शुक्रवार, नवंबर 27, 2009

प्रो. मटुक नाथ पर प्राणघातक हमला

प्रो. मटुकनाथ और उनकी मित्र ज़ूली पर प्राण घातक हमला और एक पुस्तक लेखक बाबा को मार मार कर अधमरा किया
वीरेंद्र जैन
दिनांक 27 नवम्बर को भोपाल के रवीन्द्र भवन के अप्सरा रेस्ट्राँ में एक पुस्तक के विमोचन का कार्यक्रम का समाचार पढने पर मालूम हुआ कि पुस्तक एक बाबा ने लिखी है और उसका विमोचन बिहार के चर्चित प्रो. मटुक नाथ और उनकी मित्र ज़ूली के हाथों होने वाला है तो ज़िज्ञासा वश में भी पहुंच गया क्योंकि पिछले ही दिनों उनको कालेज से निकाले जाने पर मैंने एक फीचर एजेंसी के माध्यम से उनके पक्ष में एक लेख लिखा था इसलिये उनकी प्रतिक्रिया जानने की जिज्ञासा थी। उसी रेस्ट्राँ में नर्मदा बचाओ आन्दोलन की भी प्रेस कांफ्रेंस चल रही थी इसलिये प्रदेश भर का प्रिंट और विजुअल मीडिया वहाँ उपस्थित था। पुस्तक समाज शास्त्र से सम्बन्धित थी और उसका नाम था विवाह एक नैतिक बलात्कार। किंतु संघ और भाजपा के एक ज़ेबी संघटन संस्कृति बचाओ संघ ने प्रो. मटुक नाथ को बीच ही में रोक लिया और उनके साथ बेहद अपमानजनक व्यव्हार किया जिससे उन्हें प्राण बचा कर रवीन्द्र भवन के एक कक्ष में छुप जाना पढा। इसी बीच पुलिस अधिकारियों ने बाबा को फोन करके कार्यक्रम स्थगित करने का निर्देश दिया जिसे उन्होंने मेरी उपस्थिति में फोन पर यह कह्ते हुये मानने से मना कर दिया कि यह उनके मौलिक अधिकारों का हनन है और घोषित कार्यक्रम में आमंत्रित अतिथि का भी अपमान है। उसके बाद उक्त संगठन के लोगों ने पूरे देश के मीडिया के सामने और पुलिस की उपस्तिथि में उक्त लेखक को मार मार कर अधमरा कर दिया। खून से लथपथ बाबा को अज्ञात स्थान पर भाग जाना पड़ा। प्रदेश के प्रसिद्ध प्रकाशक को भी भागना पड़ा तथा प्रो. मटुकनाथ और उनकी मित्र ज़ूली को रवीन्द्र भवन के कक्ष में कैद रहना पड़ा। जिस समय में यह लिख रहा हूं उस समय तक वे वहाँ से बाहर नहीं निकल सके थे।

स्मरणीय है कि प्रदेश में इसी तरह पिछले दिनों प्रो. सभरवाल की भी हत्या पूरे मीडिया के सामने कर दी गयी थी और फिर भी प्रदेश सरकार ने आरोपियों को बचा लिय जिसका ज़िक्र न्यायाधीश ने अपने फैसले में भी किया। इस फैसले के बाद प्रदेश के एक मंत्री ने ज़लूस निकाला मिठाइयाँ बाँटीं और कहा कि उन्हें इतनी खुशी तो अपने मंत्री बनने से भी नहीं हुयी थी।
आखिर फासिज्म और किसे कहते हैं?

गुरुवार, नवंबर 26, 2009

ओबामा के टोटकों में नहीं फंसे मनमोहन्


ओबामा के टोटकों में नहीं फँसे मनमोहन
वीरेन्द्र जैन
राजनीति में भावुकता का सहयोग लेने का सिलसिला बहुत पुराना है। अगर हम सिकन्दर और पुरू के बीच में हुये युद्ध के बाद पुरु को राज्य वापिस मिलने की घटना को याद करें या हुमायुं को राखी भेजने की घटना की ओर दृष्टि दौड़ायें तो पाते हैं कि जो काम तलवार से सम्भव नहीं हुये वे भावुकता से हो गये हैं। हमारे देश की लोकतांत्रिक राजनीति में भी देखें तो मोहन दास करम चन्द गान्धी, महात्मा ही नहीं अपितु पूरे देश के बापू की तरह स्वीकृत होकर और जवाहर लाल नेहरू बच्चों के चाचा बन कर राजनीति को संचालित करते रहे। तिलक गणेशोत्सवों की धार्मिक परम्परा को समूह उत्सवों में बदल कर उसे स्वंत्रता संग्राम के लिये प्रयोग कर सके तो आज़ादी के बाद संघ परिवार की राजनीतिक शाखा ने कभी जनसंघ या फिर भाजपा के नाम पर लोगों की धार्मिक भावनाओं को साम्प्रदायिकता में बदल कर सत्ता पाने के औज़ारों में बदला।
वैश्वीकरण के ज़माने में भावनाओं को भुनाने का व्यापार देशों की सीमायें तोड़ चुका है और वह अंतर्राष्ट्रीय हो गया है। ईसाई मिशनरियां तो काफी दिनों से पूरी दुनिया में अपना सेवा कार्य करके धर्म प्रचार करती रही थीं पर पिछली शताब्दी से तेल उत्पादक देशों के सहयोग से मुस्लिम ब्रदरहुड ने देश की सीमाओं से बाहर निकल कर मुसलमानों को एकजुट किया है।विश्व हिन्दू परिषद आदि संस्थाओं ने भी 36 देशों में अपनी शाखायें खोल रखी हैं और धर्म के नाम वहाँ बसे हिन्दुओं से समुचित आर्थिक सहयोग प्राप्त कर रहे हैं।
भावनाओं के आधार पर स्वाभाविक सम्बन्ध विकसित करना बुरी बात नहीं है किंतु जब किसी इतर लक्ष्य के लिये किसी दूसरी भावना को आधार बनाया जाता हो तो यह एक किस्म का धोखा होता है जो सही नहीं है। हमारी भावनाओं से खिलवाड़ करने में ताज़ा नाम सन्युक्त राज्य अमेरिका के प्रेसीडेंट ओबामा का आता है जिन्होंने भारत की ताज़ा स्तिथि का आकलन करने के बाद उसके व उसकी जनता को बरगलाने के सारे हथकण्डे अपनाये हैं। जब उन्होंने चुनाव लड़ा था तभी उन्होंने अपनी जेब में चाबी के गुच्छे की तरह हनुमानजी की एक छोटी सी मूर्ति रखे होने का प्रचार कराया था ताकि वहां रह रहे भारतियों के वोट मिल सकें। विश्व हिन्दू परिषद को मदद करने वाली सोनल शाह को उन्होंने अपने सलाहकारों की टीम में सम्मलित करके हिन्दूवादी भारतियों को परोक्ष सन्देश दिया। पिछले दिनों अपने व्हाइट हाउस में उन्होंने दीवाली और गुरुपर्व मनाया।
हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ताज़ा अमेरिका यात्रा के दौरान उन्होंने फिर नये शगूफे छोड़े। ओबामा की पत्नी मिशेल ओबामा ने लीक किया कि ओबामा अपने पास हमेशा महात्मा गान्धी की मूर्ति रखते हैं और गान्धी जी के आदर्शों पर चल कर परिवर्तन के अग्रदूत बने हैं। मनमोहन सिंह को दिये भोज में उन्होंने भले ही हिन्दुस्तान के उद्योगपति रतन टाटा, मुकेश अम्बानी, इन्द्रानूयी आदि को बुलाया था पर मनमोहन सिंह के लिये विशेश तौर पर शाकाहारी भोजन तैयार करवाया गया था। अपने भाषण में भी उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के 60 साल पहले दिये भाषण का ज़िक्र करते हुये कहा कि समान भविष्य के लिये दोनों देश अपने साझा अतीत से मजबूती हासिल कर सकते हैं।
किंतु दूध का जला छाँछ भी फूंक फूंक कर पीता है इसलिये हमारे प्रधानमंत्री ने अफग़ानिस्तान में स्वयं अपनी टांग फँसाने से बचते हुये कहा कि अमेरिका को अभी वहाँ बने रहना चाहिये।

