बुधवार, मार्च 06, 2019

संस्मरण - मेरे लिए सिक्के के दूसरे पहलू की तरह थे ओम प्रकाश


 मेरे लिए सिक्के के दूसरे पहलू की तरह थे ओम प्रकाश







वीरेन्द्र जैन
अमृता प्रीतम का एक उपन्यास है, जिसका नाम है ‘ एस्कीमो स्माइल ‘। इस उपन्यास में दो सहेलियां हैं, जिन्हें मित्र कहूं तो ज्यादा ठीक रहेगा क्योंकि सहेली शब्द कुछ ज्यादा स्त्रैण लगता है। वे स्वभाव में विपरीत हैं और शायद इसीलिए एक दूसरे की पूरक हैं। वे इतनी अच्छी मित्र हैं कि बिना किसी परदे के अपनी भावनाएं एक दूसरे से बांट लेती हैं। एक व्यवहारिक है और जो भी मिलता है उसे मजबूरी मान कर ग्रहण कर लेती है, और दूसरी दुस्साहसी है जो अपने मन का कुछ भी कर गुजरती है। पहली वाली दूसरी को जीते देख कर ही जी लेती है। अपने अन्दर घुटते हुए अपना मन खोल देने के लिए ऐसे ही मित्र की जरूरत होती है, और अगर वह दूर हो तो उसके आने की प्रतीक्षा रहती है या कहें कि रहा करती थी, क्योंकि संचार सुविधाओं के प्रसार, मोबाइल फोन अओर इंटरनेट आने के बाद संवाद सुविधा वाली यह पीढी इसे नहीं समझ सकती।
मेरा और ओम प्रकाश का रिश्ता भी कुछ कुछ ऐसा ही था। वह दुस्साहसी, और मुँहफट था जबकि मैं दूर तक सोच कर सारे सम्भावित खतरों से बच, सम्हल सम्हल कर चलने वाला संकोची था। कभी बचपन में किसी मित्र को मन की बात बतायी थी जिसे उसने सार्वजनिक कर के उपहास का पात्र बनवा दिया था इसलिए तब से मैं हर मामले में आत्म केन्द्रित हो गया था। मेरे मुँह से मन की कोई बात बहुत जरूरी होने पर ही बाहर निकलती थी। शायद यही पहचान होने के कारण मेरे परिचितों ने इतनी मात्रा में अपने राज मुझ से साझा किये कि लगता था कि दुनिया में जो दिखता है उससे कितनी अलग है और दूसरी ओर डर लगने लगता था कि इन राजों के बोझ से कहीं दिमाग न फट जाये।
एक सत्य जिसकी पहचान हम सारे मित्रों को बहुत बाद में हुयी वह यह था कि हम सारे लोग ही गरीब थे, किंतु सवर्ण समाज से आने के कारण जो श्रेष्ठता बोध था, उसकी समझ यह बनती थी कि गरीब तो दलित और पिछड़ी जातियां ही होती हैं, भले ही उनके पास पैसे हों, और हमारे पास न हों। दूसरे शब्दों में कहें तो हम लोग सामंती युग से पूंजीवादी युग में दाखिल नहीं हुये थे [ वैसे वह युग भी अभी तक सामंती युग पर सवार नहीं हो पाया है, प्रयास जारी है।] । छात्रावस्था तक निकट के मित्रों में मुस्लिम, सिख, ईसाई, सिन्धी, पंजाबी तो थे किंतु दलित और पिछड़े नहीं थे और उनमें से ऐसा भी कोई नहीं था जिससे मित्रता न होने का अफसोस भी हो।
