गाँधी के देश में विशिष्ट होने का रोग
वीरेन्द्र जैन
पिछले तीस सालों में देश के अन्दर सुविधाजीवी
मध्यम वर्ग की संख्या में तेज वृद्धि हुयी है और उसी के अनुरूप उपभोक्ता सामग्री
की मांग भी बढी। इसी दौरान दुनिया के बाज़ार पर चीन ने कब्जा जमाया और भारत के
बाजार पर छा गया। उसने अपना सामान बेचने के लिए यूरोपीय देशों की तरह संस्कृति का
निर्यात नहीं किया अपितु भारत समेत दुनिया भर के देशों की संस्कृतियों के अनुरूप
माल का उत्पादन किया। उदाहरणार्थ भारत की महिलाओं के लिए उसने सिन्दूर का निर्माण
किया और आज पूरे देश की हिन्दू महिलाएं चीन में निर्मित सिन्दूर का प्रयोग कर रही हैं।
वाहनों की सामग्री से लेकर मोबाइल व इलेक्ट्रोनिक्स का पूरा बाजार चाइनीज सामान से
पटा पड़ा है। देश में कोरोना के प्रारम्भ स्थल और चीन के साथ हिंसक सीमा संघर्ष एक
ही समय में घटित हुये। परिस्थितियां ऐसी हुयीं कि उचित समय पर कदम न उठाने की
केन्द्र सरकार की अपरिपक्वता साफ नजर आने लगीं। किंतु खरीदे हुए मीडिया व
अन्धभक्तों की फौज ने सारे गुस्से की दिशा को भटका दिया। सरल जनता बिना जाने समझे
चीनी सामान खरीदने को ही सारी समस्या समझ बैठी और उसके बहिष्कार को पेचीदा
अर्थव्यवस्था तक का हल समझने लगी। उम्मीद की जा रही है कि कोरोना के लाकडाउन से
बैठ गयी अर्थ व्यवस्था, कमर से टूट चुका निम्न और मध्यम वर्ग को चीनी सामान के
बहिष्कार के बहाने सादगी और स्वदेशी का सन्देश पहुंच रहा है, जो सामाजिक परिवर्तन
को दिशा देगा। गांधीजी के 150वें जन्मवर्ष में शायद इसी बहाने से उन्हें श्रद्धांजलि
दी जा सके।
जाति, धर्म, लिंग, वर्ण, भाषा, रंग, आदि का कोई भेद किये बिना सभी
को समान नागरिकता देने वाली हमारी आदर्श संवैधानिक व्यवस्था में व्यक्तिवादी
राजनीति के उभार ने देश के लोकतंत्र को बहुत नुकसान पहुँचाया है। दुखद है कि देश
के बहुत सारे क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनीतिक दल व्यक्ति आधारित हैं व उन्होंने
बहुत सारे छुटभैए राजनीतिक कार्यकर्ताओं में जल्दी विशिष्ट होने की बीमारी बो दी
है। सिद्धांतविहीन राजनीतिक दलों के सदस्यों में ऐसे लोगों की संख्या समुचित है जो
स्वयं को समाज में विशिष्ट बनाने के लिए ही दल की खास ‘वर्दी’ में दल के नेताओं के
इर्दगिर्द मंडराते रहते हैं। न वे दल की घोषित नीतियों की जानकारी रखते हैं और न
ही उसके घोषणापत्र की। सत्तारूढ दल के कार्यकर्ता सरकारी सुविधाएं हथियाने के लिए
तो सरकारी अधिकारियों को प्रभावित करने के चक्कर में रहते हैं किंतु सरकार के
विकास व निर्बल वर्ग के सशक्तिकरण कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के बारे में जानने
समझने की कोई जरूरत नहीं समझते, जिससे जनता के हित में लायी गयी अच्छी अच्छी
योजनाएं भी जनभागीदारी के अभाव में सफल नहीं हो पातीं।
वे किसी लाइन में लगना पसन्द नहीं करते, व अपने
वाहनों पर नम्बर प्लेट की जगह अपने दल का नाम और दल में अपने पद का उल्लेख किये
मिलते हैं, ताकि ट्रैफिक के नियमों का बिना पालन किये चल सकें। उन्हें सब कुछ
अतिरिक्त और उस क्रम से पहले चाहिए होता है, जिसके वे पात्र हैं। सरकारी व अर्धसरकारी
विभागों के गैस्ट हाउस, डाकबंगले, सरकिट हाउस, रैस्ट हाउस, फारेस्ट या पर्यटन
विभाग के होटल आदि को वे अपनी ससुराल समझते हैं व मंत्रियों विधायकों के इशारों पर
इनमें नियम विरुद्ध अतिथि बने रहते हैं। मुफ्तखोरी की यही आदत उन्हें सदैव ही उस
दल में रहने को प्रेरित करती है, जो सत्ता में होता है, और सत्ता बदलते ही वे
तुरंत दल ही नहीं अपितु अपना आका भी बदल लेते हैं।
विशिष्टता के प्रदर्शन हेतु सुरक्षा गार्ड लेने के लिए लोग झूठे
