एक सरल व्यंग्यकार –
शंकर पुंताम्बेकर
वीरेन्द्र जैन
हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, और रवीन्द्रनाथ त्यागी जैसे चार
गुम्बजों के बाद जो दूसरा क्रम आता है उनमें शंकर पुंताम्बेकर का नाम प्रमुख लोगों
में लिया जा सकता है।
थोड़ा दूर से शुरू करना पड़ेगा। मेरी दतिया में एक विभूति थे जिन्हें राम प्रसाद
कटारे के नाम से जाना जाता था व बाद में वे दादाजी कहलाये। वे जाति से गहोई वैश्य
थे और व्यवसाय से सर्राफ, किंतु स्वतंत्रता के बाद वे पुरानी रियासत रही दतिया में
सर्वाधिक सक्रिय संस्कृति पुरुष के रूप में पहचाने गये। जब भी किसी सांस्कृतिक
आयोजन की भूमिका बनती थी तो सबसे पहले उनका नाम लिखा जाता था। कवि सम्मेलन हो,
रामलीला हो, गीता के प्रवचन हों, संगीत सभा हो, हाकी का मैच हो या कुश्ती वे सभी
के आयोजन में कार्यकारिणी के प्रमुख पद पर बैठाये जाते थे और यथा सम्भव आर्थिक मदद
भी करते थे। कलाकार उनके घर मेहमान होते थे और किसी भी क्षेत्र के प्रत्येक नामी
व्यक्ति के नगर में आने पर उनका दर स्वागत के लिए खुला रहता था। मित्रता में उनके
लिए उम्र का कोई बन्धन नहीं था। वे मेरे पिता के भी मित्र रहे थे, मेरे भी और मेरे
बेटे के उम्र के लोगों के भी। मैंने और उनने रजनीश को साथ साथ पढा था, पर मैं तो
केवल पाठक रहा पर उनने रजनीश के सहजता के सन्देश को जीवन में उतार लिया। मुक्त
हास्य. कोई बनावट नहीं, कोई औपचारिकता नहीं। जब तक उनके हाथ में पैसा रहा तब तक
उनने खुल कर खर्च किया। मैं मजाक में कहता था कि वे साहित्य प्रेमी नहीं
साहित्यकारप्रेमी हैं। उनकी कोशिश तो पूरे परिवार को संस्कृति के क्षेत्र में लाने
की थी किंतु चार में से एक पुत्र ओम कटारे फिल्म और नाटक के क्षेत्र में सफल हुये
व एक पुत्री संगीत के क्षेत्र में। यह भूमिका मैंने इसलिए बाँधी है क्योंकि ऐसे ही
मेरे एक मित्र भोपाल में थे और वे थे जब्बार ढाकवाला जो हर लोकप्रिय कला व समाज
सेवा के क्षेत्र में चर्चित विभूतियों का स्वागत करने को आतुर रहते थे। वे मध्य
प्रदेश में प्रशासनिक अधिकारी थे व बाद में आईएएस होकर विभिन्न पदक्रम में रहे
किंतु वे व्यंग्यकार और कवि भी थे। उन्हें मित्र कहने वाले बहुत सारे लोग मिल
जायेंगे किंतु वे दिल से मुझे मित्र मानते थे। परिणाम यह होता था कि विशिष्ट लोगों
की मेजबानी में मुझे बराबरी से उनका साथ देना होता था, जो मुझे भी अप्रिय नहीं लगता
था। नामी लोगों से मिल कर ‘बेनामी’ लोग भी खुश हो लेते हैं।
उनके पास पद था, स्टाफ था, संसाधन थे इसलिए उनका आमंत्रण लोग स्वीकार कर लेते
थे। ऐसे ही एक अवसर पर मेरी पहली मुलाकात 1995 में शंकर पुण्ताम्बेकर जी से जब्बार
के निवास पर हुयी, जो किसी आयोजन में भोपाल आने के बाद उनके घर आमंत्रित थे। याद
पड़ता है कि उस समय ज्ञान चतुर्वेदी और अंजनी चौहान भी वहाँ थे। अपनी कुरेदने की आदत में मैंने उनसे अन्य