कूटनीति जब समझ में आ जाये तो स्तेमाल करने वालों को हास्यास्पद बना देती है।ओबामा को अपनी नौटंकी का शायद ही कोई लाभ मिले!
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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फोन 9425674629







बुधवार, नवंबर 25, 2009

लिब्रहिन आयोग की रिपोर्ट और उमा भारती की कूटनीति

लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट और उमा भारती की कूटनीति
वीरेन्द्र जैन्
मैं समझता हूं कि लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट को सदन के पटल पर रख दिये जाने के बाद अब किसी को यह जानने की ज़रूरत शेष नहीं रह जानी चाहिये कि इस रिपोर्ट के सामने आने में सत्तरह मह्त्वपूर्ण वर्ष क्यों लग गये जिस कारण इस पर नौ करोड़ का खर्च आया।रिपोर्ट से साफ है कि आरोपियों ने जो कि देश के लोकप्रिय नेता थे और इस बीच प्रधान मंत्री और उपप्रधान मंत्री और गृह मंत्री जैसे सर्वोच्च पदों पर आसीन रहे थे, अपने अपराध बोध के कारण आयोग के साथ सहयोग नहीं किया। अब स्पष्ट है कि आयोग चाहता रहा होगा कि आरोपी अपने किये की सज़ा पायें। वैसे भी जैसा कि सी बी आई के पूर्व निर्देशक जोगिन्देर सिन्ह ने कहा है कि ये आयोग तो केवल जनता को बहलाने के लिये होते हैं। सच है क्योंकि कौन नहीं जानता था कि अपराधी कौन कौन हैं। किसने रथ यात्रायें निकालीं, उन रथ यात्राओं में कैसे कैसे नारे लगाते हुये उन्हें अल्प संख्यकों की बस्तियों में से गुज़ारा गया और विरोध करने पर पूरी तैयारी के साथ साम्प्रदायिक हिंसा फैलायी गयी जिससे वोटों का ध्रुवीकरण हो सके और दो सीटों तक सिमिट गयी पार्टी को आधार मिल सके। सब जानते हैं कि इतनी सारी भीड़ किसने एकत्रित की थी और यात्रा के अंतिम दिन् वाराणसी में आडवाणी ने साफ साफ कहा था कि अबकी कारसेवा बिना साधनों के नहीं होगी। ढेर सारी मीडिया रिपोर्टें थीं और देशी विदेशी फोटोग्राफरों द्वारा खींचे गये फोटुओं के सबूत थे जो बता रहे थे कि उस दिन वहाँ कौन कौन उपस्तिथ था।
अगर कुछ नहीं था तो तत्कालीन सत्तारूढ दल के पास समान संख्या में मुक़ाबला करने वाला जन बल नहीं था, इसलिये उसने टालने के लिये वक़्त देना ज़रूरी समझा।आज एक धर्म निरपेक्ष सरकार सता में है और भले ही उसके पास हुड़दंगियों की वैसी टोली नहीं हो पर सैनिक और अर्ध सैनिक बलों पर तो उसका नियंत्रण है जो हुड़दंगियों का मुक़ाबला कर सकते हैं। उम्मीद की जाना चाहिये कि इस अवसर पर कम से कम हुड़दंगियों का मुक़ाबला करने में सभी धर्म निरपेक्ष दल एकजुट होंगे जो लम्बे अर्से से बाबरी मस्ज़िद तोड़कर साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने वालों के खिलाफ कार्यवाही की मांग करते रहे हैं।
राजनीति का शौक न केवल तरह तरह के स्वांग बनाने, और अगर उससे राजनीतिक लाभ मिल रहा हो तो, उसे बनाये रखने को विवश करता है इसका उदाहरण देखना हो तो उमा भारती को देख लेना ही काफी होगा। साध्वी भेष में रहने वाली यह राजनेता भाजपा द्वारा सत्ता प्राप्ति के लिये किये जाने वाले इस राजनीतिक अभियान की ही उपज रही थीं जिन्हें बचपन से धार्मिक प्रवचनों के कारण मिली लोकप्रियता को भुनाने के लिये भाजपा नेता विजया राजे सिन्धिया ने पार्टी में सम्मलित कर लिया था। दूसरे शब्दों में कहें तो राजनीति ने अपने लाभ के लिये एक धार्मिक काम में लिप्त लड़की को धार्मिक काम छोड़ देने को विवश किया था। तत्कालीन सत्तारूढ दल की अलोकप्रियता ने उमा भारती को साध्वी से भाजपा सांसद में बदल दिया था पर जिस स्वरूप ने उसे यह अवसर दिलाया था उसे न त्यागना भी उनकी मजबूरी बन गयी थी। ऊपर से साध्वी और भीतर से राजनीतिज्ञ इस युवती ने भाजपा की मजबूरी को खूब भुनाया और अपनी मनपसन्द सुरक्षित सीट से टिकिट लिया, सांसद बनी रही, केन्द्र में मंत्री बनी, फिर प्रदेश की मुख्य मंत्री बनी। जब भाजपा ने उसकी ज़िदें और शर्तें मानने से इंकार कर दिया तो अलग पार्टी बनायी और भाजपा की भरपूर छीछालेदर की। चुनाव लड़े और हारने के बाद फिर भाजपा में सम्मलित होने के लिये एड़ी चोटी का जोर लगाया पर अपनी वाचालता के कारण कुछ ऐसे मनभेद पैदा कर लिये थे कि भाजपा में दुबारा सम्मलित नहीं हो सकीं। किसी तरह उनके गठबन्धन में ही सम्मलित होने का प्रयास किया पर पहले से ही गुटबाज़ी से ग्रस्त पार्टी ने कोई खतरा मोल लेना ठीक नहीं समझा। लिब्रहन आयोग की रिपोर्ट उनके लिये छींके की तरह टूटी है यही कारण है कि आरोपियों में सबसे पहली और मुखर प्रतिक्रिया उमा भारती की ही रही। उन्होंने कहा कि अगर कोई नेता ज़िम्मेवारी नहीं लेना चाहते तो मैं अकेले ज़िम्मेवारी लेने के और राम मन्दिर के लिये फांसी पर चढने को तैयार हूं। स्मरणीय है कि इससे पूर्व भी वे यह कह चुकी थीं कि भाजपा नेताओं को 6 दिसम्बर 92 की ज़िम्मेवारी से भागना नहीं चाहिये क्योंकि वे सब वहां मौज़ूद थे। पर उस समय उनका यह बयान भाजपा नेताओं को ब्लेकमेल करने की चाल की तरह लिया गया था। अब वे फिरसे यही बयान दे रहीं हैं और भाजपा नेताओं से दोहरेपन से बाहर आने को प्रेरित कर रहीं हैं। भले ही अब माना जा रहा है कि ये इतने दिनों से निष्क्रिय राजनीतिज्ञ के सुर्खियों में आने के हथकंडे हैं किंतु उमा जी की स्वीकरोक्ति और गवाही मुकदमे में महत्वपूर्ण हो सकती है। इससे पूर्व वे दूसरे अभियुक्त कल्याण सिंह से भी गुफ्तगू कर चुकी हैं और उन्होंने भी लगभग ऐसा ही बयान दिया है जिससे अडवाणी की मुश्किलें और बढ गयी हैं। अब या तो वे इन लोगों के आगे झुक कर समझौता करें या फिर सज़ा भुगतने के लिये तैयार रहें। दूसरी ओर उमा भारती और कल्याण सिन्ह से किया गया समझौता वैंक्य्या नायडू, सुषमा स्वराज, अरुण जैटली, शिवराज सिंह चौहान आदि को किसी भी तरह मंज़ूर नहीं होगा जिससे भाजपा में संकट और बड़ेगा। संकट के समय भाजपा को जो इकलौता हल सूझता है वह साम्प्रदायिक दंगों का ही होता है। इसलिये अगर अतिरिक्त सावधानी नहीं बरती गयी तो इस समय भाजपा प्रेरित दंगों की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता।
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, नवंबर 21, 2009