खतरे की कहानियां गढते हैं। स्मरणीय है कि अपना रुतबा बढाने के लिए बाबा भेष में
रहने वाले आयुर्वैदिक दबाओं के व्यापारी ने दस वर्ष पूर्व अपने हेलीकाप्टर में एक
नकली आतंकी को सुतली बम के साथ बैठा लिया था ताकि उन्हें ज़ेड सुरक्षा माँगने का
आधार मिल सके। बाद में पुलिस की सख्त पूछताछ में वह व्यक्ति टूट गया था व उसने
सबकुछ सच सच बता दिया था कि सच्ची कहानी क्या थी। ऐसी एक नहीं ढेरों किंवन्दतियां
चर्चा में हैं। देश में पुलिस बल की बेहद कमी होने के बाद भी विशिष्ट होने के लिए बहुत
सारे लोगों ने अनावश्यक रूप से गार्ड लिये हुये हैं। पिछले दिनों जब सुप्रीम कोर्ट
ने अपात्रों को सुरक्षा गार्ड उपलब्ध कराने व पुलिस फोर्स की कमी के बहाने अपराधों
पर अंकुश न लगाने पर फटकार लगायी थी तब यह बात सामने आयी थी कि लोगों के अहं को
तुष्ट करने में आम आदमी के अधिकारों की कितनी उपेक्षा हो रही है।
जिन सांसदों विधायकों को एक दिन के लिए भी सदन की सदस्यता लेने पर
जीवन भर के लिए पैंशन और दीगर सुविधाएं उपलब्ध करायी जाती हैं, उन्हें उसके साथ
साथ अपने उद्योग, व्यापार, मनोरंजन, और चिकित्सकीय या वकालत समेत अनेक आय अर्जित
करने वाले काम करने की कोई मनाही नहीं है। यहाँ तक कि जो चुनावों के दौरान सदन में
पहुँचने के लिए सारे वैध-अवैध तरीके अपनाते हैं वे ही चुने जाने के बाद अपने
इन्हीं व्यवसायों में लिप्त रहते हुए सदन में कम से कम उपस्थित रहते हैं। पूर्व
सांसद या विधायक होने की विशिष्टताके नाते वे ट्रैन की उच्च श्रेणी में एक व्यक्ति
को साथ लेकर कितनी भी यात्राएं कर सकते हैं, व उनके लिए आरक्षण का अतिरिक्त कोटा उपलब्ध रहता है।
सरकारी डाकबंगलों, आदि में भी वे निःशुल्क या रियायती दरों पर प्राथामिकता पा सकते
हैं। जिस संसद और विधानसभाओं में करोड़पति सदस्यों की संख्या बढती ही जा रही है उन
सब को भूतपूर्व सदस्य होने के बाद भी पेंशन और विशेष सुविधाएं मिलना और उनमें
निरंतर बढोत्तरी होते जाना चिंताजनक बात है। जब समाजिक रूप से पिछड़े वर्ग को
नौकरियों में आरक्षण देने में क्रीमी लेयर का अवरोध लगाया जा सकता है तो करोड़पति
सांसदों को आरक्षण और विशेष सुविधाएं देने के बारे में निजी आय की कोई सीमा क्यों
तय नहीं की जा सकती। उल्लेखनीय है कि बहुत सारे अरबपति व्यापारी तो कुछ विशेष
सुविधाओं और नियम विरुद्ध व्यापारिक लाभों के लिए ही दौलत के सहारे सदस्य बनकर
सुपात्र उम्मीदवार को सदन में पहुँचने से वंचित कर देते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार
देश के सभी बड़े उद्योगपतियों के प्रतिनिधि सदन में मौजूद हैं जो अपने चुने जाने के
लिए चुनावों को विकृत करने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। इसी तरह विभिन्न गम्भीर
अपराधों के आरोपी तो अपने अपने प्रकरणों को लम्बा खिंचवाने या गवाहों को बदलवाने
या सबूतों को मिटाने के लिए ही सदन की सदस्यता लेना चाहते हैं। सदन के सदस्य बनने
के बाद उसके कुछ वकील सदस्यों की आय में हुयी अकूत वृद्धि तो चौंकाने वाली है जो
एक वेबसाइट ‘माईनेताडाटइंफो’ [myneta.info] पर देखी जा सकती है। स्मरणीय है कि गत वर्षों में लोकसभा प्रतिवर्ष
औसतन 71 दिन बैठी जिसमें लोकसभा की कार्यवाही न चलने देने व वाक आउट वाले दिन भी
सम्मलित हैं। इसके बाद भी वेतन और भत्ते उन्हें पूरे पूरे मिलते रहे हैं। अनेक
राज्यों की विधान सभाओं में भी यह औसत 16 से 31 दिन का आता है। उल्लेखनीय है कि
विधायिका के ये प्रतिनिधि कार्यपालिका के दैनिन्दिन कार्यों में निरंतर अनाधिकार
हस्तक्षेप करने में लगे रहते हैं। पिछले दिनों ही मध्यप्रदेश के कुछ वरिष्ठ आईएएस
अधिकारियों को असमय स्थानांतरित करने का कारण यह बताया गया था कि वे
