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शुक्रवार, मई 01, 2020

बैंकों में राइट आफ किये गये ऋण


बैंकों में राइट आफ किये गये ऋण
वीरेन्द्र जैन
   राइट आफ के बारे में कुछ स्मरण हो आया। मैं कभी पंजाब नैशनल बैंक की एक ग्रमीण शाखा में ब्रांच मैनेजर था। उसी समय NPA आया था, जिससे खराब खातों में लगाये गये और वसूल ना हुए ब्याज को प्राफिट में शामिल करना रोक दिया गया था और परिणामस्वरूप अनेक बैंकों ने उस वर्ष नुकसान दिखाया था। मेरी शाखा में भी  शासन द्वारा प्रायोजित [अव्यवहारिक] योजनाओं में दिये गये सैकड़ों ऋण एनपीए में आ गये थे [ जो मुझ से पहले पदस्थ अधिकारी द्वारा दिये गये थे।]
 
    आदेश आया कि ऐसे सारे ऋणों को राइट आफ करने का प्रस्ताव भेजा जाये। आदेश का पालन किया गया और शाखा के ऋण बिल्कुल साफ सुथरे होने से बैलेंस शीट सुन्दर हो गयी। मैं ऋण की वसूली में बहुत रुचि रखता था। स्थानीय होने के अलावा मुझे अपनी ईमानदार छवि व समाचार पत्रों से जुड़े होने के कारण कुछ विशिष्ट स्थान प्राप्त था इसलिए मैं अपेक्षाकृत निर्भय और मुखर रूप में बदनाम भी था।
    आमतौर पर राइट आफ हो चुके खातों में वसूली के प्रति किसी मैनेजर की रुचि नहीं होती है, क्योंकि जिस अधिकारी ने वे ऋण दिये होते हैं, वह जा चुका होता है। जब मैंने देखा कि उन ऋणों में जानबूझ कर चूक करने वालों के भी ऋण माफ हो जाने से, नये ऋणों की वसूली पर भी प्रभाव पड़ रहा है तो मैंने उन प्रकरणों में वसूली पर भी जोर दिया, जिसके परिणाम स्वरूप सक्षम खातों से अच्छी वसूली हुयी। चूंकि राइट आफ का सारा पैसा हैड आफिस से आया था इसलिए नियम यह था कि उन खातों में हुयी वसूली को हैड आफिस को वापिस किया जाये।

    मैंने एक मीटिंग में जोनल मैनेजर को सुझाव दिया कि राइट आफ खातों में जो वसूली होती है उसे आय के एक विशेष मद जिसे ‘राइट आफ खातों में वसूली’ के नाम से शाखा के लाभ में ही दर्शाया जाये। इसका लाभ यह होगा कि अपनी शाखा का लाभ बढाने के लिए शाखा प्रबन्धक इन खातों में भी जहाँ सम्भव है, वसूली का प्रयास करेंगे। प्राथमिक रूप से तो बड़े अधिकारी जूनियर अधिकारियों को नये विचार रखने का मौका नहीं देना चाहते इसलिए उन्होंने सामने तो मेरे विचार को यह कह कर नकार दिया कि वाह, राइट आफ का पैसा हैड आफिस दे और प्राफिट ब्रांच दिखाये। किंतु उसे उन्होंने कहीं नोट किया होगा, परिणाम यह हुआ कि इस तरह का आदेश निकला और मेरी अपनी शाखा का लाभ भी इस मद के कारण उस वर्ष दो लाख से अधिक बढ गया था।

    वर्तमान सरकार द्वारा 68000 करोड़ से अधिक के ऋण राइट आफ करने की खबरों के बीच बीस वर्ष पुरानी यह घटना याद आ गयी।     


