सोमवार, दिसंबर 31, 2012

असली दोषी का सुधार कौन करेगा!


असली दोषी का सुधार कौन करेगा?
वीरेन्द्र जैन

       दिल्ली की बस में गैंग रेप की शिकार युवती की मृत्यु के बाद भड़की जनभावनाओं को देखते न्याय व्यवस्था द्वारा उस पर हमला करने वालों को जल्दी से जल्दी कानून सम्मत कठोरतम सजा देने का दायित्व बनता है। भले ही फाँसी की सजा से मृतक की वापिसी नहीं होती किंतु कठोर सजा से समाज में वह माहौल बनता है जिसके डर से दूसरा कोई वैसा अपराध करने से पहले कुछ क्षण सोचने को विवश हो सकता है। किसी एक मामले में दी गयी सजा उस पीड़ित को न्याय देने तक ही सीमित नहीं रहती अपितु वह सम्भावित अपराधों को रोकने का भी काम करती है। पर जब न्याय व्यवस्था इस या उस कारण से लम्बे समय तक आरोपियों को सजा नहीं दे पाती तो वह अपराधों को बढाने के लिए भी जिम्मेदार होती है। उल्लेखनीय है कि जब सराकारी और गैरसरकारी लोग इस मामले में फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन की माँग कर रहे थे तब वे देर से न्याय मिलने के दोष पर भी परोक्ष में टिप्पणी कर रहे थे जिसमें न्याय को अन्याय के समकक्ष रख दिया जाता है। किसी लोकतांत्रिक समाज में बढती हिंसा उस समाज में न्याय व्यवस्था के कमजोर होने का प्रतीक भी होती है।
       संवैधानिक न्याय के समानांतर सामाजिक न्याय भी चलता है और कई बार वह संवैधानिक न्याय से भिन्न अधिक कठोर या कमजोर होता है। हमारे समाज में स्त्रियों के खिलाफ होने वाले अपराधों में संवैधानिक न्याय और सामाजिक न्याय में बहुत भेद हैं। जहाँ किसी भी वालिग स्त्री या पुरुष को बिना जाति, धर्म, गोत्र, या भाषा पर विचार किये [शादी की तय उम्र पर] विवाह करने का अधिकार है वहीं समाज में विधर्मी से, दूसरी जाति वाले से ही नहीं अपितु अपने गोत्र में विवाह करने पर भी हजारों सम्भावनाशील नौजवानों, नवयुवतियों की हत्याएं प्रति दिन हो रही हैं और इन हत्यारों को सजा देने के लिए कोई फास्ट ट्रैक कोर्ट नहीं बनाये जा रहे। मैं पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी भाषी क्षेत्र में हुयी इन हत्याओं का रिकार्ड रख रहा हूं और पाता हूं कि कोई सप्ताह ऐसा नहीं जाता जब किसी न किसी आनर किलिंग का समाचार सामने न आये। इन प्रकरणों में भी घर की बेटी बहिन को अधिक सरलता से मार देने की घटनाएं ज्यादा घट रही हैं। बिडम्बनापूर्ण यह है कि वोटों के चक्कर में इन हत्यारों की खिलाफत करने का काम राजनेता या राजनीतिक दल नहीं कर रहे हैं क्योंकि इन हत्यारों को अपने जाति समाज का समर्थन प्राप्त है।    
       नारी के खिलाफ यौन अपराधों के पीछे सबसे बड़ा दोष हमारी सामाजिक सोच का है जिसके अनुसार अपराध से पीड़ित महिला के साथ सहानिभूति की जगह लोग उसी को दोषी ही नहीं अपितु चरित्रहीन भी समझते हैं और वह सामाजिक उपहास का पात्र भी बनती है। यही कारण होता है कि पीड़ित महिलाएं इन अपराधों को छुपाने का प्रयास करती हैं और अपराधी समाज में सम्मानित घूमते हैं। घर परिवार के कमजोर लोग भी अपना गुस्सा महिला पर ही उतारते हैं क्योंकि समाज में उक्त अपराध के लिए उस परिवार को भी जिम्मेवार माना जाता है जो अपने घर की महिलाओं को स्वतंत्रता पूर्वक विचरण करने की अनुमति