कथित धार्मिक परम्पराओं में विभ्रमित मध्यम वर्ग
वीरेन्द्र जैन
ईसा मसीह ने सूली पर चढते समय कहा था कि
हे प्रभु इन्हें माफ कर देना ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। आज जो कुछ भी
धर्म संस्कृति के नाम पर हो रहा है वह ऐसा ही है। एक ऐसी अन्धी भेड़ चाल में मध्यम
वर्ग भागा जा रहा है कि उसे होश ही नहीं है कि वह क्या कर रहा है। रावण को जलते
हुए देखने को वह धर्म समझ रहा है और दुर्घटनाओं में मर जाने तक में वह दूसरों की
भूल तलाशता है और अपनी भूल पर पश्चाताप नहीं करता।
केवल एक अमृतसर में रावण दहन के दौरान घटी
घटना ही अकेली दुर्घटना नहीं है अपितु प्रति वर्ष हजारों लोग किसी विशेष दिन पर
किसी विशेष धर्मस्थल में पहुँचने में न केवल सड़क दुर्घटनाओं के शिकार हो जाते हैं
अपितु भीड़ की भगदड़ में कुचल कर मर जाते हैं। वे जल्दी जल्दी कथित धर्मलाभ लेने के
चक्कर में इतने स्वार्थी और अमानवीय हो जाते हैं कि भगदड़ में कोई व्यक्ति एक बार
गिर जाता है तो वह दुबारा उठ ही नहीं पाता अपितु सैकड़ों लोग उसे कुचलते हुए आगे
बढते जाते हैं। वे नहीं जानते कि ऐसी अमानवीयता धर्म की मूल भावना के ही खिलाफ है।
किसी दर्शन पूजा से पुण्य लाभ का सन्देश देने वाले धर्म ने ही मानवीयता के सन्देश
भी दिये हैं।
सभी धर्मों में उपवास के लिए कहा गया है
और उसका प्रमुख उद्देश्य जीवन में अनुशासन लाना व इन्द्रियों की दासता से मुक्त
होना होता है। किंतु पहले धर्मस्थल तक पहुँचने की कोशिश में वे सारे अनुशासन भूल
जाते हैं। वे केवल दूसरे की देखादेखी किसी दिन विशेष को पहुंच कर वह सब कुछ करना
चाहते हैं जिसे उनके वर्ग के दूसरे लोग करते आ रहे हैं और वे उससे पीछे नहीं रहना
चाहते। किसी समय संतोषी माता का व्रत शुक्रवार को करने वाली लाखों महिलाओं ने एक
दूसरे की नकल में यह किया था पर आज कोई व्रत करता नजर नहीं आता। उन्हें याद ही
नहीं कि वे कब क्या और क्यों कर रहे थे। उच्च मध्यम वर्ग की नकल में निम्न मध्यम
वर्ग भी जानवरों की तरह रेल के डिब्बों में ठुंसे हुये, भूखे प्यासे, जागे, या
अधसोये गन्दा पानी और बासा भोजन खाते हुए वहाँ तक पहुँचते हैं और वैसी ही अवस्था
में वापिस लौटते हैं। वे कभी इस बात का परीक्षण नहीं करते कि इससे उन्हें क्या
हासिल हुआ है। पिछले दिनों विकसित उच्च मध्यम वर्ग के पास निजी वाहनों की संख्या
भी बड़ी है किंतु मार्गों का विकास व सुधार उस अनुपात में नहीं हुआ है, जिसका
परिणाम यह हुआ कि खराब मार्गों पर एक साथ अत्यधिक वाहनों के बीच होने वाली जल्दी
पहुँचने की प्रतियोगिता में पचासों दुर्घटनाएं घटती हैं जिनमें न केवल सैकड़ों लोग
मरते हैं अपितु हजारों जीवन भर के लिए विकलांग हो जाते हैं जो फिर भी यह मानते हैं
कि देवता की कृपा से वे जीवित बच गये। मन्दिर बनवाने के लिए एक दिन में ही लाखों
करोड़ों जोड़ लेने वाला समाज धर्मस्थल तक की सड़क बनवाने के लिए कुछ नहीं करता।
