मंगलवार, जून 09, 2020

हरि शंकर परसाई और मैं उनका एकलव्य


हरि शंकर परसाई और मैं उनका एकलव्य
वीरेन्द्र जैन

याद नहीं कि कब पहली बार उनकी रचना कहाँ पढी थी, किंतु जब भी पढी हो उसके बाद जब भी उनके नाम के साथ कोई रचना देखी तो बिना पढे नहीं छोड़ सका, और कभी भी ऐसा नहीं लगा कि यह रचना पहले पढी रचना से कमजोर है।
विचार और व्यंग्य के युग्म को पढने का शौक तो ख्वाजा अहमद अब्बास के हिन्दी ब्लिट्ज़ में प्रकाशित स्तम्भ ‘आज़ाद कलम’ और कृश्न चन्दर की पुस्तक ‘जामुन का पेड़” से लग चुका था जो हिन्द पाकेट बुक्स ने भी प्रकाशित की थी। [उन दिनों हिन्द पाकेट बुक्स की किताबें एक या दो रुपये में आती थीं और खरीदी जा सकती थीं]। परसाई जी मेरे लिए जामुन का पेड़ की परम्परा की अगली कड़ी थे। वे मेरे लिए कब आदर्श बन गये यह कह नहीं सकता, किंतु इतना याद है कि जब 1984 में मेरी पहली किताब ‘एक लुहार की’ पर एक गोष्ठी हुयी तो उसमें एक वक्ता ने कहा था कि ये परसाई की गैलेक्सी के सितारे हैं। यह वाक्य बुरा भी लग सकता था किंतु मेरी उस समय की रचनाओं में परसाई जी के प्रभाव को अनुभव करना मेरे लिए खुशी की बात थी। मैंने भी व्यंग्य के लिए वही विषय चुने थे जो परसाई जी के विषय रहे थे।
वैसे तो लगभग सभी ने उन्हें हिन्दी व्यंग्य का पितामह माना है किंतु मेरे मन में उनके प्रति किसी देवता की तरह के सम्मान का भाव था। मुझे मेरे पिता से जो प्रगतिशील मूल्य मिले थे, उन्हें मैं परसाई जी की रचनाओं में हू बहू देखता था, इससे मुझे अपनी सोच और विचारधारा को बल मिलता महसूस होता था। मिर्जा गालिब ने कहा है-
देखना तकरीर की लज्जत कि उसने जो कहा
मैं ने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है
कुछ ऐसा ही मेरा हाल था। शायद इसका कारण नेहरू मंत्रिमण्डल में वी के कृष्ण मेनन का समर्थन करने वाला और मोरारजी देसाई का विरोध करने वाले ब्लिट्ज़ का नियमित पाठक होना भी हो।
कला व राजनीति से जुड़े जिन लोगों ने विवाह न करना तय किया था उनके प्रति मेरे मन में बहुत आदर का भाव रहा था। भगत सिंह, लोहिया, अटल बिहारी, लता मंगेशकर, डेविड, रजनीश आदि की श्रंखला में परसाई जी भी आते थे। उनकी मयनोशी के बारे में भी किस्से तो बहुत सुने थे, और इन्हीं किस्सों का असर हुआ था कि गालिब, नीरज, सरोज, रंग, परसाई आदि आदि के कारण मेरे मध्यम वर्गीय मूल्यों में साहित्यकार कलाकार की मयनोशी बुरी बात नहीं रह गयी थी। इसे मैं कलाकार का डिठौना मानता रहा। कभी राजेन्द्र यादव ने कहा था कि यह विद्रोह की भाषा भी है।
मेरा सपना था कि काश कभी परसाई जी से मुलाकात हो सके। पत्र पत्रिकाओं में छपने और कवि सम्मेलनों में जाने की तीव्र वासना ने मुझ में जो कुछ बुरे तरीके पैदा किये थे, उनमें से एक यह भी था कि हर उत्सव के अवसर पर सम्पादकों और अपने प्रिय लेखकों, कवियों को शुभकामना सन्देश भेजना। याद तो नहीं पर उनमें परसाई जी का नाम भी सूची में रहा होगा। उत्तर आने पर खुशी होती थी, पर दूसरे अनेकों के विपरीत शुभकामना पत्र पर परसाई जी का कभी उत्तर नहीं आया।
1976-77 में जब वे सारिका में स्तम्भ लिख रहे थे तब मुझे उसमें एकाध लघु कथा और कुछ पत्रप्रतिक्रियाएं लिखने का मौका मिला था जो किसी पहचान का अधिकार नहीं देता था। किंतु जब देश में जनता पार्टी सरकार आयी और महावीर अधिकारी के सम्पादन में साप्ताहिक करंट [जो ब्लिट्ज़ की तरह का एक टेबुलाइज्ड अखबार था ] ने अपना हिन्दी संस्करण प्रारम्भ किया तो उसमें कमलेश्वर, राही मासूम रजा, और परसाई जी ने अपने पूरे पेज के स्तम्भ लिखने प्रारम्भ किये। उसी अखबार में मेरी भी छोटी छोटी व्यंग्य कविताएं छपने लगीं। सच कहूं तो मुझे अपनी रचनाओं के प्रकाशन से मिलने वाली खुशी से ज्यादा इस बात की खुशी थी कि मैं परसाई जी के साथ छप रहा हूं। वह अखबार दो तीन साल ही चल सका।
