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रविवार, जून 21, 2020

गाँधी के देश में विशिष्ट होने का रोग


गाँधी के देश में विशिष्ट होने का रोग

वीरेन्द्र जैन
पिछले तीस सालों में देश के अन्दर सुविधाजीवी मध्यम वर्ग की संख्या में तेज वृद्धि हुयी है और उसी के अनुरूप उपभोक्ता सामग्री की मांग भी बढी। इसी दौरान दुनिया के बाज़ार पर चीन ने कब्जा जमाया और भारत के बाजार पर छा गया। उसने अपना सामान बेचने के लिए यूरोपीय देशों की तरह संस्कृति का निर्यात नहीं किया अपितु भारत समेत दुनिया भर के देशों की संस्कृतियों के अनुरूप माल का उत्पादन किया। उदाहरणार्थ भारत की महिलाओं के लिए उसने सिन्दूर का निर्माण किया और आज पूरे देश की हिन्दू महिलाएं चीन में निर्मित सिन्दूर का प्रयोग कर रही हैं। वाहनों की सामग्री से लेकर मोबाइल व इलेक्ट्रोनिक्स का पूरा बाजार चाइनीज सामान से पटा पड़ा है। देश में कोरोना के प्रारम्भ स्थल और चीन के साथ हिंसक सीमा संघर्ष एक ही समय में घटित हुये। परिस्थितियां ऐसी हुयीं कि उचित समय पर कदम न उठाने की केन्द्र सरकार की अपरिपक्वता साफ नजर आने लगीं। किंतु खरीदे हुए मीडिया व अन्धभक्तों की फौज ने सारे गुस्से की दिशा को भटका दिया। सरल जनता बिना जाने समझे चीनी सामान खरीदने को ही सारी समस्या समझ बैठी और उसके बहिष्कार को पेचीदा अर्थव्यवस्था तक का हल समझने लगी। उम्मीद की जा रही है कि कोरोना के लाकडाउन से बैठ गयी अर्थ व्यवस्था, कमर से टूट चुका निम्न और मध्यम वर्ग को चीनी सामान के बहिष्कार के बहाने सादगी और स्वदेशी का सन्देश पहुंच रहा है, जो सामाजिक परिवर्तन को दिशा देगा। गांधीजी के 150वें जन्मवर्ष में शायद इसी बहाने से उन्हें श्रद्धांजलि दी जा सके।  
      जाति, धर्म, लिंग, वर्ण, भाषा, रंग, आदि का कोई भेद किये बिना सभी को समान नागरिकता देने वाली हमारी आदर्श संवैधानिक व्यवस्था में व्यक्तिवादी राजनीति के उभार ने देश के लोकतंत्र को बहुत नुकसान पहुँचाया है। दुखद है कि देश के बहुत सारे क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनीतिक दल व्यक्ति आधारित हैं व उन्होंने बहुत सारे छुटभैए राजनीतिक कार्यकर्ताओं में जल्दी विशिष्ट होने की बीमारी बो दी है। सिद्धांतविहीन राजनीतिक दलों के सदस्यों में ऐसे लोगों की संख्या समुचित है जो स्वयं को समाज में विशिष्ट बनाने के लिए ही दल की खास ‘वर्दी’ में दल के नेताओं के इर्दगिर्द मंडराते रहते हैं। न वे दल की घोषित नीतियों की जानकारी रखते हैं और न ही उसके घोषणापत्र की। सत्तारूढ दल के कार्यकर्ता सरकारी सुविधाएं हथियाने के लिए तो सरकारी अधिकारियों को प्रभावित करने के चक्कर में रहते हैं किंतु सरकार के विकास व निर्बल वर्ग के सशक्तिकरण कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के बारे में जानने समझने की कोई जरूरत नहीं समझते, जिससे जनता के हित में लायी गयी अच्छी अच्छी योजनाएं भी जनभागीदारी के अभाव में सफल नहीं हो पातीं।