भाजपा में खाने और दिखाने के दांत्

भाजपा के खाने और दिखाने के दांत
रामलला की फिर से याद आने का रहस्य
वीरेन्द्र जैन्
भाजपा की राजनीति में जो कहा जाता है हमेशा चीजें वैसी ही नहीं होतीं। बहुत कुछ ऐसा घटता रहता है जिसका पता आम लोगों को नहीं होता। हाल ही में भाजपा में नेतृत्व परिवर्तन के साथ साथ युवा नेतृत्व की बड़ी बड़ी बातें की गयीं किंतु उनका मतलब युवा नेतृत्व को कमान सौंपना भर नहीं था। जिस पार्टी को संघ ने तरह तरह के षड़यंत्र रच कर खड़ा किया और पूरे देश से रंग बिरंगे फिल्मी कलाकार, क्रिर्केट खिलाड़ी, भगवाभेषधारी, राजा रानी, दलबदलू आदि लोग तलाश कर जिसकी झांकी सजाई उसे वह थोथे आदर्शों पर कुर्बान नहीं कर सकती। पिछले लोक सभा चुनाव में ही उसने भोपाल लखनऊ और मन्दसौर समेत अनेक स्थानों में जिन लोगों को टिकिट दिये थे वे युवा अवस्था को वर्षों पीछे छोड़ चुके हैं।
सच तो यह है कि बाबरी मस्ज़िद तोड़ने के बारे में लिब्राहन आयोग ने सत्तरह साल लगा कर जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी उसे छह माह होने वाले हैं और सरकार को आगामी 31 दिसम्बर के पहले कार्यवाही रिपोर्ट देश के सामने पेश करना होगी। जिन भाजापा के बड़े बड़े कद वाले नेताओं के घेरे में आने की सम्भावना है वे अब उम्र दराज़ हो चुके हैं। यदि सरकार चाहेगी तो उनमें से कई नेताओं को जेल की हवा खाना पड़ सकती है। यही कारण है कि भाजपा, जिसका जनाधार निरंतर सिकुड़ता जा रहा है और उसकी हुड़दंग बिग्रेड के सदस्य अवैध कमाने में संलग्न हो गये हैं इस रिपोर्ट से आशंकित है और वह सम्भावित अपराधियों को उम्र के आधार पर छूट दिलाने के रास्ते तलाश रही है।
जिन उमा भारती ने मुख्य मंत्री पद से हटाये जाने पर भाजपा और उसके नेताओं को पानी पी पी कर कोसा था वे पिछले कई महीनों से उसमें प्रवेश पाने के लिये एड़ी चोटी का जोर लगा रहीं थीं।पर जब उनको यह समझ में आ गया कि संघ परिवार की नज़र में वे अब लाभ का सौदा न होकर एक बोझ हैं तो वे किसी तरह एन डी ए में सम्मलित होने के लिये गुहार लगाने लगीं थीं पर उनकी यह गुहार भी यह कह कर अस्वीकार कर दी गयी कि एन डी ए में सम्मिलित होने के लिये कम से कम एक सांसद का होना ज़रूरी है। वे चाहती थीं कि जब अपराधियों के प्रति कार्यवाही की घोषणा के बाद भाजपा जो हुड़दंग मचाये उस समय वे अकेली न पड़ जायें। कल्याण सिंह का भाजपा की ओर वापिस जाने के पीछे भी यही रहस्य है तथा बिना किसी बात के बाल ठाकरे बिग्रेड द्वारा मुम्बई में हुड़दंग शुरू कर देने के पीछे दूर तक सोची रणनीति नज़र आती है।
भाजपा इस मामले पर अकेली पड़ सकती है क्योंकि एन डी ए के सबसे बड़े सहयोगी जेडी(यू) और अकाली भी इस समय उनसे कन्नी काटना चाहेंगे।एन डी ए में भाजपा के सबसे बड़े संरक्षक ज़ार्ज़ तो अब शरद यादव और नीतिश की कृपा पर हैं। सपा के अमर सिंह को भी समझ में आ गया है अब कांग्रेस उन्हें मायावती को साथ लेकर फंसा सकती है और उनके इकलौते राज्य में भी अब उनका समर्थन नहीं रहा है इसलिये उन्होंने इस रिपोर्ट पर तुरंत कार्यवाही की मांग कर डाली। यदि कानून व्यवस्था के बहाने कांग्रेस कुछ कमजोरी दिखाती है तो समाजवादी पार्टी ज्यादा शोर मचा कर अपने मुस्लिम वोट बैंक को लुभाने का प्रयास कर सकती है।
इस समय राज्य सरकारों को सुरक्षित रखना उसके लिये बहुत ज़रूरी हो गया है क्योंकि गुजरात के अनुभव से उसे समझ में आ गया है कि सरकार के होने पर बड़े से बड़ा अपराध भी दब सकता है। इसीलिये भाजपा ने हर तरह से झुक कर और सारे घोषित सिद्धांतों से समझौता करते हुये एक समर्पित ईमानदार महिला मंत्री को निकाल कर कर्नाटक में समझौता किया।
अब न केवल कल्याण सिंह् को ही रामलला याद आने लगे हैं अपितु बाल ठाकरे को भी मन्दिर् बनवाने की याद आने लगी है। उन्हें उम्मीद है कि धर्म भीरु जनता शायद फिर उनके झांसे में आ जाये। बहुत सम्भव है कि कुछ भावनात्मक मुद्दों को उछलने की बाढ ही आ जाये

शुक्रवार, नवंबर 20, 2009

क्या ये नेता जनता को बिल्कुल मूर्ख समझते हैं?

