शुक्रवार, जुलाई 25, 2014

अपराध के आँकड़े, राजनीति का हिसाब और अनियंत्रित वाणी



अपराध के आँकड़े, राजनीति का हिसाब  और अनियंत्रित वाणी  
वीरेन्द्र जैन

       सड़क दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या किसी भी तरह की दूसरी घटनाओं में मरने वालों से अधिक है और इसके लिए केवल ट्रैफिक विभाग में चल रही अवैध वसूली ही नहीं अपितु राज्यों में सत्तारूढ दल भी बराबर से ज़िम्मेवार होते हैं क्योंकि व्यावसायिक वाहनों की नियमित वसूली का तय हिस्सा अधिकांश सत्तारूढ दलों के पदेश कार्यालय तक पहुँचता है जिससे कार्यालय संचालित होता है। यह वसूली सुचारु ट्रैफिक के लिए बनाये गये नियमों और करों के भुगतान में उल्लंघन के प्रति आँखें मूँद लेने से ही सम्भव होती है। गम्भीर दुर्घटनाओं के दृश्य बहुत ही दिल दहलाने वाले होते हैं, पर आज तक उसके लिए किसी भी राजनेता या ट्रैफिक अधिकारी को सजा नहीं मिली है। सभी जानते हैं कि ट्रैफिक अधिकारी की नियुक्ति और पदस्थापना में कितना जबरदस्त लेन देन चलता है जिसकी पूर्ति, नियमों के उल्लंघन द्वारा वाहनों के अवैध संचालन की अनदेखी करने पर ही सम्भव हो पाती है। अधिकतर दुर्घटनाएं ऐसे ही वाहनों से होती हैं जो ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन कर चल रहे होते हैं। जिन हत्याओं को अखबार वालों ने आनर किलिंग का नाम दे दिया है उससे जुड़ी हत्याएं या आत्महत्याएं भी निरंतर बढ रही हैं पर उस सामाजिक अपराध को व्यक्तिगत अपराध मान कर कुछ भी नहीं किया जा रहा। दण्ड के भय में कमी अनेक अपराधों को प्रोत्साहित करती है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश काटजू साहब ने अपने एक फैसले में उत्तर प्रदेश में न्यायिक स्थिति पर बहुत कटु टिप्पणी की थी। खाप पंचायतों और प्रेमी प्रेमिका के परिवार के लोगों ने अपने ही आत्मीयों की जिस निर्ममता से हत्याएं की गयी हैं उनके खिलाफ कई सारे दल बोलने से बचते रहे हैं।   
       समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश राज्य की वर्तमान सरकार के सुप्रीमो पिता मुलायम सिंह यादव का यह बयान कि आबादी के अनुपात में उत्तरप्रदेश में बलात्कार बहुत कम हैं एक गलत समय पर फूहड़ तरीके से व्यक्त की गयी आंकड़ागत सच्चाई है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो एक पूर्व अध्यापक राजनेता के साथ यह विवाद भाषा और गणित का सवाल जैसा है जिसमें एक ओर आबादी और यौन अपराध के आंकड़ों का अनुपात निकाला जा रहा है तो दूसरी ओर बयान में उस भाषा की कमी प्रकट होती है जो किसी संवेदनशील स्थिति की मांग होती है। बुन्देली भाषा में एक लोकोक्ति है कि - सच्चाई होते हुए भी माँ को अपने बाप की औरत नहीं कहा जाता। असल में उत्तरप्रदेश का पिछड़ापन, महानगरीय और औद्योगिक संस्कृति विकसित न होने के कारण सामंती सोच का बना रहना, वोटों की राजनीति के कारण जातिवाद और साम्प्रदायिकता का लगातार पल्लवित पुष्पित होते रहना, अपराध और राजनीति का एकाकार हो जाना ही समस्या की मुख्य जड़ में है। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में प्रचलित एक कथन के अनुसार किसी के खेत से ईख उखाड़ लेना और एक जाति विशेष की दलित लड़की को यौन शोषण के लिए पकड़ लेना कोई उल्लेखनीय अपराध नहीं होता। हमने यौन शोषण के खिलाफ भले ही कागजी कानून बना कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली हो पर मानसिकता बदलने के लिए कोई सामाजिक आन्दोलन खड़ा नहीं किया। कभी बहुजन समाज पार्टी के जनक काँशीराम से एक सामाजिक आन्दोलन की उम्मीद की गयी थी पर उनकी राजनीति जल्दी ही फुस्स हो कर दलित वोटों के व्यापार में बदल कर रह गयी। रोचक यह है कि मुलायम सिंह की मुख्य प्रतिद्वन्दी सुश्री मायावती भी कभी बेलाग बोलती थीं पर बाद में वे केवल लिखवा कर लायी गयी परचियों से ही पड़ने लगी थीं। मुलायम सिंह के लिए भी ऐसा ही भाषण लेखक ही नहीं अपितु उनका तो प्रवक्ता भी होना चाहिए।   
       जिन घृणित और निन्दनीय अपराधों का उत्तरप्रदेश में सभी ओर से विरोध हो रहा है वह विरोध सर्वथा उचित होते हुए भी याद रखना होगा कि वे अपराध न तो नये हैं और न ही उनमें एकदम से बाढ आ आ गयी है। इस सदी के पहले दशक मे देश में औसतन 21024 बलात्कारों की शिकायत दर्ज़ हुयी है जबकि सब जानते हैं कि सामंती समाजों में ऐसे अपराधों की शिकायत बहुत ही कम दर्ज़ होती हैं । आनुपातिक रूप से ऐसे ही भयानक अपराध मध्यप्रदेश, राजस्थान, बिहार, छत्तीसगढ, झारखण्ड, उड़ीसा व आन्ध्र प्रदेश में भी वर्षॉं से घटित होते रहे हैं और अभी भी हो रहे हैं, किंतु इनके तीखे विरोध के कुछ कारण हैं जिनमें पहला है कि पुलिस में एक जाति विशेष के लोगों को प्रमुख स्थानों पर तैनात किया जाना और उन लोगों द्वारा अपनी जाति के अपराधियों के खिलाफ कार्यवाही में लापरवाही बरतना। दूसरा सबसे बड़ा कारण वहाँ के सत्तारूढ दल समाजवादी पार्टी का गत लोकसभा चुनाव में पिछड़ना है जिस कारण वहाँ सफल हुयी भाजपा अपनी अभूतपूर्व लोकप्रियता घटने से पहले ही वहाँ चुनाव करा कर अपनी सरकार बना लेना चाहती है। कुछ आंकड़ों का अध्ययन ध्यान देने योग्य है।
दल/वर्ष
2007 विधानसभा
मत प्रतिशत
2009 लोकसभा
मत प्रतिशत
2012 विधानसभा
मत प्रतिशत
2014 लोकसभा
मत प्रतिशत
समाजवादी पार्टी
13267000
25
12885000
23
22090000
29
17989000
22
बीएसपी
15872000
30
15191000
27
19647000
26
15914000
19
भाजपा
08851000
17
09696000
17
11371000
15
34318000
42
कांग्रेस
04489000
09
10113000
18
08832000
12
06061000
08
आरएलडी
01929000
04
01811000
03
01763000
02
00689000
01
     
ये आंकड़े बताते हैं कि भाजपा के पक्ष में लोकसभा चुनाव 2014 के दौरान 2009 की तुलना में ढाई करोड़ वोटों का बढना उसे इस बात के लिए प्रेरित कर रहा है कि वो किसी भी तरह प्रदेश की वर्तमान सरकार को गिराकर अपनी सरकार बना ले क्योंकि विधानसभावार आंकड़े भी उसके पक्ष में हैं।