बुधवार, फ़रवरी 05, 2020

बयानों में झलकता नेताओं की नजर में जनता का स्तर


बयानों में झलकता नेताओं की नजर में जनता का स्तर Image result for भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा"
वीरेन्द्र जैन
पिछले दिनों भाजपा के कुछ प्रतिष्ठित नेताओं के बयानों की चतुर्दिक निन्दा हो चुकी है और चुनाव आयोग द्वारा उन स्टार प्रचारकों पर 48 घंटे प्रचार पर रोक का हास्यास्पद प्रतिबन्ध लगाया जा चुका है जिसकी परवाह या शर्मिन्दगी कहीं नहीं दिखी। सवाल यह है कि उन्होंने जो उत्तेजक बयान दिये वह उनकी सोच को दर्शाता है या कूटनीति को? जाहिर है कि इतने बड़े बड़े पदों तक पहुंचे नेता ऐसा नहीं सोच सकते कि अगर उनकी पार्टी नहीं जीती तो विजेता पार्टी लोगों के घरों में जाकर उनकी बहू बेटियों के साथ बलात्कार करेगी, और उन्हें मोदी शाह के अलावा कोई नहीं बचा सकता।
डा. राही मासूम रजा ने किसी फिल्म को सत्ता विरोधी ठहरा कर प्रतिबन्ध लगाये जाने के सवाल पर लिखा था कि ऐसे तो शोले फिल्म सबसे बड़ी सत्ता विरोधी फिल्म है, जिसमें एक पूर्व पुलिस अधिकारी क्षेत्र के डाकुओं से मुक्ति के लिए व्यवस्था पर भरोसा खो चुका है और दो नामी बदमाशों को उनके जेल से छूटने के बाद अपने गाँव में बुला लेता है। फिल्म बताती है कि यही एक तरीका उस पूर्व पुलिस अधिकारी को समझ में आया था। क्या यह फिल्म व्यवस्था पर विश्वास न होने का प्रचार करती नजर नहीं आती! जब देश का एक सांसद और केन्द्रीय मंत्री जनता को अराजक तत्वों से डराता है तो क्या वह व्यवस्था के खिलाफ नहीं बोल रहा होता है? यदि चुनावों में दुरुपयोग की जाने वाली सन्दिग्ध सर्जीकल स्ट्राइक का सबूत मांगना देशद्रोह बतलाया जाता है तो क्या यह देशद्रोह के अंतर्गत नहीं आता?
उल्लेखनीय है कि जब रजाकारों के नेता कासिम रिजवी ने सरदार पटेल से कहा था कि अगर आप हैदराबाद रियासत को भारत में शामिल करने का कदम उठायेंगे तो हम लाखों लोगों को काट डालेंगे। इस पर सरदार पटेल ने कहा था कि आप ऐसा करेंगे तो क्या हम देखते रह जायेंगे! हुआ भी यही था कि उस के हैदराबाद पहुंचने से पहले ही भारत की सेना ने पुलिस एक्शन के नाम पर हैदराबाद को हजारों रजाकारों से मुक्त करा लिया था, जिसमें काफी जनहानि हुयी थी। स्वयं को सरदार पटेल का वंशज बताने वाले आज के नेता वोटों की खातिर निराधार आशंकाएं फैला कर खुद ही जनता को डरा रहे हैं। केन्द्र में भाजपा का शासन है, दिल्ली की पुलिस उनके पास है, एनसीआर क्षेत्र में भी भाजपा शासित राज्य हैं फिर भी जनता को डराने का एक मतलब यह भी निकलता है कि वे स्वयं को कानून व्यवस्था लागू करने में अक्षम मान रहे हैं।   