देते हैं। सामाजिक मान्यता यह है कि महिलाओं को पुरुष या घर के नियंत्रण में रहना चाहिए और कम से कम बाहर निकलना चाहिए। पर्दा और घूंघट प्रथा ही नहीं अपितु अभिजात्य वर्ग में ‘असूर्यपश्या’ [जिसको सूरज भी नहीं देख सके] होना ही उसकी सुरक्षा का आधार माना गया था। बिडम्बना पूर्ण स्थिति यह है कि कुल अपराध का बहुत कम हिस्सा ही सामने आ पाता है जिससे अपराधियों के हौसले बुलन्द होते रहते हैं। मजदूर जातियों और वर्गों की महिलाओं को अपने जीवन यापन के लिए बाहर निकलने की मजबूरी रही है जिससे सबसे अधिक यौन अपराध उन्हीं जातियों की महिलाओं के खिलाफ होते रहे हैं जो प्रयास करने के बाद भी उच्च वर्ग और वर्ण के खिलाफ न्याय भी पा सकने में समर्थ नहीं हो पातीं। यदि कोई अविवाहित लड़की  बलात्कार की शिकार हो जाती है तो यौन शुचिता को विवाह की शर्त मानने वाले हमारे समाज का कोई भी व्यक्ति उससे विवाह करने के लिए तैयार नहीं होता और न ही उसके परिवार के लोग उस लड़की को बहू बनाने के लिए तैयार होते हैं। यही कारण है कि कुँवारी लड़कियों के खिलाफ सबसे अधिक यौन अपराध होते हैं और उन्हें ही सबसे अधिक छुपाया जाता है। इसलिए यौन अपराधों के खिलाफ कोई भी कानूनी मुहिम शुरू करने के साथ साथ जरूरी है कि समाज में कुछ धारणाओं को बदलने का अभियान चलाया जाये। यौन अपराधों के खिलाफ आगे आने वाले पुरुषों को बड़े स्तर पर यह घोषित करना होगा कि वे स्वयं या परिवार में ऐसी किसी लड़की को विवाह के लिए अपात्र नहीं समझेंगे जिसके खिलाफ कभी यौन अपराध हुआ हो। समाज में प्रतिष्ठित महिलाओं समेत उन सारी महिलाओं को इस बात के लिए प्रेरित करना होगा कि उनके जीवन में जब भी कोई किसी भी तरह के यौन अपराध का प्रयास हुआ हो तो वे उसका खुलासा करें ताकि निर्दोष पीड़िताएं किसी हीन भावना का शिकार न हो सकें। बंगलादेश की प्रसिद्ध लेखिका तस्लीमा नसरीन ने अपने लेखन में इस तरह का प्रयास किया है और समाज के कुछ जाने माने लोगों के चेहरों की असलियत को उजागर किया है। पिछले दिनों विख्यात पत्रिका हंस में भी कुछ लेखिकाओं ने आत्मस्वीकार श्रंखला के अंतर्गत हमारे दोहरे समाज की सच्चाईयों को सामने लाने का प्रयास किया था। जब से सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी बढी है तब से उनका घर से निकलना भी जरूरी हुआ है और स्वतंत्र महिला को घरेलू महिला की तरह सम्मान की दृष्टि से न देखने वाला समाज उनके घर से बाहर निकलने को उनकी कमजोरी समझ कर आक्रामक हो जाता रहा है। इस सोच में अपेक्षित बदलाव की गति बहुत धीमी है।
       परिवार नियोजन के संसाधन विकसित होने के बाद यौन सम्बन्धों के बहुत से नये आयाम सामने आये हैं, क्योंकि यौन सम्बन्धों से गर्भधारण का परिणाम स्वैच्छिक हो गया है। यही कारण है कि बिना विवाह के यौन सम्बन्धों में बढोत्तरी हुयी है और लिव इन रिलेशन जैसे नये तरह के सम्बन्धों को कानूनी मान्यताएं मिली हैं भले ही समाज ने अभी उन्हें पूरी तरह से मान्यता न दी हो। इस मामले में स्वाभाविक रूप से पुरुषों द्वारा ही प्रस्ताव किये जाते रहे हैं और नारी के मौन को या कमजोर इंकार को उसकी स्वीकृति माना जाता रहा है। परिवर्तन के दौर में समाज कई स्तरों पर काम करता है और नारी के इंकार के बारे में भ्रम होना सहज सम्भव है। इसे ठीक से न समझने वाले लोग भी इंकार को लज्जा समझ कर ज्याद्ती कर जाते हैं। अधिक खुले समाज की समझ में भी अब यह बात आ जानी चाहिए कि नारी के इंकार का मतलब इंकार ही है। 