वे किसी लाइन में लगना पसन्द नहीं करते, व अपने वाहनों पर नम्बर प्लेट की जगह अपने दल का नाम और दल में अपने पद का उल्लेख किये मिलते हैं, ताकि ट्रैफिक के नियमों का बिना पालन किये चल सकें। उन्हें सब कुछ अतिरिक्त और उस क्रम से पहले चाहिए होता है, जिसके वे पात्र हैं। सरकारी व अर्धसरकारी विभागों के गैस्ट हाउस, डाकबंगले, सरकिट हाउस, रैस्ट हाउस, फारेस्ट या पर्यटन विभाग के होटल आदि को वे अपनी ससुराल समझते हैं व मंत्रियों विधायकों के इशारों पर इनमें नियम विरुद्ध अतिथि बने रहते हैं। मुफ्तखोरी की यही आदत उन्हें सदैव ही उस दल में रहने को प्रेरित करती है, जो सत्ता में होता है, और सत्ता बदलते ही वे तुरंत दल ही नहीं अपितु अपना आका भी बदल लेते हैं।
      विशिष्टता के प्रदर्शन हेतु सुरक्षा गार्ड लेने के लिए लोग झूठे खतरे की कहानियां गढते हैं। स्मरणीय है कि अपना रुतबा बढाने के लिए बाबा भेष में रहने वाले आयुर्वैदिक दबाओं के व्यापारी ने दस वर्ष पूर्व अपने हेलीकाप्टर में एक नकली आतंकी को सुतली बम के साथ बैठा लिया था ताकि उन्हें ज़ेड सुरक्षा माँगने का आधार मिल सके। बाद में पुलिस की सख्त पूछताछ में वह व्यक्ति टूट गया था व उसने सबकुछ सच सच बता दिया था कि सच्ची कहानी क्या थी। ऐसी एक नहीं ढेरों किंवन्दतियां चर्चा में हैं। देश में पुलिस बल की बेहद कमी होने के बाद भी विशिष्ट होने के लिए बहुत सारे लोगों ने अनावश्यक रूप से गार्ड लिये हुये हैं। पिछले दिनों जब सुप्रीम कोर्ट ने अपात्रों को सुरक्षा गार्ड उपलब्ध कराने व पुलिस फोर्स की कमी के बहाने अपराधों पर अंकुश न लगाने पर फटकार लगायी थी तब यह बात सामने आयी थी कि लोगों के अहं को तुष्ट करने में आम आदमी के अधिकारों की कितनी उपेक्षा हो रही है।
      जिन सांसदों विधायकों को एक दिन के लिए भी सदन की सदस्यता लेने पर जीवन भर के लिए पैंशन और दीगर सुविधाएं उपलब्ध करायी जाती हैं, उन्हें उसके साथ साथ अपने उद्योग, व्यापार, मनोरंजन, और चिकित्सकीय या वकालत समेत अनेक आय अर्जित करने वाले काम करने की कोई मनाही नहीं है। यहाँ तक कि जो चुनावों के दौरान सदन में पहुँचने के लिए सारे वैध-अवैध तरीके अपनाते हैं वे ही चुने जाने के बाद अपने इन्हीं व्यवसायों में लिप्त रहते हुए सदन में कम से कम उपस्थित रहते हैं। पूर्व सांसद या विधायक होने की विशिष्टताके नाते वे ट्रैन की उच्च श्रेणी में एक व्यक्ति को साथ लेकर कितनी भी यात्राएं कर सकते हैं, व उनके लिए  आरक्षण का अतिरिक्त कोटा उपलब्ध रहता है। सरकारी डाकबंगलों, आदि में भी वे निःशुल्क या रियायती दरों पर प्राथामिकता पा सकते हैं। जिस संसद और विधानसभाओं में करोड़पति सदस्यों की संख्या बढती ही जा रही है उन सब को भूतपूर्व सदस्य होने के बाद भी पेंशन और विशेष सुविधाएं मिलना और उनमें निरंतर बढोत्तरी होते जाना चिंताजनक बात है। जब समाजिक रूप से पिछड़े वर्ग को नौकरियों में आरक्षण देने में क्रीमी लेयर का अवरोध लगाया जा सकता है तो करोड़पति सांसदों को आरक्षण और विशेष सुविधाएं देने के बारे में निजी आय की कोई सीमा क्यों तय नहीं की