क्या ये नेता जनता को बिल्कुल मूर्ख मानते हैं?
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों से देश में घटित कुछ घटनाओं से राजनेताओं की समझ पर एक ओर तो तरस आ रहा है और दूसरी ओर गुस्सा भी आ रहा है कि ये लोग जो स्वयं तो इतने अदूरदर्शी हैं कि इन्हें वह सच भी दिखाई नहीं देता जो एक सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी देख लेता है, वहीं ये जनता को इतनी मूर्ख मानते हैं कि जब ये जो कुछ भी कहेंगे उसे जनता मान लेगी।
मुलायम सिंह् यादव के संघर्ष का सम्मान करने वाले और उनके साथ सहानिभूति रखने वाले सारे लोगों ने उन्हें समझाया था कि कल्याण सिंह का साथ न केवल उन्हें घनघोर अवसरवादी और सिद्धांतहीन प्रचारित करेगा अपितु बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के लिये ज़िम्मेवार होने के कारण उन्हें मुस्लिम वोटों से हाथ धोना पड़ सकता है जो उनकी चुनावी सम्भावनाओं को प्रभावित करेगा। किंतु उनकी दिशा इतनी अमरान्ध (अमर सिन्ह के प्रेम में अन्धे) हो चुकी है कि उन्हें किसी भी और की बात समझ में नहीं आती। स्मरणीय है कि मुलायम सिंह समाजवादी आन्दोलन की उपज थे व राम मनोहर लोहिया के चेले समझे जाते रहे थे। बाद में मण्डल आन्दोलन के बाद वे पूरे उत्तर प्रदेश में पिछड़े लोगों के नेता के रूप में उभरे। उत्तर प्रदेश में 1989 में अपने राजनीतिक उद्देश्य के लिये संघ परिवार के लोगों द्वारा अयोध्या में फैलायी जा रही साम्प्रदायिक हिंसा को कठोरता पूर्वक दबाने और साम्प्रदायिकता के विरोध में कानून व्यवस्था की पक्षधरता करने के कारण उन्होंने मुसलमानों के समर्थन को कांग्रेस से खिसका कर अपने पक्ष में कर लिया। बाद में जब नरसिम्हा राव के कार्यकाल में बाबरी मस्ज़िद तोड़ दी गयी तो उत्तर प्रदेश में मुसलमान वोट थोक में उनके पक्ष में हो गये व कांग्रेस अपने इस स्थायी वोट बैंक से वंचित हो गयी। मंडल के बाद मुलायम के यादव वोट पक्के होते ही मुसलमान के वोट जुड़ने के कारण उनका उत्तर प्रदेश पर एक छत्र राज हो गया। कांग्रेस से मुस्लिम वोट खिसकने के कारण उसका परोक्ष लाभ भाजपा को भी मिला। देश के सबसे बड़े प्रदेश पर मुलायम का अधिकार हो जाने पर उन्हें अमर सिंह जैसे नेता ने घेरे में ले लिया और उनकी कमियों की भरपाई करते हुये उनके जनसमर्थन का विदोहन कुछ बड़े उद्योगघरानों के हित में कराने लगे।
अमर सिंह के इशारे पर लोधी वोटों के लालच में कल्याण सिंह को समाजवादी पार्टी के निकट लाने का जो इकतरफा फैसला उन्होंने लिया उससे उनका चुनाव जीतने का आधार ही खिसक गया। 2009 के चुनाव में उन्होंने अपने बेटे को दो जगह से चुनाव लड़वाया जो दोनों जगह से जीत गया। बाद में दूसरी सीट से स्तीफा दिला कर वहां से किसी सक्रिय पार्टी सदस्य को टिकिट देने के बजाय अपनी बहू को ही टिकिट दे दिया जिसकी अब तक राजनीति में कोई भूमिका नहीं रही थी। वे समझ रहे थे कि फिरोज़ाबाद की वह सीट उनकी झोली में है और वहां की जनता इतनी मूर्ख है कि वह मुलायम सिन्ह परिवार के पांचवें सदस्य को भी चुन कर भेज देगी। पर एक ज़मीनी नेता को यह भी नहीं दिखाई दिया कि ऊंट किस करवट बैठ रहा है और लोग जाति के आधार पर एक सीमा तक ही सोचते हैं। इस बुरी हार के बाद मुलायम ने जो किया वह और भी अधिक शर्मनाक था। उन्होंने बयान दिया कि कल्याण सिंह् कभी भी समाजवादी पार्टी में नहीं थे और न होंगे। सारे लोग जानते हैं कि उन्होंने लोकसभा चुनाव में एक मंच से भाषण दिया और मुलायम ने उन्हें लाल टोपी पहनाई। वे विनम्रता पूर्वक उनसे नाता तोड़ सकते थे और अपनी भूल के लिये जनता से क्षमा मांग सकते थे पर उन्होंने ऐसा न करके एक ज्वलंत सच को झुठलाने की कोशिश की। अमर प्रेम में मुलायम सिंह अन्धे हो सकते हैं पर जनता को तो दिखता है। दूसरी ओर कल्याण सिंह् ने गुहार लगा दी कि मुलायम धोखेवाज़ हैं (जो उन्हें समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद् ही समझ में आया) इसके बाद उन्होंने भी कह दिया कि वे स्वयं सेवक थे और स्वयं सेवक रहेंगे। विनय कटियार ने पार्टी से बिना पूछे ही उनका तुमुल स्वर से स्वागत भी कर दिया जबकि दो बार पार्टी से बाहर जाने के बाद उन्होंने भाजपा को जिन शब्दों में याद किया वे बहुत ही आपत्तिजनक थे। उन्होंने अटल बिहारी को पियक्कड़ कहा था और कहा था कि भाजपा ने राम लला को पोलिंग एजेंट बना दिया है। विधान सभा चुनावों के दौरान उन्होंने कमान अपने हाथ में लेने की ज़िद की थी पर हार के बाद आयोजित किसी भी समीक्षा बैठ्क में वे गये ही नहीं। कहने वाले कहते हैं कि चुनाव फंड के लिये आये हुये धन के बड़े गोपनीय हिस्से का हिसाब उन्होंने किसी को नहीं दिया। इस दौरान पार्टी के भीतर और बाहर उनकी जिन शब्दों में निन्दा की गयी थी उसके बाद उनका पार्टी में वापिस जाना और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं का पलक पांवड़े बिछाना जनता में ऐसी राजनीति के प्रति जुगुप्सा पैदा करता है। उमाभारती से मुख्य मंत्री पद छीने जाने और भाजपा नेतृत्व द्वारा वादा करके भी फिर नहीं देने के बाद उन्होंने अटल बिहारी को छोड़ कर बाकी के नेताओं को जिन शब्दों में याद किया था उनकी प्रतिक्रिया में उस समय के संघ प्रमुख सुदर्शन ने उनके जातीय संस्कारों पर दोष मढ दिया था। उन्होंने जनता से वादा किया था कि वे भाजपा को समूल नष्ट करके ही मानेंगीं। बड़ामल्हरा चुनावों के दौरान उन्होंने मुख्य मंत्री पर उनकी हत्या के आरोप लगाये थे। वेंक्य्या नायडू, सुषमा स्वराज और अरुण जैटली के खिलाफ तो उन्होंने क्या क्या नहीं बोला था। वही उमा भारती पिछले दिनों से भाजपा में घुसने के बहाने तलाशती हुयी भीगी बिल्ली बनी बैठीं थीं पर जब अडवाणी चौकड़ी के प्रमुख नेताओं ने उनकी दाल नहीं गलने दी तो अब कहने लगी हैं कि वे भाजपा में तो कभी नहीं जायेंगीं पर राजग का भाग ज़रूर बन जाना चाहेंगीं। यह पिछले रास्ते से प्रवेश का प्रयास है। वे जनता को इतना मूर्ख समझ बैठीं हैं कि जैसे उसे तो कुछ भी याद नहीं रहता।
जब मधु कौड़ा के यहां छापा पड़ा और चार हज़ार करोड़ तक की अघोषित सम्पत्ति के संकेत समेत घर से दो क्विंटल सोना बरामद हुआ उस पर भी वे पहले तो अस्पताल में भरती हो गये और फिर बयान दिया कि यह उन्हें फंसाने का षड़्यंत्र है। नेता लोग फंस जाने पर जिस तरह से बीमार हो जाते हैं उससे डर लगता कि अगर कभी कोई नेता सचमुच बीमार हो जाये तब भी लोग उसे झूठ न समझें।
मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार के अनेक मंत्रियों के यहां करोड़ों की दौलत मिलने के बाद भी लोकसभा चुनावों तक तो उनसे दूरी बना कर रखी गयी पर चुनाव हो जाते ही उन्हें फिर से मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया।
ये तो चन्द ताज़ा उदाहरण हैं, किंतु जनता के सामने खुले झूठ और नंगी ढीठता पूर्वक अनैतिक हरकतें होते रहने से उसका विश्वास नेताओं के साथ साथ व्यवस्था से भी उठता जा रहा है। किसी नेता के साथ दुर्घटना होने पर जनता में सहानिभूति की जगह एक हिंसक खुशी देखी जाने लगी है। माओवादियों की हिंसा से भी लोग इसलिये नाराज़ हैं कि वे निरीह नागरिकों और विवश सरकारी कर्मचारियों और सिपाहियों को हिंसा का शिकार बनाते हैं। आम तौर पर लोग यह कहते हुये उनकी निन्दा करते हैं कि ये बेचारे गरीब लोगों को मार रहे हैं और नेताओं से कुछ नहीं कहते। आशंका बलवती हो रही है कि कल के दिन अगर वे कुछ नेताओं पर हमले का प्रयास करने लगें तो जनता का एक बड़ा तबका उनसे सहानिभूति न रखने लगे। इसलिये ज़रूरी है कि हमारे नेताओं के आचरण ऐसे हों जिससे उन्हें जनता का समर्थन मिले और वे उसे सच्चा नेतृत्व दे सकें। किसी भी राजनीतिक दल या गठबन्धन को भ्रष्टाचारी और अनैतिक व्यक्ति को दूर करने में देर नहीं करना चाहिये अन्यथा उस दल व गठबन्धन को तो नुकसान होगा ही, देश और लोकतंत्र को भी बड़ा नुकसान होगा।
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, नवंबर 17, 2009