       जो राजनीति पूरे तंत्र पर नियंत्रण करती है उसका एक बड़ा हिस्सा सिद्धांतहीन होकर उसे सत्ता, सम्पत्ति पाने का साधन बना बैठा है। यौन अपराधों के बड़े बड़े मामले इसी क्षेत्र में घटित हो रहे हैं जिनमें से अनेक तो सार्वजनिक हो चुके हैं जब कि दबावों में अधिकांश सामने नहीं आ पाते। कैसी बिडम्बना है कि जो लोग स्वयं ही शपथ पत्र देकर कह रहे हैं कि उन पर यौन अपराधों के प्रकरण दर्ज हैं उनको भी राजनीतिक दल संसद या विधान सभा के लिए टिकिट दे रहे हैं। पिछले दिनों सांसदों और विधायकों की ऐसी सूची मीडिया में सामने आयी है पर बड़े बड़े वक्तव्य देने वाले किसी भी राजनीतिक दल ने अपने ऐसे सदस्यों से स्तीफा नहीं माँगना तो दूर उनके लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट में प्रकरण चलाने की माँग भी नहीं की है।
       कानूनी परिवर्तन के साथ सामाजिक परिवर्तनों का बीड़ा उठाना भी बहुत जरूरी है और उसके लिए वे ही व्यक्ति या संस्थाएं आगे आ सकती हैं जिनका समाज में कुछ प्रभाव है। जिन युवाओं ने आगे आकर इस घटना पर अपने गुस्से की अभिव्यक्ति दी है उन्हीं पर यह जिम्मेवारी भी आती है कि वे सामाजिक परिवर्तन के लिए भी पहल करें। स्मरणीय है कि अपने अछूतोद्धार और साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए ही गान्धीजी पुरातनपंथियों की नफरत के शिकार बने थे और उन्हें अपनी जान गँवानी पड़ी थी। उनकी मूर्ति लगाने वालों ने उनके आदर्शों और कामों को छोड़ दिया है जबकि सच यह है कि बिना सामाजिक परिवर्तन के समानांतर कोई भी राजनीतिक परिवर्तन सफल नहीं हो सकता। देखना होगा कि समाज के दोषों में सुधार लाने का बीड़ा कौन उठाता है!
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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बुधवार, दिसंबर 19, 2012

अनुदान के नगद भुगतान की योजना और सामाजिक संरचना


अनुदान के नकद भुगतान की योजना और सामाजिक संरचना
वीरेन्द्र जैन
       1985 में कांग्रेस के मुम्बई अधिवेशन के अवसर पर श्री राजीव गान्धी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दिये पहले भाषण की बहुत प्रशंसा हुयी थी जिसमें राजनैतिक कुटिलताओं से मुक्त देश के एक शुभेक्षु युवा की मासूम छवि नजर आयी थी। इसी भाषण का वह वाक्य बहुत चर्चित हुआ था जिसमें उन्होंने कहा था कि हम दिल्ली से जो एक रुपया गरीबों के लिए भेजते हैं तो उसमें से उनके पास कुल पन्द्रह पैसे ही पहुँच पाते हैं। विपक्षियों ने इसका अर्थ यह लगाया था कि पिचासी पैसे भ्रष्टाचार की भेंट चढ जाते हैं जिसके लिए सरकार और सत्तारूढ दल ही जिम्मेवार हैं जिसकी स्वीकरोक्ति स्वय़ं कांग्रेस के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री ने स्वय़ं की है, वहीं सत्तारूढ दल और नौकरशाही ने उसकी व्याख्या इस तरह की थी कि गरीबों के सशक्तीकरण की जो योजनाएं लागू की जाती हैं उनको संचालित करने के खर्चे में ही पिचासी प्रतिशत राशि खर्च हो जाती है व हितग्राही के हिस्से में कुल पन्द्रह पैसे ही आते हैं। गत दिनों विभिन्न तरह के अनुदानों को सीधे उस अनुदान के पात्रों के बैंक खातों में जमा करने की योजना ने राष्ट्रीय स्तर पर वैसी ही उत्तेजना पैदा की है।
       उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों अन्ना हजारे के नाम पर भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़े गये अभियान को जनता का मुखर और मौन दोनों तरह का जबरदस्त समर्थन मिला था तथा विभिन्न सूचना माध्यमों ने उस आन्दोलन का व्यापक प्रचार प्रसार किया था। भले ही बाद में वह आन्दोलन पूरी तरह से बिखर गया और उसकी सामने आयी विसंगतियों ने उसे हास्यास्पद स्तिथि तक पहुँचा दिया पर जनता के समर्थन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आम जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त है और वह उसके खिलाफ छेड़े जाने वाले किसी भी आन्दोलन को बिना सोचे समझे भी समर्थन देने के लिए तैयार हो जाती है। गत दिनों मध्यप्रदेश समेत अधिकांश राज्यों में सीबीआई, आयकर विभाग, या लोकायुक्त द्वारा मारे गये छापों में सरकारी अधिकारियों या मंत्रिमण्डल के सदस्यों के निकट रिश्तेदारों के पास से करोड़ों रुपये की सम्पत्तियां मिलने से भी भ्रष्टाचार की व्यापाकता के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। अधिकांश भ्रष्टाचार विकास योजनाओं या कमजोर वर्ग के सशक्तिकरण के लिए लागू की गयी योजनाओं में होता रहा है जिससे उस कमजोर वर्ग तक वह अनुदान पूरा नहीं पहुँच पाता है जिसे देने के लिए योजनाएं घोषित और कार्यांवित की जाती रही हैं। नकद भुगतान योजना सरकार और लाभ देने के लिए चयनित समुदाय के बीच सक्रिय ‘बिचौलियों’ को हटाने का प्रयास है।
       विपक्ष द्वारा इस योजना की जो औपचारिक आलोचना हो रही है उसमें आशंकाएं अधिक व्यक्त की जा रही हैं, जिससे यह संकेत मिलते हैं कि उन्हें योजना से नहीं अपितु उसके कार्यांवित करने की क्षमता पर भरोसा नहीं है। यह योजना भ्रष्टाचार से पीड़ित जनमानस को एक मरहम की तरह लग रही है पर छुटभैए राजनेताओं, नौकरशाहों या भ्रष्टाचार से लाभांवित होने वाले लोगों को निजी कारणों से अप्रिय लग रही है।
       यदि इस योजना के व्यवहारिक पक्ष को देखा जाये तो ऐसा लगता है कि हमारी सरकारें अभी इस स्थिति में नहीं हैं जो इस योजना को लागू कर सकें। हमारे पास अभी तक कोई जनसंख्या रजिस्टर तैयार नहीं है और न ही जनता को उनकी आय के अनुसार सही वर्गीकृत करता हुआ कोई विश्वसनीय सर्वेक्षण मौजूद है। एक कस्बे में एक अध्यापक और एक व्यापारी का लड़का एक ही कक्षा में पढते थे और दोनों ही प्रथम आते थे, पर एक स्कालरशिप ऐसी थी जो आयकर न देने वाले परिवार के प्रतिभाशाली बच्चों को ही मिलती थी। सेठजी की आमदनी बहुत अधिक थी पर वे सही टैक्स नहीं चुकाते थे पर अध्यापक को आयकर की सीमा में होने के कारण मिलने वाले वेतन से आयकर सीधे कट जाता था जिस कारण व्यापारी के लड़के को तो स्कालरशिप मिलती थी पर अध्यापक के लड़के को स्कालरशिप नहीं मिलती थी। दुखी अध्यापक इसी कारण से सरकार के घनघोर विरोधी हो गये थे। जहाँ किसी किसी दफ्तर के चपरासी तक के पास करोड़ों रुपये निकलते हों वहाँ ऐसी योजनाओं के क्रियांवयन के पहले बहुत सारे दूसरे काम करने होंगे, जिनमें सबके आधार कार्ड तैयार करना और सबकी सही आय का सही सही आकलन करना जरूरी है।
