अनुदान के नकद
भुगतान की योजना और सामाजिक संरचना
वीरेन्द्र जैन
1985
में कांग्रेस के मुम्बई अधिवेशन के अवसर पर श्री राजीव गान्धी के प्रधानमंत्री
बनने के बाद दिये पहले भाषण की बहुत प्रशंसा हुयी थी जिसमें राजनैतिक कुटिलताओं से
मुक्त देश के एक शुभेक्षु युवा की मासूम छवि नजर आयी थी। इसी भाषण का वह वाक्य
बहुत चर्चित हुआ था जिसमें उन्होंने कहा था कि हम दिल्ली से जो एक रुपया गरीबों के
लिए भेजते हैं तो उसमें से उनके पास कुल पन्द्रह पैसे ही पहुँच पाते हैं।
विपक्षियों ने इसका अर्थ यह लगाया था कि पिचासी पैसे भ्रष्टाचार की भेंट चढ जाते
हैं जिसके लिए सरकार और सत्तारूढ दल ही जिम्मेवार हैं जिसकी स्वीकरोक्ति स्वय़ं
कांग्रेस के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री ने स्वय़ं की है, वहीं सत्तारूढ दल और
नौकरशाही ने उसकी व्याख्या इस तरह की थी कि गरीबों के सशक्तीकरण की जो योजनाएं
लागू की जाती हैं उनको संचालित करने के खर्चे में ही पिचासी प्रतिशत राशि खर्च हो
जाती है व हितग्राही के हिस्से में कुल पन्द्रह पैसे ही आते हैं। गत दिनों विभिन्न
तरह के अनुदानों को सीधे उस अनुदान के पात्रों के बैंक खातों में जमा करने की
योजना ने राष्ट्रीय स्तर पर वैसी ही उत्तेजना पैदा की है।
उल्लेखनीय
है कि पिछले दिनों अन्ना हजारे के नाम पर भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़े गये अभियान को
जनता का मुखर और मौन दोनों तरह का जबरदस्त समर्थन मिला था तथा विभिन्न सूचना
माध्यमों ने उस आन्दोलन का व्यापक प्रचार प्रसार किया था। भले ही बाद में वह
आन्दोलन पूरी तरह से बिखर गया और उसकी सामने आयी विसंगतियों ने उसे हास्यास्पद
स्तिथि तक पहुँचा दिया पर जनता के समर्थन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आम जनता
भ्रष्टाचार से त्रस्त है और वह उसके खिलाफ छेड़े जाने वाले किसी भी आन्दोलन को बिना
सोचे समझे भी समर्थन देने के लिए तैयार हो जाती है। गत दिनों मध्यप्रदेश समेत
अधिकांश राज्यों में सीबीआई, आयकर विभाग, या लोकायुक्त द्वारा मारे गये छापों में
सरकारी अधिकारियों या मंत्रिमण्डल के सदस्यों के निकट रिश्तेदारों के पास से
करोड़ों रुपये की सम्पत्तियां मिलने से भी भ्रष्टाचार की व्यापाकता के स्पष्ट संकेत
मिल रहे हैं। अधिकांश भ्रष्टाचार विकास योजनाओं या कमजोर वर्ग के सशक्तिकरण के लिए
लागू की गयी योजनाओं में होता रहा है जिससे उस कमजोर वर्ग तक वह अनुदान पूरा नहीं
पहुँच पाता है जिसे देने के लिए योजनाएं घोषित और कार्यांवित की जाती रही हैं। नकद
भुगतान योजना सरकार और लाभ देने के लिए चयनित समुदाय के बीच सक्रिय ‘बिचौलियों’ को
हटाने का प्रयास है।
विपक्ष
द्वारा इस योजना की जो औपचारिक आलोचना हो रही है उसमें आशंकाएं अधिक व्यक्त की जा
रही हैं, जिससे यह संकेत मिलते हैं कि उन्हें योजना से नहीं अपितु उसके कार्यांवित
करने की क्षमता पर भरोसा नहीं है। यह योजना भ्रष्टाचार से पीड़ित जनमानस को एक मरहम
की तरह लग रही है पर छुटभैए राजनेताओं, नौकरशाहों या भ्रष्टाचार से लाभांवित होने
वाले लोगों को निजी कारणों से अप्रिय लग रही है।
यदि
इस योजना के व्यवहारिक पक्ष को देखा जाये तो ऐसा लगता है कि हमारी सरकारें अभी इस
स्थिति में नहीं हैं जो इस योजना को लागू कर सकें। हमारे पास अभी तक कोई जनसंख्या
रजिस्टर तैयार नहीं है और न ही जनता को उनकी आय के अनुसार सही वर्गीकृत करता हुआ
कोई विश्वसनीय सर्वेक्षण मौजूद है। एक कस्बे में एक अध्यापक और एक व्यापारी का
