लोकतंत्र और
पारदर्शिता
वीरेन्द्र जैन
किसी देश की शासन प्रणाली में जो महत्व लोकतंत्र का है, वही महत्व लोकतंत्र
में पारदर्शिता का है। अगर लोक को सच्चाई का पता ही नहीं होगा तो वह अपना विचार क्या
बनायेगा! विडम्बना यह है कि लोकतंत्र के बड़े बड़े दावे करने वाले लोग प्राइवेसी के
अधिकार की बात तो करते हैं किंतु पारदर्शिता की बात नहीं करते, जबकि पारदर्शिता से
लोकतंत्र मजबूत होता है। जब भी किसी सरकार में मंत्री पद की शपथ ली जाती है, तब
गोपनीयता की शपथ तो लेते हैं, पारदर्शिता की नहीं। सूचना के अधिकार को प्राप्त
करने के लिए देश के जागरूक संगठनों को लम्बा संघर्ष करना पड़ा और कुछ ही दिनों बाद
उस कानून में जगह जगह से कतर ब्योंत कर दी गयी। इसके महत्व को समझने के लिए
उल्लेखनीय है कि उक्त अधिकार के बाद दर्जनों आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुयीं
जिनका आरोप विभिन्न सत्तारूढ राजनेताओं व उनके दरबारियों पर ही लगा, जिन्हें सजा
नहीं मिल सकी। पुलिस, फौज, प्रशासन, राजनेता, और न्याय कोई भी पारदर्शिता को
प्रोत्साहित नहीं करना चाहता, जबकि जब जब पारदर्शिता बढी है तब तब सत्ता के समक्ष
खड़ी जनता को ताकत मिली है।
किसी शासन, प्रशासन को देश की सुरक्षा
के लिए जितनी गोपनीयता की जहाँ जहाँ जरूरत है वहाँ वहाँ छोड़ कर शेष क्षेत्रों में पारदर्शिता होना
चाहिए। हम जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन चलाते हैं तो यह शासन जनता
को व्यवस्था का सच बताये बिना कैसे पूरा हो सकता है।
सबसे पहले तो जो राजनीतिक दल जनता से समर्थन प्राप्त कर विभिन्न सदनों में
अपने प्रतिनिधियों को भेज कर सरकार बनाने व सदन चलाने में मदद करते हैं उनकी
कार्यप्रणाली में ही पारदर्शिता नहीं है। उनके संगठन में पदाधिकारी चयन में लोकतंत्र
नहीं, केवल दिखावा है और अधिकांश दलों में वंशानुगत नेतृत्व ही चल रहा है। पुराने
राज परिवारों में से लगभग सभी के वंशज अपने पुराने प्रभाव व दबाव से किसी न किसी पद पर चुनाव जीत कर सत्ता पर पुनः
कब्जा जमा चुके हैं, या अपने गुलामों को बैठा चुके हैं। असहमतों की हत्याएं कर दी
गयी हैं और ऐसी अनगिनित हत्याओं को दबा दिया गया है या उनकी जांच रिपोर्टों को बदल
दिया गया है।
जो राम रहीम किसी पत्रकार की सरे आम हत्या के लिए जिम्मेवार माना जाता है उसके
आगे हरियाणा में सत्तारूढ दल के सारे विधायक किसी समय दण्डवत करने जाते हैं और
मंत्रिमण्डल उसे विभिन्न बहानों से करोड़ों रुपयों का अनुदान स्वीकृत करता है। अगर
एक न्यायाधीश साहस नहीं जुटाता तो उसे कभी सजा नहीं मिलती। देश भर में सैकड़ों
पत्रकारों को सच सामने लाने के कारण शहीद होना पड़ा है। जब किसी एक ज्ञात हत्यारे
को सजा नहीं मिल पाती तो हजारों पत्रकार दबाव में आकर सच लिखने का साहस नहीं जुटा
पाते व लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मिट्टी का लौंदा बन कर रह जाता है। अखबार, व्यापार
और सरकार का जो गठजोड़ बना है उसका परिणाम यह है कि सारा बड़ा मीडिया उन कार्पोरेट
घरानों का हिस्सा बन चुका है, जो सरकार चलाते हैं। ऐसे में कथित जनता के शासन की
जनता के सामने पारदर्शिता कठिन होती है। कभी कमलेश्वर जी ने सारिका के एक सम्पादकीय
में लिखा था कि प्रैस की आजादी का मतलब प्रैस मालिकों की आजादी नहीं होती अपितु
पत्रकार की आजादी होता है।
किसी दल में जनप्रतिनिधि हेतु प्रत्याशी चयन की कोई घोषित नीति और न्यूनतम
पात्रता घोषित नहीं है। सदस्यता की वरिष्ठता या दल के घोषित कार्यक्रमों में दिये
गये योगदान, सम्बन्धित पद के कार्य सम्पादन में योग्यता आदि का कोई रिकार्ड नहीं
रखा जाता। यदि प्रत्याशी बनने के लिए मांगे गये आवेदनों में कभी कुछ पूछा भी जाता
है तो अंतिम चयन में उसका कोई महत्व नहीं होता। प्रत्याशी चयन की बैठकें गोपनीय
स्थानों पर होती हैं व चयन समिति के लोग छुपे फिरते हैं, क्योंकि चयन का आधार
मैरिट नहीं होता। यही कारण होता है कि दलबदलू पुराने सदस्यों से बेहतर स्थान पा
लेते हैं।
सरकार में आने या जनप्रतिनिधि चुने जाने के बाद आय में अप्रत्याशित वृद्धि
देखी जती है, इस वृद्धि को सन्देह की दृष्टि से देखे जाने की जगह प्रमुख दलों में उसे
अगले चुनाव में प्रत्याशी बनाये जाने के गुण की तरह देखा जाता है। जिन जिन पदों पर
भ्रष्टाचार की सम्भावनाएं हैं व अतीत में उन पदों पर पदस्थ लोगों के भ्रष्टाचार
कभी सामने आ चुके हों तो उन पदों पर बैठने वालों को सर्विलेंस में रखा जाना चाहिए।
इसके विपरीत मंत्रिमण्डल में विभाग वितरण के दौरान मलाईदार विभागों को हथियाने की
नंगी दौड़ देखी जाती है। इस बात की कोई वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की जाती कि
गत वर्ष जो लोग भ्रष्ट आचरण के कारण विभिन्न जाँच एजेंसियों की पकड़ में आये थे, उन
के प्रकरणों में क्या प्रगति है, ना ही सरकार की उपलब्धियों के बड़े बड़े विज्ञापनों
में जाँच की प्रगति दर्शायी जाती हौ। नहीं बताया जाता कि मामले कहाँ अटके हुए हैं!