       किसी भी अनुदान को देने के पीछे कोई न कोई कारण या लक्ष्य होता है इसलिए यह जरूरी होता है कि दिया गया अनुदान उसी घोषित लक्ष्य की पूर्ति करता हो। उदाहरण के लिए अगर शिक्षा के लिए दिये गये किसी अनुदान को नगद भुगतान में बदल दिया जाता है और सम्बन्धित बच्चे के परिवार के लोग उस राशि को अपने अन्धविश्वास से प्रेरित कार्यों में खर्च कर देते हैं तो उस अनुदान का लक्ष्य ही बदल जायेगा। उल्लेखनीय है कि इन दिनों लाखों की संख्या में धर्मगुरु की वेशभूषा में घूम रहे ठग सामान्य सरल आस्थावान भावुक लोगों का धन हड़पने के लिए सक्रिय हैं जिनके कारनामे यदा कदा प्रकाश में आते रहते हैं। इसलिए नगद भुगतान की योजना के साथ साथ सम्बन्धित कार्य के क्रियांवयन को सुनिश्चित किये जाने की व्यवस्था भी करनी होगी। हमारी बहुत सारी योजनाएं एक आदर्श पूंजीवादी समाज की मान्यता के आधार पर बनायी जाती हैं जबकि हमारे समाज का बड़ा हिस्सा अभी भी सामंती मानसिकता में जकड़ा हुआ है। मैं अपनी बैंकिंग सेवा के अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में घर के बुजर्ग की भव्य तेरहवीं करना या बच्चों की शादी की धूमधाम में पानी की तरह पैसा बहाना, ट्रैक्टर ऋण की किश्त चुकाने की तुलना में प्राथिमिकता पर आते हैं जबकि कृषि विकास के लिए ऋण देने से सम्बन्धित हमारी योजनाओं में इनका कोई स्थान नहीं होता है और हम सोचते रह जाते हैं कि फसल अच्छी होने के बाद भी ऋणों की वसूली क्यों नहीं हो रही।
       किसी व्यवस्था में किये गये आर्थिक विकास उस देश के सामाजिक विकास के समानुपाती होते हैं, पर हमारे यहाँ विदेशी अनुदान प्राप्त गैरसरकारी संगठनों की संख्या में जबरदस्त बढोत्तरी के बाद भी सामाजिक परिवर्तन के लिए आन्दोलन छेड़ने वाली संस्थाएं समाप्तप्रायः हो गयी हैं। स्मरणीय है कि देश में आज़ादी की लड़ाई लड़ने के साथ साथ गान्धीजी ने राजतंत्र को समाप्त करने की नींव भी डाली थी। वे अपने लक्ष्य को इसलिए पा सके क्योंकि उन्होंने अपनी राजनीतिक लड़ाई के साथ साथ समाज सुधार के आन्दोलन भी किये। अछूतोद्धार, जाति प्रथा उन्मूलन, कुष्ट रोगियों की सेवा, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना, स्वदेशी आन्दोलन में चरखे और खादी का प्रचार, आश्रमों का संचालन, सर्वधर्म प्रार्थना सभाएं आदि साथ साथ चलाये और न केवल जनता को अपने साथ जोड़ा अपितु उसे शिक्षित भी किया।

      
                नगद अनुदान देकर विचौलियों को निर्मूल करने का विचार अच्छा तो है किंतु यह देखना भी जरूरी है कि यह विचार अपने लक्ष्य में सफल भी हो इसलिए उसकी कमियों को दूर करने के लिए जरूरी उपाय भी समानांतर रूप से चलाये जाने चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, दिसंबर 05, 2012

गुजरात में चुनाव जीतने का नकली आत्मविश्वास्


गुजरात में चुनाव जीतने का नकली आत्मविश्वास 
वीरेन्द्र जैन