परसाई जी ने स्तम्भ के रूप में नियमित लेखन बहुत किया है, कह सकते हैं कि वे मुख्य रूप से स्तम्भ लेखक ही थे और तात्कालिक विषयों पर खूब लिखते थे। 1976 से 1980 तक मेरे पास भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी समर्थक दैनिक अखबार ‘जनयुग’ आता रहा, जिसमें परसाई जी आदम के नाम से दैनिक स्तम्भ लिखते थे। कह सकता हूं कि उस स्तम्भ ने मुझे ट्यूटोरियल दिये, मैंने राजनीतिक व्यंग्य लिखना सीखा। इससे पहले भी परसाई जी अपने समय की प्रमुख पत्रिका कल्पना में ‘और अंत में’ नामक स्तम्भ लिखा करते थे जिसने साहित्य में व्यंग्य को प्रमुख स्थान दिलाया, जो कभी हाशिए की चीज हुआ करती थी। शायद इसी आधार पर उन्होंने लिखा था कि व्यंग्य अब शूद्र से ठाकुर बन गया है। उन्होंने मध्य प्रदेश क्या, कभी देश के प्रमुख अखबार रहे ‘नई दुनिया’ में भी ‘सुनो भाई साधो’ नाम से स्तम्भ लिखा जिसने हिन्दी क्षेत्र के पाठकों के बीच प्रगतिशील मूल्यों को प्रतिष्ठित किया। उनके स्तम्भों के नाम कबीर के दोहों में से ही चुने जाते रहे, जैसे ‘माटी कहे कुम्हार से’ ‘कबिरा खड़ा बजार में’ सुनो भई साधो’ आदि। साहित्य के बाजार में वे खुद भी लुकाठी लिये ही खड़े रहे। जब वे धर्म के नाम पर चल रहे धन्धे का मजाक बनाते थे या मिथकों के सहारे राजनीतिक टिप्पणियां करते थे तो वह मुझे बहुत भाता था।
      दक्षिणपंथी, जातिवादी, जड़तावादियों ने व्यक्ति परसाई का तो विरोध किया किन्तु वे ना तो उनके बराबर का कोई लेखक पैदा कर सके और ना ही उनके लेखन का कोई उत्तर ही तलाश सके। आर एस एस ने उनके ऊपर एक बार हमला करा दिया था तो उन्होंने उस हमले पर ही कई व्यंग्य लिख दिये जिससे पूरे देश में संघ का चरित्र उजागर हुआ और उसकी भरपूर निन्दा हुयी। बाद में जब संघ वालों ने क्षमा मांगते हुए कहा कि आगे से ऐसा नहीं होगा, तब भी उन्होंने लिखा कि देखो इन्होंने स्वीकार कर लिया कि हमला इन्होंने ही कराया था। जब व्यावसायिक पत्रिकाओं ने शरद जोशी को अधिक प्रोत्साहन देकर उनके मुकाबले स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया तब भी उन्होंने परसाई जी के मूल्यों के खिलाफ कभी कुछ नहीं लिखा क्योंकि कोई ईमानदार लेखक उन मानव मूल्यों के खिलाफ कुछ लिख ही नहीं सकता।
1981 के अंत में जब मेरा ट्रांसफर हैदराबाद से नागपुर हो गया तो अपनी सोच और परसाई के प्रति अपनी पक्षधरता के कारण मुझे उनका सिपाही समझ लिया गया जबकि तब तक ना तो मेरा उनसे पत्र व्यवहार था और ना ही कभी मुलाकात हुयी थी। इतना जरूर था कि बहसों में मैं उनका पक्ष लेते हुए  लोगों से टकरा जाता था। नागपुर में रिजर्व बैंक में अधिकारी एक लेखक थे रमेश डी गाडे, उन्होंने मुझ से कहा कि गुजराती और मराठी में परसाई जी की रचनाओं का अनुवाद कर के कुछ लेखक अपने नाम से प्रकाशित करा रहे हैं व इस विषय पर मैंने मराठी के अखबार में एक पत्र लिखा है जिसकी कटिंग आप परसाई जी तक पहुंचा दें। उनके इस प्रस्ताव पर मुझे खुशी हुयी कि मुझे परसाई जी के लिए कुछ करने का अवसर मिला है तो इसी बहाने शायद उनसे सम्पर्क हो सके। मैंने उनसे वह कटिंग लेकर परसाई जी को भेज दी । दो महीने गुजर गये किंतु परसाई जी की ओर से कोई उत्तर नहीं आया। फिर संयोग ऐसा बना कि मुझे प्रमोशन मिला और बैंक मैनेजर के रूप में मेरा ट्रांसफर जबलपुर हो गया। मैं खुश था कि परसाईजी और ज्ञानरंजन जी के शहर में रहने व मेल मुलाकात का मौका मिलेगा।