धीरे धीरे लोग उन्हें भूल जाते हैं।
मंत्रिमण्डल गठन की कोई घोषित नीति नहीं है। कहीं यह स्पष्ट नहीं किया जाता कि
फलां को क्यों मंत्री बनाया गया है और फलां विभाग ही क्यों दिया गया है। जनता के
काम को योग्यता अनुसार सुचारु रूप से करने की क्षमता की जगह मंत्री का दबाव, उसका वंश,
जाति, और वफादारी आदि के आधार पर चयन किया जाता है। यही कारण है कि अक्षम
मंत्रियों के विभाग नौकरशाह चलाते हैं।
केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के सत्तारूढ होने के बाद तो पारदर्शिता जैसी कोई
चीज नहीं रह गयी। मंत्रिमण्डल के सदस्यों तक को लोग नहीं जानते। समाचारों में उनका
नाम यदा कदा ही सामने आता है, यहाँ तक कि सांसद तक जरूरत पड़ने पर डायरी तलाशने
लगते हैं कि किस विभाग में कौन मंत्री है। पूरा मंत्रिमण्डल दो लोग चला रहे हैं। नोटबन्दी
से लेकर लाकडाउन तक सबसे छुपा कर ऐसे घोषित किये जाते हैं जैसे जनता के खिलाफ
सर्जिकल स्ट्राइक की जा रही हो। आवश्यक, अनावश्यक हर मामला गोपनीय रखा जाता है।
उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री कौन होगा ये सात चरणों वाले चुनाव के छठे चरण तक
घोषित नहीं किया जाता और अंतिम चरण में योगी को घोषित किया जाता है। उससे पहले ही
समाजवादी पार्टी की सरकार के समय में भी चुनाव पूरे हो जाने के बाद बताया जाता है
कि जीत की स्थिति में अखिलेश मुख्यमंत्री होंगे। मुख्यमंत्री को विधायक नहीं चुनते अपितु हाईकमान
चुनता है, जिस के नाम पर मोहर लगाने को विधायक बाध्य होते हैं। हाईकमान ने किन किन
नामों के बीच किस आधार पर चयन किया है यह कहीं स्पष्ट नहीं होता। जब कोई दल
त्यागता है तो उस तिथि के एक दिन पहले तक वह पार्टी के प्रति बफादार दिखने की
कोशिश करता है और बाद में वह अपने मतभेदों को राजनीतिक बतलाते हुए लम्बे लम्बे
बयान देता है। अगर राजनीतिक मतभेद हैं तो उसे अपने समर्थकों के बीच लगातार सामने
रखा जाना चाहिए।
मेरठ के प्रसिद्ध वकील के के गर्ग ने राष्ट्रपति द्वारा फांसी की सजा माफ करने
के विशेष अधिकार को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए मांग की थी कि राष्ट्रपति
किस की सजा को माफ करते हैं और किसकी नहीं, इस बात का अन्धा अधिकार उन्हें नहीं
है, अपितु इसका प्रयोग करते समय लिये गये फैसले के गुणदोषों को स्पष्ट किया जाना
चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका को स्वीकार किया था।
नवाज शरीफ की बेटी की शादी में अचानक
से अवतरण करने से क्या लाभ हुआ। नागा विद्रोहियों को मारने और म्यांमार में अन्दर
प्रवेश कर मृतकों की गलत संख्या बताने या सर्जिकल स्ट्राइक या बालाकोट के बारे में
बताये गये तथ्य विवादास्पद क्यों रहे। यह सैटेलाइट निरीक्षण ड्रान कैमरों से
वीडियोग्राफी, डिजिटल कर्यालयों और जगह जगह सीसीटीवी कैमरों का युग है। हर हाथ में
पहुंच गये मोबाइल कैमरों से दृश्य समाचार तक मिनिटों में विश्वव्यापी हो सकते हैं,
होते भी रहते हैं, किंतु हम फिर भी महाभारत के ‘अश्वत्थामा हतो’ जैसे झूठ लगातार
बोल रहे हैं, और जनता के बीच लोकतंत्र में आस्था को कम कर रहे हैं।
प्रशासकीय पारदर्शिता को मौलिक अधिकारों में
शामिल करना चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
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