फिल्म समीक्षा
संक्रमण काल में सामाजिक अवधारणाओं की चुनौतियां
पर मनोरंजक फिल्म – बधाई हो
वीरेन्द्र जैन
टीवी इंटरनैट के आने से पहले कालेज के
दिनों में जब अंग्रेजी फिल्में देखने का फैशन चलन में था, तब तीन घंटे की फिल्म के
अभ्यस्त हम लोगों को दो घंटे की फिल्म देख कर कुछ कमी सी महसूस होती थी, पर अब नहीं
लगता क्योंकि बहुत सारी हिन्दी फिल्में भी तीन घंटे से घट कर दो सवा दो घंटे में खत्म
हो जाती हैं। पहले फिल्में उपन्यासों पर बना करती थीं अब कहानियों या घटनाओं पर
बनती हैं और उनमें कई कथाओं का गुम्फन नहीं होता। पिछले कुछ दिनों से इसी समय सीमा
में किसी विषय विशेष पर केन्द्रित उद्देश्यपरक फिल्में बनने लगी हैं। कुशल
निर्देशक उस एक घटनापरक फिल्म में भी बहुत सारे आयामों को छू लेता है। अमित
रवीन्द्रनाथ शर्मा के निर्देशन में बनी ‘बधाई हो’ इसी श्र्ंखला की एक और अच्छी
फिल्म है।
यौन सम्बन्धों के मामले में हम बहुत दोहरे
चरित्र के समाज में रह रहे हैं। वैसे तो सुरक्षा की दृष्टि से सभी गैर पालतू
प्रमुख जानवर यौन सम्बन्धों के समय एकांत पसन्द करते हैं और सारी दुनिया की मनुष्य
जाति में भी यह प्रवृत्ति पायी जाती है पर हमारी संस्कृति में ब्रम्हचर्य को इतना
अधिक महत्व दिया गया है कि पति पत्नी के बीच के यौन सम्बन्धों को स्वीकारने में भी
पाप बोध की झलक मिलती है। भले ही विवाह के बाद पूरा परिवार शिशु की प्रतीक्षा करने
लगता है, दूधों नहाओ पूतों फलो के आशीर्वाद दिये जाते रहे हैं जिसके के लिए यौन
सम्बन्धों से होकर गुजरना होता है, किंतु उसकी समस्याओं पर सार्वजनिक चर्चा नहीं
की जा सकती। पैडमैन फिल्म बताती है कि यौन से सम्बन्धित सुरक्षा सामग्री भी
अश्लीलता समझी जाती रही है। प्रौढ उम्र में गर्भधारण इसी करण समाज में उपहास का
आधार बनता है भले ही यौन सम्बन्धों की उम्र दैहिक स्वास्थ के अनुसार दूर तक जाती
हो।
यह संक्रमण काल है और हम धीरे धीरे एक युग
से दूसरे युग में प्रवेश कर रहे हैं। यह संक्रमण काल देश की सभ्यता, नैतिकिता, और
अर्थ व्यवस्था में भी चल रहा है। हमारा समाज आधा तीतर आधा बटेर की स्थिति में चल
रहा है। फिल्म का कथानक इसी काल की विसंगतियों से जन्म लेता है। पश्चिमी उत्तर
प्रदेश का मूल निवासी कथा नायक [गजराव राव] रेलवे विभाग में टीसी या गार्ड जैसी
नौकरी करता है, व दिल्ली की मध्यम वर्गीय कालोनी में रहता है, जहाँ पुरानी कार सड़क
पर ही पार्क करना पड़ती है। दिल्ली में बढे हुये उसके लगभग 20 और 16 वर्ष के दो
बेटे हैं। उसकी माँ [सुरेखा सीकरी] भी उसी छोटे से फ्लेट में उसके साथ रहती है और
कमरे की सिटकनी बन्द करने की आवाज तक महसूस कर लेती है। वह परम्परागत सास की तरह
बहू [नीना गुप्ता] को ताना मारते रहने में खुश रहती है। कविता लिखने का शौकीन भला
भोला मितव्ययी कथा नायक भावुक क्षणों में भूल कर जाता है और लम्बे अंतराल के बाद
उसकी पत्नी फिर गर्भवती हो जाती है जिसका बहुत समय बीतने के बाद पता लगता है। वह
गर्भपात के लिए सहमत नहीं होती।
उसका बड़ा बेटा [आयुष्मान खुराना] भी किसी
कार्पोरेट आफिस में काम करता है व उसका प्रेम सम्बन्ध अपने साथ काम करने वाली एक
लड़की [सान्या मल्होत्रा] से चल रहा होता है। लड़के के परिवार के विपरीत माँ [शीबा
चड्ढा ] के संरक्षण में पली बड़ी पिता विहीन लड़की अपेक्षाकृत सम्पन्न मध्यमवर्गीय
परिवार से है व उनके रहन सहन में अंतर है। लड़की की माँ आधुनिक विचारों की है
तदानुसार लड़की अपना मित्र व जीवन साथी चुनने के लिए स्वतंत्र है। वे साझे वाहन से
कार्यालय जाते हैं, और अवसर मिलने पर दैहिक सम्बन्ध बना लेने को भी अनैतिक नहीं
मानते।
लड़के की माँ के गर्भधारण के साथ ही उसके
परिवार में व्याप्त हो चुका अपराधबोध सबको गिरफ्त में ले लेता है। पड़ोसियों की मुस्कराती
निगाह और तानों में सब उपहास के पात्र बनते हैं और इसी को छुपाने के क्रम में लड़का
