रवीन्द्रनाथ त्यागी
हिन्दी व्यंग्य के चतुर्थ स्तम्भ
वीरेन्द्र जैन
आजादी के बाद जो हिन्दी व्यंग्य लिखा गया, उसके बारे में परसाई जी ने कहा कि
साहित्य की दुनिया में जो व्यंग्य पहले शूद्र समझा जाता था अब उसकी जाति बदल गयी
है और वह ठाकुर की श्रेणी में आ गया है। हिन्दी व्यंग्य की जाति बदलने के पचास साल
में जिन लोगों के कारण यह घटना सम्भव हुयी उसमें प्रमुख रूप से चार लोगों का
योगदान माना जाता है। वे हैं, हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, और
रवीन्द्रनाथ त्यागी। इनमें परसाईजी और शरद जोशी तो कलमजीवी रहे हैं [भले ही
इन्होंने भी छोटी मोटी सरकारी नौकरी कर के देखी है] , पर बाद में वे जीवन भर
पूर्णकालिक लेखक रहे। इसके विपरीत अपने
लेखन काल में श्रीलाल शुक्ल और रवीन्द्रनाथ त्यागी दोनों ही अफसर रहे हैं। श्रीलाल जी ने अपनी अफसरी के दौरान ही गहराई से
लोक को देखा और उसका यथार्थ चित्रण कर रागदरबारी जैसी कालजयी कृति दी।
त्यागी
जी ने बचपन में भयंकर गरीबी देखी थी और संघर्ष से अपना स्थान प्राप्त किया। इस
जीवन संघर्ष में उन्होंने जो खोया उसने उन्हें त्यागी से वैरागी बना दिया था। उन्होंने
अपने पिता के भाई बन्धुओं की बेईमानियों व गैर जिम्मेवार, गुस्सैल, व आलसी पिता की लापरवाही देखी। परिणाम स्वरूप पूरे परिवार का
बेघर होना और इस सब से जनित जो दारुण गरीबी मिली उसका चित्रण अपने आत्मकथात्मक
उपन्यास ‘अपूर्ण कथा’ में साफ साफ किया है। पिता भागकर ससुराल के कच्चे मकान में आ गये थे। इस समय उनकी दो
बड़ी बहिनें साथ थीं, व एक का विवाह हो चुका था। इस गरीबी में भी उनके कई बच्चे
पैदा हुये जो अर्थाभाव के कारण जिन्दा नहीं बच सके थे व कफन के रूप में भी उन्हें
कोई पुराना कपड़ा ही नसीब होता था। पिता ने घर के जेवर और बर्तन धीरे धीरे बेच दिये
थे। वे उधार लेने के भी आदी थे, उसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। ऐसी भी
दिवाली गुजरी थी जब मिठाई तो क्या घर में एक भी दिया नहीं जला था। आये दिन भूखे
रहने की नौबत आती थी। पिता वैसे तो लाहौर में पढे हुये डाक्टर थे जहाँ उन्होंने
साहित्य भी पढा था किंतु आलसी और गुस्सैल होने के कारण प्रैक्टिस नहीं चलती थी।
त्यागीजी ने उनके लिए अकर्मण्य, स्वार्थी, निर्दयी, क्रूर और बेईमान जैसे विशेषणों
का प्रयोग किया है। वे उधार न चुकाने के कारण वसूली वालों से भी अपमानित होते रहते
थे। त्यागीजी ने जो चित्रण किया है वह रोंगटे खड़े कर देने वाला है, बहिन की शादी
एक ऐसे उम्रदराज अमीर से करना जिसकी दो पत्नियां पहले से ही मर चुकी हों, फिर उसकी
बीमारी जिसमें उसके पति ने मायके भेज दिया हो और इलाज के लिए जो खर्चा वह भेजता था
