असली दोषी का सुधार
कौन करेगा?
वीरेन्द्र जैन
दिल्ली
की बस में गैंग रेप की शिकार युवती की मृत्यु के बाद भड़की जनभावनाओं को देखते न्याय
व्यवस्था द्वारा उस पर हमला करने वालों को जल्दी से जल्दी कानून सम्मत कठोरतम सजा
देने का दायित्व बनता है। भले ही फाँसी की सजा से मृतक की वापिसी नहीं होती किंतु
कठोर सजा से समाज में वह माहौल बनता है जिसके डर से दूसरा कोई वैसा अपराध करने से
पहले कुछ क्षण सोचने को विवश हो सकता है। किसी एक मामले में दी गयी सजा उस पीड़ित
को न्याय देने तक ही सीमित नहीं रहती अपितु वह सम्भावित अपराधों को रोकने का भी
काम करती है। पर जब न्याय व्यवस्था इस या उस कारण से लम्बे समय तक आरोपियों को सजा
नहीं दे पाती तो वह अपराधों को बढाने के लिए भी जिम्मेदार होती है। उल्लेखनीय है
कि जब सराकारी और गैरसरकारी लोग इस मामले में फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन की माँग कर
रहे थे तब वे देर से न्याय मिलने के दोष पर भी परोक्ष में टिप्पणी कर रहे थे
जिसमें न्याय को अन्याय के समकक्ष रख दिया जाता है। किसी लोकतांत्रिक समाज में
बढती हिंसा उस समाज में न्याय व्यवस्था के कमजोर होने का प्रतीक भी होती है।
संवैधानिक
न्याय के समानांतर सामाजिक न्याय भी चलता है और कई बार वह संवैधानिक न्याय से भिन्न
अधिक कठोर या कमजोर होता है। हमारे समाज में स्त्रियों के खिलाफ होने वाले अपराधों
में संवैधानिक न्याय और सामाजिक न्याय में बहुत भेद हैं। जहाँ किसी भी वालिग
स्त्री या पुरुष को बिना जाति, धर्म, गोत्र, या भाषा पर विचार किये [शादी की तय
उम्र पर] विवाह करने का अधिकार है वहीं समाज में विधर्मी से, दूसरी जाति वाले से
ही नहीं अपितु अपने गोत्र में विवाह करने पर भी हजारों सम्भावनाशील नौजवानों,
नवयुवतियों की हत्याएं प्रति दिन हो रही हैं और इन हत्यारों को सजा देने के लिए
कोई फास्ट ट्रैक कोर्ट नहीं बनाये जा रहे। मैं पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी भाषी
क्षेत्र में हुयी इन हत्याओं का रिकार्ड रख रहा हूं और पाता हूं कि कोई सप्ताह ऐसा
नहीं जाता जब किसी न किसी आनर किलिंग का समाचार सामने न आये। इन प्रकरणों में भी
घर की बेटी बहिन को अधिक सरलता से मार देने की घटनाएं ज्यादा घट रही हैं। बिडम्बनापूर्ण
यह है कि वोटों के चक्कर में इन हत्यारों की खिलाफत करने का काम राजनेता या
राजनीतिक दल नहीं कर रहे हैं क्योंकि इन हत्यारों को अपने जाति समाज का समर्थन
प्राप्त है।
नारी
के खिलाफ यौन अपराधों के पीछे सबसे बड़ा दोष हमारी सामाजिक सोच का है जिसके अनुसार
अपराध से पीड़ित महिला के साथ सहानिभूति की जगह लोग उसी को दोषी ही नहीं अपितु
चरित्रहीन भी समझते हैं और वह सामाजिक उपहास का पात्र भी बनती है। यही कारण होता
है कि पीड़ित महिलाएं इन अपराधों को छुपाने का प्रयास करती हैं और अपराधी समाज में
सम्मानित घूमते हैं। घर परिवार के कमजोर लोग भी अपना गुस्सा महिला पर ही उतारते
हैं क्योंकि समाज में उक्त अपराध के लिए उस परिवार को भी जिम्मेवार माना जाता है
जो अपने घर की महिलाओं को स्वतंत्रता पूर्वक विचरण करने की अनुमति देते हैं।
सामाजिक मान्यता यह है कि महिलाओं को पुरुष या घर के नियंत्रण में रहना चाहिए और
कम से कम बाहर निकलना चाहिए। पर्दा और घूंघट प्रथा ही नहीं अपितु अभिजात्य वर्ग
में ‘असूर्यपश्या’ [जिसको सूरज भी नहीं देख सके] होना ही उसकी सुरक्षा का आधार
माना गया था। बिडम्बना पूर्ण स्थिति यह है कि कुल अपराध का बहुत कम हिस्सा ही
सामने आ पाता है जिससे अपराधियों के हौसले बुलन्द होते रहते हैं। मजदूर जातियों और
वर्गों की महिलाओं को अपने जीवन यापन के लिए बाहर निकलने की मजबूरी रही है जिससे
सबसे अधिक यौन अपराध उन्हीं जातियों की महिलाओं के खिलाफ होते रहे हैं जो प्रयास
करने के बाद भी उच्च वर्ग और वर्ण के खिलाफ न्याय भी पा सकने में समर्थ नहीं हो
पातीं। यदि कोई अविवाहित लड़की बलात्कार की
शिकार हो जाती है तो यौन शुचिता को विवाह की शर्त मानने वाले हमारे समाज का कोई भी
व्यक्ति उससे विवाह करने के लिए तैयार नहीं होता और न ही उसके परिवार के लोग उस