       गोएबल्स के अनुसार अगर एक झूठ को जोर शोर से सौ बार बोला जाये तो लोगों को उसके सत्य होने का भरोसा होने लगता है। यह सिद्ध हो चुका है कि झूठ को प्रचारित करने और अफवाहें फैलाने के मामले में संघ परिवारियों का कोई सानी नहीं है और इसी हथियार के भरोसे वे गुजरात विधानसभा के चुनावों में मोदी की सुनिश्चित जीत का प्रचार लगातार कर रहे हैं। हमारे यहाँ के मतदाताओं को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। पहले प्रकार के मतदाता तो वे हैं जो किसी राजनीतिक दल में सक्रिय हैं, और किसी भी हालत में उसी दल को वोट करते हैं, भले ही दल ने किसी भी तरह के गम्भीर अपराधों के आरोपी को प्रत्याशी बनाया हो। दूसरी तरह के मतदाता वे हैं जो राजनीतिक रूप से जागरूक हैं और दल के सिद्धांत, घोषणापत्र, अथवा प्रत्याशी के गुणदोष, पिछले कार्यकलाप, के अनुसार अपना मत तय करते हैं। तीसरे तरह के अदूरदर्शी मतदाताओं में जातिवादी, क्षेत्रवादी तथा बिकाऊ मतदाता आते हैं जो व्यक्तिगत या तात्कालिक लाभ को देखते हुए उम्मीदवार की घोषणा के बाद उसकी जाति देख कर या मतदान वाले दिन पैसे, शराब साड़ी कम्बल आदि के अनुसार वोट देते हैं। तीनों तरह के मतदाताओं के मत का मूल्य एक समान होता है, यही कारण है सत्ता या विपक्ष के कामकाज का एक सा असर पड़ने के बाद भी देश के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग परिणाम आते हैं।
       गुजरात के आगामी विधानसभा चुनावों में व्यापक तौर पर मोदी की जीत का वितान बाँधा जा रहा है। स्मरणीय है कि हिन्दू साम्प्रदायिकता से प्रभावित एक छोटे से वर्ग को छोड़ कर, मोदी इस समय देश के सबसे बड़े खलनायकों में गिने जाते हैं, और ऐसा मानने में उनके दल का भी एक बड़ा हिस्सा सम्मलित है। भाजपा के बहुत सारे लोग यह मानते हैं कि एनडीए के क्षरण और केन्द्र में उनकी सरकार के पतन के पीछे गुजरात में 2002 में हुए नरसंहार की बड़ी भूमिका थी। यहाँ तक कि बाहर के देश भी उन्हें अपने यहाँ नहीं देखना चाहते रहे और उन्हें बीजा देने से इंकार कर चुके हैं। तीन वर्ष पूर्व हुए 2009 के लोकसभा चुनाव के नतीजे बताते हैं कि कांग्रेस और बीजेपी के मतों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। 26 लोकसभा सीटों में कांग्रेस ने 12 सीटों पर जीत दर्ज की थी व 14 सीटें बीजेपी को मिलीं थीं। मत प्रतिशत के लिहाज़ से देखें तो कुल मतदान 47.89 फीसदी हुआ था जिसमें से 46.5 फीसदी वोट बीजेपी को और 43.5 फीसदी वोट कांग्रेस को मिले थे।  वोटों की गिनती के हिसाब से बीजेपी को कुल 81 लाख 28 हज़ार 858 वोट मिले थे जबकि कांग्रेस को 75 लाख 79 हज़ार 957 वोट मिले। निर्दलीयों के खाते में 5 फीसदी वोट गए यानी 10 लाख वोट उन्हें भी हासिल हुए। आंकड़ों से साफ है कि बीजेपी से बहुत ज्यादा पीछे कांग्रेस नहीं है। उल्लेखनीय है के गत दिनों पश्चिम बंगाल में पराजित होने वाले बाममोर्चे को पिछले चुनावों में मिले वोटों से नौ लाख वोट अधिक मिले थे व उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को पिछले चुनावों से 37 लाख वोट अधिक मिले थे किंतु मतदान प्रतिशत अभूतपूर्व ढंग से बढ जाने के कारण ये सत्तारूढ दल पिछड़ गये थे। इस बार गुजरात में भी मतदान प्रतिशत का बढना तय है इसलिए मतदान के पुराने अनुपातों से अनुमान लगाना कठिन होगा।