बाल ठाकरे और सचिन के बीच चुनाव हो

बाल ठाकरे को सचिन के विरुद्ध चुनाव लड़ने का साहस करना चाहिये
वीरेन्द्र जैन
मुम्बई के कुछ माफिया गिरोहों के खिलाफ कांग्रेस सरकार द्वारा पाले गये एक गुंडे ने अपनी राजनीतिक पार्टी बना ली और उगाही की गयी राशि से जो गिरोह जोड़ा उसकी दम पर अपने आप को नेता समझ रहा है। जब इस गिरोह के आमात्य रहे व्यक्ति ने अपना अलग गिरोह बना लिया तो यह गुंडा बौखला गया है और सन्निपात में अनाप शनाप बकने लगा है। जब पिछले दिनों कोर्ट ने उसे सज़ा सुनायी थी तब उसने अपनी वृद्धावस्था की दुहाई देते हुये क्षमा याचना की थी और सज़ा में माफी पायी थी। पर अब लग रहा है कि उसकी माफ की गयी सज़ा पर भी पुनर्विचार होना चाहिये। जिसे देश और प्रांत की प्राथमिकताओं का ज्ञान नहीं है उसके साथ वैसा ही व्यवहार होना चाहिये जैसा कि भिन्डरावाले,के साथ हुआ था या जम्मू कश्मीर या उत्तर पूर्व के अलगाववादियों के साथ हो रहा है। खेद तो यह है कि स्वयँ को राष्ट्रवादी होने का ढिंढोरा पीटने वाली भ्रष्ट भाजपा और संघ के प्रवक्ता अपने चुनावी लाभ के लिये मुंह में दही जमा कर बैठ गये हैं। अगर आज अटल बिहारी बोल सकने सक्षम होते तो बहुत सम्भव था कि वे उचित ज़बाब देते। अटलजी ने इन्दिरा गान्धी द्वारा अमेरिका के सातवें बेड़े से डरे बिना जब बांगला देश के स्वतंत्रता अभियान में अग्रणी भूमिका निभायी थी तब उन्हें दुर्गा कहा था। इसे कहते हैं राष्ट्र भक्ति। खेद है कि अब केवल दलाल ही दलाल अपनी तूती बज़ाने में लगे हैं। यदि बाल ठाकरे को स्वयं के राजनीति में होने का भ्रम है तो उसे सचिन् के खिलाफ देश के किसी भी लोकसभा क्षेत्र से चुनाव में उतरने की चुनौती देना चाहिये उससे पता चल जायेगा कि इस देश में किसकी राजनीति और कैसी राजनीति स्वीकार है। केन्द्र की यूपीए सरकार केवल गरीब आन्दोलनकारियों पर ही लाठी चार्ज कर पाती है तथा बाल ठाकरों और शाही इमामों के चरण चूमती है।

सोमवार, नवंबर 16, 2009

कौन बनेगा भजपा अध्यक्ष ?