सवालों के बीच पूछ लिया था कि परसाई और शरद जोशी में से आप किसको अपने लेखन के
निकट पाते हैं? उन्हें बुरा लगा था और बोले कि यह सवाल ठीक नहीं है, ज्ञानजी ने भी
उनकी बात का समर्थन किया था और मैं मुस्करा कर रह गया था। तब तक मैंने उनकी रचनाएं
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में पढी तो थीं व उनके कद से परिचित था किंतु कोई रचना
विशेष दिमाग में दर्ज नहीं हो पायी थी।
ऐसे ही सहज बातचीत के अन्दाज में मैंने उनसे कहा कि कभी दतिया में मेरे मकान
के एक हिस्से में भी एक पुंताम्बेकर जी रहते थे जो टेलीफोन विभाग में थे। वे बोले
कि वह मेरा भतीजा है और मैं पिछले दिनों उसके मकान के गृह प्रवेश में दतिया गया था
तब मैंने तुम्हारे बारे में भी पूछा था [ धर्मयुग में मेरे नाम के साथ दतिया लगा
होने के कारण बहुत सारे लोगों को दतिया के साथ मैं याद आता रहा हूं] इस तरह मेरी
उनसे आत्मीयता स्थापित हो गयी। पत्रिकाओं में प्रकाशित परिचित लोगों की रचनाएं
प्राथमिकता में पढ ली जाती हैं और इस तरह उनके ज्यादातर व्यंग्य मैंने पढ लिये।
हिन्दी में पहली पीढी के जितने भी प्रसिद्ध व्यंग्यकार हुये हैं वे या तो
स्वतंत्र लेखक हुये हैं या अधिकारी। भाषा व साहित्य का अध्यापन उनका व्यवसाय नहीं
रहा। किंतु ग्वालियर और विदिशा में रह कर पढे पुंताम्बकर जी अंत तक हिन्दी साहित्य
के अध्यापन से जुड़े रहे। वे मध्य प्रदेश में ही जन्मे और कुछ वर्षों तक यहीं
अध्यापन भी किया। बाद में वे जलगाँव चले गये थे, जहाँ एक कालेज में प्राध्यपक रहे।
उनकी रचनाओं में उनका अध्यापक नजर आता है। मुझे याद आ रहा है कि एक बार कलकत्ता
में आयोजित जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन में राजेन्द्र यादव ने कहा था कि
कालेज के प्रोफेसर लोग या तो कविताएं लिखते हैं या आलोचना क्योंकि कहानी लिखने में
जान लगती है।
मेरी पहली व्यंग्य पुस्तक 1984 में छपी थी. फिर उसके बाद नौकरी छोड़ने तक मैं
लेखन में उतना सक्रिय नहीं रह सका जितना कि पहले था। बीस साल बाद जब दूसरी किताब
आयी तो उसी समय लखनऊ में अट्टहास का कार्यक्रम आ गया और राग दरबारी के यशस्वी लेखक
श्रीलाल शुक्ल जी से पुस्तक का विमोचन कराने का लालच पैदा हो गया। वे उस कार्यक्रम
के अंतर्गत होने वाली गोष्ठी के मुख्य अतिथि थे और उसी कार्यक्रम में विमोचन हो
गया। इसी वर्ष का अट्टहास सम्मान पुंताम्बेकर जी को मिला था। अस्सी वर्ष की उम्र
में वे बेटी को साथ लेकर आये थे जिनकी उम्र भी लगभग पचपन-साठ वर्ष के असपास रही
होगी और गलतफहमी से बचने के लिए उन्हें बार बार बेटी का परिचय कराना पड़ रहा था। सादगी
से रहने वालों के साथ ऐसा संकट भी पैदा हो सकता है, तब यह महसूस हुआ था। मैंने आपस
में मित्रों से कहा था कि दिल्ली से आने वाले लोगों को तो अपनी साथी महिला का
परिचय पत्नी के रूप में कराना पड़ता है ताकि कोई बेटी न समझ ले, पर यहाँ मामला
उल्टा है।