यह भी स्मरणीय है कि जब प्रारम्भ में पंचवर्षीय योजनाओं में हाइड्रो इलेक्ट्रिक आयी थी तो जनसंघ के नेता किसानों से कहते थे कि ये कांग्रेस पानी में से बिजली निकाल लेती है तो वह सिंचाई के लायक नहीं बचता, या दो बैलों की जोड़ी पर क्रास की मुहर लगाने का मतलब होता है गौवंश को कटने के लिए भेजना। किंतु आज़ादी के सत्तर साल बाद सत्तारूढ पार्टी बन जाने तक भी नेताओं द्वारा इस तरह के बयान दिये जाना व प्रमुख नेताओं द्वारा किसी तरह की असहमति न व्यक्त करना लोकतंत्र को गम्भीरता से न लेने की तरह है। पिछले ही दिनों एक भाजपा नेता ने कहा था कि दिल्ली का चुनाव तो हम कैसे भी जीत ही जायेंगे। ऐसी ही बातों से लोग ईवीएम पर सन्देह करने लगते हैं क्योंकि जब लोकतांत्रिक तरीके से किये जा रहे शाहीन बाग जैसे जन आन्दोलन को चुनावों के लिए साम्प्रदायिक और विदेशी आन्दोलन बताया जाने लगता है तो यह लोकतंत्रिक तरीकों पर भी बड़ा हमला होता है। सत्तारूढ दल के लोग भले ही किसी आन्दोलन से कितना भी असहमत हों किंतु उसके चरित्र का गलत चित्रण लोकतंत्र के खिलाफ अपराध है। इस तरह के विरोध से यह भी प्रकट होता है कि सरकार अपने पक्ष को कमजोर पा रही है और अपना पक्ष रख कर उसका विरोध नहीं कर पा रही है। शाहीन बाग का आन्दोलन न केवल लोकतांत्रिक है, देशव्यापी है, अपितु चरित्र में सेक्युलर भी है। यह साम्प्रदायिक या जातिवादी भावनाएं उभार कर किये जाने वाले आन्दोलनों से भिन्न है। खेद यह है कि वोटों के लिए इसे पाकिस्तानी कहा जा रहा है क्योंकि आम जन मानस के मन में पाकिस्तान के प्रति दुश्मनी का भाव है।
लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार तो है, किंतु झूठ बोलने और झूठ गढने की आज़ादी का अधिकार नहीं है। दुर्भाग्य से हो यह रहा है कि इस नाम पर झूठ गढे जा रहे हैं. चरित्र हत्याएं की जा रही हैं और नंगे झूठ बोले जा रहे हैं। यह नासमझी में नहीं अपितु जानबूझ कर किया जा रहा है। गोधरा में निजी दुश्मनी में साबरमती एक्सप्रैस की एक बोगी संख्या 6 में निजी बदले में लगायी गयी आग को रामभक्तों से भरी पूरी ट्रेन में लगायी गयी आग प्रचारित कर दी जाती है व उस नाम पर पूरे गुजरात में निरपराध मुसलमानों के खिलाफ नृशंस अपराध किये जाते हैं और अटूट सम्पत्ति लूट ली जाती है या बरबाद कर दी जाती है। नरेन्द्र मोदी के स्थापित होने का इतिहास इसी ध्रुवीकरण से शुरू होता है। बाद में तो राजनीतिक हत्याओं की श्रंखला शुरू हो जाती है, व सभी मृतक बड़े नेताओं को मारने के इरादों से आये बताये जाते हैं।
इस इंटरनैट व डिजीटल मीडिया के दौर में भी वे झूठ बोलने से नहीं हिचकते और झूठ पकड़े जाने पर शर्मिन्दगी भी महसूस नहीं करते, क्योंकि जनता के विवेक और याद्दाश्त को वे कमजोर समझते हैं। स्टिंग आपरेशन में कैद हो जाने वाला बाबू बजरंगी कहता है कि मेरा कथन तो मेरे द्वारा खेले जाने नाटक का एक हिस्सा था। मोदी को विकास पुरुष नहीं विनाश पुरुष बताने वाली उमाभारती अहमादाबाद से बड़ौदा आने तक अपना विचार बदल लेती हैं और कहती हैं कि यह रास्ते में दिखे विकास के कारण उनके विचारों में परिवर्तन आया।
जनता को धोखा देने के लिए झूठ बोलने पर जब तक सजा नहीं होती तब तक लोकतंत्र मजाक ही बना रहेगा।  
    वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629   