उससे इनके घर का खर्च चलना आदि। किसी तरह वे पड़ोसियों आदि की मदद से बिना फीस वाले
संस्कृत स्कूल जाने लगे थे। कुछ स्कूल अध्यापकों और पड़ोसियों की मदद से उन्हें
सीधे आठवी कक्षा में प्रवेश मिल गया। बाद में उनकी प्रतिभा के कारण उन्हें बजीफा
मिलने लगा था जिससे घर का खर्च चलता था। वे पढने में तेज थे जिससे हाईस्कूल में
प्रदेश में मेरिट में बाइसवें नम्बर पर आये। गरीबी के कारण मजबूरन किसी कस्बे के
कालेज में प्रवेश लेना पड़ा जहाँ ट्यूशन करके व अधपेट रह कर उन्होंने पढाई की। इंटरमीडिएट
में वे मेरिट में सातवें नम्बर पर आये, अतः अपने अध्यापकों की सलाह और सहयोग से
उनके पत्र लेकर वे प्रयाग विश्व विद्यालय में प्रवेश लेने चले गये। उनकी इस पढाई
के लिए उनकी मां और बहिन ने सूत कात कात कर पैसे जुटाये थे।
मुफ्त के संस्कृत स्कूल में पढने और घर में उनके पिता द्वारा संकलित संस्कृत
साहित्य ने उन्हें विशिष्टता दिलायी। प्रयाग में उनके सहपाठी दुष्यंत कुमार,
कमलेश्वर, रामावतार चेतन, रमेश कुंतल मेघ आदि रहे। यह वही समय था जब हिन्दी उर्दू
साहित्य के दिग्गज निराला, पंत, पदुमलाल पन्नालाल बख्शी, महादेवी वर्मा, अश्क,
धर्मवीर भारती, फिराक, बच्चन, और जगदीश गुप्त वहां होते थे। वाचस्पति पाठक, प्रकाश
चन्द गुप्त, अमृत राय, सुरेन्द्रपाल जैसे लोगों ने उन्हें प्रोत्साहन दिया।
त्यागी जी के गद्य लेखन में व्यंग्य की जो बुनावट रहती है उसका एक उदाहरण
देखें जो उन्होंने अपने साहित्यिक योगदान के बारे में बताते हुए कहा। वे कहते हैं कि
मैं मूलतः कवि ही रहा। आषाड़ के मेघ, भाद्रपद की सांझ,शरद की पूर्णिमा, पलाश के
दहकते फूल और सुन्दर कम उम्र लड़कियों के होंठ मुझे भयानक परेशानियों में भी हमेशा
अपनी ओर आकृष्ट करते रहे। व्यंग्य और हास्य का लिखना तो महज एक इत्तफाक ही रहा
जिसका सारा श्रेय सम्पादकों को जाता है जिन्होंने कविताएं नहीं छापीं। ‘उनको दुआएं
दो मुझे कातिल बना दिया’।
जिस पराग प्रकाशन ने मेरा पहला व्यंग्य संग्रह छापा था, उसी ने उन दिनों कमल
किशोर गोयनका के सम्पादन में ‘रवीन्द्रनाथ त्यागी की प्रतिनिधि रचनाएं’ नाम से एक
संकलन छापा था जिसमें न केवल उनकी कविताएं थीं अपितु व्यंग्य, लेख, समीक्षाएं,
साक्षात्कार, आत्म रचना आदि भी थे। सन्दर्भ आ गया तो बता ही दूं कि जिस समय मेरी
पुस्तक आयी थी उसी समय उसी प्रकाशन से अभिनेत्री दीप्ति नवल की भी कविता की किताब
आयी थी, और रायल्टी के लिए कहने पर प्रकाशक कहता था हमलोग पहले अपनी लागत निकालते
हैं; देखिए आपकी पुस्तक अभी रायल्टी देने लायक नहीं बिकी है, जबकि दीप्ति जी की किताब
