बुधवार, नवंबर 25, 2009

लिब्रहिन आयोग की रिपोर्ट और उमा भारती की कूटनीति

लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट और उमा भारती की कूटनीति
वीरेन्द्र जैन्
मैं समझता हूं कि लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट को सदन के पटल पर रख दिये जाने के बाद अब किसी को यह जानने की ज़रूरत शेष नहीं रह जानी चाहिये कि इस रिपोर्ट के सामने आने में सत्तरह मह्त्वपूर्ण वर्ष क्यों लग गये जिस कारण इस पर नौ करोड़ का खर्च आया।रिपोर्ट से साफ है कि आरोपियों ने जो कि देश के लोकप्रिय नेता थे और इस बीच प्रधान मंत्री और उपप्रधान मंत्री और गृह मंत्री जैसे सर्वोच्च पदों पर आसीन रहे थे, अपने अपराध बोध के कारण आयोग के साथ सहयोग नहीं किया। अब स्पष्ट है कि आयोग चाहता रहा होगा कि आरोपी अपने किये की सज़ा पायें। वैसे भी जैसा कि सी बी आई के पूर्व निर्देशक जोगिन्देर सिन्ह ने कहा है कि ये आयोग तो केवल जनता को बहलाने के लिये होते हैं। सच है क्योंकि कौन नहीं जानता था कि अपराधी कौन कौन हैं। किसने रथ यात्रायें निकालीं, उन रथ यात्राओं में कैसे कैसे नारे लगाते हुये उन्हें अल्प संख्यकों की बस्तियों में से गुज़ारा गया और विरोध करने पर पूरी तैयारी के साथ साम्प्रदायिक हिंसा फैलायी गयी जिससे वोटों का ध्रुवीकरण हो सके और दो सीटों तक सिमिट गयी पार्टी को आधार मिल सके। सब जानते हैं कि इतनी सारी भीड़ किसने एकत्रित की थी और यात्रा के अंतिम दिन् वाराणसी में आडवाणी ने साफ साफ कहा था कि अबकी कारसेवा बिना साधनों के नहीं होगी। ढेर सारी मीडिया रिपोर्टें थीं और देशी विदेशी फोटोग्राफरों द्वारा खींचे गये फोटुओं के सबूत थे जो बता रहे थे कि उस दिन वहाँ कौन कौन उपस्तिथ था।
अगर कुछ नहीं था तो तत्कालीन सत्तारूढ दल के पास समान संख्या में मुक़ाबला करने वाला जन बल नहीं था, इसलिये उसने टालने के लिये वक़्त देना ज़रूरी समझा।आज एक धर्म निरपेक्ष सरकार सता में है और भले ही उसके पास हुड़दंगियों की वैसी टोली नहीं हो पर सैनिक और अर्ध सैनिक बलों पर तो उसका नियंत्रण है जो हुड़दंगियों का मुक़ाबला कर सकते हैं। उम्मीद की जाना चाहिये कि इस अवसर पर कम से कम हुड़दंगियों का मुक़ाबला करने में सभी धर्म निरपेक्ष दल एकजुट होंगे जो लम्बे अर्से से बाबरी मस्ज़िद तोड़कर साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने वालों के खिलाफ कार्यवाही की मांग करते रहे हैं।
राजनीति का शौक न केवल तरह तरह के स्वांग बनाने, और अगर उससे राजनीतिक लाभ मिल रहा हो तो, उसे बनाये रखने को विवश करता है इसका उदाहरण देखना हो तो उमा भारती को देख लेना ही काफी होगा। साध्वी भेष में रहने वाली यह राजनेता भाजपा द्वारा सत्ता प्राप्ति के लिये किये जाने वाले इस राजनीतिक अभियान की ही उपज रही थीं जिन्हें बचपन से धार्मिक प्रवचनों के कारण मिली लोकप्रियता को भुनाने के लिये भाजपा नेता