गुरुवार, जुलाई 16, 2015

खुली आँखों देखा म,प्र, बन्द



खुली आँखों देखा म,प्र, बन्द
वीरेन्द्र जैन

       मध्य प्रदेश में लगभग एक लाख करोड़ का प्रवेश परीक्षा व नियुक्ति घोटाला हुआ जिसका राज खुलने से बचाने में घोटालेबाजों द्वारा 47 से अधिक कीमती जानें ली जा चुकी है। इसमें प्रदेश के पचासों विशिष्ट व्यक्ति आरोपी हैं, आरोपियों सहित दो हजार के करीब छात्र और उनके अभिभावक जेल में हैं व पाँच सौ आरोपी फरार हैं। इस घोटाले के खिलाफ 16 जुलाई को विपक्षी दल काँग्रेस और बामपंथी पार्टियों द्वारा बन्द आहूत किया गया था। आरोपियों ने केवल इतना बड़ा आर्थिक घोटाला ही नहीं किया अपितु हजारों सुपात्रों को उनके अधिकार से वंचित करके कुण्ठित कर दिया व व्यवस्था में गहरी अनास्था पैदा की। इसमें बड़ी बड़ी राशियों का अवैध लेन देन हुआ जिसे पैदा करने के लिए देने वालों ने भी अपने पद का दुरुपयोग करते हुए इसे अवैध ढंग से अर्जित किया होगा। मेडिकल में प्रवेश परीक्षा में अपनी संतति को पास कराने के लिए कई लाख रुपये देने वाले अधिकारियों और नेताओं ने न जाने कितने जन हितैषी कार्यों में चूना लगाया होगा जिससे आम जन के लिए घोषित योजनाएं पूरी नहीं हुयी होंगीं या आधी अधूरी और अपने मानक से पीछे रही होंगीं। व्यापारियों ने टैक्स चोरी की होगी और ठेकेदारों ने मजदूरों को देय राशि चुरायी होगी। कुल मिला कर ऐसा भ्रष्टाचार अंततः निर्धन और वंचित मेहनतकश के अधिकारों को ही लूटता है।
इस निर्मम लूट, जिसे छुपाने के लिए बेरहमी से हत्याएं की गयीं और उन्हें अस्वाभाविक मृत्यु बता कर भी सक्षम जाँच से बचा गया, के खिलाफ ईमानदारी से जाँच की माँग करते हुए यह बन्द बुलाया गया था। विभिन्न पक्षधरता वाले सूचना माध्यमों ने इसे सफल या असफल बताया है। असल में बन्द किसी मुद्दे पर जनता के रुख को मापने का बहुत पुराना और कमजोर माध्यम है, क्योंकि बन्द को बाजार-बन्द से परखा जाता है, जबकि बाजार का अपना चरित्र होता है और मनोरंजक कहावतों में कहा जाता है कि व्यापारी जाति का बुजुर्ग अगर मरते समय भी अपने सारे लड़कों को सामने देखता है तो संतोष की जगह यह चिंता व्यक्त करता है कि ‘जब तुम सब यहीं हो तो दुकान पर कौन है’। बन्द कराने वालों ने सुबह का समय चुना जब दुकानें खुलने ही जा रही होती हैं और हलचल देख कर दुकानदार सुरक्षा की दृष्टि से थोड़ी देर बाद खोलने के लिए मन बना लेता है। दूसरी ओर बन्द का विरोध करने वाले दोपहर के बाद निकलते हैं जब तक बन्द कराने वाले जा चुके होते हैं। दोनों पक्षों के समर्थक सूचना माध्यम अपने अपने समय की फोटो प्रकाशित करके अपने अपने पक्ष की खबरें बना लेते हैं। दोनों ही पक्ष अपने अपने आरामदायक कार्यालयों में बैठकर अपने अभियान को सफल मान लेते हैं।