लड़का एक ही कक्षा में पढते थे और दोनों ही प्रथम आते थे, पर एक स्कालरशिप ऐसी थी
जो आयकर न देने वाले परिवार के प्रतिभाशाली बच्चों को ही मिलती थी। सेठजी की आमदनी
बहुत अधिक थी पर वे सही टैक्स नहीं चुकाते थे पर अध्यापक को आयकर की सीमा में होने
के कारण मिलने वाले वेतन से आयकर सीधे कट जाता था जिस कारण व्यापारी के लड़के को तो
स्कालरशिप मिलती थी पर अध्यापक के लड़के को स्कालरशिप नहीं मिलती थी। दुखी अध्यापक
इसी कारण से सरकार के घनघोर विरोधी हो गये थे। जहाँ किसी किसी दफ्तर के चपरासी तक
के पास करोड़ों रुपये निकलते हों वहाँ ऐसी योजनाओं के क्रियांवयन के पहले बहुत सारे
दूसरे काम करने होंगे, जिनमें सबके आधार कार्ड तैयार करना और सबकी सही आय का सही
सही आकलन करना जरूरी है।
किसी
भी अनुदान को देने के पीछे कोई न कोई कारण या लक्ष्य होता है इसलिए यह जरूरी होता
है कि दिया गया अनुदान उसी घोषित लक्ष्य की पूर्ति करता हो। उदाहरण के लिए अगर
शिक्षा के लिए दिये गये किसी अनुदान को नगद भुगतान में बदल दिया जाता है और
सम्बन्धित बच्चे के परिवार के लोग उस राशि को अपने अन्धविश्वास से प्रेरित कार्यों
में खर्च कर देते हैं तो उस अनुदान का लक्ष्य ही बदल जायेगा। उल्लेखनीय है कि इन
दिनों लाखों की संख्या में धर्मगुरु की वेशभूषा में घूम रहे ठग सामान्य सरल
आस्थावान भावुक लोगों का धन हड़पने के लिए सक्रिय हैं जिनके कारनामे यदा कदा प्रकाश
में आते रहते हैं। इसलिए नगद भुगतान की योजना के साथ साथ सम्बन्धित कार्य के
क्रियांवयन को सुनिश्चित किये जाने की व्यवस्था भी करनी होगी। हमारी बहुत सारी
योजनाएं एक आदर्श पूंजीवादी समाज की मान्यता के आधार पर बनायी जाती हैं जबकि हमारे
समाज का बड़ा हिस्सा अभी भी सामंती मानसिकता में जकड़ा हुआ है। मैं अपनी बैंकिंग
सेवा के अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में घर के
बुजर्ग की भव्य तेरहवीं करना या बच्चों की शादी की धूमधाम में पानी की तरह पैसा
बहाना, ट्रैक्टर ऋण की किश्त चुकाने की तुलना में प्राथिमिकता पर आते हैं जबकि
कृषि विकास के लिए ऋण देने से सम्बन्धित हमारी योजनाओं में इनका कोई स्थान नहीं होता
है और हम सोचते रह जाते हैं कि फसल अच्छी होने के बाद भी ऋणों की वसूली क्यों नहीं
हो रही।
किसी
व्यवस्था में किये गये आर्थिक विकास उस देश के सामाजिक विकास के समानुपाती होते
हैं, पर हमारे यहाँ विदेशी अनुदान प्राप्त गैरसरकारी संगठनों की संख्या में
जबरदस्त बढोत्तरी के बाद भी सामाजिक परिवर्तन के लिए आन्दोलन छेड़ने वाली संस्थाएं
समाप्तप्रायः हो गयी हैं। स्मरणीय है कि देश में आज़ादी की लड़ाई लड़ने के साथ साथ गान्धीजी
ने राजतंत्र को समाप्त करने की नींव भी डाली थी। वे अपने लक्ष्य को इसलिए पा सके
क्योंकि उन्होंने अपनी राजनीतिक लड़ाई के साथ साथ समाज सुधार के आन्दोलन भी किये।
अछूतोद्धार, जाति प्रथा उन्मूलन, कुष्ट रोगियों की सेवा, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति
की स्थापना, स्वदेशी आन्दोलन में चरखे और खादी का प्रचार, आश्रमों का संचालन,
सर्वधर्म प्रार्थना सभाएं आदि साथ साथ चलाये और न केवल जनता को अपने साथ जोड़ा
अपितु उसे शिक्षित भी किया।
नगद अनुदान देकर विचौलियों को निर्मूल करने का विचार अच्छा तो है किंतु यह देखना भी जरूरी है कि यह विचार अपने लक्ष्य में सफल भी हो इसलिए उसकी कमियों को दूर करने के लिए जरूरी उपाय भी समानांतर रूप से चलाये जाने चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629
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