वीरेन्द्र जैन
अगर
आमचुनाव का कुल मतलब किसी व्यक्ति विशेष या किसी दल विशेष के पास सत्ता पहुँचना
होता हो तो वह काम पूरा हो चुका है और पिछले पच्चीस वर्षों की संख्यागत विसंगतियों
के विपरीत अधिक आदर्श चुनाव परिणाम आये हैं। पर यदि लोकतांत्रिक आदर्शों के अनुरूप
आम चुनावों का मतलब जनता के मानस को पढना और उसे समन्वित करके उसकी दशा दिशा का
अनुमान लगाना हो तो मतदान के आँकड़ों का सम्पूर्ण राजनीतिक सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, क्षेत्रीय,
और जातीय अध्यन करना जरूरी होता है।
ऐसे अध्यन का
निष्कर्ष इस विश्वास पर आधारित होता है कि ईवीएम मशीन ठीक तरह से काम करती हैं और
आम चुनावों में आचार संहिता का पूरा पालन हुआ है। चुनावी आचार संहिता के पालन में जहाँ
जहाँ उल्लंघन हुआ है वहाँ उसे रोका गया है व कार्यवाही की गयी है। यदि ऐसा नहीं
हुआ है तो उम्मीद की जाती है कि भविष्य में ऐसा किया जायेगा और जहाँ चुनाव आयोग के
पास शक्तियां नहीं हैं वे उन्हें मिलेंगीं।
2009 के आम
चुनाव में भाजपा को ईवीएम मशीनों में छेड़छाड़ का सन्देह था क्योंकि वह सरकार बनाने
लायक संख्या में अपने उम्मीदवारों को नहीं जिता सकी थी। इस बार लगता है कि वह
ईवीएम मशीनों की कार्यप्रणाली से पूरी तरह संतुष्ट है और किसी भी कोने से इस
सन्दर्भ में उसे कोई शिकायत नहीं है। रोचक यह है कि पिछली बार जब लोकसभा चुनावों
के बाद भाजपा ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी की शिकायत कर रही थी तब भी जिन विधानसभा चुनावों जैसे 2007 के गुजरात और 2008
के मध्य प्रदेश छत्तीसगढ आदि, में उन्हें ईवीएम मशीनों के बारे में कोई शिकायत
नहीं थी। इन चुनावों में असम आदि की कुछ मशीनों में कोई भी बटन दबाने पर वोट भाजपा
के पक्ष में जाने की शिकायतों की परीक्षण रिपोर्ट सामने नहीं आयी है। बहरहाल चुनाव
आयोग को 2014 के चुनावों के दौरान आचार संहिता के उल्लंघन की कुल आठ लाख चार हजार
चार सौ तेतीस शिकायतें मिलीं। इस संख्या में पश्चिम बंगाल राज्य में तीन लाख से
अधिक तो केरल और तामिलनाडु में एक लाख से अधिक शिकायतें शामिल हैं। यदि यह मान कर
चला जाये कि बामपंथी प्रभाव वाले राज्य राजनीतिक रूप से अधिक सजग होते हैं तो सोचना
होगा कि गुजरात से कुल तीस हजार शिकायतें मिलने के पीछे शिकायतों का कम होना, या
उसका प्रशासनिक रूप से दुरुस्त होना ही नहीं है? एक कारण यह भी हो सकता है कि वहाँ
विपक्षी दलों में साहस ही नहीं हो कि शिकायत दर्ज़ करा सकें। आँकड़े यह भी बताते हैं
कि भाजपा का गढ समझे जाने वाले इसी गुजरात में 41 प्रतिशत मत गैर भाजपा दलों को
गये हैं और पूरे देश में जितने प्रतिशत मत पाकर भाजपा ने पूर्ण बहुमत प्राप्त किया
है उससे अधिक प्रतिशत मत गुजरात में लेकर भी काँग्रेस एक भी सीट नहीं जीत सकी। भाजपा
द्वारा अहमदाबाद जैसी महत्वपूर्ण सीट पर किसी पूर्णकालिक कार्यकर्ता की जगह
अमेरिका में शूटिंग कर रहे हास्य अभिनेता परेश रावल को शूटिंग रोक बुला कर चुनाब
लड़वाया गया। महत्वपूर्ण आँकड़ा यह भी है कि इसी गुजरात में दो करोड़ साठ लाख कुल
मतों में से चार लाख पचपन हज़ार मत नोटा को गये हैं जो सभी कोणों से उम्मीदवारों व
दलों को परखने वाले सबसे अधिक विचारवान वोटर माने जाते हैं। भाजपा और काँग्रेस के
बीच जहाँ सीधी टक्कर होती है वहीं भाजपा को मिले एक करोड़ बावन लाख मतों के मुक़ाबले