विजया राजे सिन्धिया ने पार्टी में सम्मलित कर लिया था। दूसरे शब्दों में कहें तो राजनीति ने अपने लाभ के लिये एक धार्मिक काम में लिप्त लड़की को धार्मिक काम छोड़ देने को विवश किया था। तत्कालीन सत्तारूढ दल की अलोकप्रियता ने उमा भारती को साध्वी से भाजपा सांसद में बदल दिया था पर जिस स्वरूप ने उसे यह अवसर दिलाया था उसे न त्यागना भी उनकी मजबूरी बन गयी थी। ऊपर से साध्वी और भीतर से राजनीतिज्ञ इस युवती ने भाजपा की मजबूरी को खूब भुनाया और अपनी मनपसन्द सुरक्षित सीट से टिकिट लिया, सांसद बनी रही, केन्द्र में मंत्री बनी, फिर प्रदेश की मुख्य मंत्री बनी। जब भाजपा ने उसकी ज़िदें और शर्तें मानने से इंकार कर दिया तो अलग पार्टी बनायी और भाजपा की भरपूर छीछालेदर की। चुनाव लड़े और हारने के बाद फिर भाजपा में सम्मलित होने के लिये एड़ी चोटी का जोर लगाया पर अपनी वाचालता के कारण कुछ ऐसे मनभेद पैदा कर लिये थे कि भाजपा में दुबारा सम्मलित नहीं हो सकीं। किसी तरह उनके गठबन्धन में ही सम्मलित होने का प्रयास किया पर पहले से ही गुटबाज़ी से ग्रस्त पार्टी ने कोई खतरा मोल लेना ठीक नहीं समझा। लिब्रहन आयोग की रिपोर्ट उनके लिये छींके की तरह टूटी है यही कारण है कि आरोपियों में सबसे पहली और मुखर प्रतिक्रिया उमा भारती की ही रही। उन्होंने कहा कि अगर कोई नेता ज़िम्मेवारी नहीं लेना चाहते तो मैं अकेले ज़िम्मेवारी लेने के और राम मन्दिर के लिये फांसी पर चढने को तैयार हूं। स्मरणीय है कि इससे पूर्व भी वे यह कह चुकी थीं कि भाजपा नेताओं को 6 दिसम्बर 92 की ज़िम्मेवारी से भागना नहीं चाहिये क्योंकि वे सब वहां मौज़ूद थे। पर उस समय उनका यह बयान भाजपा नेताओं को ब्लेकमेल करने की चाल की तरह लिया गया था। अब वे फिरसे यही बयान दे रहीं हैं और भाजपा नेताओं से दोहरेपन से बाहर आने को प्रेरित कर रहीं हैं। भले ही अब माना जा रहा है कि ये इतने दिनों से निष्क्रिय राजनीतिज्ञ के सुर्खियों में आने के हथकंडे हैं किंतु उमा जी की स्वीकरोक्ति और गवाही मुकदमे में महत्वपूर्ण हो सकती है। इससे पूर्व वे दूसरे अभियुक्त कल्याण सिंह से भी गुफ्तगू कर चुकी हैं और उन्होंने भी लगभग ऐसा ही बयान दिया है जिससे अडवाणी की मुश्किलें और बढ गयी हैं। अब या तो वे इन लोगों के आगे झुक कर समझौता करें या फिर सज़ा भुगतने के लिये तैयार रहें। दूसरी ओर उमा भारती और कल्याण सिन्ह से किया गया समझौता वैंक्य्या नायडू, सुषमा स्वराज, अरुण जैटली, शिवराज सिंह चौहान आदि को किसी भी तरह मंज़ूर नहीं होगा जिससे भाजपा में संकट और बड़ेगा। संकट के समय भाजपा को जो इकलौता हल सूझता है वह साम्प्रदायिक दंगों का ही होता है। इसलिये अगर अतिरिक्त सावधानी नहीं बरती गयी तो इस समय भाजपा प्रेरित दंगों की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता।
वीरेन्द्र जैन
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