बुधवार, दिसंबर 18, 2013

आन्दोलन, पार्टी और प्रशासन के भेद व ‘आप’ का असमंजस

आन्दोलन, पार्टी और प्रशासन के भेद व ‘आप’ का असमंजस

वीरेन्द्र जैन
       दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद सरकार बनाने में आया गतिरोध भारतीय लोकतंत्र में नयी घटना है। ये इस बात का संकेत भी है कि अब कुछ ऐसा नया घट रहा है जिसे परम्परागत तरीकों से हल नहीं किया जा सकता। अब तक हमारे राजनीतिक दल किसी तरह चुनाव में वोट हस्तगत करके बहुमत के आधार पर सत्तारूढ हो जाया करते थे और स्पष्ट बहुमत न आने की दशा में भी वांछित संख्या में निर्दलीयों या दूसरे दलों के सदस्यों से समर्थन प्राप्त कर लेते थे। जिन्हें शासन करना नहीं आता था वे भी नौकरशाही के सहारे चार छह महीने खींच कर अपने अपने घर भर लेते थे, पर मौका कोई नहीं छोड़ता था। दलबदल विरोधी कानून आ जाने के बाद भी कई ऐसे छेद थे जिनमें से समर्थन देने वाले आते जाते रहते थे या त्यागपत्र देकर बहुमत की राह आसान कर देते थे। यह पहली बार हुआ है जब त्रिकोणीय मुकाबले में जीत के ऐसे आंकड़े सामने आये हैं कि सैद्धांतिक समझौता किये बिना कोई सरकार बना सकने की स्थिति में नहीं था व समझौते का अर्थ जनता के सामने नग्न हो जाने के बराबर था। आम आदमी पार्टी के सामने मुसीबत यह थी कि उसने सत्तारूढ कांग्रेस को मुख्य प्रतिद्वन्दी बताते हुये चुनाव लड़ा था और उसके प्रमुख नेता ने मुख्यमंत्री के खिलाफ चुनाव लड़ कर उन्हें हराया भी था, इसलिए वे उनके साथ तुरंत सरकार बना नहीं सकते थे व कांग्रेस से तीन गुना अधिक सीटें जीत कर विजयी होने के कारण सरकार में सम्मलित हुए बिना बाहर से समर्थन देना भी सम्भव नहीं था। भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में सामने आया था किंतु उसने अपने साम्प्रदायिक एजेंडे और मोदी जैसे नेताओं को आगे करने के कारण अपनी हालत अछूतों जैसी बना ली है जिसे उनके पुराने सहयोगी जेडी[यू] का इकलौता विधायक भी समर्थन देने पर सहमत नहीं हो सकता। यह दुर्लभ घटना है जब भाजपा सबसे बड़े दल होने के बाद भी गठबन्धन सरकार नहीं बना पायी अन्यथा उनके पास तो खरीद फरोख्त की अच्छी क्षमता और अभ्यास दोनों हैं।
       आम आदमी पार्टी का जन्म एक आन्दोलन से हुआ है, या यह कहना ज्यादा सही होगा कि एक आन्दोलन ने जनता के समर्थन को देखते हुए पार्टी बनाने, चुनाव लड़ कर विधान सभा में अपनी बात रख कर आन्दोलन को आगे बढाने का फैसला किया था। उन्हें शायद यह कल्पना भी नहीं थी कि चुनाव परिणाम उन्हें सरकार बनाने की कगार पर ला पटकेंगे। आन्दोलन करने, चुनाव लड़ने वाली पार्टी बनाने और सरकार चलाने वाली पार्टी के चरित्र में बहुत अंतर होता है। आज की बहुजन समाज पार्टी भी किसी समय एक आन्दोलन हुआ करती थी जो दलित और पिछड़ी जातियों के मानव अधिकारों को पाने, दलित समाज को आत्महीनता से उबार कर आत्म सम्मान बढाने के लक्ष्य को लेकर आगे बढी थी। यही कारण था कि उन्हें दलित समाज का व्यापक समर्थन तुरंत मिला था, पर जैसे ही वह चुनावी और सरकार बनाने वाली पार्टी में बदली तो उसका चरित्र ही बदल गया। बहुजन समाज पार्टी एक आन्दोलन से अपने समर्थन का सौदा करने वाली फर्म में बदल गयी और सत्ता के मायाजाल में उन्हीं तत्वों से सौदा करने के लिए विवश हो गयी जिनके खिलाफ उसने आन्दोलन शुरू किया था। एक राजनीतिक दल बनकर सरकार चलाने के बाद उसने उन लोगों के लिए कुछ भी नहीं किया जिनके हित के नाम पर उन्होंने आन्दोलन शुरू किया था। उनकी पार्टी पर भी उनके शत्रु समुदाय का नियंत्रण हो गया। ताजा चुनावों तक उनका समर्थन छीझ चुका है, उनकी सीटों और वोटों दोनों में गिरावट आयी है। उनके अन्ध समर्थक रहे लोग अब इस सोच के साथ अपने मतों का सौदा करने का अधिकार उन्हें नहीं देना चाहते कि अगर मतों का सौदा ही करना है तो वे स्वयं ही यह काम क्यों न करें।    
       आम आदमी पार्टी का नेतृत्व बहुजन समाज पार्टी की तुलना में अधिक शिक्षित और तकनीकी है। उसके पास दूसरों के अनुभवों से सीखने का अवसर है इसलिए अचानक सरकार बनाने का संयोग आ जाने पर खुशी की जगह उसके हाथ पाँव फूल गये। भविष्य के परिणामों की कल्पना करके उन्होंने सरकार बनाने की जल्दी करने की जगह अपने अन्दोलन को तब तक खींचना ठीक समझा जब तक उन्हें पूर्ण बहुमत मिल जाये या संसद में संतोषजनक प्रतिनिधित्व मिल जाये। विडम्बना यह है कि वे यह सच अपने मतदाताओं को नहीं बता सकते इसलिए उन्हें देर करने के लिए तरह तरह के बहाने बनाने पड़े। ये बहाने उनका पहला राजनीतिक पाठ है या कहें कि आन्दोलन से चुनावी पार्टी में बदलने का पहला कदम है। असम गण परिषद के छात्र आन्दोलन के सरकार में बदलने के बाद के अनुभवों द्वारा वे यह भी जानते हैं कि चुनावों की जीत से केवल मंत्रियों के नाम भर बदलते हैं पर व्यवस्था वही रहती है और उन्हें अपेक्षाकृत अधिक जागरूक शिक्षित मध्यमवर्ग का जो समर्थन मिला है वह व्यवस्था बदलने के लिए मिला है। सबसे बड़ा दल होते हुये भी सरकार न बना पाने से कुंठित भाजपा और पराजय से आहत कांग्रेस उन्हें जल्दी से जल्दी असफल होते देखना चाहेगी इसलिए इन दोनों ही दलों के समर्थन पर उन्हें बिल्कुल भी भरोसा नहीं है।
       आन्दोलन से सरकार बनाने का एक अनुभव कम्युनिष्टों का भी है जो कैडर आधारित संगठन होने के कारण कम से कम क्षति के शिकार हुये किंतु सरकार चलाने के बाद उनके आन्दोलन में कोई बढोत्तरी देखने को नहीं मिली। भले ही उन्होंने भ्रष्टाचार को सहन नहीं किया और चिन्हित व्यक्तियों के खिलाफ उचित समय पर कार्यवाहियां करके आरोपियों को बाहर का रास्ता दिखाया किंतु इन कार्यवाहियों का होना इस बात का प्रमाण भी है कि सरकार में आने के बाद उनके आसपास भी ऐसे लोग पैदा हुये जिन्होंने आन्दोलन को कमजोर किया। डीएमके, एआईडीएमके का आन्दोलन भी सरकार से जुड़ने के बाद समाप्त हुआ है। 
       आदर्श स्तिथि यह होगी जब आन्दोलनकारी, चुनावी पार्टी भी सफलतापूर्वक चलाने और अधिक अच्छी सरकार चला कर दिखा सकेंगे। देखना होगा कि ऐसी स्थिति कब तक निर्मित होती है।
वीरेन्द्र जैन
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