       इसमें कोई सन्देह नहीं कि यौन शोषण, बलात्कार और नृशंस हत्याओं की घटनाएं निन्दनीय हैं और उस पर भी सरकार की छवि की चिंता में पुलिस द्वारा उन घटनाओं पर लीपापोती की कोशिश, सत्तारूढ दल के नेताओं के असम्वेदनशील बयान जले पर नमक के समान हैं। उनकी जितनी भी भर्त्सना की जाये वह कम है। पर इसके साथ साथ यह भी ध्यान रखने की बात है कि इसके बहाने साम्प्रदायिक नफरत फैला कर वैसे ही अपराध करने वाले राज्य की सत्ता न हथिया लें। अमरनाथ यात्रा के दौरान घोड़ेवालों और लंगरवालों के झगड़े के बाद देश भर के मुसलमानों को तोगड़िया की वह धमकी भी ध्यान देने योग्य है जिसमें वे कहते हैं कि अगर गुजरात भूल गये हो तो मुज़फ्फरनगर तो याद होगा। दुर्भाग्य यह है कि लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का बड़ा हिस्सा अपनी सामाजिक जिम्मेवारियों को भूल कर लालचवश साम्प्रदायिक प्रचार का शिकार बन रहा है। कहीं ऐसा न हो कि गड़रिये से नाराज भेड़ें कसाई की शरण में पहुँच जायें।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629
   

सोमवार, जुलाई 14, 2014

चुनाव जिताने का मापदण्ड और एक भिन्न दल होने का दावा



चुनाव जिताने का मापदण्ड और एक भिन्न दल होने का दावा

वीरेन्द्र जैन
       एक व्यक्ति के चार बेटे थे। पहला बेटा डाक्टर था, दूसरा वकील था, तीसरा इंजीनियर और चौथा कोई अवैध काम करता था। डाक्टर और वकील की प्रैक्टिस सामान्य थी व इंजीनियर नौकरी पाने के लिए भटक रहा था। चौथा बेटा घर में सबसे ज्यादा सम्मानित और प्रिय था क्योंकि घर उसी की कमाई से चल रहा था। भारतीय जनता पार्टी ने भी अपने चौथे बेटे को अपना सबसे ऊंचा पद देते हुये तर्क दिया है कि उसने पिछले आम चुनाव में उत्तरप्रदेश का प्रभावी रहते हुए पार्टी को अस्सी में से इकहत्तर और सहयोगी दल की दो सीटें मिला तिहत्तर सीटें जिता कर केन्द्र में पूर्ण बहुमत वाली पहली भाजपा सरकार बनवायी है। इसी काम के पुरस्कार स्वरूप उन्हें पार्टी अध्यक्ष का पद अर्पित कर दिया गया है। भाजपा के लगभग सारे प्रमुख काम आरएसएस की अनुमति से ही होते हैं इसलिए यह भी तय है कि इसमें संघ का निर्देश या उसकी इच्छा भी सम्मलित होगी। ऐसा करते समय उन्होंने सारे नैतिक मूल्यों को ठेंगा ही नहीं दिखाया है अपितु भिन्न पार्टी होने के दावे को भी झुठला दिया है।
       वैसे भी चुनाव जीतने और सरकार बनाने के लिए भाजपा ने पूर्व में भी किसी भी तरह के नैतिक मूल्य नहीं माने और भारतीय लोकतंत्र में विद्यमान अधिकांश विकृतियों का प्रारम्भ उन्हीं से होता रहा है। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तो उनके दल की स्थापना का मुख्य आधार रहा ही है। विभाजन के दौरान पाकिस्तान क्षेत्र में चले गये स्थानों से आये शरणार्थियों के घावों को हरा रख कर ही उन्होंने राजनीतिक दलों के बीच अस्तित्व बनाया था। पहले आम चुनावों में कांग्रेस तो स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास, अछूतोद्धार, और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के कारण चुनाव जीतने के प्रति आश्वस्त रहती थी पर भाजपा जब जनसंघ के नाम से थी, तब भी उसने. अयोध्या की बाबरी मस्ज़िद में रामलला की मूर्ति रखवाने वाले कलैक्टर के. के नायर को टिकिट दे संसद में भेजने व उनकी पत्नी को टिकिट देने का काम सबसे पहले किया था। आज भी सबसे