काँग्रेस को भी विकास के दावों और लहर के बीच चौरासी लाख मत मिले हैं। उल्लेखनीय
यह भी है इन चुनावों में पहली बार चुनाव लड़ रही आम आदमी पार्टी को भी तीन लाख से
अधिक वोट मिले हैं।
पिछले
चुनावों के मुकाबले देश में करीब दस करोड़ नये मतदाता जुड़े थे व मतदान का प्रतिशत
भी 58 से बढकर 66 प्रतिशत हो गया और इकतालीस करोड़ इकहत्तर लाख
मतदाताओं के मुकाबले पचपन करोड़ अड़तालीस लाख मतदाताओं ने अर्थात तेरह करोड़ छिहत्तर
लाख अधिक मतदाताओं ने मतदान किया। इस बढे हुये मतदान में से विजयी घोषित भाजपा को
सात करोड़ चौरासी लाख मतों के मुकाबले इस बार सत्तरह करोड़ सोलह लाख मत मिले अर्थात
नौ करोड़ बत्तीस लाख मत अधिक मिले। यह कुल बढे हुये मतों का लगभग 68 प्रतिशत होता
है। जिन राज्यों में भाजपा के मतों में उल्लेखनीय वृद्धि हुयी है उसके आंकड़े ध्यान
देने योग्य हैं। उत्तर प्रदेश में उसके मतों में दो करोड़ छियालीस लाख मतों की
वृद्धि हुयी है तो मध्य प्रदेश में पचहत्तर लाख, राजस्थान में बयासी लाख, छत्तीसगढ
में बाइस लाख, बिहार में इकहत्तर लाख, उड़ीसा में सोलह लाख, झारखण्ड में सत्ताइस
लाख, असम में तेतीस लाख, मतों की वृद्धि हुयी है। ये बीमारू राज्य हैं जहाँ
राजनीतिक चेतना की जगह तात्कालिक सुविधाएं अधिक असर करती हैं, या साम्प्रदायिक
विभाजन का असर होता है। दिल्ली में अठारह लाख, हरियाना में तीस लाख, कर्नाटक में
इकतीस लाख, गुजरात में इकहत्तर लाख, हिमाचल में तीन लाख, गोआ में दो लाख, महाराष्ट्र
में छियासठ लाख , पश्चिम बंगाल में इकसठ लाख मतों की प्रचार प्रभावित वृद्धि हुयी
है, जो पिछड़े राज्यों की तुलना में कम है।
इन चुनावों
में चुनाव आयोग ने पैसे और नशे के स्तेमाल पर नियंत्रण रखने के पहले की तुलना में
अधिक प्रयास किये थे पर इन पर पूर्ण नियंत्रण अभी दूर की कौड़ी है। इनका प्रयोग
जितने बड़े स्तर पर होता है उसका बहुत ही मामूली हिस्सा पकड़ा जा पाता है। इन
चुनावों में भी 299 करोड़ रुपया पकड़ा गया है जो 427 उम्मीदवारों की अधिकतम व्यय
सीमा सत्तर लाख से भी अधिक है। इसके साथ ही 57335 अवैध हथियार पकड़े गये हैं, एक
करोड़ इकसठ लाख लीटर अवैध शराब पकड़ी गयी है, व 1707 करोड़ मिलीग्राम अन्य नशे की
सामग्री पकड़ी गयी है। चुनावों में पैसे के खेल का क्या महत्व है यह चुनाव लड़ने
वाले टिकिट पाने वाले और जीतने वाले उम्मीदवारों की आर्थिक स्थिति से ही पता चल
जाता है जिनमें 84 प्रतिशत करोड़पति हैं।
तामिलनाडु
में एआईडीएमके की, उड़ीसा में बीजू जनतादल की, पश्चिम बंगाल में तृणमूल काँग्रेस
की. सीमान्ध्र में तेलगु देशम की तो तेलंगाना में टीसीआर और वायएसआर काँग्रेस
की झाड़ूमार जीत बताती है कि केवल
राजस्थान, गुजरात, हिमाचल, दिल्ली, उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, गोआ में
भाजपा ने ही झाड़ूमार जीत हासिल नहीं की।
कुल मिला कर
ये आँकड़े किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा रहे हैं पर इतना बता रहे हैं कि हमें जो
रेडीमेड निष्कर्ष परोसा जा रहा है वही अंतिम सच नहीं है। फिर भी अगर प्रचारित किये
जा रहे सत्य का थोड़ा सा भी हिस्सा सच्चाई के निकट है तो यह भी सच है कि जागरूक
मतदाता अब बहुत दिन तक बेबकूफ नहीं बन सकता और वह गतिवान परिणाम चाहता है। राम
मनोहर लोहिया ने कहा था कि ज़िन्दा कौमें पाँच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629
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