पिता की समझ और घर में आने वाले अखबार व पत्रिकाओं के कारण राजनीति में रुचि तो जागृत हो गयी थी और अकेले घर से बाहर जाने की उम्र होने तक मैं राजनीतिक दलों की आमसभाओं को रुचि के साथ सुनने लगा था जिसमें चटकारे ले ले कर एक दूसरे की आलोचनाएं होती थीं। यह सन 1962 का आम चुनाव था जब मेरी उम्र लगभग ग्यारह बारह साल की रही होगी तब लगभग पन्द्रह सोलह साल का एक लड़का एक आम सभा में भाषण देने के लिए उतारा गया। उसे छात्र नेता कहा गया और माला पहिनायी गयी। कभी हम लोग उसी के मुहल्ले में रहते थे इसलिए उस लड़के का नाम भी मुझे पता था। वे गिरिराज शरण शुक्ल थे, जो आगे लम्बे समय तक राजनीति में सक्रिय रहे, और छुटती नहीं है जालिम ये मुँह से लगी हुयी, सो अभी भी सक्रिय हैं। राजनीति में  उनके विकास की  सीमा नगर पालिका दतिया के स्टेन्डिंग कमेटी के चेयरमैन तक रही। बहरहाल मुझे उस पहले दिन उनसे ईर्षा हुयी थी और सोचा था कि शायद मैं भी कभी ऐसी क्षमता और मौका पा सकूं।
इस घटना के लगभग तीन चार साल बाद हायर सेकेंड्री पास करके मैं कालेज में पहुँचा और मेरी मित्रता जगदीश सुखानी, रमेश राठी के माध्यम से गिरिराज शरण शुक्ल और ओम प्रकाश से हुयी। गिरिराज हम सब लोगों से सीनियर थे, वे वाक्पटु, चतुर, व व्यवहार कुशल ब्राम्हण थे जिनके पिता ने उस कस्बे की एक पूरी पीढी को प्राथमिक शिक्षा दी थी। वे एक छात्र गिरोह का नेतृत्व करते थे। प्रचलित भाषा में छात्र उन्हें गुरु कह कर पुकारते थे। उसी वर्ष ओमप्रकाश का प्रवेश पालीटैक्निक कालेज अशोकनगर में हो गया था और वे त्योहारों की छुट्टियों में ही आया करते थे। सुखानी सिन्धी थे और मित्र होते हुए भी आदत व्यवहार में कुछ भिन्न थे, गिरिराज हम लोगों में वरिष्ठ थे व एक तरह से जूनियर सीनियर का भाव था, इसलिए ओमप्रकाश के अशोकनगर जाने के बाद मेरी और रमेश राठी की मित्रता ज्यादा घनिष्ठ हो गयी थी, इससे पहले यही घनिष्ठता रमेश और ओमप्रकाश के बीच थी।
रमेश राठी मारवाड़ी समाज से आता था। उसके दादा कभी बाहर से आकर दतिया में बसे थे। अपनी जाति की प्रसिद्धि के अनुरूप वे उतार चढाव वाले व्यापार किया करते थे। इसमें लम्बी लाभ हानि होती रहती थी। हम लोगों की मित्रता से लगभग दस वर्ष पूर्व उनके पिता को खूब सारा लाभ हुआ था और उन्होंने नगर में ठीक से नक्शे के साथ सम्भवतः सबसे पहला सीमेंट गुम्मे का पक्का कई मंजिला आधुनिक मकान शहर के बीचों बीच बनवाया था व रईसों जैसी एक बग्घी खरीदी थी। अन्दर से बन चुके मकान का बाहर से पलस्तर होना बाकी था कि उन्हें व्यापार में भारी नुकसान हुआ और मकान का बाहर से पलस्तर भी नहीं हो सका। उस मकान को जिसमें वे खुद भी रहते थे, गिरवी रखना पड़ा था। रमेश के सात-आठ बहिन भाई थे और चार- पाँच बहिन भाई उनके चाचा के थे जो साथ में ही रहते थे। सब लोग सम्पन्नता का स्वाद चख चुके थे व अपेक्षाकृत आधुनिक थे। उनके घर में प्रत्येक बच्चे पर अलग से ध्यान देना सम्भव नहीं था इसलिए हम मित्र लोग भी परिवार के सदस्यों की तरह ही घुल मिल जाते थे। ओम प्रकाश तो बचपन से ही इस घर का पुराना मित्र था। सब भाई बहिन खुश मिजाज थे और आपस में मित्र भी थे। उन दिनों मित्रों के घर फोन करके जाने का चलन नहीं था क्योंकि फोन थे ही नहीं व व्यस्तताएं भी नहीं थीं। मित्रों के आने जाने पर यह नहीं पूछा जाता था कि कैसे