जनप्रतिनिधियों को महत्व नहीं देते थे।
विशिष्टता केवल अधिकारों या सुविधाओं के मामले तक ही सीमित नहीं की
जा सकती। जब हमने कुछ लोगों को विशिष्ट बना ही दिया है तो जिम्मेवारियों के बारे
में भी उन्हें विशिष्ट बनाना चाहिए। एक विशिष्ट व्यक्ति यदि किसी अपराध में दोषी
पाया जाता है तो उसे असाधारण दण्ड भी मिलना चाहिए। बहुत सारे मामलों में देखा गया
है कि विशिष्ट व्यक्ति अपनी विशिष्टता व विशेष सम्पर्कों के प्रभाव में कानून के
उपकरणों को प्रभावित करने में सफल हो जाता है और उसे कभी कभी बड़ी मुश्किल से ही
बहुत लम्बे समय बाद सजा मिल पाती है। उनकी सजा इसलिए भी अधिक होना चाहिए क्योंकि
जिस समय उन्हें जेल में होना चाहिए था वे विशेष सुविधाओं का लाभ ले रहे थे तथा
जनता को गलत आदर्श देते हुए कार्यपालिका के कार्यों में अनुचित हस्तक्षेप कर रहे
थे। जमानत देने के मामले में भी उनके विशेष प्रभाव के खतरे को अनुमानित कर के ही
विचार किया जाना चाहिए। विशिष्ट व्यक्तियों के प्रकरणों के निबटारे के लिए फास्ट
ट्रैक कोर्टों की कोई उपलब्धियां नहीं दिखतीं। महिलाओं के उत्पीड़न सम्बन्धी मामलों
में आरोपों को झेल रहे जनप्रतिनिधियों के प्रकरणों को सबसे आगे रखना चाहिए। उन्हें
टिकिट देने की सिफारिश करने वालों और मंत्रिपद देने वालों से भी पूछा जाना चाहिए
कि क्या उनकी पार्टी के पास सम्बन्धित आरोपी को टिकिट देने का कोई विकल्प नहीं था
और अगर था तो उन्होंने परोक्ष में आरोपी की मदद क्यों करना चाही?
संजय गान्धी की मृत्यु भी ऐसा ही एक हादसा था
जो विशिष्टता के दंभ में उड़ान भरने [एवीयेशन] के नियमों और तय ड्रैस के खिलाफ
पाजामा कुर्ता और चप्पल पहिन कर हवाई जहाज उड़ाने की कोशिश कर रहे थे। दूसरी ओर
उरुग्वे के एक राष्ट्रपति थे – जोसे मुजिका.[पूरा नाम – जोसे एल्बर्टो पेपे मुजिका कोर्डैनो] इन्हें दुनिया का
सबसे गरीब राष्ट्रपति की संज्ञा दी गई है।
यह जिस तरह का जीवन जीते थे, वैसा जीवन कोई फकीर ही जी सकता था. जोसे मुजिका उरुग्वे
के राष्ट्रपति भवन के बजाय अपने दो कमरे के मकान में रहते थे. सुरक्षा के नाम पर
बस दो पुलिसकर्मी की सेवा लेते थे. सामान्य लोगों की तरह कुएं से पानी भरते और
अपने कपड़े खुद धोते थे. वो अपनी पत्नी के साथ मिलकर फूलों की खेती करते ताकि कुछ
एक्स्ट्रा आमदनी हो सके. खेती के लिए ट्रैक्टर खुद चलाते और इसके खराब होने पर खुद
ही मैकेनिक की भांति ठीक भी करते थे। कोई नौकर-चाकर अपनी सेवा के लिए नहीं रखते थे.
अपनी बहुत पुरानी फॉक्सवैगन बीटल गाड़ी को खुद चलाकर ऑफिस जाते थे. बस ऑफिस जाते
समय वह कोट-पैंट पहनते थे। एक देश के राष्ट्रपति को जो भी सुविधाएं मिलनी चाहिए,
इन्हें वो सारी सुविधाएं दी
गई थीं. पर इन्होंने इन सुविधाओं को लेने से इनकार कर दिया. वेतन के तौर पर इन्हें
मिलता था हर महीने 13300 डॉलर जिसमें से 12000 डॉलर गरीबों को दान दे देते
थे. बाकी बचे 1300 डॉलर
में से 775 डॉलर
छोटे कारोबारियों को देते थे. अगर आपको कहीं से भी ऐसा लगता है कि शायद उरुग्वे एक
गरीब देश है, इसीलिए
यहां का राष्ट्रपति भी गरीब था, तो यह आपका भ्रम है. उरुग्वे में प्रति माह प्रति
व्यक्ति की औसत आय 50000 रुपये है।
देखना
होगा कि गान्धी की मूर्तियां लगाने व सड़कों के नाम गान्धीमार्ग रखने के अलावा हमारे
सूट पर सूट व गाड़ियों पर गाड़ियां बदलने वाले राजनेता स्वदेशी और सादगी के लिए क्या
करते हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार
स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा
के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल
9425674629
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