तो खत्म भी हो गयी। सो रायल्टी की जगह सावधानी की दृष्टि से हम उसके प्रकाशन की
किताबे लें आते थे। रवीन्द्रनाथ त्यागी की उक्त किताब भी मैं इसी योजना के अंतर्गत
25% कमीशन पर ले आया था। इसी में उनके आत्मकथात्मक उपन्यास अपूर्ण कथा का पहला भाग
छपा था। त्यागी जी ने अपनी आत्मकथा का दूसरा भाग भी लिखा था जो लोगों के सामने
नहीं आ पाया। वह मुझे पेपरबैक में देखने को मिला था। इसमें उनके जीवन के दुखों से
आगे की कथा मौजूद थी।
त्यागी जी गुदगुदा कर ज्ञान देने वाले लेखकों में रहे हैं इसलिए पसन्दीदा
लेखकों में शामिल थे। कुछ उनके आत्मकथात्मक उपन्यास ‘अपूर्ण कथा’ व ‘आत्मकथ्य
गर्दिश के दिन’ का प्रभाव और कुछ यहाँ वहाँ से मिली जानकारियों से मेरे दिमाग में
जो कथा बनी वह यह थी कि “ जब वे प्रयाग पहुंचे तो उन्हें एक और कृपालु मिल गये।
उन्होंने इस प्रतिभावान युवा को न केवल अपने घर में शरण दी अपितु उनकी पढाई का
खर्च उठाना भी मंजूर कर लिया। उनकी प्रतिभा ने विश्व विद्यालय में भी अपना असर
दिखाया और धर्मवीर भारती तक उनके मुरीद हो गये व अपनी साहित्यिक संस्था परिमल में
शामिल किया। इसी दौरान उन्हें अपनी सहपाठी से प्रेम हुआ और बात शिक्षा व नौकरी के
बाद शादी के वादे तक पहुंची। किंतु इसी समय जिन सज्जन ने उन्हें अभिभावक की तरह
मदद दी थी उनके मन में कुछ दूसरा ही सपना पल रहा था। उन्होंने अपनी भांजी का विवाह
उनके साथ करने का तय कर रखा था। उपकृत त्यागीजी को उनका फैसला मानना पड़ा।
संवेदनशील त्यागी जी के मन पर इसका गहरा आघात लगा। अपनी शैक्षणिक योग्यता व प्रतिभाके कारण यूपी
पीएससी परीक्षा उत्तीर्ण की व 1955 में इंडियन डिफेंस सर्विस एकाउंट ज्वाइन की। बड़े
पद पर नौकरी मिली किंतु वे डिप्रैशन के शिकार हो जाते थे। जब 1979-80 में मैं
गाजियाबाद में पदस्थ था तब मेरे आफिस नवयुग मार्केट के बगल में एक फाइनेंस कम्पनी
का कार्यालय था जिसके मैनेजर मिस्टर मलिक कभी डिफेंस में त्यागी जी के साथ काम
करते थे। उन्होंने भी त्यागी जी की अस्वस्थता और उसके सुने हुए कारणों के बारे में
बताया था।“ [ यह बाद में पता चला कि यह
कहानी सच नहीं थी]
2004 में उनका निधन हुआ और उसकी खबर भी साहित्य जगत को उनके निधन से दो दिन
बाद लगी। तब तक किसी अखबार में खबर नहीं छपी थी। वे फौज के उस एकाउंट्स विभाग के
बड़े अफसर के रूप में सेवानिवृत हुये थे जो पूरे पश्चिम कमांड के फौजियों के वेतन
पेंशन और एकाउंट के निरीक्षण का काम देखता था। मेरी उनसे कभी आमने सामने मुलाकात
नहीं हुयी किंतु ज्ञान चतुर्वेदी के एक लेख से उनकी अफसरी की भव्यता का अनुमान
किया जा सकता है। वे लिखते हैं कि वे जब देहरादून उनसे मिलने गये थे तो दो तीन