आये। रमेश के घर जाकर ऐसा लगता था जैसे कि ऐसे क्लास रूम में आ गये हैं जिसमें टीचर छुट्टी पर हैं। मकान बीच बाज़ार में था और खाने पीने का सामान छोटे भाई बहिनों को भेज कर मंगवाया जा सकता था। कमी केवल एक थी कि मेरी जेब में पैसे नहीं होते थे। रमेश ने रईसी देखी थी, उसने परिवार में पिता चाचा लोगों को जुआ खेलते भी देखा था, देख कर सीखा था और वह जुआ खेलना जानता था। उसने जीतने का कौशल अर्जित कर लिया था। वह जुआ से ही अपना जेब खर्च आदि निकालता था। वह सबसे बड़ा था और भाई बहिनों के चटखारे भी उसी के पैसे से चलते थे। मेरी जेब में पैसे इसलिए नहीं होते थे, क्योंकि बचपन से ही मुझे ऐसी सुरक्षा में पाला गया था कि बाज़ार की कोई भी चीज खाना मना थी। घर में मेवे आते थे, फल आते थे और मिठाई बनती थी किंतु बाहर के खाने का स्वाद ही अलग होता है। मेरी मां के हाथ का खाना भरपूर घी शक्कर मेवे वाला तो होता था पर बिना हींग, लहसुन, गरम मसाले के वह रुचिकर नहीं लगता था। मैंने जो मांगा वह चीज तो दी गयी किंतु तय जेब खर्च न देने की सावधानी रखी गयी। मैं स्वाभिमानी और संयमी था इसलिए उन दिनों किसी भी जगह न खाने को अपना नियम बताता था। शायद रमेश इसे समझता था इसलिए मेरे नियमों की ऐसी तैसी करते हुए जबरदस्ती मुझे खिलाता था। तब मैं अन्दर से बहुत भावुक हो जाता था। रमेश न केवल मेरे साथ, अपितु सबके साथ  इतना सरल और सहज था कि जो बोलता था वह सच बोलता था। मुझ से तो कुछ भी छुपा कर नहीं रखता था। दूसरी ओर मैं था जो कोई बात किसी को नहीं बताता था। उसकी दोस्ती से मैं अभिभूत था। एक बार उसके पास कहीं से कैमरा आ गया और उसे लेकर सब मित्र लोग फोटोग्राफी करने निकले। उत्साह में रमेश एक बरगद के पेड़ की डाल पर फोटो खिंचाने के लिए चढा और फिसल गया। उसका हाथ टूट गया। उन दिनों पलास्टर चढाने से पहले मरीज को क्लोरोफार्म से बेहोश किया जाता था और मरीज से पूछा जाता था कि बताओ किसे पास में बुला कर रखना है। उसने सारे मित्रों, रिश्तेदारों के बीच मेरा नाम लिया था। मैं उसके प्रति गहरे तक भावुक हो गया था।
अगले वर्ष ही उसका एडमीशन पालीटेक्निक सनावद में हो गया था जो दतिया से बहुत दूर था। जाते जाते वह मुझे एक जिम्मेदारी सौंप गया था और उसे पूरी करने का वादा ले गया था। उसकी दोस्ती की गहराई को देखते हुए इस जिम्मेवारी के प्रति मैं बहुत भावुक था। जिम्मेवारी थी कि मैं उसकी छोटी बहिन जिसे वह बहुत चाहता था, का उसकी ही तरह ध्यान रखूंगा। मैं दोस्त के वचन का मान रखने के लिए मन ही मन दृढ प्रतिज्ञ था। पर उसने जो बात मुझे बतायी थी वह अपनी बहिन को नहीं बतायी थी कि मुझ से ऐसा बोल कर गया है। मैं अपना वचन निभाने के लिए उसके घर गाहे बगाहे जाता रहा और उसकी खोज खबर लेने के लिए उसकी बहिन से मिलता रहा। मेरे इस अतिरिक्त मिलने को न केवल मित्रों द्वारा अपितु स्वयं उसकी बहिन द्वारा भी उस भाव से नहीं लिया  गया। इस कारण उन मित्रों के बीच, जो मेरी तरह नहीं सोचते थे, कुछ तनाव भी रहा। इसके एक साल बाद ओम प्रकाश ने अपना ट्रांसफर ग्वालियर पौलीटेक्निक में करा लिया। वह दुस्साहसी तो था ही, अशोकनगर में उसने पहले ही साल दो चार बदमाशों को पीट कर लाइन पर ला दिया था और वह कालेज का प्रैसीडेंट चुन लिया गया था। अशोकनगर का ही एक स्थानीय सहपाठी उसका खास दोस्त बन गया था और उसके परिवार से वह हिल मिल गया था, इस तरह वहाँ भी उसका एक घर बन गया था। ग्वालियर में तो उसका जलवा ही अलग था। वैसे तो वह 75 किलोमीटर दूर ग्वालियर होस्टल में रहता था, जहाँ से दतिया की ओर आने वाली बसें उसके कालेज के सामने से ही गुजरती थीं और प्रत्येक बस वाला कभी भी उसे बिना किराया चुकाये ससम्मान दतिया लाता ले जाता था। एक तरह से वह घर लौट चुका था। मैं दो तरह से खुश था, एक तो रमेश का खास दोस्त होने के नाते मेरा भी खास दोस्त बन चुका था व भाई विहीन मैं उसकी ताकत का बल महसूस करने लगा था, दूसरे रमेश अपनी बहिन की जो जिम्मेवारी मेरे ऊपर छोड़ कर गये थे उसके लिए एक ज्यादा जिम्मेवार दोस्त आ गया था, जिससे मैं राहत महसूस कर रहा था।
ओम प्रकाश के पिता वैसे तो सरकारी प्राइमरी स्कूल अध्यापक थे किंतु उनके पास थोड़ी सी कृषि भूमि भी थी। कुल मिला कर बहुत संतुलित बजट वाला परिवार था जिसमें चार बच्चे पाल रहे थे। ओमप्रकाश के एक चाचा वकील थे और दूसरे ओवरसियर [जूनियर इंजीनियर] जो कहीं दूर् पदस्थ थे। वकील चाचाजी थोड़े से तिकड़मी थे, उनका ध्यान वकालत की ओर तो कम था किंतु विभिन्न विवादास्पद जमीन जायजाद की खरीद फरोख्त से उन्होंने कुछ धन बना लिया था। उनके कुल एक ही लड़की थी। वे कभी कभी ओमप्रकाश की कुछ मदद कर दिया करते थे। ओमप्रकाश को कभी जरूरत पड़ती तो घर में रखे हुए गेंहूं के बोरे में से नहाने वाली पीतल की बाल्टी भर ले जाते थे और तीन चार किलो गेंहूं से जेब के लिए पैसे मिल जाते थे, और पता भी नहीं चलता था। एक बार तो उन्होंने गाँव के एक लड़के की मोटर साइकिल मांग कर उसे गिरवी रख दी थी। एक बार उनके चाचा से मिलने कोई सज्जन अपनी बड़ी एम्पाला गाड़ी लेकर आये थे तो ड्राइवर से चावी मांग कर वह मेरे घर आ गये और फिर हम दोनों उस गाड़ी में बैठ कर शहर में निकले। तब ना तो ओम प्रकाश को इतनी बड़ी गाड़ी चलाने का अभ्यास था और ना ही बाजार की सड़कें इस लायक थीं। कई जगह टकराते टकराते आगे बढे, तब तक तो तलाश शुरू हो चुकी थी। ड्राइवर को दौड़ाया गया बीच में ही पकड़ लिये गये तो उन्होंने ऐसे शराफत से चावी दे दी जैसे कुछ हुआ ही न हो।
ग्वालियर से अपना कोर्स पूरा करने के बाद वे दतिया लौट आये थे। उन दिनों इंजीनियरों की नौकरी मिलना कठिन हो गयी थी। ओम प्रकाश खाली थे और बकौल शायर
मुहब्बत आजकल बस शग्ल है बेरोजगारों का
जिन्हें मिलती नहीं है नौकरी, वे इश्क करते हैं
सो ओम प्रकाश को इश्क हो गया था। इश्क किससे हुआ, न ये उन्होंने कभी बताया और न मैंने कभी पूछा, क्योंकि मेरा हाल भी उन दिनों गुनाहों के देवता के चन्दर की तरह था। मैं लगातार अमृता प्रीतम के उपन्यास और नीरज की कविताएं पढ रहा था। मेरी पसन्द को देखते हुए मेरे घर में किरायेदार एक पढीलिखी भाभी ने ताना कसा था- भैय्या ऐसा लगता है कि आपको मुहब्बत हो गयी है। मैं हँस कर रह गया था। मैं साहित्य के सहारे बिना प्रेमिका और बिना प्रेम अभिव्यक्ति के विरही हो गया था और इस विरह में मजा लेने लगा था। ओम प्रकाश की मजबूरी थी कि वह मुझ से अपने इश्क की बात नहीं कर सकता था, पर दूसरा भी ऐसा कोई नहीं था जिससे वह बात करके अपनी बात की गहराई उसे समझा सकता। यह वह दौर था जब हम लोग इशारों ही इशारों में घंटों, इश्क. इश्क और सिर्फ इश्क की बातें करते थे। कभी किसी फिल्मी गीत के सहारे तो कभी किसी फिल्म या उपन्यास के सहारे। कभी कुछ चर्चित प्रेमी मित्रों के बहाने या कभी किसी और बहाने। लगातार खाली टहलना और किसी होटल में बैठ कर चाय पीते हुए कोई सूत्र तलाश कर ठिलठिलाना। ऐसे ही एक दिन किसी चाय के होटल में रेडियो पर गीत आ रहा था जिसमें पंक्तियां थीं- न ये आंसू रुके तो देखिए फिर हम भी रो देंगे, हम अपने आंसुओं से चाँद तारों को भिगो देंगे....... तो ओमप्रकाश कहते हैं कि एक बात बताओ, ये क्या उल्टे होकर रोयेगी? “मतलब” मैंने पूछा तो वह बोला, बरना चाँद तारे कैसे डूब जायेंगे! उसकी इस बात ने कई दिन रात हँसाया था और अब भी जब ऐसी टिप्पणियां याद आ जाती हैं तो मुस्कराहट आ जाती है। “ आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं” पर उसने कहा था कि यह तो गैरकानूनी है। प्रेम करने वाला गीत और कविता का मर्म खूब समझता है। वह लिखता नहीं था, पर लिख सकता था। मेरे साथ कवि सम्मेलन सुनने जाता था। उसने कभी दो पंक्तियां मेरी कविता की कापी पर लिखी थीं-
जाओ भी, क्योंकि तुमको जाना था
हम से गुस्सा तो इक बहाना था
ओमप्रकाश का रेल के साथ जाने क्या रिश्ता था कि वह अपने छात्र जीवन में शायद ही कभी टिकिट लेकर चला हो। एक तो उसके चाचा शायद रेल विभाग में ही जूनियर इंजीनियर थे, दूसरे वह किसी तरह बात बना लेता था। वह कभी बिना टिकिट पकड़ा भी नहीं गया। एक बार अचानक टीटी आ गया पर संयोग यह हुआ कि सामने बैठे वृद्ध दम्पत्ति में से एक उसी समय बाथरूम चला गया और दूसरे ने दो टिकिट दिखाये तो एक उसका मान लिया गया। उसने मारपीट भी कई बार की किंतु यह मौका तब ही आया जब सामने वाले ने जरूरत से ज्यादा बदतमीजी की हो बेईमानी की हो। एक आगा अली था जो पहलवानी ही करता था और अपनी ताकत की दम पर सबको डराता हुआ एक राजनेता का पालतू बाहुबली था। जब वह किसी बात पर ओमप्रकाश से उलझ गया तो उसने उसे बहुत मारा था और लोगों के दिमाग से आगा अली का भय समाप्त हो गया था। जब तक उसे नौकरी नहीं मिली तब तक वह अपने वकील चाचा के साथ कोर्ट जाने लगा था और मुंशियों वकीलों के बीच बैठ कर दुनियादारी समझने लगा। अपनी साफ समझ और स्पष्ट अभिव्यक्ति के कारण वह वकीलों में काफी लोकप्रिय हो गया। अदालत के कई किस्से वह रोज सुनाता और हम लोग घंटों हँसते थे। इसी दौरान मैंने कुछ महीने बैंक में टेम्पोरेरी नौकरी कर ली थी और मेरी भी जेब में पैसे रहने लगे थे। उसके लिए “कर्तव्य” अर्थात जो उसे करना हो, महत्वपूर्ण था जिसमें पैसा कभी बाधा नहीं बना। वह कहीं से भी कैसे भी ला सकता था।
उसका प्रेम सपरिवार शहर बदल कर चला गया और उसकी शादी हो गयी। फिर ओम प्रकाश की भी शादी हो गयी और उसकी सरकारी नौकरी भी पीडब्ल्यूडी में लग गयी। पोस्टिंग छत्तीसगढ हुयी। तब छत्तीसगढ अलग राज्य नहीं बना था। वह छत्तीसगढ चला गया। ओमप्रकाश ने कभी नाराजी प्रकट नहीं की किंतु वह ज़िन्दगी से नाराज हो गया था, उसने बदला लेना शुरू किया। छत्तीसगढ क्षेत्र में विकास के नाम पर बहुत पैसा पहुँच रहा था और जितने अधिकारी थे सब कमाई कर रहे थे। उसने भी वैसा कोई आदर्श नहीं दिखाया जिसकी कभी हम लोग बात किया करते थे। हम लोगों में वह सबसे पहला था जिसने कार खरीदी थी और जब मेरे घर कार लेकर आता था तो उसका सुख या गौरव मैं भी महसूस किया करता था। 1984 में आये मेरे पहले व्यंग्य संकलन में एक रचना ‘कार की मार’ है जो उसकी कार पर ही लिखी गयी थी। तब कारों की इतनी भरमार नहीं होती थी।
न उसमें समझ की कमी थी, न साहस की, न पैसे की, न पैसा खर्च करने की उदारता की। जब भी आता तो सारे मित्रों को पार्टी देता था। छत्तीसगढ के बाद उसका ट्रांसफर मुरैना हुआ। वहाँ भी उसने दबंगी से नौकरी की। उसने ग्वालियर में मकान बनवाया, वहाँ के सबसे बड़े क्लब की मेम्बरशिप ली, विधायक आदि उसके मित्र थे और बिना झुके उनसे सिर ऊपर कर के बात करता था। कई दुर्घटनाएं झेलीं जिसमें से एक में उसके साथ यात्रा कर रहे एक जनपद अध्यक्ष की मृत्यु हो गयी थी, पर वह साफ बच गया था। एक दुर्घटना में उसकी पत्नी के पैर को नुकसान हो गया था, मुझे याद है जब मैं उन्हें देखने गया था तब मेरे साथ प्रदीप चौबे थे और तब वे इतने बड़े स्टार नहीं हुये थे जितने आज हैं।
मैंने पैसा नहीं कमाया और कभी चादर से ज्यादा पैर नहीं पसारे किंतु कुछ मित्र ऐसे रहे जिन पर भरोसा था कि किसी भी कठिन परिस्तिथि में अगर जरूरत पड़ी तो उनका सहयोग बिना शर्त मिल सकेगा। ओमप्रकाश भी उनमें से एक था, भले ही मुझे कभी जरूरत नहीं पड़ी।
वह बीमार हुआ, जिसका पता नहीं चला। उसके निधन पर मुझे लगा था कि मेरी जिन्दगी का एक कोमलकांत भाग भी मर गया है, जो दिल की बात करता था, और मेरे बिना कहे ही दिल की बात समझता था। मन में आस थी कि कभी बुढापे में मिल कर बैठेंगे और बेनामी बातों को नाम लेकर करेंगे। ऐसा नहीं हो सका। उसके निधन पर मैंने लिखा था-
सबके लिए वो एक नाम एक व्यक्ति था
यह मैं ही जानता हूं कहाँ क्या गुजर गया  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629
                     

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें