चुनाव जिताने का
मापदण्ड और एक भिन्न दल होने का दावा
वीरेन्द्र जैन
एक
व्यक्ति के चार बेटे थे। पहला बेटा डाक्टर था, दूसरा वकील था, तीसरा इंजीनियर और
चौथा कोई अवैध काम करता था। डाक्टर और वकील की प्रैक्टिस सामान्य थी व इंजीनियर
नौकरी पाने के लिए भटक रहा था। चौथा बेटा घर में सबसे ज्यादा सम्मानित और प्रिय था
क्योंकि घर उसी की कमाई से चल रहा था। भारतीय जनता पार्टी ने भी अपने चौथे बेटे को
अपना सबसे ऊंचा पद देते हुये तर्क दिया है कि उसने पिछले आम चुनाव में उत्तरप्रदेश
का प्रभावी रहते हुए पार्टी को अस्सी में से इकहत्तर और सहयोगी दल की दो सीटें
मिला तिहत्तर सीटें जिता कर केन्द्र में पूर्ण बहुमत वाली पहली भाजपा सरकार बनवायी
है। इसी काम के पुरस्कार स्वरूप उन्हें पार्टी अध्यक्ष का पद अर्पित कर दिया गया
है। भाजपा के लगभग सारे प्रमुख काम आरएसएस की अनुमति से ही होते हैं इसलिए यह भी
तय है कि इसमें संघ का निर्देश या उसकी इच्छा भी सम्मलित होगी। ऐसा करते समय
उन्होंने सारे नैतिक मूल्यों को ठेंगा ही नहीं दिखाया है अपितु भिन्न पार्टी होने
के दावे को भी झुठला दिया है।
वैसे
भी चुनाव जीतने और सरकार बनाने के लिए भाजपा ने पूर्व में भी किसी भी तरह के नैतिक
मूल्य नहीं माने और भारतीय लोकतंत्र में विद्यमान अधिकांश विकृतियों का प्रारम्भ
उन्हीं से होता रहा है। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तो उनके दल की स्थापना का मुख्य
आधार रहा ही है। विभाजन के दौरान पाकिस्तान क्षेत्र में चले गये स्थानों से आये
शरणार्थियों के घावों को हरा रख कर ही उन्होंने राजनीतिक दलों के बीच अस्तित्व बनाया
था। पहले आम चुनावों में कांग्रेस तो स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास, अछूतोद्धार,
और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के कारण चुनाव जीतने के प्रति आश्वस्त रहती थी पर
भाजपा जब जनसंघ के नाम से थी, तब भी उसने. अयोध्या की बाबरी मस्ज़िद में रामलला की
मूर्ति रखवाने वाले कलैक्टर के. के नायर को टिकिट दे संसद में भेजने व उनकी पत्नी
को टिकिट देने का काम सबसे पहले किया था। आज भी सबसे अधिक पूर्व प्रशासनिक
अधिकारी, पुलिस अधिकारी, सेना अधिकारियों को टिकिट देने वाली यह प्रमुख पार्टी है।
चुनाव खर्चों में शुचिताओं का उल्लंघन करने का प्रारम्भ भी इसी पार्टी ने किया
जिसे बाद में दूसरों ने भी अपनाया। दलबदल को प्रोत्साहित करने और उससे बनी सरकारों
में सम्मलित होने के प्रति वे सदा उत्साहित रहे। दल बदल कानून से पहले विधायको को
तोड़ कर उन्हें गुप्त स्थान पर ले जाने के कई अभियानों का संचालन इन्होंने ही किया
है। ऐसी कोई भी संविद सरकार नहीं रही जिसमें सम्म्लित होने से उन्होंने गुरेज किया
हो जबकि कम्युनिष्टों ने ऐसी सरकारों को अगर समर्थन दिया तो बाहर से समर्थन दिया।
जनता पार्टी के गठन के समय तो इन्होंने अपने दल को झूठमूठ उसमें विलीन ही कर दिया