जा सकती। उल्लेखनीय है कि बहुत सारे अरबपति व्यापारी तो कुछ विशेष सुविधाओं और नियम विरुद्ध व्यापारिक लाभों के लिए ही दौलत के सहारे सदस्य बनकर सुपात्र उम्मीदवार को सदन में पहुँचने से वंचित कर देते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार देश के सभी बड़े उद्योगपतियों के प्रतिनिधि सदन में मौजूद हैं जो अपने चुने जाने के लिए चुनावों को विकृत करने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। इसी तरह विभिन्न गम्भीर अपराधों के आरोपी तो अपने अपने प्रकरणों को लम्बा खिंचवाने या गवाहों को बदलवाने या सबूतों को मिटाने के लिए ही सदन की सदस्यता लेना चाहते हैं। सदन के सदस्य बनने के बाद उसके कुछ वकील सदस्यों की आय में हुयी अकूत वृद्धि तो चौंकाने वाली है जो एक वेबसाइट ‘माईनेताडाटइंफो’ [myneta.info] पर देखी जा सकती है। स्मरणीय है कि गत वर्षों में लोकसभा प्रतिवर्ष औसतन 71 दिन बैठी जिसमें लोकसभा की कार्यवाही न चलने देने व वाक आउट वाले दिन भी सम्मलित हैं। इसके बाद भी वेतन और भत्ते उन्हें पूरे पूरे मिलते रहे हैं। अनेक राज्यों की विधान सभाओं में भी यह औसत 16 से 31 दिन का आता है। उल्लेखनीय है कि विधायिका के ये प्रतिनिधि कार्यपालिका के दैनिन्दिन कार्यों में निरंतर अनाधिकार हस्तक्षेप करने में लगे रहते हैं। पिछले दिनों ही मध्यप्रदेश के कुछ वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों को असमय स्थानांतरित करने का कारण यह बताया गया था कि वे जनप्रतिनिधियों को महत्व नहीं देते थे।          
      विशिष्टता केवल अधिकारों या सुविधाओं के मामले तक ही सीमित नहीं की जा सकती। जब हमने कुछ लोगों को विशिष्ट बना ही दिया है तो जिम्मेवारियों के बारे में भी उन्हें विशिष्ट बनाना चाहिए। एक विशिष्ट व्यक्ति यदि किसी अपराध में दोषी पाया जाता है तो उसे असाधारण दण्ड भी मिलना चाहिए। बहुत सारे मामलों में देखा गया है कि विशिष्ट व्यक्ति अपनी विशिष्टता व विशेष सम्पर्कों के प्रभाव में कानून के उपकरणों को प्रभावित करने में सफल हो जाता है और उसे कभी कभी बड़ी मुश्किल से ही बहुत लम्बे समय बाद सजा मिल पाती है। उनकी सजा इसलिए भी अधिक होना चाहिए क्योंकि जिस समय उन्हें जेल में होना चाहिए था वे विशेष सुविधाओं का लाभ ले रहे थे तथा जनता को गलत आदर्श देते हुए कार्यपालिका के कार्यों में अनुचित हस्तक्षेप कर रहे थे। जमानत देने के मामले में भी उनके विशेष प्रभाव के खतरे को अनुमानित कर के ही विचार किया जाना चाहिए। विशिष्ट व्यक्तियों के प्रकरणों के निबटारे के लिए फास्ट ट्रैक कोर्टों की कोई उपलब्धियां नहीं दिखतीं। महिलाओं के उत्पीड़न सम्बन्धी मामलों में आरोपों को झेल रहे जनप्रतिनिधियों के प्रकरणों को सबसे आगे रखना चाहिए। उन्हें टिकिट देने की सिफारिश करने वालों और मंत्रिपद देने वालों से भी पूछा जाना चाहिए कि क्या उनकी पार्टी के पास सम्बन्धित आरोपी को टिकिट देने का कोई विकल्प नहीं था और अगर था तो उन्होंने परोक्ष में आरोपी की मदद क्यों करना चाही?  
