जे एन यू लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
जे एन यू लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, जनवरी 17, 2020

फिल्म समीक्षा छपाक – ब्लैक का अगला संस्करण


फिल्म समीक्षा
छपाक – ब्लैक का अगला संस्करण 
Image result for छपाक movie
वीरेन्द्र जैन
हमारे देश में भी अच्छी फिल्में बन रही हैं जिनमें बहुत सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक समस्याएं उठायी गयी हैं, किंतु उनकी समीक्षा बहुत स्थूल ढंग से हो रही है। दीपिका पाडुकोण की फिल्म छपाक के साथ भी ऐसा ही हुआ है। तेजाब के हमले से घायल होकर बच गयी लड़कियों की समस्या पर केन्द्रित कथा पर यह फिल्म बनायी गयी है। संयोग से या सोचे समझे ढंग से जे एन यू के छात्रों पर हुए हमलों के विरोध में सहानिभूति प्रदर्शित करने पहुंची दीपिका पाडुकोण की प्रशंसा और विरोध में यह फिल्म चर्चित भी हुयी। विरोध के किसी भी रूप को सहन न कर पाने वाली सरकारी पार्टी के लोगों ने बिना इसकी महत्ता व संवेदना पर विचार किये, फिल्म का अन्ध विरोध करवा दिया। फिल्म के बाक्स आफिस पर सफल या असफल होना तो अलग बात है, किंतु इस सब में सरकार का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। एक सामाजिक समस्या पर बनी फिल्म का विरोध ही नहीं, उस पर झूठे साम्प्रदायिक आरोप लगवाने में भी सरकारी पार्टी नहीं चूकी। ऐसा लग रहा था कि जैसे फिल्म के सफल होते ही सरकार को गिर जाने का खतरा पैदा हो गया है।
फिल्म की कथा या कहें कि घटना केवल इतनी है कि घर की आर्थिक स्थिति से परेशान एक लड़की पढाई छोड़ कर एक टेलर मास्टर के पास सिलाई सीखने लगती है, और लड़की की उम्र से बड़ा प्रशिक्षक टेलर बदले में उसे अपनी सम्पत्ति समझने लगता है। इस सब से अनजान लड़की जब अपने पुराने सहपाठी से मिलती है तो नाराज टेलर मास्टर अपनी बहिन की मदद से उस के चेहरे पर तेजाब फेंक देता है। पीड़ित लड़की इसी क्रम में एक ऐसे एनजीओ के सम्पर्क में आती है जो तेजाब के हमले से शिकार लड़कियों पर ही काम कर रहा होता है। यह संयोग है कि उक्त लड़की की इलाज में मदद वह गृहस्वामिनी करती है, जिसके यहाँ उसका पिता खानसामा था, और उसकी ही एक एडवोकेट मित्र दोषी को सजा दिलाने में मदद करती है। इन लोगों का प्रयास या कहें कि संघर्ष सफल होता है और न केवल हमलावरों को सजा मिलती है अपितु राज्य सरकारों द्वारा एसिड की बिक्री पर नियंत्रण रखने का आदेश भी मिलता है।
आम तौर पर समीक्षक इस या इस जैसी फिल्मों को यहीं तक देखते हैं, और उन पर लिखते हैं। किंतु फिल्म आगे तक जाती है। जीवन सम्पूर्णता में जिया जाता है, भले ही किसी समय विशेष में एक विशेष समस्या दूसरी बातों को हाशिये पर रखती हैं। एसिड हमले से पीड़ित एक महिला का इलाज और कानूनी लड़ाई जीवन के शेष हिस्से को खत्म नहीं कर देती। सौन्दर्य बोध केवल चेहरे तक ही सीमित नहीं होता अपितु व्यक्ति के मानवीय गुण भी उसके सौन्दर्य को प्रकट करते हैं। व्यक्ति चाहता है कि अपने चेहरे के आकर्षण के अलावा उसके गुणों के कारण भी उसे पसन्द किया जाये। चेहरा विकृत हो जाने से उसके जीवन की दूसरी आवश्यकताएं समाप्त नहीं हो