फर्लांग पहले तो गाड़ी छोड़ना पड़ी थी और प्रवेश से पहले गार्ड ने परमीशन के लिए जो
फोन किया था उसमें कहा था कि कोई “चतूरवेदी जी” आये हैं, और खुद को आपका फिरेंड
बता रहे हैं।
मैं उन दिनों समाचार पत्रों में नियमित लेखन कर रहा था इसलिए न केवल साहित्यिक
पत्रकारिता के रूप में अपितु अपने उस लेखक पर जिसे खूब पढता और निर्मल हास्य के
लिए भरपूर पसन्द करता रहा हूं, श्रद्धांजलि लेख लिखना जरूरी था। उनका जीवन संघर्ष और
उसके बारे में उनकी स्पष्टवादिता भी मुझे बहुत प्रभावित करती रही है। अपने गर्दिश
के दिनों को बिना अतिरंजना के साफ साफ लिख देने वाला कोई छद्म नहीं ओढ सकता।
त्यागीजी का यह पक्ष मुझे सदैव आकर्षित करता रहा है। असल में उनका व्यंग्य भी उस
सच को कह देने से पैदा होता है, जिसे लोग छुपाते हैं।
यहीं से कहानी शुरू होती है। मैंने लोकमत समाचार नागपुर और नई दुनिया के भोपाल
संस्करण “राज्य की नई दुनिया’ में तुरंत श्रद्धांजलि लेख लिख दिया। इसी समय भोपाल
से प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका अक्षरा ने डा. ज्ञान चतुर्वेदी से आग्रह किया कि
त्यागी जी पर एक विशेषांक का सम्पादन करें, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।
उन्होंने मुझे फोन कर के पूछा कि क्या तुम्हारा प्रकाशित लेख शामिल कर लें, तो
मैंने खुशी जाहिर की। विशेषांक निकला और उसमें लेख सम्मलित हुआ। लेख में त्यागी जी
की वह कथा लिख दी गयी जिसकी धारणा मैं ऊपर बताये अनुसार बना चुका था और जिसमें
दबाव में किये गये विवाह को डिप्रैशन का कारण बताया गया था। भ्रम में उनकी पत्नी
को उन पर अहसान करने वालों का पिता भी लिख दिया गया था जबकि वे उनके मामा या चाचा
होते थे।
पत्रिका श्रीमती त्यागी तक भी पहुंची और स्वाभाविक रूप से उन्हें बुरा लगा। जो
लगना ही चाहिए था। उन्होंने प्रेम जनमेजय, हरीश नवल और डा. ज्ञान चतुर्वेदी से बात
की। हिन्दी व्यंग्य की अगली पीढी के इन तीनों प्रमुख लोगों ने अपूर्ण कथा के दूसरे
भाग के प्रकाशित होने व मेरी कहानी से अनभिज्ञता व्यक्त की। मेरे पास भी अपूर्ण
कथा भाग दो के प्रकाशित होने का कोई प्रमाण नहीं था पर ये विश्वास था कि ये मेरी
कपोल कल्पना नहीं, भले ही गलतफहमी कुछ भी रही हो।
श्रीमती त्यागी ने
अपनी नाराजी व्यक्त करते हुए पत्रिका को निम्नांकित पत्र लिखा-
माननीय सम्पादक जी व
श्री ज्ञान जी,
अक्षरा अभी शाम को
मिली। फौरन पूरी की पूरी पढ कर ही रात को सोई। इतनी शानदार छपी है कि वास्तव में
यादगार अंक है। सबके संस्मरण बहुत ही अच्छे हैं। मेरे पास आपको धन्यवाद देने के
लिए शब्द नहीं हैं।
पर अब शिकायत की बात
है। श्री वीरेन्द्र जैन का लेख जो पृष्ठ एक सौ साठ पर छपा है, उसमें पृष्ठ की
