता हूं। मुझे अफसोस इस बात का हो रहा है कि अपने उस प्रिय लेखक के परिवार के हित में मैं कुछ नहीं कर सका जिसने मेरे लेखन के लिए आदर्श ढांचा दिया था, उल्टे उसके निधन के बाद उसके परिवार को पीड़ा पहुंचायी।
मुझे सचमुच बेहद दुख है।
                                                      क्षमाप्रार्थी
                                                      वीरेन्द्र जैन
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शारदा जी ने बड़ी बहिन और भाभी की तरह मुझे क्षमा कर दिया और निम्नांकित पत्र भेजा –
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शारदा त्यागी
w/o स्व. श्री रवीन्द्रनाथ त्यागी
दूरभाष : 0133-2679133
मो. 9897288095 
                                                                  17-7-2005
                                                      ‘शमशेर हाउस’
                                                      1/1 तेग बहादुर रोड II
                                                                                                                                                देहरादून. 248001
                                                      उत्तरांचल
माननीय भाई वीरेन्द्र जी,
                  नमस्कार,
मेरे पत्र के उत्तर में अक्षरा के नए अंक में आपका उत्तर पढा। पढ कर ही मालूम हुआ कि आप मेरे पति के इतने सच्चे प्रशंसक हैं। जान कर मन को कुछ ढांढस बँधा।
            आप कभी इधर आएं तो अवश्य दर्शन दीजिए, या यदि कभी देहली आएं तो इधर दूर नहीं है, आप सपरिवार आएं तो और भी हर्ष होगा। मेरे लिए अब यह घर मेरा नहीं है, बल्कि मेरे पति की यादों व साथ बिताए हुए दिनों का एक स्थान है जो मेरे लिए एक मन्दिर की भांति है। यह मैं आपको इसलिए लिख रही हूं कि आप स्वयं देखें और विश्वास कर सकें तथा मन से गलत भ्रांतियां निकाल सकें।
           मैं आपको डा. गोयनका की पुस्तक के पृष्ठ 336 की फोटो कापी भेज रही हूँ। उसमें ऐसा कुछ नहीं है जैसा कि आपने समझा। हाँ मैं मि. मलिक के बारे में कुछ नहीं जानती कि वह कौन बेबकूफ सज्जन थे पर हाँ यदि आप जानते हैं तो उनका पता अवश्य दें। मैं आपको छोटे भाई की भाँति मान कर यह पत्र लिख रही हूं, अतः अन्यथा न लें। श्रीमती शर्मा को नमस्कार। बच्चों को स्नेहाशीष।
[* शायद वे जल्दी में श्रीमती जैन की जगह श्रीमती शर्मा लिख गयी थीं]
      स्वस्थ व सानन्द होंगे.
            उत्तर अवश्य देंगे।
                                          आपकी भाभी
                                                शारदा त्यागी
                                    पत्नी. स्व. श्री रवीन्द्र नाथ त्यागी
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मैंने लौटती डाक से पृष्ठ 336 की वे पंक्तियां अन्डरलाइन कर के भेज दीं जिसमें श्री अफरीदी ने लिखा था कि -
“यतीन [कथा नायक का नाम] अपनी पत्नी के प्रति अनंत प्रेम रखता है और विनीता के प्रेम में भी डूबा है। पर फिर भी सच्चाई से नहीं मुकरता, ईमानदारी का दामन नहीं छोड़ता...”