जातीं। उसे जिन्दा रहने के लिए रोटी कपड़ा और मकान की भी जरूरत होती है जिसके लिए एक अदद सवैतनिक नौकरी की जरूरत होती है। जब अच्छे अच्छे चेहरों तक को नौकरी के लाले पड़ रहे हों तब विकृत होकर असामान्य चेहरे वालों को नौकरी कौन देता है। हमलावरों को मिली सजा, या एसिड बिक्री पर लगी रोक उसके जीवन की अन्य समस्याओं को राहत नहीं देतीं। उसे विकलांग श्रेणी का भी नहीं समझा जाता। बस में माँएं अपने बच्चों को पीड़िता की ओर देखने से रोक्ती हैं और कई बच्चे उसे देख कर चीख पड़ते हैं, जिसे सुन कर अपने आप से घृणा होने लगती है। एक विकृत चेहरे वाली महिला को भी जीवन में प्रेम और दैहिक साथ की जरूरत होती है, किंतु प्लास्टिक सर्जरी के बाद भी विपरीत लिंग के लोगों की आंखों में वह आकर्षण नहीं टपकता, जो एसिड अटैक से पहले दिखता था। उल्लेखनीय है कि कुछ दिनों पहले एक फिल्म आयी थी, जिसमें जब एक विकलांग लड़की की बहिन उसका जन्मदिन मनाती है और उससे वांछित उपहार पूछती है तो वह कहती है कि मैं सेक्स करना चाहती हूं।
इसी तरह फिल्म ब्लैक में गूंगी बहरी नायिका को उसका वयोवृद्ध शिक्षक होठों पर उंगली रख कर संवाद सिखाता है, किंतु एक युवा लड़की के होठों पर उंगली रखने से जनित संवेदनाएं अपने निकट रह रहे पुरुष के प्रति आकर्षण पैदा करती हैं, जिससे शिक्षक नैतिक असमंजस में फंस जाता है। यह फिल्म भी बताती है कि उस दिव्यांग लड़की के जीवन की समस्याएं, सम्वाद के लिए भाषा के ज्ञान आने तक समाप्त नहीं हो जातीं। फिल्म में इस बात को चित्रित किया गया था किंतु फिल्म पर विचार करने वालों ने अपनी समीक्षाओं में इस बात का कहीं उल्लेख नहीं किया। छपाक भी परोक्ष रूप से ब्लैक में उभारी गयी बात को ही आगे बढाती है।
छपाक की निर्देशक मेघना गुलजार और सह निर्मात्री व नायिका दीपिका पाडुकोण ने यह फिल्म बना कर बहुत साहसिक काम किया है। फिल्म बाक्स आफिस पर बहुत ज्यादा सफल नहीं हो सकी है किंतु घाटा भी नहीं दे रही। दीपिका के दुस्साहस की दाद दी जाना चहिए कि उसने मुख्यधारा की नायिका रहते हुए इस विशिष्ट भूमिका को चुना। इतना ही नहीं उसने अपनी भूमिका के प्रति पूरा पूरा न्याय किया है। मेघना का निर्देशन सफल है। दीपिका की भूमिका फिल्म के बाहर पूरे देश के स्तर पर भी सफल है। ऐसे ही साहस कला को ज़िन्दा रखते हैं।
 वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023 मो. 9425674629            

गुरुवार, जनवरी 09, 2020

जे एन यू, लेफ्ट, संघी और नकाबपोश


जे एन यू, लेफ्ट, संघी और नकाबपोश
Image result for जे एन यू
वीरेन्द्र जैन
नाथूराम गोडसे ने जब महात्मा गाँधी की हत्या की थी तो वह उनके किसी प्रशंसक की तरह हाथ जोड़े हुये आया था और उन्हीं जुड़े हुये हाथों में उसने पिस्तौल छुपा रखी थी, जिसमें से तीन गोलियां उसने गाँधीजी के सीने में उतार दी थीं।