अंतिम सात आठ पंक्तियां इतनी गलत व भ्रामक तथा चरित्र हनन करने वाली हैं कि मुझे
बेहद दुख व क्रोध हुआ। सारे तथ्य वीरेन्द्र जी ने इतने तोड़ मरोड़ कर व न जाने कैसे
लिख दियेहैं। [अ] पहली बात तो यह है कि त्यागी जी इतने दृढ प्रतिज्ञ व सच्चे आदमी
थे कि यदि उन्होंने कभी किसी से शादी की बात तय की होती तो वे कभी भी पीछे हटने
वाले नहीं थे। [ब] त्यागी जी ने कभी किसी का आश्रय नहीं लिया और वह अपने ही बल
बूते पर प्रयाग गये और शिक्षा प्राप्त की। अतः किसी का भी प्रतिदान मांगने का
प्रश्न ही नहीं था। [स] शायद वीरेन्द्र जी को मालूम ही नहीं है कि हम दोनों की
सगाई पूरे साढे चार वर्ष पहिले ही हो चुकी थी। [द] त्यागी जी को डिप्रेशन विवाह के
पूरे पन्द्रह वर्ष बाद हुआ ना कि वीरेन्द्र जी के लिखे हुए कारणों से। [घ] त्यागी
जी को प्रयाग विश्वविद्यालय में लेक्चरर का पद नहीं मिला था क्योंकि उस समय के
विभागाध्यक्ष व त्यागीजी के विचार नहीं मिलते थे। उन्होंने किसी मजबूरी में फौज के
दफ्तर में एकाउंट्स आफीसर की सविस नहीं ज्वाइन की थी अपितु यूपी पीएससी के सिविल
सर्विसेज की परीक्षा में बैठे तथा उसमें चुन लिये गये व 1955 में इंडियन डिफेंस
एकांउट्स सर्विस ज्वाइन की थी जो कि देश की सर्वोच्च सेवाओं में से एक है।
अब मेरा अनुरोध है कि निम्न गलत तथ्य के बारे में इसे सही करवाइए- पृष्ठ 160
अंतिम छह सात लाइन हैं – ऐसे में उनकी प्रतिभा देख कर किसी ने उन्हें सहारा दिया
अपने घर में रखा और पढाया लिखाया। पर वह व्यक्ति अपनी इस कृपा का प्रतिदान चाहता
था। इस बीच इस युवा प्रतिभा का एक लड़की से प्रेम हो जाता है और अपने पैरों पर खड़े
होकर शादी की बात भी तय हो जाती है किंतु जिसने उसे आश्रय दिया था उसने कुछ और ही
सोच रखा था। प्रोफेसर बनने की इच्छा रखने वाले रवीन्द्रनाथ त्यागी को फौज के दफ्तर
में एकाउंट आफीसर बनना पड़ा और आश्रयदाता की लड़की से शादी करने को विवश होना पड़ा।
दिल और दिमाग पर इस अघात से वे डिप्रेशन के शिकार हो गये और बहुत दिनों तक उनको
मानसिक चिकित्सक की देख रेख में रहना पड़ा।‘
श्री वीरेन्द्र जी लिखित में मुझ से क्षमा मांगें तथा पत्रिका के अगले अंक में
सुधार छापें।
कष्ट के लिए क्षमाप्रार्थी हूं पर वास्तव में मैं इतनी आहत हूं कि अपने को रोक
नहीं पाई। अपूर्ण कथा आत्मकथात्मक उपन्यास है शतप्रतिशत आत्मकथा नहीं, और उसमें भी
उन्होंने ठीक से पढा नहीं। कुछ पढा और कुछ समझा है।
शुभाकांक्षी
शारदा
त्यागी
मेरा कोई इरादा त्यागी जी का चरित्र हनन या श्रीमती त्यागी को भावनात्मक ठेस
पहुंचाना नहीं था इसलिए मैंने तुरंत निम्नांकित खेद पत्र लिख कर पत्रिका को भेज