लड़की को बहू बनाने के लिए तैयार होते हैं। यही कारण है कि कुँवारी लड़कियों के
खिलाफ सबसे अधिक यौन अपराध होते हैं और उन्हें ही सबसे अधिक छुपाया जाता है। इसलिए
यौन अपराधों के खिलाफ कोई भी कानूनी मुहिम शुरू करने के साथ साथ जरूरी है कि समाज में
कुछ धारणाओं को बदलने का अभियान चलाया जाये। यौन अपराधों के खिलाफ आगे आने वाले
पुरुषों को बड़े स्तर पर यह घोषित करना होगा कि वे स्वयं या परिवार में ऐसी किसी
लड़की को विवाह के लिए अपात्र नहीं समझेंगे जिसके खिलाफ कभी यौन अपराध हुआ हो। समाज
में प्रतिष्ठित महिलाओं समेत उन सारी महिलाओं को इस बात के लिए प्रेरित करना होगा
कि उनके जीवन में जब भी कोई किसी भी तरह के यौन अपराध का प्रयास हुआ हो तो वे उसका
खुलासा करें ताकि निर्दोष पीड़िताएं किसी हीन भावना का शिकार न हो सकें। बंगलादेश
की प्रसिद्ध लेखिका तस्लीमा नसरीन ने अपने लेखन में इस तरह का प्रयास किया है और
समाज के कुछ जाने माने लोगों के चेहरों की असलियत को उजागर किया है। पिछले दिनों
विख्यात पत्रिका हंस में भी कुछ लेखिकाओं ने आत्मस्वीकार श्रंखला के अंतर्गत हमारे
दोहरे समाज की सच्चाईयों को सामने लाने का प्रयास किया था। जब से सार्वजनिक जीवन
में महिलाओं की भागीदारी बढी है तब से उनका घर से निकलना भी जरूरी हुआ है और
स्वतंत्र महिला को घरेलू महिला की तरह सम्मान की दृष्टि से न देखने वाला समाज उनके
घर से बाहर निकलने को उनकी कमजोरी समझ कर आक्रामक हो जाता रहा है। इस सोच में
अपेक्षित बदलाव की गति बहुत धीमी है।
परिवार
नियोजन के संसाधन विकसित होने के बाद यौन सम्बन्धों के बहुत से नये आयाम सामने आये
हैं, क्योंकि यौन सम्बन्धों से गर्भधारण का परिणाम स्वैच्छिक हो गया है। यही कारण
है कि बिना विवाह के यौन सम्बन्धों में बढोत्तरी हुयी है और लिव इन रिलेशन जैसे
नये तरह के सम्बन्धों को कानूनी मान्यताएं मिली हैं भले ही समाज ने अभी उन्हें
पूरी तरह से मान्यता न दी हो। इस मामले में स्वाभाविक रूप से पुरुषों द्वारा ही
प्रस्ताव किये जाते रहे हैं और नारी के मौन को या कमजोर इंकार को उसकी स्वीकृति
माना जाता रहा है। परिवर्तन के दौर में समाज कई स्तरों पर काम करता है और नारी के
इंकार के बारे में भ्रम होना सहज सम्भव है। इसे ठीक से न समझने वाले लोग भी इंकार
को लज्जा समझ कर ज्याद्ती कर जाते हैं। अधिक खुले समाज की समझ में भी अब यह बात आ
जानी चाहिए कि नारी के इंकार का मतलब इंकार ही है।
जो
राजनीति पूरे तंत्र पर नियंत्रण करती है उसका एक बड़ा हिस्सा सिद्धांतहीन होकर उसे
सत्ता, सम्पत्ति पाने का साधन बना बैठा है। यौन अपराधों के बड़े बड़े मामले इसी
क्षेत्र में घटित हो रहे हैं जिनमें से अनेक तो सार्वजनिक हो चुके हैं जब कि
दबावों में अधिकांश सामने नहीं आ पाते। कैसी बिडम्बना है कि जो लोग स्वयं ही शपथ
पत्र देकर कह रहे हैं कि उन पर यौन अपराधों के प्रकरण दर्ज हैं उनको भी राजनीतिक
दल संसद या विधान सभा के लिए टिकिट दे रहे हैं। पिछले दिनों सांसदों और विधायकों
की ऐसी सूची मीडिया में सामने आयी है पर बड़े बड़े वक्तव्य देने वाले किसी भी
राजनीतिक दल ने अपने ऐसे सदस्यों से स्तीफा नहीं माँगना तो दूर उनके लिए फास्ट
ट्रैक कोर्ट में प्रकरण चलाने की माँग भी नहीं की है।
कानूनी
परिवर्तन के साथ सामाजिक परिवर्तनों का बीड़ा उठाना भी बहुत जरूरी है और उसके लिए
वे ही व्यक्ति या संस्थाएं आगे आ सकती हैं जिनका समाज में कुछ प्रभाव है। जिन
युवाओं ने आगे आकर इस घटना पर अपने गुस्से की अभिव्यक्ति दी है उन्हीं पर यह
जिम्मेवारी भी आती है कि वे सामाजिक परिवर्तन के लिए भी पहल करें। स्मरणीय है कि
अपने अछूतोद्धार और साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए ही गान्धीजी पुरातनपंथियों की नफरत
के शिकार बने थे और उन्हें अपनी जान गँवानी पड़ी थी। उनकी मूर्ति लगाने वालों ने
उनके आदर्शों और कामों को छोड़ दिया है जबकि सच यह है कि बिना सामाजिक परिवर्तन के
समानांतर कोई भी राजनीतिक परिवर्तन सफल नहीं हो सकता। देखना होगा कि समाज के दोषों
में सुधार लाने का बीड़ा कौन उठाता है!
वीरेन्द्र जैन
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