और लड़की के बीच तनाव व्याप्त हो जाता है जो दोनों के बीच एकांत मिलन का अवसर मिलने
के बाद तब टूटता है जब वह लड़का अपनी चिंताओं के कारण को स्पष्ट करता है। लड़की के
लिए यह हँसने की बात है किंतु लड़के के लिए यह शर्म की बात है।
जब लड़की अपनी माँ को सच बताती है तो माँ
अपनी व्यवहारिक दृष्टि से सोचते हुए कहती है कि रिटायरमेंट के करीब आ चुके लड़के के
पिता की नई संतान का बोझ अंततः उसे ही उठाना पड़ेगा। लड़का यह बात सुन लेता है और
गुस्से में उन्हें कठोर बातें सुना देता है, जिससे आहत लड़की से उसका मनमुटाव हो
जाता है। इसी बीच लड़के की बुआ के घर में शादी आ जाती है जिसमें शर्मिन्दगी के मारे
दोनों लड़के जाने से मना कर देते हैं। उनके माँ बाप और दादी जब वहाँ जाते हैं तो
सारे मेहमान भी उन्हीं की तरफ उपहास की दृष्टि से देखते हैं। यह बात दादी को अखर
जाती है और वह गुस्से में अपनी बेटी और बड़ी बहू को लताड़ते हुए कहती है कि जिन
संस्कारों को भूलने की बात कर रहे हो उनमें वृद्ध मां बाप की सेवा करना भी है जो
कथा नायिका गर्भवती बहू को तो याद है पर उपहास करने वाले भूल गये हैं, जो कभी भूले
भटके भी उससे मिलने नहीं आते। बीमार होने पर इसी बहू ने उनको बिस्तर पर शौच कर्म
कराया है जब कि वे लोग देखने तक नहीं आये। वह विदा होती नातिन के यह कहने पर कि वह
अमेरिका जाकर नानी को फोन करेगी, कहती है कि उसने मेरठ से दिल्ली तक तो फोन कभी
किया नहीं अमेरिका से क्या करेगी। इसे सुन कर एक पुरानी फिल्म ‘खानदान’ में
भाई-भाई के प्रेम के लिए रामायण को आदर्श बताने वाले नायक के आदर्श वाक्य का उत्तर
देते हुए का प्राण द्वारा बोला गया वह डायलाग याद आता है, जब वह कहता है ‘ कौन सी
रामायण पढी है तुमने? हमारी रामायण में तो यह लिखा हुआ है कि बाली को उसके सगे भाई
सुग्रीव ने मरवा दिया और रावण को उसके सगे भाई सुग्रीव ने’।
अंग्रेजी में कहावत है कि मोरलिटी डिफर्स फ्रोम
प्लेस टु प्लेस एंड एज टु एज। लगता है इसके साथ यह भी जोड़ लेना चहिए कि क्लास टु
क्लास।
लड़के की माँ को जब पता लगता है कि उसके कारण उसका उसकी गर्ल फ्रेंड से मनमुटाव हो गया है तो वह लड़के को गोद भराई का कार्ड देने के बहाने भेजती है और लड़की की माँ से माफी मांगने की सलाह देती है। यही बात उनके मन का मैल दूर कर देती है। और एक घटनाक्रम के साथ फिल्म समाप्त होती है।
लड़के की माँ को जब पता लगता है कि उसके कारण उसका उसकी गर्ल फ्रेंड से मनमुटाव हो गया है तो वह लड़के को गोद भराई का कार्ड देने के बहाने भेजती है और लड़की की माँ से माफी मांगने की सलाह देती है। यही बात उनके मन का मैल दूर कर देती है। और एक घटनाक्रम के साथ फिल्म समाप्त होती है।
इस मौलिक कहानी को बुनने और रचने में
पर्याप्त मेहनत की गयी है व पश्चिमी उत्तर प्रदेश की स्थानीयता और दिल्ली की
आधुनिकता के बीच की विसंगतियों को सफलता से उकेरा गया है। पान की दुकान को युवा
क्लब बनाये रखने, घर में अपनी बोली में बोलने, पड़ोसियों द्वारा ताक झांक करने व
दूसरी ओर आधुनिक परिवार में माँ बेटी का एक साथ ड्रिंक करना पार्टियां देना आदि
बहुत स्वाभाविक ढंग से व्यक्त हुआ है। सारी शूटिंग स्पाट पर की गयी है और डायलाग
में व्यंग्य डाला गया है, जिसका एक उदाहरण है कि जब माँ के गर्भवती होने पर हँसती
हुयी लड़की से नाराज लड़का कहता है कि अगर ऐसी ही स्थिति तुम्हारी माँ के साथ हुयी
होती तो तुम्हें कैसा लगता। लड़की कहती है, तब तो बहुत बुरा लगता।..........
क्योंकि मेरे पिता नहीं हैं। चुस्त कहानी और पटकथा लेखन के लिए अक्षर घिल्डियाल,
शांतुन श्रीवास्तव, और ज्योति कपूर बधाई के पात्र हैं। फिल्म की व्यावसायिक सफलता
ऐसी फिल्मों को आगे प्रोत्साहित करेगी जो बदलते समय के समानांतर सामाजिक मूल्यों
में बदलाव को मान्यता दिलाती हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629
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