दिया जिसने दोनों पत्रों को अपने नोट के साथ अगले अंक में छाप दिया।
आदरणीया शारदा जी
सादर अभिवादन
प्रस्तुत लेख गत तीस वर्षों में अपने प्रिय लेखक के सम्बन्ध में पढी सुनी गयी
जानकारी पर आधारित श्रद्धांजलि और अपने समय की निर्ममता को पहचानने की दृष्टि से
लिखा गया था।
यद्यपि मेरे द्वारा हुयी तथ्यात्मक त्रुटि मुझे मिली गलत सूचनाओं और
निष्कर्षों पर आधारित है जिसके लिए मैं ह्रदय से दुखी और क्षमा प्रार्थी हूं तथा
चाहता हूं कि मेरी यह क्षमा याचना, सम्बन्धित पत्रिका समेत अधिकतम माध्यमों में
सार्वजनिक हो। उनके लघु उपन्यास अपूर्ण कथा पर नफीस आफरीदी की टिप्पणी [प्रतिनिधि
रचनाएं पृष्ठ 336] तथा हिन्द पाकेट बुक में
अपूर्ण कथा में से याद रह गये अंश तथा त्यागी जी के दफ्तर में कार्यरत एक
कोई मलिक नामक स्टाफ [जो बाद में [1979 में] गाजियाबाद के नवयुग मार्केट की किसी
प्राईवेट फर्म में प्रबन्धक थे जो मेरी बैंक शाखा के निकट थी] से हुयी बातचीत के
आधार पर निकाले निष्कर्षों के कारण यह भूल हुयी है। पर भूल निश्चित रूप से मेरी है
जो मेरे ऊपर अधिक विश्वास होने के कारण ज्ञान चतुर्वेदी सहित कई सम्पादकों की
नजरों से भी गुजर गयी। मैं इस भूल के लिए सचमुच बेहद दुखी हूं और यथाशीघ्र आपसे
मिलकर भी क्षमा याचना करना चाहूंगा। मुझे विश्वास है कि आप अपने विशाल ह्रदय से
मुझे क्षमा करेंगीं। मैं उपरोक्त प्रकाशित लेखों में से अपनी भूलवश की गयी टिप्पणी
को वापिस लेता हूं। मुझे अफसोस इस बात का हो रहा है कि अपने उस प्रिय लेखक के
परिवार के हित में मैं कुछ नहीं कर सका जिसने मेरे लेखन के लिए आदर्श ढांचा दिया था,
उल्टे उसके निधन के बाद उसके परिवार को पीड़ा पहुंचायी।
मुझे सचमुच बेहद दुख है।
क्षमाप्रार्थी
वीरेन्द्र
जैन
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शारदा जी ने बड़ी
बहिन और भाभी की तरह मुझे क्षमा कर दिया और निम्नांकित पत्र भेजा –
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शारदा त्यागी
w/o स्व. श्री रवीन्द्रनाथ त्यागी
दूरभाष :
0133-2679133
मो. 9897288095
17-7-2005
‘शमशेर
हाउस’
1/1
तेग बहादुर रोड II
देहरादून. 248001
उत्तरांचल
माननीय भाई
वीरेन्द्र जी,
नमस्कार,
मेरे पत्र के उत्तर
में अक्षरा के नए अंक में आपका उत्तर पढा। पढ कर ही मालूम हुआ कि आप मेरे पति के
इतने सच्चे प्रशंसक हैं। जान कर मन को कुछ ढांढस बँधा।
आप कभी इधर आएं तो अवश्य दर्शन दीजिए,
या यदि कभी देहली आएं तो इधर दूर नहीं है, आप सपरिवार आएं तो और भी हर्ष होगा।
मेरे लिए अब यह घर मेरा नहीं है, बल्कि मेरे पति की यादों व साथ बिताए हुए दिनों
का एक स्थान है जो मेरे लिए एक मन्दिर की भांति है। यह मैं आपको इसलिए लिख रही हूं