असल में बन्द की यह सफलता असफलता, पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए ही सोचने का विषय है। इस बात को दोनों ही पक्ष मान रहे हैं कि घोटाला हुआ है और बड़े स्तर पर हुआ है। दोनों ही पक्ष कह रहे हैं कि जाँच के बाद दोषियों को सजा मिलना चाहिए पर विपक्ष का कहना है कि आरोप सत्ता पक्ष के अनेक लोगों पर है इसलिए जिन पर आरोप हैं उनके पद पर रहते हुए सही जाँच नहीं हो सकती जब कि सत्ता पक्ष का कहना है कि जाँच एजेंसियां स्वतंत्र हैं इसलिए पद से हटने की कोई जरूरत नहीं। विपक्ष इतनी बड़ी घटना का राजनीतिक स्तेमाल कर रहा है और उसे वैसा करने का अधिकार है किंतु सरकारी पक्ष ने जिस तरह से इस घोटाले को दबाने और घोटालेबाजों को बचाने की कोशिश की वह सशंकित कर देने वाला है। बन्द से पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने राजधानी का दौरा किया व स्वयं सेवकों को जनता के बीच जाने के निर्देश दिये। वहीं दूसरी ओर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने भी प्रदेश का दौरा किया और सरकार से असंतुष्ट कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने के लिए स्थानीय नेताओं को कठोर भाषा में निर्देश दिये व सरकार जाते ही उनकी सुविधाएं छिन जाने के खतरे से डराया। बन्द के दिन सारे प्रमुख अखबारों को विभिन्न संगठनों के नाम से पूरे पूरे पृष्ठों के कई विज्ञापन दिये जिनमें पूरे पृष्ठ का एक विज्ञापन व्यापारी संगठनों के नाम से भी था जो बन्द के आवाहन से असहमति जता रहा था। लाखों रुपयों का यह विज्ञापन अनावश्यक था। सुधी जन जानते हैं कि बहुत सारे विज्ञापन बेमतलब होते हैं और अखबारों को पक्षधर बनाने की तय राशि देने का माध्यम होते हैं। समाचारों में कांटछाँट और कैमरे व रिपोर्टों के दृष्टिकोण भी इन्हीं विज्ञापनों से प्रभावित होते हैं।
16 जुलाई को बुलाया गया मध्य प्रदेश बन्द इन अर्थों में सफल रहा कि मुद्दे और इससे जुड़ी उचित निरीक्षण में सक्षम एजेंसी द्वारा निष्पक्ष जाँच’ की माँग के प्रति जनता का पूर्ण समर्थन रहा। सूचना माध्यम में चर्चा व भयभीत सरकार द्वारा सुरक्षा एजेंसियों को जरूरत से ज्यादा सक्रिय कर देने के कारण मुद्दे पर विमर्श तेज हुआ। इसके साथ ही बन्द इन अर्थों में असफल भी रहा कि राजनीतिक दलों में कम भरोसे के कारण व्यापारी और दिहाड़ी मजदूर मुद्दे के नाम पर अपनी एक दिन की रोजी त्यागने को तैयार नहीं हुये। यह इस बात का भी संकेत था कि सामाजिक संवेदना अब केवल मौखिक रूप से प्रकट होने तक सीमित होती जा रही है व जहाँ जहाँ उसे कार्यों से प्रकट करने व उसके लिए कुछ त्याग करने का सवाल आता है वह अपनी सीमाएं प्रकट कर देती है। काँग्रेस और भाजपा नेताओं की पुराने राजाओं की तरह सवारी तो निकली जिसमें हाथी घोड़े की तरह पीछे विभिन्न तरह के वाहन सवार और पैदल सिपाही तो साथ थे किंतु मुद्दे से सहमत जनता का साथ नहीं था। बामपंथी दलों की अपनी सीमाएं हैं और वे पर्व त्योहारों पर निर्वहन किये जाने वाले कर्मकांडों की निष्फल परम्परा का पालन पूरी आस्था से करते रहते हैं। बसपा समेत विभिन्न जातिवादी दल जनान्दोलनों की राजनीति में भरोसा नहीं करते। व्यापम घोटाले की लूट में असल नुकसान दलितों, पिछड़ों और गरीबों में विकसित होने वाली प्रतिभाओं का ही हुआ है किंतु वोट की राजनीति और उनका व्यापार करने वाले ये दल इतनी बड़ी घटनाओं पर कभी बयान तक देने की जरूरत नहीं समझते।  
वीरेन्द्र जैन                                                                          
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629
            