कौन बनेगा भाजपा अध्यक्ष?
वीरेन्द्र जैन
पिछले दिनों आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत लगातार एक सुर में दो बातें बोल रहे हैं, पहली तो यह कि हम भाजपा के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं करते और चूंकि भाजपा में संघ के स्वयं सेवक सक्रिय हैं इसलिए संघ मांगे जाने पर सुझाव देता है। और दूसरी तरफ वे लगातार, बिना यह बताये हुये कि सलाह किसने मांगी है, यह कहते रहते हैं कि पार्टी अध्यक्ष युवा होना चाहिये, वह अरूण जेटली, सुषमा स्वराज, अनंत कुमार और वैंक्यया नायडू जैसी दिल्ली में रहने वाली चौकड़ी में से नहीं होगा। इस तरह उन्होंने आडवाणी और उनके हनुमानों के साथ साथ मुरली मनोहर जोशी, विजय कुमार मल्होत्रा समेत अनेक वरिष्ठ नेताओं की आशाओं पर भी तुषारापात कर दिया। भले ही भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावेडकर कहते रहें कि पार्टी संविधान के अनुसार कोई भी सदस्य अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ सकता है। पर सब जानते हैं कि पार्टी सदस्यों के बिना चाहे जो संस्था आडवाणी जैसे कद्दावर नेता को उनके पाकिस्तान में दिये गये एक बयान के आधार पर बाहर का रास्ता दिखा सकती है तब पार्टी में कैसा और कहाँ का लोकतंत्र! अगर लोकतंत्र होता तो उमा भारती चिल्लाती हुयी बाहर नहीं जातीं कि मुख्यमंत्री बनाने से पहले विधायक दल की राय तो ले लो, और 57 विधायक साथ में नत्थी किये वसुंधरा राजे राष्ट्रीय अध्यक्ष से गुहार लगाने के बाद भी विधायक दल के नेता पद से स्तीफा देने के लिए विवश नहीं होतीं। उपरोक्त संभावितों के संघ प्रमुख द्वारा तय पात्रता से बाहर हो जाने के बाद पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी का नाम उछला जिससे सभी हतप्रभ हो गये थे किंतु बाद में नितिन गडकरी का नाम आने से गोपी नाथ मुंडे सकते में आ गये थे जो आजकल प्रमोद महाजन की विरासत को सम्हालते हुये बताये जाते हैं और महत्वपूर्ण हैं। बाद में गडकरी ने कह दिया कि वे अध्यक्ष पद का 'चुनाव लड़ने' के इच्छुक नहीं हैं।
भाजपा का जो चरित्र निर्मित हो गया है उसके अनुसार विधायक मंत्री मुख्यमंत्री पद के लिए तो मारकाट मची रहती है किंतु संगठनों के पद के लिए वे ही लोग उत्सुक रहते हैं जिन्हें संसद या विधानसभाओं में कोई स्थान नहीं मिल पाता। जब से बंगारू लक्ष्मण स्टिंग आपरेशन में नोटों की गिड्डियां दराज में डालते व डालरों में मांगते देश भर में देख लिये गये हैं तब से अध्यक्ष पद और भी अनाकर्षक हो गया है। स्मरणीय है कि आडवाणी के स्थानापन्न अध्यक्ष वैंकैया नायडू के प्रति उमा भारती समेत कई सक्रिय नेता चपरासियों की तरह व्यवहार करते थे। संघ के निर्देश पर आडवाणी को बिना बात किये हुये अध्यक्ष पद से निकाल बाहर करने से भी पद की गरिमा गिर गयी है व लगातार पराजित होती पार्टी में सम्मान की तुलना में अपमान के अवसर अधिक पैदा हो गये हैं। अध्यक्ष राजनाथ सिंह यदि महाराष्ट्र में किसी को संगठन की जिम्मेवारी सोंपते हैं तो मुंडे की धमकी के बाद आडवाणाी उनके निर्णय को पलट देते हैं। अनुशासन का यह हाल है कि पार्टी आफिस में रखी तिजोरी से ढाई करोड़ रूपये गायब हो जाते हैं और पार्टी रिपोर्ट भी नहीं लिखा पाती। यही कारण है कि भाजपा के नेता संगठन की जगह विधायक सांसद मंत्री या कारपोरेशन्स के पदाधिकारी जैसे मलाईदार पद पाना अधिक पसंद करते हैं और न बनाये जाने पर मार काट पर उतर आते हैं।
अभी हाल ही में भाजपा शासित मध्यप्रदेश में मंत्रिमंडल का विस्तार किया गया था पर इस विस्तार के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री के प्रति भाजपा के सदस्यों ने जो विचार व्यक्त किये उससे न केवल मुख्यमंत्री की अपितु पूरी भाजपा का चरित्र सामने आ गया। पिछले कार्यकाल के दौरान कुछ मंत्रियों ने भ्रष्टाचार से जो करोड़ों रूपये कमाये थे उन्हें अपने निकट के रिश्तेदारों और नौकरों चाकरों के नाम पर रख छोड़ा था। आयकर विभाग ने इस भ्रष्टाचारी पैसे के ट्रस्टियों के घरों और लॉकरों पर छापा मार कर अटूट दौलत और प्रापर्टी के कागजात बरामद किये थे। एक मंत्री के ड्राइवर के नाम से लिये गये लाकर में ही सवा करोड़ बरामद हुये थे। उसके तुरंत बाद हुये विधानसभा चुनावों में उक्त मंत्रियों को इस आधार पर टिकिट दिया गया था कि वे अपनी अवैध कमाई की दौलत को ही चुनावों में झोंकेंगे और पार्टी से कोई सहायता नहीं मागेंगे। ऐसा हुआ भी और इस अवैध दौलत के सहारे वे चुनाव जीत भी गये। विधानसभा चुनावों के कुछ समय बाद ही लोकसभा के चुनाव थे इसलिए इन बदनाम मंत्रियों को लोक दिखावे के लिये मंत्रिमंडल से दूर रखा गया ताकि मतदाता को धोखे में रखा जा सके। दूसरी ओर अपने भ्रष्टाचार की कमाई से पार्टी और पार्टी नेताओं की मदद करने वाले इन नेताओं को आश्वस्त करने के लिए मंत्रिमंडल में स्थान खाली रखे गये। धोखा केवल जनता ने ही नहीं खाया अपितु सत्तारूढ पार्टी के विधायक भी धोखे में रहे और खाली स्थानों पर अपनी उम्मीदवारी जताने लगे। कुछ को तो उच्च नेताओं ने आश्वासन भी दे दिया था। किंतु लोकसभा चुनाव निबटाने के बाद जब मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ तब उन्हीं दागी मंत्रियों को फिर से कैबिनेट में स्थान दे दिया गया, जिससे मंत्री बनने का सपना देखने वालों के सिर पर गाज गिर गयी। मंत्री पद के आहत उम्मीदवारों ने अपने समर्थकों से न केवल प्रर्दशन कराये अपितु मुख्यमंत्री का पुतला भी फूँँका। एक जिस पूर्व मंत्री के पुत्र पर हत्या का आरोप है और जिसे मंत्री नहीं बनाया गया उसने तो राष्ट्रीय अध्यक्ष से अपनी व्यथा सुनायी और मंत्रिमंडल में सम्मिलित किये गये मंत्रियों के कच्चे चिट्ठे का वह भाग भी खोला जो राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए अज्ञात था। इन मंत्रियों के चक्कर में किसी महिला विधायक को मंत्री नहीं बनाया गया जबकि छह विधायक प्रतीक्षा में थीं। कहते हें कि एक महिला विधायक तो फूट फूट कर घन्टों रोयीं।
संघ प्रमुख ने पुणे में भाजपा के लोगों से जड़ों की ओर लौटने का आवाहन किया। यह कह कर उन्होंने बहुत गलत समय पर सही बात की है। जड़ों की ओर लौटने का मतलब भाजपा को उदार खुले द्वार की पार्टी से जनसंघ के दौर की कट्टर हिन्दूवादी पार्टी बनाना है। पर तब से अब तक गंगा में बहुत सारा पानी बह चुका है। आज की भाजपा को संघ की जरूरत सलाह के लिए नहीं है अपितु चुनावों और चुनाव की दृष्टि से किये जाने वाले आन्दोलनों के लिये है। आज की भाजपा एक सत्ताकांक्षी नहीं अपितु सत्ता लोलुप पार्टी है जिसके नेताओं का लक्ष्य सत्ता से अपना व अपने परिवार का वैभव बनाना व अटूट दौलत कमाना है। नब्बे प्रतिशत से अधिक भाजपा के जनप्रतिनिधि भ्रष्टाचार से दौलत बना चुके हैं तथा पार्टी व उसके सहयोगी संगठन अपने शासन वाले राज्यों में सरकारी मदद से अरबों रूप्यों की जमीनें जायजादें अपने संगठनों के नाम पर करवा चुके हैं। संघ से भाजपा में आये सदस्य भी समान गति से भ्रष्टाचार में लिप्त हैं और संघ में वापिस लौटने की जगह राज्यसभा में पहुंचने के लिए प्रयास रत रहते हैं। मध्यप्रदेश जैसे राज्य तो बाहर के लोगों के लिए स्वर्ग हैं और यहाँ के कार्यकर्ताओं को राज्यसभा-लोक सभा में भेजने की जगह यहाँ खुलने वाले उद्योगों में मजदूरी सुनिश्चित करने की गुहार यहाँ के मुख्यमंत्री लगा रहे हैं। आज की भाजपा के लोग वापिस जनसंघ होने और स्वयंसेवकों के लिए अनुशंसित आचरण करने नहीं जा रहे हैं। यदि ऐसा करने के लिए कहा गया तो इनमें से अधिकांश पार्टी छोड़ कर कोई दूसरी सुविधाजनक पार्टी तलाश लेंगे क्योंकि सत्ता के लिए सिद्धांतहीन दलबदल करने कराने के ये अभ्यस्त हो चुके हैं। अब ये एक पार्टी नहीं अपितु सत्ता के लाभ बटोरने वाले गिरोह की तरह काम कर रहे हैं। इनके आन्दोलन और रैलियां इनके घोषित उद्देशयों के लिए नहीं होतीं अपितु चुनावों में अपनी संभावनाएं बनाने के लिए होती हैं। रैलियों में स्वत:स्फूर्त लोग नहीं अपितु किराये के लोग लाये जाते हैं। यह किराया कभी नगद और कभी सरकारी योजनाओं में उनका जायज हक दिलाने के अहसान की तरह चुकाया जाता है।
भाजपा के लिए अब एक तरफ कुँआ तो दूसरी तरफ खाई है। यदि वे किसी ईमानदार और संघ के सिद्धांतों का पालन करने वाले व्यक्ति को कमान सोंपते हैं तो पार्टी की चुनावी संभावनाएं इस हद तक सिकुड़ जायेंगीं कि अगले दस साल तक तो वे सत्ता में आने के बारे में सोच भी नहीं सकते। और यदि वे किसी उम्रदराज खांटी नेता के हाथ में ही कमान दिये रखना चाहते हैं तो संघ का आधार खत्म होता चला जायेगा। ऐसे में यह सवाल मुँह बाये खड़ा है कि (देखें)-
कौन बनेगा भाजपा अध्यक्ष?

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शनिवार, नवंबर 14, 2009

पते पलटने का मन-वीरेन्द्र जैन्

पते पलटने का मन
आम तौर पर पता निम्नानुसार लिखा जाता है
प्रति,
श्री राम भरोसे मिश्र
मकान नम्बर 420/3
बटोली नगर
किले के पीछे
झांसी (उ.प्र.)
पिन 403 404
मेरे हिसाब से सबसे पहले लिफाफा, छंटाई वाले जिस डाक कर्मी के हाथ आता है उसकी पहली ज़रूरत नगर का नाम जानने की होती है। उसके बाद वाले पोस्टमैन को कालोनी का नाम और फिर उसके बाद वाले को मकान का नम्बर और नाम की ज़रूरत होती है। तो फिर पता ऐसे क्यों नहीं लिखा जाता जैसे
पिन 403404
झांसी
किले के पीछे बटोली नगर
मकान नम्बर 420/3 राम भरोसे मिश्र्
यदि किसी को इस समबन्ध में कुछ कहना हो तो कृप्या बतायें।