कि आप स्वयं देखें और विश्वास कर सकें तथा मन से गलत भ्रांतियां निकाल सकें।
मैं आपको डा. गोयनका की पुस्तक के
पृष्ठ 336 की फोटो कापी भेज रही हूँ। उसमें ऐसा कुछ नहीं है जैसा कि आपने समझा।
हाँ मैं मि. मलिक के बारे में कुछ नहीं जानती कि वह कौन बेबकूफ सज्जन थे पर हाँ
यदि आप जानते हैं तो उनका पता अवश्य दें। मैं आपको छोटे भाई की भाँति मान कर यह
पत्र लिख रही हूं, अतः अन्यथा न लें। श्रीमती शर्मा को नमस्कार। बच्चों को
स्नेहाशीष।
[* शायद वे जल्दी में श्रीमती जैन की जगह श्रीमती शर्मा लिख गयी थीं]
[* शायद वे जल्दी में श्रीमती जैन की जगह श्रीमती शर्मा लिख गयी थीं]
स्वस्थ व
सानन्द होंगे.
उत्तर
अवश्य देंगे।
आपकी
भाभी
शारदा
त्यागी
पत्नी.
स्व. श्री रवीन्द्र नाथ त्यागी
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मैंने लौटती डाक से पृष्ठ
336 की वे पंक्तियां अन्डरलाइन कर के भेज दीं जिसमें श्री अफरीदी ने लिखा था कि -
“यतीन [कथा नायक का नाम] अपनी पत्नी के प्रति अनंत प्रेम रखता है और विनीता के प्रेम में भी डूबा है। पर फिर भी सच्चाई से नहीं मुकरता, ईमानदारी का दामन नहीं छोड़ता...”
“यतीन [कथा नायक का नाम] अपनी पत्नी के प्रति अनंत प्रेम रखता है और विनीता के प्रेम में भी डूबा है। पर फिर भी सच्चाई से नहीं मुकरता, ईमानदारी का दामन नहीं छोड़ता...”
अपूर्णकथा भाग-2 के
बिना ये पंक्तियां कैसे आ सकती हैं! बहरहाल शारदा जी पहले ही लिख चुकी थीं कि
अपूर्णकथा आत्मकथात्मक उपन्यास है, शत प्रतिशत आत्मकथा नहीं।
बाद में श्रीमती
शारदा त्यागी ने व्य्ंग्य यात्रा [अप्रैल- सितम्बर 2006] अंक में एक लेख में लिखा –
‘इसी प्रकार एक बहुत
ही शानदार विशेषांक निकला जो कि त्यागी जी की स्मृति को समर्पित है। वह वास्तव में
संग्रहणीय अंक है। परंतु उसमें एक लेखक ने बहुत शानदार लेख लिखा उसमें ऐसी बातें
उनके जीवन के बारे में लिखीं जो पूर्ण रूप से गलत थीं। जब मैंने उन्हें पत्र लिख
कर सब बातों के बारे में लिखा तो उन्होंने माफी मांगते हुए लिखा कि मुझे कुछ
भ्रांति हो गई और खेद है कि मैंने आपको कष्ट व मानसिक वेदना पहुंचाई। वे सज्जन
पुरुष हैं, मैं उनका सम्मान करती हूं परंतु यह दुख होता है कि हम पूरी सच्चाई जाने
बिना ही लिख देते हैं।‘
******************
मैंने अपने भ्रम की जड़ें तलाशने के
लिए त्यागी जी के उपलब्ध साहित्य से कुछ और सामग्री तलाशी। बहुत प्रयास के बाद भी
अपूर्ण कथा भाग-2 की प्रति तो नहीं मिल सकी, किंतु उनके लेखों से कुछ ऐसे संकेत
मिले जिन्होंने अनजाने में मेरे मन में कथित धारणा बनायी होगी जैसे-
मुझे त्यागी जी के एक व्यंग्य जो प्रयाग पर लिखा
गया था, में यह टिप्पणी मिली-
“ मेरी पहली संतान
भी [जो पुल्लिंग थी और है] भी मुझे वहीं प्राप्त हुई। सिविल सर्विस की परीक्षा भी
मैंने प्रयाग केन्द्र से ही उत्तीर्ण की और जीवन में प्रथम प्रेम का अनुभव भी
मैंने वहीं प्राप्त किया। मेरे दुर्भाग्य से यह प्रेम अंत तक पवित्र ही रहा।“
पर यह भी व्यंग्य
लेख का हिस्सा है।
कमल किशोर गोयनका को
दिये अपने साक्षात्कार में उन्होंने अपने कष्ट बताये थे। इनमें अन्य के अलावा
प्रोफेसर न हो पाने की पीड़ा और मानसिक रोगी होने को भी गिनाया है। [प्रतिनिधि
रचनाएं पृष्ठ 325]
इसी साक्षात्कार में
अपने उपन्यास ‘अपूर्ण कथा’ के बारे में पूछे गये सवाल के उत्तर में वे कहते हैं कि
अपूर्ण कथा आत्मकथात्मक उपन्यास होने पर भी पूर्ण रूप से हो नहीं पाया। मैं आपके
इस विचार से सहमत हूं। मैं जब इसे दुबारा लिखूंगा तो इसमें आत्मकथात्मक अंश कम
करूंगा। [वही पृष्ठ 330]
अपूर्णकथा की
समीक्षा में देवेश ठाकुर लिखते हैं “ इस प्रकार यतीन बाह्य संघर्षों से तो जीत
जाता है, लेकिन प्रणय की एक छोटी सी घटना उसे कचोटती रहती है। लेखक ने इस घटना को
जितनी सहजता, सच्चाई, और संजीदगी से अपनी मूल संघर्ष-गाथा से जोड़ा है उससे अंत में
जाकर यह घटना ही मूल कथा बन गई है और पाठक को देर तक अपने से बाँधे रखती है।
.......... हम कहना चाहते हैं कि स्त्री पुरुष सम्बन्धों के सन्दर्भ में जैनेन्द्र
साहित्य का कोई भी पुरुष पात्र इतना ईमानदार साहसी और सच्चा नहीं है जितना कि
अपूर्ण कथा का यतीन। “
त्यागी जी में सच कहने का साहस है इसलिए वे जिस वैराग भाव से लेखन करते थे
उसमें झूठ कहने की गुंजाइश ही नहीं रहती क्योंकि लेखन को उन्होंने कभी यश प्राप्त
करने का साधन नहीं बनाया और बाद के दिनों में पद व धन तो उनके पास पेट भर था।
त्यागी जी साहित्य को सामाजिक परिवर्तन का साधन नहीं मानते थे और ना ही ऐसे
किसी विचार से जुड़े थे। वे जो देखते थे उसे अपनी दृष्टि से प्रस्तुत करते थे। एक
निर्मोही की तरह दुनिया के लोभ लालच पर हँसते हुये और दूसरों को हँसा कर दुनिया के
लोभ लालच को उजागर करते हुये। उन्होंने इतनी मौतों को इतने निकट से देखा है कि
उनके व्यग्यों में मृत्यु के दृश्य बार बार आये हैं। मैंने तो एक बार किसी पत्रिका
में लिखा भी था कि अगर मुझे कभी त्यागी जी की सभी पुस्तकें एक साथ मिल जायेंगीं तो
मैं उनके मृत्यु पर लिखे हुए पर ही एक शोध पेपर लिख दूंगा। मुझे समय मिला तो मैं
त्यागीजी को दुबारा सम्पूर्ण पढना चाहूंगा व उन पर और लिखना चाहूंगा।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
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