बुधवार, जून 25, 2014

दागी सांसदों के प्रकरणों में समयबद्ध फैसलों का दबाव



दागी सांसदों के प्रकरणों में समयबद्ध फैसलों का दबाव

वीरेन्द्र जैन
       यह विडम्बना है कि एक ओर न्याय पालिका को सभी सर्वोच्च सम्मान देने की बात करते हैं और दूसरी ओर उसी न्याय व्यवस्था को दोषपूर्ण भी मानते हैं। खेद है कि जिस विधायिका को न्याय व्यवस्था में निहित दोषों को दूर करने के लिए सुधारात्मक कानून बनाने या बदलने चाहिये उसके भी बहुत सारे सदस्य न्यायपालिका के दोषों से लाभान्वित होकर वांछित बदलाव के प्रति उदासीन रहते हैं। जिन राजनेताओं पर अपराधिक प्रकरण चल रहे होते हैं वे भी यह कहते हुये पाये जाते हैं कि उन्हें न्याय व्यवस्था में पूरा भरोसा है, और बाद में जब  वर्षों बाद उनका फैसला आता है तो लगता है कि शायद उनका भरोसा न्याय को लम्बित करने की प्रक्रिया में रहा होगा। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने हमारे माननीय दागी सांसदों से सम्बन्धित महत्वपूर्ण फैसला दिया था| सुश्री लिली थामस और लोक प्रहरी एस एन शुक्ला द्वारा दायर जनहित याचिका पर 10 जुलाई 2013 को दिये इस महत्वपूर्ण एतिहासिक फैसले मे कहा गया है कि लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8[1], 8[2] और 8[3] के अंतर्गत दोषी पाये जाने वाले विधायकों, सांसदों, की सदस्यता तत्काल रद्द हो जायेगी और उनकी सीट को रिक्त घोषित कर दिया जायेगा। अधिनियम की धारा 8[1] दोषी पाये जाने पर अयोग्य घोषित करती है तो धारा 8[2] उन अपराधों के विस्तार को बतलाती है जिनके अंतर्गत दोषी पाये जाने पर अधिनियम लागू होगा। धारा 8[3] कहती है कि किसी भी उक्त अपराध में दो वर्ष या उससे अधिक की सजा पाने पर तुरंत अयोग्य घोषित किया जायेगा और रिहाई की तारीख के बाद से अगले छह वर्षों तक के लिए चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया जायेगा। इस फैसले के बाद हाल ही में राजनीति के एक बड़े खिलाड़ी श्री लालू यादव को चुनाव लड़ने तक की पात्रता से वंचित होना पड़ा था।
       एक गैर सरकारी संगठन पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन द्वारा दायर जनहित याचिका पर फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने हाल ही में 10 मार्च 2014 को दिये अपने फैसले में सभी निचली अदालतों को निर्देश दिया कि जो अपराध उपरोक्त धाराओं के अंतर्गत मौजूदा सांसदों और विधायकों के खिलाफ तय किये गये हैं उनके मुकदमे शीघ्रता से निपटाये जायें। उनका आदेश है कि किसी भी मामले में आरोप तय होने में एक वर्ष से अधिक का समय नहीं लेना चाहिये। इस समय सीमा को देखते हुये प्रतिदिन के आधार पर सुनवाई करना चाहिये। उल्लेखनीय है कि इसी निर्णय के आलोक में चुनाव प्रचार के दौरान श्री नरेन्द्र मोदी ने वादा किया था कि वे सरकार बनने की स्थिति में माननीय सुप्रीम कोर्ट से निवेदन करेंगे कि जिन सांसदों पर कोई प्रकरण दर्ज़ हैं उनका फैसला एक साल के अन्दर करने के लिए विशेष न्यायालयों की स्थापना करें। विडम्बना यह थी कि उनकी पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बनाने से पहले चुनाव प्रचार की कमान सौंप दी थी पर उन्होंने उम्मीदवारों का चयन करते समय इस बात का ध्यान नहीं रखा था कि दागियों को टिकिट ही न मिले। बहरहाल राहुल गाँधी द्वारा इस अधिनियम में परिवर्तन वाले विधेयक को फाड़ कर फेंक देने के बाद यह मुकाबले का बयान था और चुनाव प्रचार के दौरान यह एक उत्तम वादा था। इन पंक्तियों के लेखक ने कई वर्ष पूर्व अपने कुछ लेखों में ऐसे ही विचार व्यक्त करते हुये लिखा था कि जब हमारे माननीय सांसदों को इतनी सारी विशिष्ट सुविधाएं मिलती हैं तो देश हित में उन्हें त्वरित न्याय की सुविधा भी मिलनी चाहिए ताकि कानून बनाने वाले हाथ कम से कम कानूनी रूप से तो साफ सुथरे हों। नये नेतृत्व ने जो उम्मीदों के पहाड़ खड़े किये हैं उनमें से यह सबसे पहला काम होना चाहिये था जिस पर कार्यवाही अभी तक प्रतीक्षित है।