बुधवार, नवंबर 11, 2009

एक और आतंकी हमला

हिन्दी में शपथ के बहाने
मुम्बई में एक और आतंकी हमला
वीरेन्द्र जैन्
अभी मुम्बई पर 26 नवम्बर 2008 को हुये आंतकी हमले को एक साल भी नहीं बीता था कि एक और आतंकी हमला हो गया जो किसी ताज़ होटल में नही अपितु देश के संविधान पर लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण इमारतों में से एक विधान सभा भवन में हुआ। इसने पिछले दिनों संसद भवन पर हुये हमले की याद दिला दी। यह हमला इसलिये भी और ज्यादा भयानक है क्योंकि यह केवल इमारतों या व्यक्तियों पर किया गया हमला भर नहीं है अपितु यह हमारी लोक्तांत्रिक व्यवस्था और उसकी सरकार पर सीधा सीधा पूर्व चुनौती देकर किया गया हमला है।
इमारतें फिर से दुरस्त हो जाती हैं किंतु एक बार खोया हुआ विश्वास जल्दी वापिस नहीं लौटता। यह हमला न केवल हमें भिंडरवाला के खालिस्तान आन्दोलन से हुये नुकसान की ही याद दिलाता है अपितु कश्मीर समेत उत्तर पूर्व के राज्यों में चल रहे अलगाववादी आन्दोलनों की कड़ी में एक और राज्य को जोड़ने का काम करता है।
राज ठाकरे और उनके विधायकों द्वारा किये गये कामों की आलोचना के लिये शब्दों की ज़रूरत नहीं है क्योंकि वे शब्दों में तर्कों की भाषा में बात ही नहीं कर रहे हैं और ना ही किसी बहस की अपेक्षा ही रखते हैं। उनका सीधी सीधी चुनौती ताकत की है। हिन्दी का स्थान, शपथ की भाषा-चयन का अधिकार, राष्ट्रीय एकता का सवाल और संघीय व्यवस्था आदि की बातें तो तब की जा सकती थीं जब वे इस तरह का कोई सवाल उठाते। वे तो साफ साफ कहते हैं कि जैसी मेरी मर्ज़ी है वैसा करो या आमने सामने ताकत से टकराने के लिये तैयार रहो। लगभग ऐसी ही स्तिथियों में भिंडरावाले ने आपरेशन ब्लू स्टार की नौबत ला दी थी जिसमें हज़ारों मासूम लोग मारे गये थे तथा बाद में देश की प्रधान मंत्री को भी शहीद होना पड़ा था। जब इस तरह से संविधान को खुली चुनौती दी जा रही हो और पूर्व घोषणा के अनुसार ही कानून तोड़ा जा रहा हो तो सरकार के चुप बैठने का मतलब उसके न होने के बराबर है। लगता है राज ठाकरे को इसकी प्रेरणा संघ परिवार द्वारा नरसिन्हाराव सरकार को खुली चुनौती के साथ बाबरी मस्ज़िद तोड़ने और उससे उपजे ध्रुवीकरण से सत्ता सुख भोगने से मिली होगी। जब सत्तरह साल तक सुनवाई करते रहने वाली लिब्राहन आयोग के बाद भी दोषियों को सज़ा नहीं मिलेगी तो ऐसी प्रवृत्तियों का प्रसार होना सहज है। जब श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट के बाद भी बाल ठाकरे का कुछ नहीं बिगड़ेगा तो उनके उत्ताराधिकार के सवाल पर अलग हुये राज ठाकरे उसी रास्ते पर क्यों नहीं जायेंगे! नक्सलवादी तो दुरूह जंगलों में छुप कर सरकार को चुनौती देते हैं किंतु राज ठाकरे जैसे लोग तो बीच शहर में बैठ कर गैर कानूनी बातें कर रहे हैं। कांग्रेसी और एनसीपी नेताओं को सरकार में मलाईदार पद लेने से अधिक किसी बात में दिलचस्पी नहीं है और यदि राज ठाकरे द्वारा भाषायी-भावनाओं से भटकायी गयी जनता तक सही बात नहीं पहुंचती है तो एक बार फिर व्यापक हिंसा से बचा नहीं जा सकता।यदि ऐसा हुआ तो यह राज ठाकरे की ही जीत होगी।
राज ठाकरे के विधायकों द्वारा लोकतंत्र के मन्दिर में किये गये कृत्य की भले ही सारे द्लों द्वारा निन्दा की गयी किंतु इस आलोचना में शिवसेना मुखर नहीं रही और भाजपा की प्रतिक्रिया भी बेहद सुप्त सी और गोलमोल है जिससे कभी भी इधर उधर हुआ जा सकता है। औपचारिक बयान भी शाहनवाज़ खान से दिलवाया गया है। स्मरणीय है कि वरुण गान्धी के मामले में भी शाहनवाज़ और मुख्तार अबास नक़वी से ही बयान दिलवाया गया था और जब उन्होंने वरुण के बयान की आलोचना कर दी थी तो पूरे चुनाव के दौरान उन दोनों को ही उक्त दृश्य पटल से गायब कर दिया गया था जिससे यह सन्देश गया कि ये मुसलमान तो ऐसा बोलेंगे ही।
यह न हिन्दी का मामला है और न ही मनसे व समाजवादी का ही झगड़ा है अपितु यह केवल लाठी और लोकतंत्र का झगड़ा है। राज ठाकरे अपने चाचा के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने आप को एक ऐसे गिरोह के मुखिया में बदल देना चाहते हैं जिसके इशारे पर देश की आर्थिक राजधानी में रहने वाले अपनी काली गोरी कमाई में से एक उचित हिस्सा उनके लिये उगलते रहें। जो काम मुम्बई के माफिया गिरोह करते आ रहे हैं वही काम बाल ठाकरे परिवार राजनीतिक पार्टी के नाम पर करता है। उनकी धमकी पर किसी भी कलाकार को फिल्म में से निकाला जा सकता है या किसी कलाकार को ब्लेकलिस्टेड किया जा सकता है। हंगल जैसे श्रेष्ठ्तम कलाकार तक इसका शिकार हो चुके हैं और अमिताभ बच्चन जैसे तथाकथित महानायक उनके दरवाजे पर ढोक देते हैं। राजनीति में अपना प्रभाव बनाने के लिये वे कोई भावनात्मक मुद्दा उठाते हैं जो धर्म क्षेत्र भाषा जैसे किसी भी विषय का हो सकता है। देश में बढती बेरोज़गारी के खिलाफ कोई आन्दोलन छेड़ने की बजाय वे स्थानीय निवासियों को इस आधार पर बरगलाते हैं कि उनकी बेरोजगारी और उससे जनित गरीबी के कारण ये दूसरे राज्य से आये हुये लोग हैं। वे इस बात को छुपा जाते हैं कि दूसरे राज्य से जो लोग आये हैं वे वहां फैली बेरोजगारी के कारण ही आये हैं और कम वेतन में काम करने तथा अपनी कुशलता के कारण स्थानीय लोगों की तुलना में पहले रोज़गार पा गये हैं। वे यह भी नहीं बताते कि ये रोजगार पैदा करने वाले और देने वाले भी हिन्दी भाषी राज्यों से ही आये हैं।। मुम्बई में सारे बड़े बड़े संस्थान जो सर्वाधिक रोजगार पैदा करते हैं ,वे गैर मराठी भाषी लोगों द्वारा ही स्थापित और संचालित हैं। जिस फिल्म उद्योग में सर्वाधिक धन लगा हुआ है उसमें मराठी भाषी कितने लोग हैं?
राज ठाकरे से बाल ठाकरे का झगड़ा केवल उत्तराधिकार का है इसलिये उनकी कार्यविधि के बारे में बात करते समय दोनों में भेद नहीं किया जा सकता। राज ठाकरे भले ही बाल ठाकरे की सम्पत्ति के सच्चे उत्तराधिकारी न हों किंतु उनकी दूषित राजनीति के सच्चे उत्तराधिकारी वे ही थे। बाल ठाकरे ने भले ही गलती कर दी हो किंतु उनके समर्थकों ने वास्तविक उत्तराधिकारी की पहचान में कोई गलती नहीं की। ताज़ा हथकण्डा राज ठाकरे को बाल ठाकरे की विरासत के और अधिक पास ले जायेगा।
इस सोची समझी घटना का एक आयाम यह भी है कि यह रोज़गार की मांग करने वालों को आपस में ही लड़ा कर उनके संघर्ष की दिशा को भटकायेगा। अवसर की तलाश में बैठी भाजपा मौका देखकर अपने पत्ते खोलेगी पर यही अवसरवादी रुख उसकी छवि को और गिरा देगी।