अपूर्णकथा भाग-2 के बिना ये पंक्तियां कैसे आ सकती हैं! बहरहाल शारदा जी पहले ही लिख चुकी थीं कि अपूर्णकथा आत्मकथात्मक उपन्यास है, शत प्रतिशत आत्मकथा नहीं।
बाद में श्रीमती शारदा त्यागी ने व्य्ंग्य यात्रा [अप्रैल- सितम्बर 2006] अंक में एक लेख में लिखा  
‘इसी प्रकार एक बहुत ही शानदार विशेषांक निकला जो कि त्यागी जी की स्मृति को समर्पित है। वह वास्तव में संग्रहणीय अंक है। परंतु उसमें एक लेखक ने बहुत शानदार लेख लिखा उसमें ऐसी बातें उनके जीवन के बारे में लिखीं जो पूर्ण रूप से गलत थीं। जब मैंने उन्हें पत्र लिख कर सब बातों के बारे में लिखा तो उन्होंने माफी मांगते हुए लिखा कि मुझे कुछ भ्रांति हो गई और खेद है कि मैंने आपको कष्ट व मानसिक वेदना पहुंचाई। वे सज्जन पुरुष हैं, मैं उनका सम्मान करती हूं परंतु यह दुख होता है कि हम पूरी सच्चाई जाने बिना ही लिख देते हैं।‘
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 मैंने अपने भ्रम की जड़ें तलाशने के लिए त्यागी जी के उपलब्ध साहित्य से कुछ और सामग्री तलाशी। बहुत प्रयास के बाद भी अपूर्ण कथा भाग-2 की प्रति तो नहीं मिल सकी, किंतु उनके लेखों से कुछ ऐसे संकेत मिले जिन्होंने अनजाने में मेरे मन में कथित धारणा बनायी होगी जैसे-
 मुझे त्यागी जी के एक व्यंग्य जो प्रयाग पर लिखा गया था, में यह टिप्पणी मिली-
“ मेरी पहली संतान भी [जो पुल्लिंग थी और है] भी मुझे वहीं प्राप्त हुई। सिविल सर्विस की परीक्षा भी मैंने प्रयाग केन्द्र से ही उत्तीर्ण की और जीवन में प्रथम प्रेम का अनुभव भी मैंने वहीं प्राप्त किया। मेरे दुर्भाग्य से यह प्रेम अंत तक पवित्र ही रहा।“
पर यह भी व्यंग्य लेख का हिस्सा है।
कमल किशोर गोयनका को दिये अपने साक्षात्कार में उन्होंने अपने कष्ट बताये थे। इनमें अन्य के अलावा प्रोफेसर न हो पाने की पीड़ा और मानसिक रोगी होने को भी गिनाया है। [प्रतिनिधि रचनाएं पृष्ठ 325]  
इसी साक्षात्कार में अपने उपन्यास ‘अपूर्ण कथा’ के बारे में पूछे गये सवाल के उत्तर में वे कहते हैं कि अपूर्ण कथा आत्मकथात्मक उपन्यास होने पर भी पूर्ण रूप से हो नहीं पाया। मैं आपके इस विचार से सहमत हूं। मैं जब इसे दुबारा लिखूंगा तो इसमें आत्मकथात्मक अंश कम करूंगा। [वही पृष्ठ 330]
अपूर्णकथा की समीक्षा में देवेश ठाकुर लिखते हैं “ इस प्रकार यतीन बाह्य संघर्षों से तो जीत जाता है, लेकिन प्रणय की एक छोटी सी घटना उसे कचोटती रहती है। लेखक ने इस घटना को जितनी सहजता, सच्चाई, और संजीदगी से अपनी मूल संघर्ष-गाथा से जोड़ा है उससे अंत में जाकर यह घटना ही मूल कथा बन गई है और पाठक को देर तक अपने से बाँधे रखती है। .......... हम कहना चाहते हैं कि स्त्री पुरुष सम्बन्धों के सन्दर्भ में जैनेन्द्र साहित्य का कोई भी पुरुष पात्र इतना ईमानदार साहसी और सच्चा नहीं है जितना कि अपूर्ण कथा का यतीन। “
त्यागी जी में सच कहने का साहस है इसलिए वे जिस वैराग भाव से लेखन करते थे उसमें झूठ कहने की गुंजाइश ही नहीं रहती क्योंकि लेखन को उन्होंने कभी यश प्राप्त करने का साधन नहीं बनाया और बाद के दिनों में पद व धन तो उनके पास पेट भर था।
त्यागी जी साहित्य को सामाजिक परिवर्तन का साधन नहीं मानते थे और ना ही ऐसे किसी विचार से जुड़े थे। वे जो देखते थे उसे अपनी दृष्टि से प्रस्तुत करते थे। एक निर्मोही की तरह दुनिया के लोभ लालच पर हँसते हुये और दूसरों को हँसा कर दुनिया के लोभ लालच को उजागर करते हुये। उन्होंने इतनी मौतों को इतने निकट से देखा है कि उनके व्यग्यों में मृत्यु के दृश्य बार बार आये हैं। मैंने तो एक बार किसी पत्रिका में लिखा भी था कि अगर मुझे कभी त्यागी जी की सभी पुस्तकें एक साथ मिल जायेंगीं तो मैं उनके मृत्यु पर लिखे हुए पर ही एक शोध पेपर लिख दूंगा। मुझे समय मिला तो मैं त्यागीजी को दुबारा सम्पूर्ण पढना चाहूंगा व उन पर और लिखना चाहूंगा।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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मो. 9425674629