       2014 के लोकसभा चुनावों के बाद यह सवाल और भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि जिन माननीय सांसदों ने चुनाव का फार्म भरते समय दिये जाने वाले शपथपत्र में अपने ऊपर दर्ज आपराधिक प्रकरणों की जानकारी दी है उन सांसदों की संख्या पिछले चुनावों की तुलना में बढ गयी है। पुनः चुने गये सांसदों में से अनेक पर भी पुराने प्रकरण वर्षों से वैसे के वैसे चले आ रहे हैं। न्यायिक प्रक्रिया के लम्बित होने से दोषी पक्ष लाभान्वित होते अधिक पाया जाता है। जिन सांसदों पर देश को चलाने व कानून बनाने की जिम्मेवारी है, उन्हें यह एक और विशेष सुविधा मिलने से न्यायिक भेदभाव का तर्क बेमानी है क्योंकि माननीय सांसद पहले से ही वीआईपी श्रेणी में आते हैं, और अपनी ज़िम्मेवारी के कारण अन्य कई विशिष्ट सुविधाएं पाते हैं जिन पर कोई विवाद नहीं है। इससे पहले कि वे कानून बनाने में सहयोग दें उनके चरित्र और उनकी कानून बनाने की पात्रता के बारे में फैसला होना देश हित में ही होगा।
       आइये माननीयों द्वारा दिये गये शपथपत्रों के आधार पर आँकड़ों से उस परिदृश्य को देखें। इस समय दो सांसदों के त्यागपत्र और एक सांसद के निधन के कारण कुल 540 चयनित सदस्य हैं। इनमें से 186 सांसदों ने अपने शपथपत्र में उनके ऊपर दर्ज़ प्रकरणों की जानकारी दी है। इनमें से 57 सांसदों, अर्थात कुल संख्या के 11 प्रतिशत सांसदों ने आरोप तय होने अर्थात चार्ज फ्रेम होने की जानकारी शपथपत्र में दी है। ऐसे सांसदों का दलगत विवरण इस प्रकार है-
भारतीय जनता पार्टी     24
शिवसेना                5
 एलजेपी              1
 स्वाभिमान पक्ष         1
एआईडीएमके                   5
तृणमूल कांग्रेस          4
आरजेडी               3
सीपीआई एम            2
काँग्रेस                 1
जेमएम                1
एनसीपी               1
पीएमके               1
आरएसपी              1
बीजेडी                1
एआईएमईएम          1
 टीआरएस             1
स्वतंत्र                2
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       सवाल उठता है कि सर्वाधिक दागी सांसदों वाली भाजपा सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश की भावना को देखते इस पर शतप्रतिशत पालन करेगी या किसी कानूनी छेद से निकलने का रास्ता तलाशेगी, क्योंकि उसने 31 प्रतिशत मत पाकर 51 प्रतिशत सीटें जीती हैं। उल्लेखनीय है कि भाजपा के उक्त चौबीस दागी सांसदों में सुश्री उमा भारती, श्री लाल कृष्ण अडवाणी, श्री मुरली मनोहर जोशी, बृजभूषण शरण सिंह, महेश गिरि, नलिन कुमार कतील, सुरेश अंगदी, गणेश सिंह, सतीश दुबे. लल्लू सिंह, बी श्रीमालु. नाथुभाई जी पटेल. सुशील कुमार सिंह, फग्गन सिंह कुलस्ते, बिशन पद राय, प्रभु भाई नागर भाई वसावा, अश्विन कुमार, उदय प्रताप सिंह, कर्नल सोना राम, और कीर्ति आज़ाद शामिल हैं।  इनमें से उमा भारती को तो केबिनेट मंत्री का पद भी दिया गया है।  इसी तरह शिव सेना, लोक जनशक्ति पार्टी, स्वाभिमान पक्ष, आदि के सांसदों का फैसला भी एक साल में हो जाना होगा।
       किसी सांसद स्तर के नेता पर प्रकरण दर्ज़ होना और आरोप तय होने का अर्थ प्रकरण का मजबूत होना माना जाता है। यही कारण है कि किसी सांसद ने अपने ऊपर चल रहे प्रकरणों में जल्दी फैसले की माँग नहीं की। स्मरणीय है कि श्री नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित होने से पहले चुनाव अभियान समिति के चेयरमैन बनाये गये थे और टिकिट वितरण का काम उन्होंने ही किया था। उक्त दागी लोगों को भी टिकिट उन्होंने ही दिया था, अब यदि फैसला तय समय में हुआ और ज्यादातर सांसदों को सजा हो गयी तो इन क्षेत्रों में पुनः चुनाव में जाना होगा और हाल ही में देखी गयी निराशा को देखते हुये तब तक किये हुये वादों और सपनों को पूरा करने का दबाव अधिक होगा।
वीरेन्द्र जैन
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