था और इसी बात के कारण केन्द्र की यह पहली गैर काँग्रेसी सरकार टूटी भी थी। वीपी
सिंह की सरकार में वे कम्युनिष्टों के साथ सम्म्लित होना चाहते थे पर कम्युनिष्टों
ने वीपी सिंह को इसी शर्त पर समर्थन दिया कि वे उन्हें इसी शर्त पर बाहर से समर्थन
करेंगे जब वे इनको सरकार में शामिल न करें। यही कारण रहा कि प्रारम्भ में वीपी
सिंह के सबसे बड़े झंडाबरदार रहने वाली यह पार्टी उनकी सरकार गिराने में सबसे आगे रही
और इसके लिए काँग्रेस का भी साथ दिया। उत्तरप्रदेश में सरकार बनाने के लिए छह छह
महीने सत्ता चलाने का हास्यास्पद समझौता करना भी उन्हीं के हिस्से में आया है।
दलबदल के बाद बनने वाली सरकार में सभी दलबदलुओं समेत सौ सदस्यों का मंत्रिमण्डल भी
बनाने का रिकार्ड इन्हीं के नाम है जिसमें कई मंत्रियों ने कई महीनों तक कोई फाइल
नहीं देखी। दूसरे दलों से टूट कर आने वाले लोकप्रिय नेताओं को टिकिट देने के लिए
अपने पुराने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करना तो आम बात है। अटल बिहारी वाजपेयी की
एनडीए के दौरान सरकार बनाने के लिए इन्होंने अपने प्रमुख मुद्दों को स्थगित रख
दिया था। अपराधियों, दलबदलुओं, गैरराजनीतिक लोकप्रिय लोगों को टिकिट देने में भी
ये दूसरे दलों की तुलना में सबसे आगे रहे। मुलायम सिंह के खिलाफ मोहर सिंह को पहला
टिकिट इन्होंने ही दिया था। इन चुनावों में भी वे सांसद जिन पर गम्भीर आपराधिक
प्रकरण दर्ज़ हैं सबसे अधिक इन्हीं की पार्टी के हैं।
जिन
चुनावों के सफल प्रबन्धन का मुकुट अमित शाह के सिर बाँधा गया है उसमें यह भुलाया
जा रहा है कि उनमें संसाधनों की प्रचुरता, और विकसित सूचना प्रौद्योगिकी का
अभूतपूर्व योगदान है जो इससे पूर्व के नेताओं को उपलब्ध नहीं थीं। सत्तारूढ गठबन्धन
के खिलाफ गहरे असंतोष की लहर तो थी ही पर अस्सी में से तिहत्तर सीटें जीतने का
विश्लेषण भी देखने की जरूरत है। मुज़फ्फरनगर के प्रायोजित दंगों और पश्चिमी उत्तरप्रदेश
में उनसे फैलायी गयी साम्प्रदायिकता के साथ यह भी विचारणीय है कि इस जाट बैल्ट में
अधिकांश टिकिट जातिवाद के आधार पर दिये गये थे। इतना ही नहीं कि मुज़फ्फरनगर के
दंगों के आरोपियों को ही टिकिट दिये गये हों अपितु सेना से सेवानिवृत्त जनरल वी के
सिंह और मुम्बई से पुलिस कमिश्नर का पद छोड़ कर आये सत्यपाल सिंह को भी इसी क्षेत्र
से टिकिट दिया गया। मथुरा से सुप्रसिद्ध अभिनेत्री और नृत्यांगना हेमा मालिनी को
टिकिट दिया और उनके जाट धर्मेन्द्र की दूसरी पत्नी होने का प्रचार भी चर्चा में
रहा। पूर्वी उत्तर प्रदेश में पटेल वोट लेने के लिए इन्होंने जाति आधारित अपना दल
से समझौता किया। कह सकते हैं कि जिस मंडल कमीशन की आलोचना से इन्होंने अपनी पार्टी
का विस्तार किया था उन्हीं पिछड़ी जातियों को सर्वधिक टिकिट देकर अपनी जीत
सुनिश्चित भी की। जिस गाँधी नेहरू परिवार को वंशवाद के नाम पर निरंतर अपशब्द कहते