अधिक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी, पुलिस अधिकारी, सेना अधिकारियों को टिकिट देने वाली यह प्रमुख पार्टी है। चुनाव खर्चों में शुचिताओं का उल्लंघन करने का प्रारम्भ भी इसी पार्टी ने किया जिसे बाद में दूसरों ने भी अपनाया। दलबदल को प्रोत्साहित करने और उससे बनी सरकारों में सम्मलित होने के प्रति वे सदा उत्साहित रहे। दल बदल कानून से पहले विधायको को तोड़ कर उन्हें गुप्त स्थान पर ले जाने के कई अभियानों का संचालन इन्होंने ही किया है। ऐसी कोई भी संविद सरकार नहीं रही जिसमें सम्म्लित होने से उन्होंने गुरेज किया हो जबकि कम्युनिष्टों ने ऐसी सरकारों को अगर समर्थन दिया तो बाहर से समर्थन दिया। जनता पार्टी के गठन के समय तो इन्होंने अपने दल को झूठमूठ उसमें विलीन ही कर दिया था और इसी बात के कारण केन्द्र की यह पहली गैर काँग्रेसी सरकार टूटी भी थी। वीपी सिंह की सरकार में वे कम्युनिष्टों के साथ सम्म्लित होना चाहते थे पर कम्युनिष्टों ने वीपी सिंह को इसी शर्त पर समर्थन दिया कि वे उन्हें इसी शर्त पर बाहर से समर्थन करेंगे जब वे इनको सरकार में शामिल न करें। यही कारण रहा कि प्रारम्भ में वीपी सिंह के सबसे बड़े झंडाबरदार रहने वाली यह पार्टी उनकी सरकार गिराने में सबसे आगे रही और इसके लिए काँग्रेस का भी साथ दिया। उत्तरप्रदेश में सरकार बनाने के लिए छह छह महीने सत्ता चलाने का हास्यास्पद समझौता करना भी उन्हीं के हिस्से में आया है। दलबदल के बाद बनने वाली सरकार में सभी दलबदलुओं समेत सौ सदस्यों का मंत्रिमण्डल भी बनाने का रिकार्ड इन्हीं के नाम है जिसमें कई मंत्रियों ने कई महीनों तक कोई फाइल नहीं देखी। दूसरे दलों से टूट कर आने वाले लोकप्रिय नेताओं को टिकिट देने के लिए अपने पुराने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करना तो आम बात है। अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए के दौरान सरकार बनाने के लिए इन्होंने अपने प्रमुख मुद्दों को स्थगित रख दिया था। अपराधियों, दलबदलुओं, गैरराजनीतिक लोकप्रिय लोगों को टिकिट देने में भी ये दूसरे दलों की तुलना में सबसे आगे रहे। मुलायम सिंह के खिलाफ मोहर सिंह को पहला टिकिट इन्होंने ही दिया था। इन चुनावों में भी वे सांसद जिन पर गम्भीर आपराधिक प्रकरण दर्ज़ हैं सबसे अधिक इन्हीं की पार्टी के हैं।   
       जिन चुनावों के सफल प्रबन्धन का मुकुट अमित शाह के सिर बाँधा गया है उसमें यह भुलाया जा रहा है कि उनमें संसाधनों की प्रचुरता, और विकसित सूचना प्रौद्योगिकी का अभूतपूर्व योगदान है जो इससे पूर्व के नेताओं को उपलब्ध नहीं थीं। सत्तारूढ गठबन्धन के खिलाफ गहरे असंतोष की लहर तो थी ही पर अस्सी में से तिहत्तर सीटें जीतने का विश्लेषण भी देखने की जरूरत है। मुज़फ्फरनगर के प्रायोजित दंगों और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में उनसे फैलायी गयी साम्प्रदायिकता के साथ यह भी विचारणीय है कि इस जाट बैल्ट में अधिकांश टिकिट जातिवाद के आधार पर दिये गये थे। इतना ही नहीं कि मुज़फ्फरनगर के दंगों के आरोपियों को ही टिकिट दिये गये