जल्दी में प्रतियां कम आ पायी थीं, जो विमोचन के लिए मंच पर दी गयी प्रतियों
में ही निबट गयीं, फिर भी मैंने एक प्रति पुंताम्बेकर जी के लिए सुरक्षित रखी और्
गैस्ट हाउस में लौट कर भेंट की। उनसे आग्रह किया कि फुरसत निकाल कर पढॆ और अपनी
प्रतिक्रिया जरूर दें। जलगांव पहुंच कर उन्होंने पत्र लिखा कि अभी वे अपनी पुस्तक
में व्यस्त हैं और इस काम से मुक्त होते ही जरूर लिखेंगे। मुझे लगा कि यह
बहानेबाजी है और यह सोच मन मसोस कर बैठ गया कि मैं खुद भी तो कई पुस्तकों को पढने
तक का समय नहीं निकाल पाता जिन्हें प्रेमी मित्रों ने बहुत आग्रह पूर्वक भेंट की
हुयी होती है, फिर पुंताम्बेकर जी तो बड़े लेखक हैं।
लगभग एक वर्ष वाद उनका पत्र आया और अलग लिफाफे में लम्बी समीक्षा मिली।
उन्होंने औपचारिकता नहीं निभायी थी अपितु एक एक रचना को गहराई से जांच कर लिखा था
और मुझे व जवाहर चौधरी को अपने समकालीनों में महत्वपूर्ण बतलाया था। आम तौर पर मैं
प्रशंसा से खुश नहीं होता हूं क्योंकि मेरे परिवेश में मुँह पर की गयी प्रशंसा को विश्वसनीय
नहीं माना जाता रहा है, पर उन्होंने उसी समीक्षा में लगे हाथ जो कमजोरियां भी
गिनायी थीं उससे भरोसा बनता था। उन्होंने लिखा था-
'हम्माम के बाहर' भी वीरेन्द्र जैन लिखित छोटीबड़ी रचनाओं का एक ऐसा व्यंग्य संग्रह
है जिसे सुधी पाठक बारबार पढ़ना चाहेगा। हरीश नवल, रामविलास जांगिड़, अरविन्दर निपारी, जवाहर चौधरी जैसे कुछ लेखक इधर व्यंग्य में ऐसा कुछ लिख रहे
हैं जिसे पढ़कर ऐसा लगता है कि व्यंग्य पक्की सड़क पर है। वीरेन्द्र जैन भी ऐसे ही लेखकों
में सें हैं। इनका पहला व्यंग्य संग्रह था 'एक लुहार की' जो बीस वर्ष पूर्व छपा था। जैन इस बीच यदि धीमी गति से न लिखते, मैदान में कलम के साथ कमर कसे डंटे रहते तो इस लंबे अवकाश में
उनके अवश्य ही चारपाँच संग्रह प्रकाशित हो जाते। इस दशा में वे औरों के संग्रहों के
लिए फ्लैप मैटर लिखते, स्वयं अपने संग्रह के लिए
इसकी खातिर मुहताज न होते। हाँ, जैन की
कलम में ऐसी ही धार है जो ग्रंथ संरचना के अभाव में लोगों तक पहुंच नहीं पायी। कुछकुछ
यही स्थिति जवाहर चौधरी के साथ है। दुख की बात है कि गुणात्मकता के आधार पर जैन और
चौधरी को व्यंग्यजगत् ठीक से जानता ही नहीं।
मेरे धन्यवाद पत्र के उत्तर में उन्होंने मूल्यांकन के क्षेत्र में चल रही
धांधलियों के बारे में बिना नाम लिये इंगित किया था। बाद में उनसे पत्र व्यवहार
जारी रहा और वे तत्परता से पत्रोत्तर देते रहे। बहुत छोटे छोटे अक्षरों में भी उनकी
लिखावट इतनी स्पष्ट होती थी कि कोई भी शब्द पढने के लिए निगाह पर जोर नहीं देना
पड़ता था।
जैसे सरल वे रहन सहन में थे वैसे ही लेखन में भी। जैसे बिना जोर लगाये भी महत्वपूर्ण
बात बोली जा सकती है वैसा ही उनका लेखन भी था। खेद की बात है कि खुद उन पर बहुत कम
लिखा गया।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
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