       यहाँ यह उल्लेख करना जरूरी लगता है कि गुजरात के इन विधानसभा चुनावों में भाजपा का कोई नाम ही नहीं ले रहा अपितु पूरा चुनाव मोदी बनाम कांग्रेस के तौर पर लड़ा जा रहा है। यह केवल मोदी के दुष्कर्मों द्वारा अर्जित पहचान का ही परिणाम है कि उन्होंने स्वयं को पार्टी से ऊपर प्रचारित करवा लिया है। स्वयं को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी प्रचारित कराने से न केवल सबसे शिखर के नेता पूर्व प्रधान मंत्री पद प्रत्याशी लालकृष्ण अडवाणी ही असंतुष्ट रहे हैं, अपितु आरएसएस के बहुत महत्वपूर्ण नेता व पूर्व प्रवक्ता एम.जी. वैद्य ने तो यह तक कह दिया है कि भाजपा के अध्यक्ष गडकरी के खिलाफ लगाये गये भ्रष्टाचार के आरोपों की मुहिम में नरेन्द्र मोदी का हाथ है। इससे भी तय है कि भाजपा के वर्तमान अध्यक्ष नितिन गडकरी समेत संघ और भाजपा के अनेक नेता भले ही भाजपा की जीत चाह रहे हों किंतु मोदी की जीत नहीं ही चाह रहे होंगे। भाजपा से छिटके प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री केशूभाई पटेल जिन्हें पटेल जाति के मतों सहित संघ के एक वर्ग का समर्थन भी प्राप्त है, ने मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ रही कांग्रेस की उम्मीदवार के समर्थन में अपने उमीदवार का नाम वापिस ले लिया है।  स्मरणीय है कि गत दिनों हुआ भाजपा का जो राष्ट्रीय अधिवेशन मुम्बई में हुआ था उसे नरेन्द्र मोदी गुजरात में कराने पर अड़े हुए थे किंतु संघ और गडकरी ने उनके प्रस्ताव को ठुकराते हुए अधिवेशन स्थल मुम्बई में ही रखा था। स्मरणीय यह भी है कि इस अधिवेशन के दौरान मोदी ने तब तक इसमें भाग लेना मंजूर नहीं किया था जब तक कभी उनके साथ गुजरात में प्रचारक रहे संजय जोशी को बिना किसी घोषित आरोप के पार्टी से निकल जाने को नहीं कह दिया गया। यह आदेश संघ के अनुशासन से चलने वाले नेताओं ने कितने बेमन से किया इसका संकेत तो इसी बात से मिल जाता है कि अगले दिन आमसभा के लिए श्री अडवाणी और सुषमा स्वराज आदि वहाँ नहीं रुके थे। भाजपा की पत्रिका कमल सन्देश में पत्रिका सम्पादक प्रभात झा ने अपने सम्पादकीय में मोदी की निन्दा की थी, ऐसी ही आलोचना भाजपा के मुखपत्र आर्गनाइजर ने भी की थी। गुजरात में कभी संजय जोशी बतौर संघ प्रचारक नरेन्द्र मोदी से अधिक लोकप्रिय और वरिष्ठ रहे थे तथा उनके चाहने वाले वहाँ अभी भी समुचित संख्या में हैं जिसका प्रमाण उन्हें स्तीफा देने को मजबूर किये जाने के बाद उनके समर्थन में लगाये गये लाखों पोस्टरों से मिल जाता है। स्मरणीय यह भी है कि जिस हिन्दू साम्प्रदायिकता के सहारे स्वयं को गुजरात का शासक बनाये हुए हैं उसके सबसे बड़े खिलाड़ियों में से एक हिन्दुत्व के स्वयंभू ठेकेदार डा, प्रवीण तोगड़िया पिछले कई सालों से उनके सबसे बड़े विरोधी हैं। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ निलम्बित आईपीएस संजीव भट्ट की पत्नी कांग्रेस के टिकिट पर चुनाव लड़ रही हैं। उल्लेखनीय है कि  उनके पति ने जाँच समितियों को 2002 के दंगों के लिए जिम्मेवार लोगों के बारे में सच सच बता दिया था जिस कारण उन पर झूठे आरोप लगा कर उन्हें निलम्बित कर दिया गया है और उनके परिवार ने केन्द्र सरकार से सुरक्षा की गुहार लगायी है। एक ईमानदार और समर्पित पुलिस अधिकारी के साथ हुए इस तरह के व्यवहार से प्रदेश के ईमानदार और सक्रिय पुलिस अधिकारियों में रोष होना स्वाभाविक है जो प्रशासनिक अधिकारियों के साथ मिल कर मोदी को सत्तारूढ होने के अतिरिक्त लाभ नहीं लेने देंगे।
