मंगलवार, सितंबर 10, 2013

मुज़फ्फरनगर के साम्प्रदायिक दंगे, कुछ विचारणीय बिन्दु

मुज़फ्फरनगर के साम्प्रदायिक दंगे, कुछ विचारणीय बिन्दु
वीरेन्द्र जैन

          मुज़फ्फरनगर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दूसरे नगरों, गाँवों के दंगों के मामले में एक बार फिर से वही भूल की जा रही है जिसमें पूरी स्थिति को तात्कालिक घटना\घटनाओं तक सीमित करके देखा जाता है। एक लड़के द्वारा किसी लड़की को छेड़ने और उसके भाइयों द्वारा सम्बन्धित को दण्डित करने के प्रयास में अति हो जाना असामान्य नहीं है। सामंती प्रभाव वाले क्षेत्रों और ग्रामों कस्बों में गाहे बगाहे ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं। इस घटना के बिगड़ने का प्रमुख कारण साम्प्रदायिकता, जातिवाद, और नारी को सम्पत्ति मानने की अवधारणा में निहित है। अगर साम्प्रदायिकता का जहर समाज में पहले से मौज़ूद नहीं होता तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि छेड़ने वाले लड़के का धर्म इस्लाम था और पीड़ित लड़की की जाति जाट [हिन्दू] थी। साम्प्रदायिकता और जातिवाद की अनुपस्थिति में यह एक कानून व्यवस्था का मामला था जिसे पुलिस के सहारे सुलझाया जाना चाहिए था तथा अब उसके लिए बहुत कठोर कानून अस्तित्व में हैं। किंतु पुलिस और न्याय व्यवस्था का जो हाल है उससे लोगों का उन पर से भरोसा उठता जा रहा है और दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस भरोसे के अभाव में लोग ऐसे मामलों में स्वयं फैसला करने में विश्वास करते हैं।
          उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था की हालत पहले भी ठीक नहीं थी व ताज़ा इबारत उसी दिन लिख दी गयी थी जब अखिलेश यादव के शपथ ग्रहण समारोह में लम्पट युवाओं ने उत्पात मचाते हुए शर्मनाक उच्छंखृलता का प्रदर्शन किया था। कितना विडम्बनापूर्ण था कि इस अवसर पर व्यवस्था के रखवाले विवश होकर हाथ बाँधे खड़े रहने को मजबूर दिखे थे। तब इन पंक्तियों के लेखक ने लिखा था कि अगर इस लम्पट उत्साह को कोई राजनीतिक दिशा और कार्यक्रम नहीं दिया गया तो सत्ता के दम्भ में ये अराजक युव जन समाजवादी पार्टी को मिले इस समर्थन को मटियामेट कर देंगे। आज वह सच सामने आ रहा है। अखिलेश सरकार आने के बाद खुद सरकार द्वारा माने गये चौबीस साम्प्रदायिक दंगे हो चुके हैं वहीं विपक्ष इनकी संख्या एक सौ चालीस तक बता रही है, पर इन दंगों में सरकारी पार्टी के समर्थकों की दंगा रोकने में कोई भूमिका सामने नहीं आयी। प्रश्न आँकड़ों का न होकर यह है कि व्यक्तियों द्वारा किये गये अपराध कैसे एक समुदाय द्वारा किये गये अपराध में बदल दिये जाते हैं और व्यक्ति के रूप में पीड़ित एक व्यक्ति को पूरे समाज का साथ मिलने की जगह क्यों उसके जाति समुदाय का साथ भर मिलने से वह एक जाति धर्म के खिलाफ दूसरी जाति धर्म का हमला बन कर रह जाता है। इसके साथ ही जुड़ा सबसे प्रमुख सवाल यह है कि क्यों इतने सारे कार्यक्रमों और योजनाओं के बाद भी लोगों का भरोसा पुलिस और न्याय से टूटता जा रहा है और अपनी जाति धर्म के लोगों पर बढता जा रहा है। समाजवादी पार्टी के नाम से उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज़ नेताओं द्वारा समर्थन पा लेने का मुख्य आधार उनके समाजवादी सिद्धांत नहीं अपितु एक जाति की एकजुटता और एक आशंकित धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों द्वारा किया गया नकारात्मक मतदान है, अर्थात यादव मुस्लिम गठजोड़। मतदान के समय यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि समाजवादी पार्टी की जीत की स्थिति में मुख्यमंत्री कौन बनेगा और मुलायम सिंह की असमर्थता के बाद वरिष्ठ व जीत दिलाने में महत्वपूर्ण आज़म खान कनिष्ठ अखिलेश की तुलना में बड़े दावेदार थे। भले ही उनका दावा स्वीकार नहीं किया गया था किंतु उन्हें मंत्रिमण्डल में मुख्यमंत्री के बराबर ही या कई मायने में अधिक अधिकार मिले हुए हैं। वे मुस्लिमों के एक क्षत्र नेता बने रहने के लिए समुचित मुस्लिम पक्षधरता का प्रदर्शन भी करते रहते हैं जो परोक्ष में मुस्लिम एकजुटता तक पहुँच कर साम्प्रदायिकता का रूप ले लेती है।
          समाजवादी पार्टी के सत्ता में आने के बाद उनका पहला काम यह होना चाहिए था कि राजनीति में सक्रिय प्रदेश के बड़े युवा वर्ग को साम्प्रदायिकता के खिलाफ जनजागरण में लगाते किंतु अखिलेश सरकार ने उत्तरप्रदेश में गहरी जड़ें जमाये हुए साम्प्रदायिक संगठनों के लगातार विषवमन के खिलाफ कुछ नहीं किया और अपने युवा समर्थकों को गैर कानूनी तरीके से सरकारी सुविधाएं चरने के लिए छुट्टा छोड़ दिया। उत्तर प्रदेश में केवल साम्प्रदायिकता ही नहीं अपितु सरकार की जाति के अधिकारियों, पुलिस निरीक्षकों आदि की पदस्थापनाएं पक्षपात पूर्ण ढंग से हुयी हैं और कानून का पालन करने वाले दण्डित किये जा रहे हैं। हर जगह मानव अधिकार व सामाजिक न्याय इनके घर गिरवी है। ऐसे तरीके सरकार में आस्था को कम करते हैं और अपने धर्म व जाति संगठनों में आस्थाएं बढाते हैं जिससे छोटी मोटी घटनाएं भी जाति धर्म गौरव में बदल कर बड़ा रूप ले लेती हैं।
            संविधान में समान नागरिक अधिकारों वाली नारी को समाज में पुरुष वर्ग की सम्पत्ति की तरह अब भी देखा जाता है। जहाँ किसी पुरुष द्वारा दूसरे समाज में शादी कर लेने पर जाति का कोई अपमान नहीं होता वहीं अगर समाज की नारी किसी दूसरे समाज के पुरुष से विवाह कर ले या प्रेम करे तो पूरा समाज अपमानित महसूस करता है। इस आधार पर दर्ज़नों घटनाएं प्रतिमाह सामने आती हैं और उनमें से ही कोई बड़ी साम्प्रदायिक या जातीय दंगे में बदल जाती है। किसी पिछड़ी या सवर्ण जाति की लड़की द्वारा दलित जाति के लड़के से विवाह कर लेने या प्रेम करने पर पूरी जाति के लोग उत्तेजित हो जाते हैं। यह एक पारम्परिक सामाजिक बुराई है किंतु दंगों का तात्कालिक उपचार करने और इन्हें कानून व्यवस्था तक सीमित मानने वाले लोग न केवल इस बुराई के खिलाफ कुछ नहीं कर रहे हैं अपितु अपने वोटों की खातिर जातिवादी घटकों को बढाने में लगे हैं।
          मुज़फ्फरनगर के दंगों में आधा सैकड़ा बहुमूल्य जानों और करोड़ों की सम्पत्ति का ही नुकसान नहीं हुआ है अपितु सामाजिक विश्वास के जो धागे कमजोर हुए हैं उसके नुकसान का कोई अन्दाज़ा ही नहीं लगाया जा सकता। अखिलेश सरकार को तो उसी समय सतर्क हो जाना चाहिए था जब भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का चेयरमेन बना कर उनके कहने से अमित शाह को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बना दिया था। जो लोग समाज को निरंतर पैट्रोल से सींचते रहते हैं उनके लिए इस बात का ज्यादा महत्व नहीं होता कि माचिस की जलती तीली जानबूझ कर या अनजाने में कौन फेंकता है। उन्हें तो आग लगने से मतलब होता है क्योंकि जब दो मजहबों के बीच कटुता बढती है तो राजनीतिक लाभ हमेशा बहुसंख्यक वर्ग ही उठाता है। जरूरत समय रहते पैट्रोल सींचने वाले के हाथ बाँधने की है।
वीरेन्द्र जैन
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