हों अपितु सेना से सेवानिवृत्त जनरल वी के सिंह और मुम्बई से पुलिस कमिश्नर का पद छोड़ कर आये सत्यपाल सिंह को भी इसी क्षेत्र से टिकिट दिया गया। मथुरा से सुप्रसिद्ध अभिनेत्री और नृत्यांगना हेमा मालिनी को टिकिट दिया और उनके जाट धर्मेन्द्र की दूसरी पत्नी होने का प्रचार भी चर्चा में रहा। पूर्वी उत्तर प्रदेश में पटेल वोट लेने के लिए इन्होंने जाति आधारित अपना दल से समझौता किया। कह सकते हैं कि जिस मंडल कमीशन की आलोचना से इन्होंने अपनी पार्टी का विस्तार किया था उन्हीं पिछड़ी जातियों को सर्वधिक टिकिट देकर अपनी जीत सुनिश्चित भी की। जिस गाँधी नेहरू परिवार को वंशवाद के नाम पर निरंतर अपशब्द कहते रहते हैं उसी परिवार से आयी मनेका गाँधी और वरुण गाँधी का टिकिट भी काटने का साहस नहीं कर सके। डुमरियागंज से उन जगदम्बिका पाल को टिकिट दिया जो कुछ दिनों पहले तक यूपीए सरकार में मंत्री ही नहीं थे अपितु प्रवक्ता की तरह भाजपा की घोर आलोचना किया करते थे। चुनाव जीतने के लिए इन्होंने वापिसी की तिथि निकलने के बाद नोएडा के काँग्रेसी उम्मीदवार से दलबदल करवा अपने दल में मिला लिया। अयोध्या क्षेत्र की रैली में पृष्ठ्भूमि में राम मन्दिर का बैनर ही नहीं लगाया अपितु भगवा वेषधारियों में झाँसी से उमाभारती, गोरखपुर से आदित्यनाथ, उन्नाव से स्वामी सच्चिदानन्द, फतेहपुर से निरंजन ज्योति आदि को टिकिट देकर भी हिन्दुत्ववादी दल होने का साफ संकेत दिया। प्रदेश में अच्छी संख्या में मुस्लिम आबादी होने के बाद भी किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार को प्रतीकात्मक रूप से भी टिकिट देने की जरूरत नहीं समझी जबकि पूर्व में ये सुनिश्चित पराजय वाली सीटों पर ऐसा कर लिया करते थे।
       उल्लेखनीय है कि उत्तरप्रदेश में सपा और बसपा जिन्होंने कभी मिलकर सरकार बनायी थी अब कभी न मिल सकने वाले दो ध्रुवों की तरह हैं और उनका विकास जिस सवर्ण विरोध के आधार पर हुआ था उसकी जगह अब आपस के विरोध पर टिका है। उल्लेखनीय है कि उक्त चुनाव में पिछले 2009 के चुनावों से समाजवादी पार्टी के एक प्रतिशत वोट घटे हैं पर उसके कुल मतों में पचास लाख मतों की वृद्धि दर्ज़ की गयी है वहीं बहुजन समाज पार्टी के आठ प्रतिशत वोट घट जाने के बाद भी आठ लाख वोट अधिक मिले हैं। ऐसा नये मतदाताओं के जुड़ने और मतदान प्रतिशत के बढने से सम्भव हुआ है। कांग्रेस को बहुत नुकसान हुआ है और आरएलडी समेत सभी अन्य दल तो लगभग शून्यवत ही हो गये।  
       कुल मिला कर कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों में राजनीतिक सफलता नहीं कूटनीतिक सफलता है। इस आधार पर देश के एक बड़े, और अब सत्तारूढ दल का अध्यक्ष पद जिन्हें अर्पित कर दिया गया है, उनके ऊपर लगे आरोपों को देखते हुए लगता है कि यह पद उनपर चल रहे प्रकरणों में न्यायिक निर्णयों को प्रभावित करने में मदद कर सकता है। पिछले दिनों देखा गया है कि अपनी राजनीतिक जिम्मेवारियों के नाम पर उनके वकील ने उनके अदालत में उपस्थित न होने के लिए यही तर्क दिया था। सबसे दुखद तो यह है कि जिन नितिन गडकरी के पुनः अध्यक्ष चुने जाने के सवाल पर भाजपा में अनेक विरोधी स्वर उभरे थे, वहीं अमित शाह को अध्यक्ष बनाये जाने के सवाल पर भाजपा के अन्दर चूँ भी नहीं हुयी जबकि उन पर लगे आरोप अपेक्षाकृत अधिक गम्भीर प्रकृति के हैं। रोचक यह है कि इमरजैन्सी में काँग्रेसियों के मौन पर सबसे अधिक उँगलियां भाजपा ने ही उठायी थीं।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, जुलाई 09, 2014

शंकराचार्य- साँईभक्त विवाद और साम्प्रदायिक राजनीति का असमंजस



शंकराचार्य- साँईभक्त विवाद और साम्प्रदायिक राजनीति का असमंजस  
वीरेन्द्र जैन
       किसी भी धर्म का प्रादुर्भाव और प्रसार अपने समय की सामाजिक जरूरतों के अनुसार होता है और उस समय के अग्रदूत अपनी समझ के अनुसार समाज के हित में अपने सर्वश्रेष्ठ विचार देते व उनके पक्ष में एक चेतन समूह खड़ा करते रहे हैं। सच यह भी है कि बाद में उन विचारों को जड़ मान, समय के अनुसार उन विचारों को विकसित न करने वाले अनुयायी विचारों के पीछे छुपी जनहितकारी भावना को भुला देते रहे हैं जिससे वह चेतन समूह विभाजित होता रहता है। जैनों में दिगम्बर श्वेताम्बर, बौद्धों में हीनयान और महायान बना तो इस्लाम के मानने वालों में शिया सुन्नी, व ईसाइयों में कैथोलिक व प्रोटेस्टेंट, आदि तो बड़े बड़े विभाजन देखने को मिलते हैं, पर इनके अन्दर भी पंथ दर पंथ पैदा होते रहे हैं। तेरहवीं शताब्दी में माधवाचार्य ने इस क्षेत्र के जिन षड-दर्शनों की चर्चा की है उन में से तीन आस्तिक दर्शन शैव, अर्थात शिव के उपासक, शाक्त अर्थात शक्ति [देवी] के उपासक और वैष्णव अर्थात विष्णु के अवतारों को मानने वाले आते थे। उसी समय के तीन नास्तिक दर्शनों में जैन, बौद्ध, और चार्वाक के दर्शन को मानने वाले भी बड़ी संख्या में थे। बाद के काल में शैव, शाक्त, और वैष्णव हिन्दू के नाम से पहचाने गये। मुगल काल में औरंगजेब जैसे कुछ कट्टर शासकों के समय इन तीन भिन्न दर्शनों के मध्य समीपता बढी, जिसका दुरुपयोग कर अंग्रेजों ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान ‘डिवाइड एंड रूल’ नीति के अनुरूप हिन्दू मुस्लिम टकराव को बढा कर किया।
       लोकतंत्र आने के बाद यही समूह वोट बैंक की राजनीति के काम आने लगे और कुछ राजनीतिक दलों ने अपने स्वार्थ के कारण इस टकराव को बढाया तो दूसरे राजनीतिक दलों ने इससे पैदा हुयी स्थिति का स्वाभाविक लाभ उठाया। इसके परिणाम स्वरूप राजनीति में साम्प्रदायिकता को दूर रखने की सोच वाले दल और संगठन हाशिये पर जाते रहे। इन दिनों साम्प्रदायिक आधार पर राजनीतिक संगठन विकसित करने वाला दल इस विभाजन का चुनावी लाभ लेकर देश में सत्तारूढ है, और जहाँ जहाँ निकट भविष्य में चुनाव होने हैं वहाँ इसी कूटनीति से अधिक सक्रिय है। दूसरी ओर यह भी सच है कि देश की आम जनता अपने धार्मिक विश्वासों के अनुसार पूजा इबादत की स्वतंत्रता तो चाहती है पर साम्प्रदायिक टकराव नहीं चाहती। हमारा संविधान भी ऐसा ही भेदभाव रहित समाज चाहता है और इसी आदर्श के अनुसार उसके नियम व कानून बनाये गये हैं। साम्प्रदायिक टकराव स्वाभाविक रूप से होता नहीं है अपितु निहित स्वार्थों द्वारा पैदा किया जाता है।
       विडम्बना तब पैदा होती है जब अलगाववादी राजनीति के अन्दर ही उसी तर्ज़ पर अलगाव पैदा होने लगता है। हाल ही में शंकराचार्य स्वरूपानन्द सरस्वती ने हिन्दुओं द्वारा शिरडी के साँई बाबा की पूजा के सम्बन्ध में जो विचार व्यक्त किये हैं, उन्हें धार्मिक विमर्श तक सीमित नहीं रहने दिया गया है। केन्द्र सरकार की साध्वी भेष में रहने वाली मुखर केन्द्रीय मंत्री सुश्री उमाभारती ने उसमें हस्तक्षेप करके उसे राजनीतिक रंग में देखने को विवश कर दिया है। जहाँ एक ओर शंकराचार्य स्वरूपानन्द सरस्वती का इतिहास यह रहा है कि उन्होंने साम्प्रदायिक राजनीति करने वालों को धर्म का थोक ठेकेदार नहीं बनने दिया है, और उनकी कूटनीति के शिकार नहीं हुये हैं इसलिए वे लोग उन्हें कांग्रेसी शंकराचार्य कहते रहे हैं। दूसरी ओर शिरडी के साँई बाबा के भक्तों में हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही समुदाय के लोग रहे हैं, और उनकी पूजा का विरोध करके शंकराचार्य ने भाजपा का मुद्दा पकड़ लिया है।
 हमारे देश की पुरानी परम्परा में यह रहा है कि समाज के हित में अपना अतिरिक्त धन धार्मिक स्थलों को दिया जाता रहा है। स्कूल अस्पताल और अनाथालय आदि की स्थापनाएं मुख्य रूप से ईसाई धर्म प्रचारकों के बाद ही देखने को मिलती हैं। यही कारण है कि मन्दिरों के पास अकूत धन एकत्रित होता रहा है और मन्दिर हमलावर राजाओं की लूट के प्रमुख लक्ष्य बनते रहे हैं जिसे बाद के साम्प्रदायिक सोच के इतिहासकार एक धर्म के राजा द्वारा दूसरे धर्म के मन्दिरों को ध्वस्त करने के लिए किया गया हमला बताने लगे हैं, जो पूरी तरह सच नहीं है।
       देश में सत्तारूढ भाजपा की विडम्बना यह है कि एक ओर तो हिन्दुओं की आस्था के सर्वोच्च प्रतीक बताये जाने वाले शंकराचार्य हैं तो दूसरी ओर नवधनाड्य हिन्दू मध्यमवर्ग की आस्था के प्रतीक साँईबाबा हैं जिनके लाखों मन्दिर ही नहीं अपितु व्यावसायिक संस्थानों के नाम भी उनके नाम पर हैं और इन मन्दिरों में लगभग हिन्दू विधि से ही मूर्तिपूजा होती है। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अपने को हिन्दुओं की पार्टी प्रचारित करने वाली भाजपा का असमंजस यह है कि वह शंकराचार्य द्वारा साँई पूजा के विरोध से उठे विवाद में किसका पक्ष ले! उमा भारती को पिछली आसाराम की प्राथमिक पक्षधरता के बयानों की भूल की तरह एक बार फिर से चुप करा दिया गया है और उनके गुरु ने शंकराचार्य की पक्षधरता करके नई विडम्बना पैदा कर दी है। चौबीस घंटे चलने वाले न्यूज चैनल जिनका व्यवसाय ही विचारोत्तेजक विवादों से चलता है, इस बहस को ज़िन्दा रखे हुये हैं और लोग इनमें रुचि ले रहे हैं, पर भाजपा में मुखर प्रवक्ताओं की जो फौज़ चैनलों पर छायी हुयी है वह इस से बचती नजर आ रही है। दूसरी ओर शंकराचार्य ने साँई मन्दिर की चड़ोत्री में आई सम्पत्ति के बारे में नया विवाद खड़ा कर दिया है।
       हथकण्डों की राजनीति कभी कभी उल्टी भी पड़ जाती है।
वीरेन्द्र जैन
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