जिन लाल कृष्ण अडवाणी ने पूरे भारत में घूम घूम कर कमल का फूल पेंट किये डीसीएम टोयटा को रथ बता कर, व बाबरी मस्ज़िद को गुलामी का प्रतीक प्रचारित कर अयोध्या जाने के लिए मासूम भक्तों की भीड़ जोड़ी थी, उन्होंने ही बयान दिया था कि ‘मैं तो उन्हें मस्जिद तोड़ने से रोक रहा था, पर वे मेरी भाषा नहीं समझ सके और वह इमारत टूट गयी’। योजनाबद्ध तरीके से अटल बिहारी वाजपेयी को दिल्ली और संसद में मोर्चा सम्हालने के लिए भेज दिया गया था, उन्होंने संसद में कहा था कि मस्ज़िद टूटने पर अडवाणी जी का चेहरा आंसुओं से भरा हुआ था, अर्थात वे तो दुखी थे। इस दोहरे चरित्र से दुखी होकर ही बाल ठाकरे ने कहा था कि बाबरी मस्जिद तोड़ने की मैं जिम्मेवारी लेता हूं इसे हमारे लोगों ने तोड़ा। क्या मराठी लोग इतनी हिन्दी भी नहीं समझते कि उन्हें किस बात के लिए रोका जा रहा है।
भाजपा की असमंजस हमेशा यह रही कि वे जिम्मेवारी से तो बचना चाहते हैं किंतु भोले भक्तों के बीच उसका चुनावी लाभ भी लेना चाहते हैं, इसलिए जब भाजपा शासित चार राज्यों की सरकारें दंगों के कारण भंग कर दी गयीं तो उसके बाद हुये चुनाव में उनका नारा था ‘ जो कहा सो किया’ । अब लोग समझ लें कि उन्होंने क्या कहा था और क्या किया। यह ऐसे चतुर सुजानों की भाषा थी जिनकी चतुराई जगह जगह से टपकी फिर रही हो।
गुजरात में 2002 के नरसंहार में लगभग तीन हजार मुसलमानों की हत्या करके उनके घर और दुकानें लूट ली गयी थीं उनमें से 962 मृतकों का तो पोस्टमार्टम हुआ इसलिए सरकारी तौर पर स्वीकार कर लिये गये और शेष गायब बताये गये। किसी को भी इस नरसंहार के लिए फांसी नहीं हुयी। इतने बड़े नरसंहार के बाद भी अभियोजन की मदद से सारे आरोपी छूट गये या जमानत पर अपनी पूरी जिन्दगी गुजार देंगे। उसी नरसंहार की याद दिलाते हुए कर्नाटक के एक भाजपा विधायक ने हाल ही में कहा कि मुसलमान न भूलें कि 2002 में गुजरात में क्या हुआ था और वह दुहराया भी जा सकता है। ऐसा ही एक दिन में साफ कर देने का बयान हरियाणा के एक विधायक ने दिया है। इसका मतलब यह कि         ‘ अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो’ की तरह अर्थ कुछ और है व आशय कुछ और है।
जे एन यू छात्र संघ के चुनावों में हर राजनीतिक विचारधारा के छात्र संगठन भाग लेते हैं, और एक ही मंच से एक दूसरे की विचारधारा के खिलाफ खुल कर बहस करते हैं। वहाँ की संस्कृति में वैचारिक मतभेद कभी हिंसक नहीं हुये थे क्योंकि वामपंथ वहाँ मुख्यधारा में था व भाजपा के छात्र संगठन एबीवीपी को वहाँ के छात्रों ने कभी गम्भीरता से नहीं लिया। प्रखर छात्रों व प्रोफेसरों द्वारा साम्प्रदायिकता की मुखर आलोचना के प्रभाव में छात्रों के बीच एबीवीपी अछूत की तरह रहा व अनेक द्लों में विभाजित वामपंथ ही वहाँ की मुख्यधारा रहा। किंतु किसी भी तरह सत्ता हथिया लेने में कुशल मोदी सरकार के केन्द्र में आने के बाद वे जे एन यू छात्रसंघ में अपना स्थान बना कर वहाँ की मुख्यधारा को बदल देना चाहते थे। उल्लेखनीय है कि 2014 में ही सुब्रम्यम स्वामी ने कहना शुरू कर दिया था कि जे एन यू को बन्द कर देना चाहिए। सच तो यह है कि जे एन यू के छात्र जो सच्चाई सामने लाते थे उससे इनके झूठ के गुब्बारे की हवा निकल जाती थी।
2016 में ही इन्होंने देश के विरोध का आरोप उन छात्र नेताओं पर लगा दिया, जिन्होंने वैसा कुछ कहा ही नहीं था जैसा प्रचारित किया गया। उनके दुष्प्रचारक ही नहीं अपितु स्वयं प्रधानमंत्री, और गृहमंत्री तक छात्रों को अर्बन नक्सल या टुकड़े टुकड़े गैंग कहने लगे। देशद्रोह का  मुकदमा तक लगवाने की कोशिश की। जो सत्ता के शिखर पर बैठे हैं वे देशद्रोह जैसे आरोपों पर कार्यवाही करने की जगह इसे अपने राजनीतिक प्रतिद्वन्दियों के प्रति अवधारणा बनाने में प्रयोग करें तो शर्म आती है। सच तो यह है कि जो प्रचारित किया गया वैसा कोई मामला था ही नहीं।
जे एन यू में हाल में घटित घटनाओं के लिए जाँच बैठाने की औपचारिकता चल रही है किंतु हालिया रवैये को देखते हुए रिपोर्ट सत्य से बहुत दूर भी हो सकती है, जबकि लगभग सबको पता है कि अपराधी किसके भेजे हुये थे व पुलिस और सेक्युरिटी ने क्यों अपना काम नहीं किया। वी सी की राजनीतिक नियुक्ति से लेकर फीस बढाने और बाहर से बाहुबली लाकर अपने प्रभुत्व को बढाने में स्तेमाल करने तक जो काम देश की सत्तारूढ पार्टी का अध्यक्ष, गृह मंत्री व प्रधानमंत्री कर रहे हैं वह इन पदों की गरिमा को बहुत नीचे ले जा रहा है। अब तो नगर निगमों तक की राजनीति इन से ऊपर उठ रही है। दो राजनीतिक विचारधाराओं में मतभेद होना तो लोकतंत्र के स्वास्थ के लिए अच्छा है, किंतु देश की राजधानी में देश के सबसे महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय में  नकाबपोश आकर वहाँ के छात्रसंघ की महिला अध्यक्ष पर घातक हमला करें, अन्य महिला प्रोफेसरों समेत अनेक छात्रों पर हमला करें,  दो तीन घंटे तक आतंक का नंगा नाच करें और न वीसी कुछ करे, न सेक्युरिटी, न पुलिस तो खतरे की गम्भीरता को नापना जरूरी है। इसी राजधानी में ही राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री आदि भी रहते हैं। जब कोई ऐसा अपराधिक काम करता है जिसे वह सामने आकर नहीं कह पा रहा हो तब ही वह नकाब ओढ कर आता है। इन्हीं नकाबपोशों ने उन कमरों और कार्यालयों पर कोई हमला नहीं किया जिन के बाहर एबीवीपी या उनके संगठन से जुड़े होने के संकेत थे। यह भी अपने आप में साफ संकेत देता है, कि हमलावर कौन थे।
 सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़ रहा है कि देश की हालत बहुत खराब है व सरकार को तेजी से ध्यान देना चाहिए। सच तो यह है कि देश के सर्वोच्च पद पर बैठे हुए लोग भले ही निर्धारित ढंग से चुन कर आये हों किंतु वे अपने पद का निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं। लोकतंत्र की दुहाई भी तब ही दी जा सकती है जब दल के चुनावों में लोकतंत्र हो और पदों की उम्मीदवारी के लिए चयन भी लोकतांत्रिक तरीके से हो। व्यवस्था में निरंतर विचलन हो रहे हैं जो देश को गलत दिशा में धकेल रहे हैं। ईवीएम का लोकतंत्र सड़्कों के लोकतंत्र से पिछड़ रहा है। ऐसी दशा में गृहयुद्ध से लेकर विभाजन की ओर बढने तक कुछ भी असम्भव नहीं। देश में विश्वविद्यालय तब सही विपक्ष की भूमिका निभा रहे हैं, जब कि विपक्ष अपना काम नहीं कर रहा है। दिल्ली में राजनीतिक कर्यकर्ताओं की जगह जुझारू छात्र अमीर कजलवाश के इस शे’र में व्यक्त विश्वास के साथ सड़क पर ही हैं।
मिरे जुनूं का नतीजा जरूर निकलेगा
इसी सियाह समुन्दर से नूर निकलेगा
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
     

सोमवार, जून 10, 2019

टुकड़े टुकड़े गैंग का सही पता


टुकड़े टुकड़े गैंग का सही पता
वीरेन्द्र जैन

जब किसी राजनीतिक दल के प्रचारकों द्वारा उछाले गये जुमले को देश का प्रधानमंत्री दुहराने लगे तो यह निश्चित है कि या तो मामला बहुत गम्भीर है या प्रधानमंत्री गैर गम्भीर है।
तीन वर्ष पहले एक वीडियो एक छात्र संगठन  द्वारा उछाला गया था, जिसमें देश के सबसे प्रमुख विश्वविद्यालय जवाहरलाल यूनिवेर्सिटी में कुछ युवा अफज़ल गुरु की वरसी पर नारे लगाते हुए दिख रहे हैं, जिनमें से एक नारा, ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह, इंशा अल्लाह’, भी है। कहा जाता है कि अफज़ल गुरु को फांसी मिलने के बाद जेएनयू के छात्रों का एक छोटा सा गुट जो संसद पर हुए हमले में अफज़ल गुरु को निर्दोष मान कर, प्रति वर्ष 9 फरबरी को यह खुला आयोजन करता रहा है। यही आयोजन उसने सन्दर्भित वर्ष 2016 में भी किया था। अंतर इतना था कि तब तक देश में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बन चुकी थी। उल्लेखनीय यह भी है कि जे एन यू में देश की श्रेष्ठतम युवा मेधा अध्ययन और शोध करती है और विभिन्न विचारों के पुष्प एक साथ खिल कर एक सही लोकतांत्रिक हिन्दुस्तान के सच्चे विश्वविद्यालय का स्वरूप प्रस्तुत करते हैं। इस विश्व विद्यालय की स्थापना के समय से ही यहाँ के छात्र संघ पर वामपंथी रुझान के छात्र संघों का प्रभुत्व रहा है जो भाजपा जैसे दक्षिणपंथी और काँग्रेस जैसे मध्यम मार्गी दलों व उनके छात्र संगठनों को अखरता रहा है। केन्द्र में भाजपा की सरकार बनते ही यह विश्व विद्यालय उनके निशाने पर आ गया था। उल्लेखनीय है कि भाजपा नेता व राज्यसभा के सांसद सुब्रम्यम स्वामी ने सरकार बनते ही जे एन यू को बन्द करने की मांग रख दी थी। इस विश्व विद्यालय में सन्दर्भित वर्ष में एआईएसएफ [सीपीआई] छात्र संगठन के कन्हैया कुमार छात्र परिषद के अध्यक्ष थे, और आइसा [ सीपीआई एमएल] के छात्र संगठन की शहला रशीद उपाध्यक्ष थीं। अन्य पदों पर भी वापपंथी छात्र संगठन के छात्र पदाधिकारी थे। जब सुनिश्चित तिथि को कश्मीरी छात्रों के गुट ने स्मृति कार्यक्रम का आयोजन किया तो संसद पर हमले के एक मृत्यु दण्ड प्राप्त आरोपी को देशद्रोही मानने वाले एबीवीपी [भाजपा] छात्र संगठन के लोगों ने पहले से वीडियोग्राफी की व्यवस्था के साथ उन्हें रोकने या उनसे टकराने की कोशिश की थी। छात्रों के बीच झगड़े की खबर सुन कर कन्हैया कुमार समेत अन्य छात्र नेता भी उपस्थित हो गये थे। एबीवीपी ने इसे अवसर की तरह लिया और उसकी शिकायत पर दिल्ली पुलिस ने जो केन्द्र सरकार के अधीन होती है, कन्हैया कुमार समेत अन्य छात्र नेताओं को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था और उन पर ही आरोप लगा दिया कि उन्होंने “ भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह, इंशा इल्लाह” के नारे लगाये। बाद में कोर्ट ने पाया कि उनके खिलाफ जो वीडियो प्रस्तुत किया गया था उसमें छेड़ छाड़ की गयी थी इसलिए कोर्ट ने उन्हें जमानत दे दी थी। यदि ऐसे नारे लगाये गये थे तो नारे लगाने वालों को पुलिस कभी गिरफ्तार नहीं कर सकी। कन्हैया कुमार को जमानत के लिए ले जाते समय कुछ वकीलों ने पुलिस हिरासत में कन्हैया के साथ मारपीट की व कोर्ट परिसर में तिरंगे झंडे लहराये। इन्हीं वकीलों के फोटो भाजपा के बड़े बड़े मंत्रियों व नेताओं के साथ गलबहियां करते हुए विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुये किंतु पुलिस हिरासत में कोर्ट ले जाते समय कन्हैया पर किये गये हमले के सन्दर्भ में की गयी किसी दण्डात्मक कार्यवाही की कोई खबर देश को नहीं मिली। इस सब से देश भर में धारणा यह बनायी गयी कि वामपंथी व उसके छात्र संगठन के छात्र देश द्रोही हैं और वे देश के टुकड़े करना चाहते हैं। भले ही अदालत की ओर से उन्हें कोई सजा नहीं मिली किंतु भाजपा पक्ष की ओर से इन्हें लगातार ‘टुकड़े टुकड़े गैंग” की तरह सम्बोधित किया गया। यहाँ तक कि चुनावी प्रचार सभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा भी इस जुमले का प्रयोग किया गया। यह वैसा ही था कि जब भी कोई इस सरकार से सच जानने की कोशिश करता था तो उसे देशद्रोही कह दिया जाता था। उल्लेखनीय यह भी है कि देश के प्रसिद्ध वैज्ञानिकों, इतिहासकारों, लेखकों की हत्या के बाद जब सरकारी दल के संगठनों द्वारा हत्या के आरोपियों का पक्ष लिया गया, उनको संरक्षण दिया गया तो उसके विरोध में अपने पुरस्कार वापिस कर देने वाले देश के प्रतिष्ठित लोगों को ‘अवार्ड वापिसी गैंग’ कह कर पुकारा गया और इस जुमले को चुनाव प्रचार में नरेन्द्र मोदी ने भी दुहराया।
कोई आन्दोलनकारी जब भी कोई नारा लगाता है तो वह चाहता है कि उसे और उसकी विचारधारा को उस नारे के साथ पहचाना जाये। कन्हैया कुमार जिस लोकतांत्रिक संगठन से सम्बन्धित था उसका राष्ट्रीय एकता से तो सम्बन्ध है किंतु वे किसी भी तरह से अलगाववाद से नहीं जुड़े हैं और न ही उनका ऐसा कोई इतिहास रहा है। यह सब जानते हैं कि देश की सबसे प्रमुख इंटेलीजेंस संस्था के प्रमुख के माध्यम से देश के प्रधानमंत्री को तो इस सच का पता ही होगा। इसके बाद भी अगर वे देश के वामपंथियों के लिए टुकड़ टुकड़े गैंग और अवार्ड वापिसी गैंग जैसे जुमलों का प्रयोग करते हैं तो यह शर्म की बात है, क्योंकि देश के प्रधानमंत्री से चुनाव प्रचार में भी गलतबयानी की उम्मीद नहीं की जाती। किसी अन्य प्रधानमंत्री ने कभी ऐसी भाषा या गलत जानकारी का प्रयोग नहीं किया
देशद्रोह के कानून के गलत स्तेमाल ने उस कानून का मखौल बना कर रख दिया है। कोर्ट का फैसला है कि एक लोकतांत्रिक देश में बिना किसी सैनिक तैयारी के सरकार के खिलाफ बोलना देशद्रोह नहीं होता। यदि किसी ने अति क्रोध में ऐसे नारे भी लगाये हैं तो उसे सजा देने के लिए दूसरी अनेक धाराएं हैं। बार बार बात बात में देशद्रोह का आरोप लगाना देश की सैनिक शक्ति का भी अपमान है।
दूसरी ओर यह सच है कि देश में विभाजन का खतरा बढ रहा है और उन असल ताकतों को पहचानने की जरूरत है जिनके कारण यह खतरा बढ रहा है। उल्लेखनीय है कि स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर में पाकिस्तान की मांग से पहले ‘ हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ का नारा आया था। यह नारा स्वयं में विभाजन के बीजारोपण करने वाला था, और हिन्दी के साथ मिल कर तो बड़े विभाजन के बीज बो रहा था। यही कारण था कि देश के सबसे बड़े राष्ट्रभक्त महात्मा गाँधी ने राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का गठन किया था और उसका मुख्यालय दक्षिण में बनाया था, जिससे दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रयोग को बढा कर राष्ट्रीय एकता अनायी जा सके। आज एक ऐसी सरकार है जो बार बार खुद की पहचान एक हिन्दूवादी सरकार की तरह कराने की कोशिश कर रही है। देश के अन्य अल्पसंख्यकों को जिस तरह से गौहत्या, लवजेहाद, घर वापिसी, धर्म परिवर्तन, आदि के नाम पर प्रताड़ित किया जाने लगा है और बात बात में उन्हें पाकिस्तान जाने को कहा जाने लगा ह। इसका परिणाम यह हुआ कि एक बड़ी आबादी अपने घर में ही खुद को पराया महसूस करने लगी है। इतना ही नहीं दलित जातियों को जिस तरह प्रताड़ित किया जाने लगा है, उससे लगता है कि गैरदलित जातियों के वर्चस्व के लोग सत्ता में हैं और वे कम होते रोजगार के अवसरों व सरकारी नौकरियों के कम होते जाने से जनित संभावित विरोध को आरक्षण से जोड़ना चाहते हैं, ताकि विरोध को विभाजित कर सकें। उत्तरपूर्व में वर्षों से चल रहे अलगाववादी आन्दोलनों को इस दौरान नयी हवा मिली है। आदिवासियों द्वारा अपने जंगलों और जमीनों के दोहन के खिलाफ किये गये प्रतिरोध को पुलिस दमन से दबाये जाने के प्रकरणों में वृद्धि हुयी है। विरोध करने वाले आदिवासियों को नक्सलवादी कह कर उस दमन को सही ठहराया जाता है। सीमा पर होने वाली हलचलों के समय पूरा देश एक साथ सरकार का सहयोग करता रहा है, किंतु अब देश के प्रमुख राजनीतिक दलों तक को सही सूचनाएं नहीं दी जा रही हैं, और पूछने पर उन्हीं को देशद्रोही व दुश्मन को खुश करने वाला बताया जाने लगा है। अपने चुनावी लाभ के लिए जातियों के विभाजन का लाभ लेने के लिए जातिवादी आधार पर टिकिट दिये जाते हैं। साक्षी महाराज को लोधी वोटों के आधार पर, व निरंजन ज्योति को मल्लाह वोटों के आधार पत टिकिट दिया गया। ठाकुर दिग्विजय सिंह के वोटों को काटने के लिए प्रज्ञा ठाकुर को लेकर आये। जहाँ जातियों के आधार पर चुनाव होते हैं, वहाँ चुनावों के दौरान पड़ी दरारें बाद तक बनी रहती हैं।
हाल ही मैं शिक्षानीति में हिन्दी को अनिवार्य करने के नाम पर दक्षिण में सोये हुए हिन्दी विरोध को फिर से कुरेद दिया गया है। उल्लेखनीय है कि चुनावों के दौरान अपने भाषण में सुप्रसिद्ध लेखक जावेद अख्तर ने सही कहा था कि समाज को विभिन्न कारणों से विभाजित करने वाली टुकड़े टुकड़े गैंग तो सत्ता में बैठे हुए लोग हैं जो अपनी गलत नीतियों, व गलत राजनीति से टुकड़ों टुकड़ों में बाँट रही हैं। टाइम पत्रिका ने अगर नरेन्द्र मोदी को डिवाइडर इन चीफ बताया है जो बिल्कुल निराधार तो नहीं है।    
यह जरूरी है कि चुनाव हो जाने के बाद देश में पदारूढ सरकार चुनावी मूड से बाहर निकले व प्रधानमंत्री अपने विभाग में बैठे सैकड़ों प्रतिभाशाली अधिकारियों से प्राप्त जानकारी लेकर ही अपनी बात कहने की आदत डालें, जिससे उनके भाषणों में होने वाली त्रुटियों को देश की त्रुटियों में न गिना जाये। राष्ट्रीय एकता सलामत रहे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629