शुक्रवार, नवंबर 06, 2009

श्रद्धांजलि प्रभाष जोशी

क्या वे सचिन के 17000 रन पूरे करने के लिये प्रतीक्षा कर रहे थे?
वीरेन्द्र जैन्
शायद उन्हें सचिन के 17000 रन पूरे होने की प्रतीक्षा थी। अपने पिछले जन्मदिन पर लिखे कागद कारे में उन्होंने आगामी मृत्यु को सूंघ लेने के साफ साफ संकेत दे दिये थे।
वे ऐसे इकलौते वरिष्ट सम्पादक विचारक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता थे जिन्हें समाज राजनीति अर्थ व्यवस्था आदि की बराबरी पर क्रिकेट को रखने में कोई परेशानी नहीं होती थी जबकि हम जैसे कई लोग जब किसी विशेष महत्व के विषय पर उनके धारदार लेख की प्रतीक्षा में जनसत्ता का इंतज़ार कर रहे होते, तब प्रथम पृष्ठ पर उतनी ही धार के साथ क्रिकेट पर उनका लेख देख कर कोफ्त होती थी। बाद में पता चला कि वे एक अखकार के सम्पादक के रूप में जन रुचियों के प्रति कितने सम्वेदन शील थे।
एक बार जब वे भारत भवन में आये थे और बातचीत में उनसे उनके सती प्रथा वाले सम्पादकीय के बारे में जिज्ञासा व्यक्त की तो उन्होंने कहा था कि एक सम्पादक का काम भी एक बेट्स मैन की तरह होता है जिसको एक दो सेकिंड में फैसला ले लेना होता है कि इस आती हुयी बाल को खेलना है छोड़ना है, हिट करना है या डिफेंसिव रहना है! और ये एक दो सेकिंड बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। इस त्वरित फैसले में की गयी गलती कई बार खिलाड़ी को भारी भी पड़ जाती है । सम्पादक के लिये भी ऐसे ही क्षण बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।

रविवार, नवंबर 01, 2009

समीक्षा मेरे मुंह में ख़ाक -लेखक मुश्ताक अहमद यूसुफी

मेरे मुंह में खाक्””
मुश्ताक अहमद यूसुफी के उपन्यास का हिन्दी अनुवाद
वीरेन्द्र जैन
मुश्ताक अहमद यूसुफी की किताब - मेरे मुंह में खाक- के हिन्दी में प्रकाशित होने की सुचना के साथ ही इस बारे में कोई दूसर विचार नहीं आया सिवाय इसके कि इसे खरीदना है और पढना है। यह इस्दलिये कि इससे पहले में उनकी किताब- आबे गुम- का अनुवाद -खोया पानी के अंश पहले लफ्ज़ में और फिर पुस्तकाकार पढ कर मुग्ध हो चुका था। -राग दरबारी- के बाद यह दूसरी पुस्तक ठी जिसके पढने का आग्रह में सेकदों दूसरे लोगों से कर चुका था। एक बेहद अच्छे शायर तुफैल चतुर्वेदी अपनी शायरी के साथ साथ इस बात के लिये भी सराहे जायेंगे कि उन्होंने न मुश्ताक अहमद यूसुफी की किताबों का अनुवाद किया अपितु उसे प्रकाशित करके हिन्दी पाठ्कों तक पहुंचाया। मुझे ऐसा कहना चाहिये फिर भी में नहीं कहता कि यूसुफीजी भारतीय उपमहाद्वीप के सर्वश्रेष्ठ हास्य लेखक हैं पर इतना ज़रूर कह सकता हूं कि हास्य व्यंग्य की असंख्य पुस्तकें पढ जाने के बाद भी मैंने इससे बेहतर कोई भी हास्य पुस्तक नहीं पढी। पुस्तक का फ्लेप मैटर सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने और भूमिका डा. ज्ञान चतुर्वेदी ने तैयार की है और वे दौनों भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं।
मैंने जब भी युसुफी जी की किताब के बारे में लिखने की सोची तो में यह नहीं तय कर पाया कि कहां से शुरुआत की जाये क्योंकि सिरे से आखिर तक पूरी किताब ऐसे ऐसे ज़ुम्लों से भरी हुयी है कि पढते समय अंडरलाइन करता गया तो पूरी किताब ही अंडरलाइन हो गयी जैसे कि कम्प्यूटर में सलेक्ट आल का विकल्प होता है।
कहा गया है और सही कहा गया है कि दृष्टा ही सृष्टा होता है भोक्ता सृष्टा नहीं होता। उनकी पुस्तकें पढ कर लगता है कि वे किसी विदेह की तरह इस पूरी दुनिया को देखते और इस फानी दुनिया के कार्य कलापों”को ऐसे ज़ुमलों में व्यक्त करते हैं कि इस नटखट दुनिया की शैतानियों”पर एक वात्सल्य भरा आनन्द महसूस होता है। ऐसा लगता है कि पाठक भी हंस कर प्रभु से प्रार्थना करता महसूस होता है कि- हे प्रभु इन्हें माफ कर देना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।
उक्त पुस्तक में एक जगह वे अपने पात्र के मुंह से कहलवाते हैं- हर वह जानवर जिसे मुसलमान खा सकते हैं पाक है, इस कारण से मुस्लिम देशों में बकरों को अपनी पवित्रता के कारण खासा नुकसान पहुंचा है।
अपनी भूमिका में वे लिखते हैं कि स्वयं प्राक्थान लिखने में वही आसानी और फायदे निहित हैं, जो खुद्कुशी में होते हैं, यानि देहांत की तिथि, हत्या का उपकरण,और हत्या के स्थान का चयन मृतक खुद करता है।
वे कहते हैं कि यह किताब चराग तले के पूरे आठ साल बाद प्रकाशित हो रही है। जिन प्रशंसकों को हमारी पहली किताब में ताज़गी, ज़िन्दादिली और जवानी का अक्श नज़र आया, सम्भव है कि उन्हें बुज़ुर्गी के आसार दिखायी दें। इसका कारण हमें तो यही लगता है कि उनकी (पाठक) उम्र में आठ साल की बढोत्तरी हो चुकी है।
aaआगे कहते हैं कि इंसान को हैवाने ज़रीफ (प्रबुद्ध जानवर्) कहा गया है लेकिन यह हैवानों के साथ बड़ी ज्यादती है, इसलिये कि देखा जाय तो इंसान अकेला वह जानवर है जो मुसीबत से पहले मायूस हो जाता है।
अगर आप को इस किताब की कोई ऐसी प्रति मिल जाय जो इससे पहले कोई आलोचक पढ चुका हो तो आपको हर पेज पर ढेरों हाईलाइट किये हुये वाक्य मिल जायेंगे, पर आप आलोचक की आलोचना करते हुये कहेंगे कि जो वाक्य उसने हाईलाइट करने से छोड़ दिये हैं वे क्यों छोड़ दिये हैं!
में उनके उदाहरण देने की गलती नहीं करूंगा जैसा कि अच्छी पार्टी के बुफे भोजन के बाद लगता है कि फलां आइटम तो खा ही नहीं पाये!
इस हाईटेक ज़माने में आपको इस किताब को प्राप्त करने के लिये कोई चिटठी पत्री ड्राफ्ट मनी आर्डर की ज़रूरत नहीं है अपितु आप केवल लफ्ज़ के खाता संख्या 2629020000251 में बैंक आफ बड़ोदा में 300/-रुपये ज़मा करने के बाद वहीं से मोबाइल नम्बर 9810387857 पर पूरा पता एस एम एस कर दें तो आपको अति शीघ्र डाक या कोरिअर से किताब मिल जायेगी।
में अंत में केवल इतना ही कह सकता हूं कि शिषृ हास्य व्यंग्य को पसन्द करने वाला कोई भी व्यक्ति जो उक्त राशि व्यय कर सकता हो अगर इस किताब को स्टाक खत्म होने से पहले मंगा कर नहीं पढेगा तो यह उसका दुर्भाग्य होगा। अगर में इसका परकाशक होता तो यह भी लिखना देता कि पसन्द न आने पर पैसे वापिस्।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629