रहते हैं उसी परिवार से आयी मनेका गाँधी और वरुण गाँधी का टिकिट भी काटने का साहस
नहीं कर सके। डुमरियागंज से उन जगदम्बिका पाल को टिकिट दिया जो कुछ दिनों पहले तक
यूपीए सरकार में मंत्री ही नहीं थे अपितु प्रवक्ता की तरह भाजपा की घोर आलोचना किया
करते थे। चुनाव जीतने के लिए इन्होंने वापिसी की तिथि निकलने के बाद नोएडा के
काँग्रेसी उम्मीदवार से दलबदल करवा अपने दल में मिला लिया। अयोध्या क्षेत्र की
रैली में पृष्ठ्भूमि में राम मन्दिर का बैनर ही नहीं लगाया अपितु भगवा वेषधारियों
में झाँसी से उमाभारती, गोरखपुर से आदित्यनाथ, उन्नाव से स्वामी सच्चिदानन्द,
फतेहपुर से निरंजन ज्योति आदि को टिकिट देकर भी हिन्दुत्ववादी दल होने का साफ
संकेत दिया। प्रदेश में अच्छी संख्या में मुस्लिम आबादी होने के बाद भी किसी भी
मुस्लिम उम्मीदवार को प्रतीकात्मक रूप से भी टिकिट देने की जरूरत नहीं समझी जबकि
पूर्व में ये सुनिश्चित पराजय वाली सीटों पर ऐसा कर लिया करते थे।
उल्लेखनीय
है कि उत्तरप्रदेश में सपा और बसपा जिन्होंने कभी मिलकर सरकार बनायी थी अब कभी न
मिल सकने वाले दो ध्रुवों की तरह हैं और उनका विकास जिस सवर्ण विरोध के आधार पर
हुआ था उसकी जगह अब आपस के विरोध पर टिका है। उल्लेखनीय है कि उक्त चुनाव में
पिछले 2009 के चुनावों से समाजवादी पार्टी के एक प्रतिशत वोट घटे हैं पर उसके कुल
मतों में पचास लाख मतों की वृद्धि दर्ज़ की गयी है वहीं बहुजन समाज पार्टी के आठ
प्रतिशत वोट घट जाने के बाद भी आठ लाख वोट अधिक मिले हैं। ऐसा नये मतदाताओं के
जुड़ने और मतदान प्रतिशत के बढने से सम्भव हुआ है। कांग्रेस को बहुत नुकसान हुआ है
और आरएलडी समेत सभी अन्य दल तो लगभग शून्यवत ही हो गये।
कुल
मिला कर कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों में राजनीतिक सफलता
नहीं कूटनीतिक सफलता है। इस आधार पर देश के एक बड़े, और अब सत्तारूढ दल का अध्यक्ष
पद जिन्हें अर्पित कर दिया गया है, उनके ऊपर लगे आरोपों को देखते हुए लगता है कि
यह पद उनपर चल रहे प्रकरणों में न्यायिक निर्णयों को प्रभावित करने में मदद कर
सकता है। पिछले दिनों देखा गया है कि अपनी राजनीतिक जिम्मेवारियों के नाम पर उनके
वकील ने उनके अदालत में उपस्थित न होने के लिए यही तर्क दिया था। सबसे दुखद तो यह
है कि जिन नितिन गडकरी के पुनः अध्यक्ष चुने जाने के सवाल पर भाजपा में अनेक
विरोधी स्वर उभरे थे, वहीं अमित शाह को अध्यक्ष बनाये जाने के सवाल पर भाजपा के
अन्दर चूँ भी नहीं हुयी जबकि उन पर लगे आरोप अपेक्षाकृत अधिक गम्भीर प्रकृति के
हैं। रोचक यह है कि इमरजैन्सी में काँग्रेसियों के मौन पर सबसे अधिक उँगलियां
भाजपा ने ही उठायी थीं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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मोबाइल 9425674629
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