       उत्तरांचल में सरकार के जाने, यूपी में मुँह की खाने और पंजाब में ग्राफ के गिरने, कर्नाटक में येदुरप्पा के इशारे पर सरकार के लटकने की स्थिति आ जाने के बाद पार्टी के रूप में भाजपा आगे बढती हुयी नजर नहीं आती जिसकी स्वीकरोक्ति पिछले दिनों ही श्री अडवाणी ने यह कह कर की थी कि लोग भाजपा को कांग्रेस के विकल्प के रूप में नहीं देख रहे। पिछले दिनों भ्रष्टाचार के बड़े बड़े खुलासों में कोई भी ऐसा नहीं था जिसके छींटों से भाजपा के नेता मुक्त हों। भाजपा शासित अन्य राज्यों में तो प्रतिदिन कोई न कोई खुलासा हो ही रहा है जिससे दल के रूप में भाजपा को अपेक्षाकृत बेहतर छवि का लाभ भी नहीं मिल रहा। गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति के मामले में मोदी ने लगातार आठ साल तक जो टालामटोली की उससे उनकी सरकार के अन्दर चल रही गतिविधियों के संकेत मिलते हैं। मोदी की सरकार में ही गृहमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर रहे गोरधन भाई जदाफिया ने मोदी के कार्यकाल में एक लाख करोड़ के 17 घोटालों का आरोप लगाया है और जिसके लिए वे देश के राष्ट्रपति से भी गत वर्ष सितम्बर में मिल चुके हैं।
       यह आत्मविश्वास की कमी का ही परिणाम है कि वे ट्विटर पर नकली फालोअर बनवा कर भ्रम पैदा करा रहे हैं, गत अक्टूबर में लन्दन की एक कम्पनी ने ट्विटर के आंकड़ों का पर्दाफाश करते हुए यह गड़बड़ी पकड़ी थी और बताया था कि दस लाख फालोअर्स का दावा करने वाली साइट के आधे से अधिक फालोअर्स नकली हैं। यही हाल टाइम पत्रिका के मुखपृष्ठ पर आने और कवर स्टोरी छपने का है। उल्लेखनीय है कि मोदी कारवान के पत्रकार से मिलने से इंकार कर देते हैं पर टाइम के पत्रकार से मिलने के लिए सहर्ष राजी हो जाते हैं! यहां पर उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि एक समय टाइम ने बिहार कैडर के आइएएस गौतम गोस्वामी को 2004 में पर्सन ऑफ द इयरपुरस्कार से नवाजा था। बिहार में आई बाढ़ के दौरान उनके काम की काफी सराहना हुई थी, लेकिन बाद में बाढ़ पीडि़तों के फंड में बड़े पैमाने पर हुए घोटाले में उनका नाम उजागर हुआ था। प्रैस के साथ मोदी के सम्बन्धों का हाल यह है कि उन्होंने टाइम्स आफ इंडिया के अहमदाबाद संस्करन के सम्पादक भरत देसाई, और टाइम्स चैनल के राहुल सिंह के विरुद्ध देशद्रोह का मामला बनवाया था। दंगा पीड़ितों की मदद करने वाली कम्युनल काम्बेट की सम्पादक तीस्ता शीतलवाड़ के विरुद्ध अनेक मुकदमे चलवाये। दूसरी ओर साम्प्रदायिक आधार पर खबरें लिखने वाले ‘सन्देश’ और ‘गुजरात समाचार’ की प्रशंसा की। 
       गुजरात चुनाव में काँटे की टक्कर है क्योंकि एनडीए के घटक दल ही नहीं स्वयं भाजपा का एक गुट, संघ व विश्वहिन्दू परिषद भी मोदी के खिलाफ है इसलिए चुनाव परिणाम हमेशा की तरह अनिश्चितता भरे हैं व मोदी की सुनिश्चित जीत बतायी जाने वाली सभी खबरें झूठी और बनावटी हैं।

वीरेन्द्र जैन
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