फरबरी 1982 में जबलपुर पहुंचने के पहले ही सप्ताह में मैंने परसाई जी से भेंट का कार्यक्रम बनाया। मैं अपना परिचय देने के मामले में बहुत संकोची रहा हूं और हर बार ऐसी स्थिति में मुझे दूसरे का सहारा लेना ही सही लगता रहा है। जबलपुर से 1977 में ‘व्यंग्यम’ नामक एक पत्रिका निकली थी जिसमें मेरे कई व्यंग्य छपे थे, इसके सम्पादक रमेश शर्मा, महेश शुक्ल, और श्रीराम आयंगार थे। उस समय रमेश शर्मा ही उपलब्ध थे जो नेपियर टाउन में ही रहते थे सो उनका ही सहारा लिया। उन्होंने बताया कि परसाई जी कमर में चोट के कारण बिस्तर तक सीमित होकर रह गये हैं इसलिए लेटे हुए ही मिलेंगे, पर वे पैर छुलाना पसन्द नहीं करते इसका ध्यान रखना। यद्यपि मैंने हामी तो भर दी थी किंतु अपने भक्तिभाव के कारण इस सावधानी को भूल गया और मैंने लेटे हुए परसाई जी के पैर छू ही लिये। गनीमत रही कि उनकी नाराजगी नहीं झेलना पड़ी। रमेश जी ने मेरा परिचय दिया तो कम बोलने वाले परसाई जी ने बिना विशेषण के एक वाक्य बोला- मैंने भी आपका लिखा पढा है। मैं गदगद हो गया था।
जब मैंने रमेश डी गाडे वाले पत्र की चर्चा की तो उन्होंने पूछा कि आपको मराठी आती है? मेरे  नहीं में सिर हिलाने पर वे बोले तभी आपको नहीं पता कि रमेश गाडे के उस प्रकाशित पत्र में क्या लिखा है। उसमें लिखा था कि गुजराती मराठी के इन लेखकों ने परसाई जी की रचनाएं ली है, पर परसाई जी किन विदेशी लेखकों की रचनाएं लेते हैं यह नहीं पता। मुझे तेज गुस्सा आया जो जल्दी ही अफसोस में बदल गया कि मैंने यह नहीं सोचा कि श्री गाडे ने इस काम के लिए मेरा स्तेमाल क्यों किया। वे चाहते तो खुद भी उस पत्र को परसाई जी तक भेज सकते थे।
रमेश जी पहले ही चेता चुके थे कि ज्यादा देर नहीं रुकना है सो भविष्य में फिर आने की उम्मीद में मैं लौट आया। विभागीय जटिलताओं के कारण मैं जबलपुर में भी ज्यादा दिन तक नहीं टिक सका और मेरा ट्रांसफर हो गया। मेरे जीवन में परसाई जी से यही एक मुलाकात हुयी किंतु रचनाओं के आधार पर तो मैं उनसे जीवन भर मिलता रहा सीखता रहा। उनके लेखन का ही प्रभाव था कि किसी भी व्यक्ति का बनावटीपन मुझे स्वीकार नहीं हुआ जिसने कई बार मुझे धोखे खाने से बचाया।
1985 में जब परसाई जी को चकल्लस पुरस्कार घोषित किया गया तब् संयोग से मैं मुम्बई गया हुआ था तो चेतन जी ने मुझे यह जानकारी दी। मैंने पूरे विश्वास के साथ कह दिया कि वे स्वस्थ नहीं हैं इसलिए आयेंगे नहीं। चेतन जी को बुरा लगा। बोले मैंने उनके कहे अनुसार आने जाने के प्रथम श्रेणी के दो दो टिकिट भेजे हैं , इसलिए उन्हें किसी के साथ आना तो चाहिए। बाद में यही हुआ कि चक्कलस पुरस्कार  लेने वे नहीं आये व उनके स्थान पर सुरेश उपाध्याय ने उनकी ओर से वह पुरस्कार ग्रहण किया था।
उनके लेखन से लगता था कि वे भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य होंगे, किंतु ऐसा नहीं था। उन्होंने कभी भी पार्टी की सदस्यता नहीं ली। काँग्रेस नेता श्रीकांत वर्मा एक बार उन्हें राज्यसभा में भेजना चाहते थे किंतु उन्होंने जिससे सिफारिश की उसने श्रीकांत वर्मा को ही राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए तैयार कर लिया, परसाई जी रह गये। उन्होंने लिखा कि मैंने इकलौती बार किसी के सामने हाथ फैलाया तो उसने मेरी हथेली पर थूक दिया। यह अच्छा ही रहा, दोबारा कहीं किसी के आगे हाथ फैलाने से बच गया। 
मैं कह सकता हूं कि मैं उनका एकलव्य रहा हूं जिसने उनकी मूर्ति बना कर दीक्षा ली। पर ना तो मैं धनुर्धर बन सका और ना ही उन्होंने कभी दक्षिणा चाही।           
        वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें