समीक्षा
नरेन्द्र मौर्य के गज़ल संग्रह ‘सदी पत्थरों की ‘ पर कुछ बेतरतीब विचार
वीरेन्द्र जैन
दुष्यंत कुमार के बाद हिन्दुस्तानी [ हिन्दी-उर्दू ] भाषा में व देवनागरी लिपि में लिखी गयी गज़लों की बाढ आ गयी क्योंकि यह विधा पाठकों और कवियों दोनों को भा रही थी। इस विधा ने हिन्दी के गीतों और दूसरे छन्दों को पीछे छोड़ दिया। नरेन्द्र मौर्य की ‘अपनी बात’ के अनुसार वे भी गत तीस वर्षों से इसी भाषा और लिपि में रचनारत हैं जिसे गज़ल या हिन्दी गज़ल कहा जाता है। इसे मैं गज़ल की मूल विधा या कहें कि उर्दू गज़ल से थोड़ा भिन्न इसलिए मानता हूं क्योंकि बहुत सारे रचनाकारों ने इसके मूल अनुशासन को तोड़ कर अपनी बात कही है और जहाँ कथ्य में दम था वहाँ शिल्प को नकार कर भी रचना स्वीकारी गयी है। चूंकि यह बाढ दुष्यंत कुमार के प्रभाव के बाद आयी थी इसलिए इसमें स्वातंत्रोत्तर राजनीति का मूल्यांकन प्रमुख रूप से उभरा। नरेन्द्र मौर्य लिखते हैं कि उन्होंने पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लिखते हुए भी अपने संकलन को लाने का विचार तब किया जब उन्हें श्री अनवारे इस्लाम जैसे उस्ताद शायर की सलाह प्राप्त हुयी जिसके आधार पर उन्होंने पर्याप्त सुधार किये। उस्ताद की सलाह पर आये संकलनों को परोक्ष में संयुक्त उपक्रम माना जा सकता है जिसके लिए रचनाकार ने पुस्तक में आभार प्रकट किया ही है।
मैं भी दुष्यंत के बाद तेजी से फैली इस विधा को पसन्द करने वाले लोगों में रहा हूं इसलिए अनेक रचनाकार मुझे भी अपनी कृति भेंट करने की कृपा करते हैं और सौजन्यतावश उस पर अपने विचार बताने की व्यवहारिकता निभाते हैं, जबकि मेरे साथ वे भी जानते होंगे कि मैं पाठकीय प्रतिक्रिया ही दे सकता हूं और एक अधिकृत समीक्षक नहीं हूं। सन्दर्भित संकलन ‘ सदी पत्थरों की ‘ पर भी अपने विचार इन्हीं सीमाओं में रह कर व्यक्त कर रहा हूं।
गज़ल में मतले के शे’र में व्यक्त तुकांत के बाद का अनुशरण करते हुए भिन्न भिन्न रंग के शे’र कहे जा सकते हैं जो उसी बहर और काफिये में अलग विषय पर हो सकते हैं। इस संकलन में संकलित बहुत सारी गज़लों के शे’र , गीतों की तरह एक ही विषय पर कहे गये शे’र हैं। हिन्दी गज़ल के शे’र गज़लों की पुरानी परम्परा के अनुसार निजी प्रेम के सुख दुखों पर या महबूबा के सौन्दर्य या कोमलकांत व्यवहार, बफा बेबफाई आदि तक सीमित नहीं हैं अपितु उनमें जमाने भर के दुख दर्द शामिल हैं। रहबरों की रहजनों की तरह की जाने वाली हरकतों का वर्णन है।
मेरा मानना है कि वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक विचारधारा साथ साथ नहीं चल सकती । बहुत सारे लोग यह घपला कर रहे हैं किंतु नरेन्द्र की गज़लों में कथित धार्मिकों और धर्म के ठेकेदारों के कारनामों की कलई खोली गयी है। ईश्वर के अस्तित्व के बारे में कुछ ना कहते हुए भी वे उसके ठेकेदारों द्वारा बनायी गयी दुर्व्यवस्था पर निरंतर सवाल उठाते हैं।
ये सरफिरा भी कैसे खुरापात करे है
अल्ला मियां से कैसे सवालात करे है
कैसी इमारतों मे खुदा कैद हो गया
खुद अपने घर को कौन हवालात करे है। [पृष्ठ 11 ]
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झूठ के देवता को नहीं मानते
जा तिरे हम खुदा को नहीं मानते
राम का नाम लेकर करें कत्ल जो
उस सियासी फ़जा को नहीं मानते [पृष्ठ 12]
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भूखे पेटों को रोटी चाहिए
जो भरे हैं पेट उनको राम दे [पृष्ठ 27 ]
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हम तुम तो अपना हुनर बेचते हैं
शातिर, खुदाओं का डर बेचते हैं [ पृष्ठ 31 ]
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कहाँ वीरानियों में दिल लगे है
अकेला आदमी पागल लगे है
कहाँ जायें भला फरियाद करने
खुदा ही जानिए कातिल लगे है [पृष्ठ 35]
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कितने पंडे पुजारी हैं मुल्ला यहाँ
और कितने तुझे अर्दली चाहिए [पृष्ठ 46 ]
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पता ही नहीं जिसकी मौजूदगी का
कभी दर पै उसके भी झुकना पड़ा है [पृष्ठ 64 ]
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वही पत्थर जिसे हम पूजते थे
उसी से चोट खाना पड़ गया है [पृष्ठ 69 ]
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खुदाया लूट कर हमको तिरे खादिम यूं कहते हैं
जो मुश्किल में है पैगम्बर तो फिर तेरी गुजर क्यों हो [पृष्ठ 69 ]
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उनकी गज़लों में सियासत की बातें बहुत ही स्पष्ट और साफ साफ कही गयी हैं। गत तीस वर्षों की उनकी गज़लों के शे’रों में वर्तमान की राजनीति के चेहरे भी साफ पहचाने जा सकते हैं –
विरासत की बड़ी ऊंची इमारत
सियासत को गिराने की पड़ी है
नहीं कोई मियां सुनने को राजी
सभी को बस सुनाने की पड़ी है [ पृष्ठ 37 ]
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जो मानो तो ये फलसफा हो गया
वो झुक कर जरा सा, बड़ा होगया
जो पियक्कड़ थे खामोश पीते रहे
कठमुल्लों को लेकिन नशा हो गया
राह सूझी नहीं, बैठे जब तक रहे
उठके चलने लगे रास्ता हो गया
जमाने का उसपै असर ये हुआ
मदारी था अब मसखरा हो गया [ पृष्ठ 45 ]
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तेरे कायदे कानून दुनिया से निराले है
लुटेरा भी यहाँ देखो तो पहरेदार मांगे है [पृष्ठ 47 ]
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डोले है ये धरती जब अपनी ही मस्ती में
चाँद सितारों को आने लगते हैं चक्कर से
सरकस जैसी लगती है अब मुझे सियासत भी
जिसमें करतब करते रहते नेता जोकर से [पृष्ठ 56 ]
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इस दौरे तरक्की के वल्लाह दो चेहरे हैं
इंडिया में उजाला है, भारत में अंधेरे हैं [पृष्ठ 60 ]
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धर्म अहिंसा की पोथी तो बाँध के रख दी है सबने
अब तो भाई के सीने पर भाई ही गोली दागे है [पृष्ठ 95 ]
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जबसे हुजूर बज्मे सियासत में आ गये
जितने तमाशेबाज थे हरकत में आ गये
यार तू कातिल की भी दरियादिली तो देख
खुद कत्ल करके बेहया मैयत में आ गये [पृष्ठ 96 ]
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नाज था जिस पर सियासत देख ले
वो तेरा किरदार तो बौना हुआ [पृष्ठ 100 ]
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करो फैसला और छोड़ दो लोगों पर
ये जनता की राय वाय अब छोड़ो भी
देखा है वादों का जुमला बन जाना
कितने धोखे खाय वाय अब छोड़ो भी
इन्हीं मसखरों से चलना है देश मने
कौन रहनुमा आय जाय अब छोड़ो भी [पृष्ठ 124 ]
इस संग्रह में और कुछ याद रह जाने वाले शे’र हैं-
बहुत मुश्किल है यूं चुपचाप जीना
कभी तो आस्मा सर पर उठा रख
भले ही आंसुओं से सींच लेकिन
बस उम्मीद का पौधा हरा रख [ पृष्ठ 24 ]
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छोड़ दे हमको किसी भी मोड़ पर
और उनको चाहे चारों धाम दे [ पृष्ठ 24 ]
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नहीं तो फकत खाली धुंआ है
बरस जाये तभी बादल लगे है [ पृष्ठ 35 ]
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खोल में सब अपनी अपनी बन्द हैं
लोग भी खुल कर यहाँ मिलते नहीं
उसको इक अच्छा सा नौकर चहिए
क्या करें पर बेजुबां मिलते नहीं [ पृष्ठ 43 ]
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झूठ बोलना गुनाह है
सच कहूं तो दिल्लगी लगे [पृष्ठ 58 ]
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शहर तक जो अभी पहुंचा नहीं है
उसे फिर गाँव जाना पड़ गया है [पृष्ठ 69 ]
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कैसे जाहिल थे हम भी, शहर में ऐसे आ पहुंचे,
बच्चा ये स्कूल तो पहुंचा, घर में बस्ता भूल गया [पृष्ठ 71 ]
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दो और दो अब चार नहीं होगा हमसे
कहता है सरकार नहीं होगा हमसे
बढता पानी देख डरे है दिल मेरा
अब ये दरिया पार नहीं होगा हमसे [पृष्ठ 106 ]
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समाज में निरंतर सूखती जा रही संवेदनाओं ने मानव जाति को जिस तरह के पत्थर में बदल दिया है उसे महसूस करके ही उन्होंने अपने संग्रह का नाम ‘ सदी पत्थरों की ‘ रखा है।
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वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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