      संजय गान्धी की मृत्यु भी ऐसा ही एक हादसा था जो विशिष्टता के दंभ में उड़ान भरने [एवीयेशन] के नियमों और तय ड्रैस के खिलाफ पाजामा कुर्ता और चप्पल पहिन कर हवाई जहाज उड़ाने की कोशिश कर रहे थे। दूसरी ओर उरुग्वे के एक राष्ट्रपति थे  जोसे मुजिका.[पूरा नाम जोसे एल्बर्टो पेपे मुजिका कोर्डैनो] इन्हें दुनिया का सबसे गरीब राष्ट्रपति की संज्ञा दी गई है।  यह जिस तरह का जीवन जीते थे, वैसा जीवन कोई फकीर ही जी सकता था. जोसे मुजिका उरुग्वे के राष्ट्रपति भवन के बजाय अपने दो कमरे के मकान में रहते थे. सुरक्षा के नाम पर बस दो पुलिसकर्मी की सेवा लेते थे. सामान्य लोगों की तरह कुएं से पानी भरते और अपने कपड़े खुद धोते थे. वो अपनी पत्नी के साथ मिलकर फूलों की खेती करते ताकि कुछ एक्स्ट्रा आमदनी हो सके. खेती के लिए ट्रैक्टर खुद चलाते और इसके खराब होने पर खुद ही मैकेनिक की भांति ठीक भी करते थे। कोई नौकर-चाकर अपनी सेवा के लिए नहीं रखते थे. अपनी बहुत पुरानी फॉक्सवैगन बीटल गाड़ी को खुद चलाकर ऑफिस जाते थे. बस ऑफिस जाते समय वह कोट-पैंट पहनते थे। एक देश के राष्ट्रपति को जो भी सुविधाएं मिलनी चाहिए, इन्हें वो सारी सुविधाएं दी गई थीं. पर इन्होंने इन सुविधाओं को लेने से इनकार कर दिया. वेतन के तौर पर इन्हें मिलता था हर महीने 13300 डॉलर जिसमें से 12000 डॉलर गरीबों को दान दे देते थे. बाकी बचे 1300 डॉलर में से 775 डॉलर छोटे कारोबारियों को देते थे. अगर आपको कहीं से भी ऐसा लगता है कि शायद उरुग्वे एक गरीब देश है, इसीलिए यहां का राष्ट्रपति भी गरीब था, तो यह आपका भ्रम है. उरुग्वे में प्रति माह प्रति व्यक्ति की औसत आय 50000 रुपये है।
देखना होगा कि गान्धी की मूर्तियां लगाने व सड़कों के नाम गान्धीमार्ग रखने के अलावा हमारे सूट पर सूट व गाड़ियों पर गाड़ियां बदलने वाले राजनेता स्वदेशी और सादगी के लिए क्या करते हैं।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629




बुधवार, अक्टूबर 02, 2019


 गांधीजी- राजनीति और समाजसेवा की परस्परता
                                                                   वीरेन्द्र जैन

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       गांधी पिछली सदी के महानतम नेताओं में से एक थे। अपने समय के सबसे सशक्त साम्राज्यवाद के साथ उन्होंने सहज ढंग से उपलब्ध साधनों से ऐसी लड़ाई लड़ी है कि उनके शत्रु भी उनसे खीझते भले रहे हों पर उनकी निन्दा करने का अवसर नहीं पाते थे। एक अतिसहनशील और परिवर्तनों के प्रति उदासीन समाज को लड़ाई में साथ लेने की रणनीति तैयार कर लेने में उनका कोई सानी नहीं था। गांधीजी जब अफ्रीका से लौट कर आये और उन्होंने अपना काम करना प्रारम्भ किया तो तिलक ने उन्हें सलाह दी कि पहले वे पूरे हिन्दुस्तान को देखें और समझें। सलाह का पालन करते हुये गांधीजी ने दो वर्ष तक घूम घूम कर गांवों से शहर तक पूरे देश के जनजीवन को अपनी पूरी गहरी संवेदनशीलता के साथ देखा व बिना किसी पूर्वाग्रह के लोगों के मानस को पढा। बिहार के चम्पारन जिले में जब एक महिला को उन्होंने नदी तट पर आधी धोती को धोते ओर सुखाने के बाद शेष आधी धोती को धोते देखा व जाना कि ऐसा करने के पीछे उसके पास एक ही धोती का होना है तब उनकी समझ में आ गया कि इस देश के लिये उन्हें क्या करना है।

       गांधीजी ने उस दौरान ही समझ लिया था कि बिना सामाजिक परिवर्तन के राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। वे विचारों की जड़ता को पसन्द नहीं करते थे और अनुभवों से निकाले गये निष्कर्षों के आधार पर कभी भी अपने विचार बदल सकते थे। अपने काम के दौरान उन्हें यह भी समझ में आ गया कि सामाजिक परिवर्तन के लिये समान स्तर पर उतरकर सम्वाद बनाने की जरूरत होती है व सम्वाद बनाने के लिये न केवल समान भाषा में बातचीत करने की जरूरत होती है अपितु अपने रहन सहन और पहनावे को सामने वाले के अनुरूप लाये बिना असरकारी सम्वाद नहीं बनाया जा सकता। जहां नेहरू और जिन्ना का प्रभाव केवल अंग्रेजी ढंग से पढे लिखे लोगों तक पड़ा वहीं गांधी आम आदमी के पास पहुंचने में सफल हो सके। इंगलैण्ड में पढे और अफ्रीका में बैरिस्ट्री कर चुके गांधी ने सूट पैंट छोड़ कर धोती लाठी को अपनाया और खुद की काती हुयी मोटी खादी से बुने हुये कपड़ों को ख़ुशी-खुशी पहना। सबसे महत्वपूर्ण यह था कि ऐसा उन्होंने तात्कालिक दिखावे या कूटनीति के रूप में नहीं किया, जैसा कि आज के चुनावी नेता, चुनाव के समय करते हैं अपितु इसके महत्व को स्वीकारते हुये उन्होंने इसे दिल से अपना लिया था। जहां नेहरू और जिन्ना के बौद्धिक आतंक और नफासत से आम आदमी एक दूरी बना कर चलता था वहीं गांधी उसे अपने आदमी लगते थे। गांधी ने न केवल आम आदमी की भाषा और भूषा का ही स्तेमाल किया अपितु सरल व सस्ते भोजन के लिये उन्होंने शाकाहार को अपनाया। पर ऐसा नहीं कि वे शाकाहार को सब पर लादते हों। उनके साथ रहने वाले नेहरूजी प्रति दिन एक अन्डे का सेवन जिन्दगी भर करते रहे और उनके सबसे समर्पित साथी खान अब्दुल गफ्फार खां जिन्हें खुद सीमांत गांधी के नाम से जाना गया व जो ऐसे अकेले नेता थे जो विभाजन स्वीकार कर लेने पर गांधीजी के कंधे पर सिर रख कर फूट-फूट रोये थे,जिन्दगी भर मांसाहारी बने रहे। एक बार बचपन में इंदिरागांधी ने उनसे पूछा था कि क्या मैं अंडा खा सकती हूं तो बापू ने कहा था कि यदि तुम्हारे घर में खाया जाता है तो तुम खा सकती हो। गांधीजी ने दूध के लिये भारत के पुराने पौराणिक पशु गाय को नहीं चुना अपितु उन्होंने सस्ते सुलभ व कम से कम देख भाल की जरूरत वाली बकरी को पाला ,क्योंकि वह ही गरीब की मां हो सकती थी।
       गांधीजी ने लोगों के दिल में इसलिये जगह बनायी क्योंकि वे लोगों के साथ केवल दिमाग से नहीं जुड़े अपितु दिल और दिमाग दोनों से जुड़े। राजनीति के साथ समाज सेवा करने  की आवश्यकता उन्होंने इस कारण महसूस की ताकि लोग राजनीतिक बात सुनने की स्थिति में तो आयें। वे जानते थे कि कोई भी सम्वाद तभी बनाया जा सकता है जब सम्बोघित किया जाने वाला व्यक्ति सुनने की स्थिति और तैयारी में हो। सम्वाद वन वे ट्रैफिक नहीं हो सकता। वे पहले अपने श्रोता की सुनना और उसे समझना ज्यादा जरूरी समझते थे। ऐसा ही वे अपने तत्कालीन शासकों से चाहते थे। गांधीजी जब माउंटबेटन से मिलने गये तो वहां कूलर चल रहा था। फ्रीडम एट मिडनाइट के लेखक लपियर कालिन्स के अनुसार तब सम्भवत: वह भारत में चलने वाला एकमात्र कूलर रहा होगा। गांधीजी बोले- मुझे सर्दी लग रही है- यह कह कर उन्होंने बातचीत से पहले वहां कूलर बन्द करवा दिया व माउंटबेटन को बातचीत के मेज पर बराबरी का अहसास करा दिया। वे यह सन्देश देना चाहते थे कि तुम्हारी मशीनों से चमत्कृत हो मैं अपने यथार्थ को नहीं भूल सकता हूं। उनका एक चम्मच था जिससे वे दही खाते थे। जब चम्मच टूट गया तब उन्होंने उसमें एक खपच्ची बांध ली थी और लगातार उसीसे नाशता करते थे। जब लेडी माउंटबेटन ने मेज पर नाश्ता लगवाया तो उन्होंने थैली में से अपना टूटा चम्मच और दही निकाल लिया। फिर बोले कि मैं अपना नाश्ता अपने साथ लाया हूं। जिस साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता था उसके प्रतिनिधि के सामने ऐसी विनम्र चुनौती रखने वाले गांधी सम्वाद में बराबरी का महत्व समझते थे व दूसरों को भी उसका अहसास कराते रहते थे।
             गांधीजी समाज को एक जीवित इकाई की तरह समझते थे और मानते थे कि यदि शरीर की एक उंगली में दर्द हो तो उसका असर पूरे अंगों पर होता है व उस अंग को ठीक रखे बिना दूसरे अंगों को ठीक रखना संभव नहीं हो सकता इसलिये वे समाज से केवल गुलामी का ही दर्द नहीं हटाना चाहते थे अपितु छुआछूत, जातिभेद, गरीबी और रोगों आदि के साथ समांतर संघर्ष चलाते थे। तत्कालीन समाज में अस्पृश्य मानी जानी वाली जातियों के साथ बैठकर भोजन करने वाले व अपना पाखाना स्वयं साफ करने की परम्परा डालने वाले गांधी अछूतोद्धार को भी राजनीतिक लड़ाई से कम महत्वपूर्ण नहीं मानते थे। वे अपने को आस्तिक ही नहीं वैष्णव भी बतलाते थे और रोज  प्रार्थना करते थे ,पर यह प्रार्थना सामूहिक होती थी जिसमें सभी धर्मों की प्रार्थनाएं सम्मलित थीं। उनके एक भजन में अल्लाह ईश्वर एकहि नाम के शब्द आते थे। उनका यह ढंग समाज के सभी समुदायों को जोड़ने वाला था।
             अंग्रेजी साम्राज्यवाद से अहिंसक लड़ाई लड़ने वाला यह योद्धा उपर से ठन्डा दिख सकता था क्योंकि उसके पास अपने सिद्धांतों और विश्वासों की मजबूती थी। वह इन आन्दोलनों के दौर में भी कुष्टरोगियों की सेवा भी करता है और अखबार का सम्पादन भी करता है। आज के पूर्णकालिक राजनेता जो अपने भाषणों में गरीब निर्धन और दलितों के लिये निरंतर घड़ियाली आंसू बहाते हैं ना तो पर्ल्स पोलियो के दिन बच्चों को पोलियो ड्राप पिलवाने के लिये निकलते हैं और ना ही सम्पूर्ण साक्षरता आन्दोलन के दौरान लोगों को साक्षरता हेतु अपने प्रभाव का कोई प्रयास करते नजर आते हैं। यदि राजनेताओं ने गरीबी हटाओं  और स्वरोजगार योजनाओं को लागू करवाने को एक राजनीतिक आन्दोलन की तरह लिया होता तो समाज और उन नेताओं के प्रति विश्वास में जबरदस्त फर्क आया होता। एक ताजा सर्वेक्षण के अनुसार पचासी प्रतिशत लोग आज के नेताओं की बातों पर भरोसा नहीं करते हैं। आज  राजनीति का अर्थ हो गया है कि सत्ता में अपने आप को अपनी क्षमताओं से अधिक ऊंचे स्थान पर फिट करने के लिये प्रयत्नशील रहना व ऐसा होने में अवरोध बनने वालों का विरोध करना। जिस दल के कार्यकर्ता सत्ता के लाभों के अभ्यस्त हो जाते हैं वे सत्ता चली जाने के बाद लुंजपुंज हो जाते हैं जबकि लोगों को उनके विधिसम्मत अधिकार दिलवाने के लिये संघर्ष करने का यह सर्वोत्तम अवसर होता है। भाषणों में देश के लिये खून की एक एक बूंद देने का दावा करने वाले यदि राष्ट्रीय त्योहारों पर रक्तदान की परंपरा ही डालें तो इस देश के किसी अस्पताल को कभी रक्त की कमी न पड़े और प्रतिवर्ष हजारों जानें बच सकें। गांधीजी अगर आज होते तो उन्होंने ऐसा ही कोई ढंग चुना होता। किस पार्टी के कार्यकर्ताओं ने वर्ष में कितना रक्त दान किया है इसका आंकड़ा न केवल उस पार्टीवालों का देशवासियों के प्रति समर्पण ही प्रकट करेगा अपितु उनके त्याग की परीक्षा भी करेगा। श्री नरेन्द्र मोदी भी स्वच्छता को भाजपा का कार्यक्रम नहीं बना सके हैं, जो केवल सरकारी तमाशा बन कर रह गया है।
             खेद की बात तो यह है कि जिन लोगों के पास गांधी की विरासत थी वे उसका उपयोग नहीं कर रहे हैं और गांधीवाद के शत्रु उनकी रणनीतियों का सर्वाधिक कुटिलतापूर्वक स्तेमाल कर रहे हैं। जब ग्यारह सितम्बर दो हजार दो को वर्ल्ड ट्रेड सैंटर पर आतंकियों ने हमला किया तो उसमें सबसे अधिक उल्लेखनीय तथ्य यह था कि उन हमलावरों ने अमेरिका के ही विमानों का अपहरण करके और उनके महत्वपूर्ण स्थलों पर टकराकर धाराशायी कर दिया। मुझे इस घटना के समय इन अर्थों में गांधीजी की याद आयी कि अगर किसी के पास इरादे हों तो संघर्ष के लिये बाहरी संसाधनों की जरूरत नहीं होती और अपनी जान को दांव पर लगा देने के आगे सारे हथियार बेकार होते हैं। गांधीजी इसे अपने अच्छे कार्यों के लिये अच्छे ढंग से प्रयोग करते थे। चुनाव के समय जनता की सेवा के दावे करने वाले नेता चुनाव हार जाने पर जनता की सेवा से दूर क्यों हो जाते हैं या केवल छुटपुट विरोध प्रर्दशनों तक अपने को सीमित क्यों कर लेते हैं? क्या जनता की सेवा किसी पद के लिये चुने जाकर ही की जा सकती है?गांधी बिना किसी पद पर रहे कुष्टरोगियों की सेवा करते थे, अछूतोद्धार करते थे, सूत कातते थे और हिन्दी प्रचार सभा चलवाते थे। आज यदि साम्प्रदायिक संगठन अपनी जगह बना सके हैं तो उसके पीछे उनका जनसेवा के स्थलों पर दिखना भी है। उनको निर्मूल करने की इच्छा रखने वालों को गांधी के रास्ते पर चलकर सबसे पहले समाजसेवा में उनसे आगे निकल कर दिखाना होगा। समाजसेवा के कार्यों को सरकारी मशीनरी के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता तथा सरकारी मशीनरी के द्वारा वांछित परिणाम पाने के लिये राजनीतिक संगठनों का सक्रिय हस्तक्षेप अनिवार्य हो गया है। पर, किसी भी दल की घोषणाओं में सरकार से बाहर रहते हुये किये जाने वाले सामाजिक कार्यक्रमों की चर्चा तक नहीं की जाती। गांधीजी दहेजप्रथा, सतीप्रथा आदि कुरीतियों से टकराने को सदैव तत्पर रहते थे पर आज उनके नाम पर राजनीति करने वाले वोटों के लालच में विभिन्न समाजों की कुप्रथाओं को न केवल संरक्षण देते हैं अपितु कानूनी दायरे में आने पर उन्हें बचाने का काम भी करते हैं।

             गांधीवादी राजनीति का दावा करने वाले दलों के सदस्य यदि प्रतिमाह केवल एक सामाजिक कार्य में ईमानदारी से सहयोंगी होने का कार्यक्रम बनाकर चलें तो उनकी लोकप्रियता में गुणात्मक परिवर्तन दिख सकता है। गांधीवाद की सबसे बड़ी विशेषता सिद्धांतों और व्यवहारिकता को समानान्तर ढंग से चलाना है। गांधीजी ने अपनी जिन्दगी में इसे सफलतापूर्वक करके दिखाया है।

वीरेन्द्र जैन
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