किसी उद्देश्य विशेष के लिए झांकियों को
किसने कब शुरू किया था यह अधिकांश लोग नहीं जानते व उनके वर्तमान स्वरूप को ही वे सदियों
पुराना परम्परागत धार्मिक कार्य समझते हैं और उसमें आने वाले किसी भी व्यवधान के
विरुद्ध जान देने की हद तक उत्तेजित हो सकते हैं। वे इनके लिए न केवल दूसरे धर्म
वालों से उलझ सकते हैं अपितु अपने धर्म के दूसरे झांकी वालों से भी टकरा सकते हैं।
विज्ञान की नई से नई उपलब्धि को भी वे अपनी परम्परा में समाहित मान लेते हैं और
उसके लिए लड़ मर जाते हैं। झांकियों में लाउडस्पीकर, डीजे, बुरी फिल्मी धुनों पर
रिकार्डिड भजन, रंगीन लाइटें, बड़े बड़े पंडालों में प्लास्टर आफ पेरिस की विशालकाय
मूर्तियां और उनकी मँहगी सजावट के स्तेमाल को शुरू हुए बहुत दिन नहीं हुये किंतु
उनकी रक्षा, धर्म की रक्षा की तरह की जाने लगी है। कागज का रावण जलाने और उसमें
बारूद के पटाखों के स्तेमाल सहित आतिशबाजी को भी सैकड़ों साल नहीं हुये किंतु उसको
इतना जरूरी माना जाने लगा है जैसे यह पौराणिक काल से चला आ रहा हो। दीपावली का नाम
ही दीपों की श्रंखला को जलाने के कारण ही पड़ा था किंतु अगर आज किसी शहर में दीवाली
के दिन बिजली न आये तो शहर में विद्युत मंडल का कार्यालय तक फूंका जा सकता है। दूसरी
ओर खील बताशों के त्योहार में चाकलेट और शराब की बिक्री अपने रिकार्ड तोड़ने लगी है,
पर खील बताशे भी अपनी जगह यथावत हैं। विडम्बना यह है कि हम पुराने को छोड़े बिना नई
नई चीजें अपनाते जा रहे हैं और जीवन को कबाड़ से भरते जा रहे हैं। मध्यम वर्ग की
नकल निम्न मध्यम वर्ग करता है और वह उसमें अपनी अर्थ व्यवस्था को बिगाड़ लेता है।
तीर्थयात्रा और पर्यटन का ऐसा घालमेल होता जा रहा है कि दोनों में से कोई भी ठीक
तरह से नहीं हो पा रहा है। लोग अकारण मँहगे होते जा रहे पैट्रोल, डीजल, गैस आदि के
बारे में एकजुट प्रतिरोध के बारे में सोचे बिना उनका स्तेमाल बढाते जा रहे हैं ,
एक स्तम्भकार ने सही लिखा है कि कम से कम झांकियों में तो समाज का सही चित्रण करते
हुए गलत के प्रति अपना प्रतिरोध दर्शाया जा सकता है, पर उसमें वही पौराणिक दृश्य
दिखाये जा रहे हैं।
आयोजन स्थलों पर स्वच्छता, वृक्षारोपण, जल
के स्तेमाल की मितव्यता का कोई सन्देश नहीं दिया जाता इसे किसी भी भंडारे के बाद
उस स्थल को देख कर समझा जा सकता है। धर्म के नाम पर होने वाले इन बेतरतीब तमाशों
में अनुशासन हीन भीड़ के बढते जाने और व्यवस्थाओं के प्रति ध्यान न दिये जाने के
कारण भविष्य में भी दुर्घटनाएं बढने ही वाली हैं। इन दुर्घटनाओं के लिए भले ही राजनीतिक
दल इस या उस सरकार या नेता को दोष देकर अपना उल्लू साधने की कोशिश करें पर अगर समय
से नहीं चेते तो जान से हाथ तो जनता ही धोयेगी।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
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