आरोपियों के छूट जाने पर खुश होने वाली म.प्र. सरकार
वीरेन्द्र जैन
कानून व्यवस्था का मामला राज्य सरकार के अंतर्गत आता है इसलिए उसकी जिम्मेवारी बनती है कि घटित अपराध के अपराधियों को पकड़ा जाये और उन पर सही ढंग से विवेचना करके सजा दिलवायी जाये। सजा दिलवाने का मतलब केवल अपराधियों को दण्डित करना ही नहीं होता अपितु समाज के सामने ऐसा उदाहरण रखना भी होता है जिससे कि दूसरे लोग वैसा दुस्साहस न करें। यह दुखद है कि मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार अपने इस कार्य को भी राजनीतिक चश्मे से देखती है। संघ परिवार से जुड़े लोगों की न केवल जाँच में ही लीपीपोती की जाती है अपितु पीड़ित पर दबाव डालकर समझौते के लिए मजबूर करने से लेकर अभियोजन को कमजोर करने तक से अपराधियों को लाभ पहुँचाया जाता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि सारे अपराधी भाजपा नेताओं के शरणागत होकर काम करने में ही अपनी सुरक्षा देखने लगे हैं। प्रदेश की राजधानी तक में आये दिन बैंक और एटीएम लूटे जा रहे हैं और सक्रिय लोगों की हत्याएं हो रही हैं। इन घटनाओं की निरंतरता यह बताती है कि अपराधियों को कानून का कोई भय नहीं है। जब अपराधी दबंग होता है और न्याय दिलाने के लिए जिम्मेवार संस्था आरोपी से मिली हुयी नजर आती है तो पीड़ित स्वयं ही अपने आरोप वापिस ले लेने में ही अपनी भलाई समझता है। जब अभियोजन कमजोर होता है और भय या लालच में गवाह पलटने को विवश हो जाते हैं तो अपनी पूरी ईमानदारी के बाबजूद न्याय भी मजबूर हो जाता है।
स्मरणीय है कि उज्जैन के एक प्रोफेसर की टीवी कैमरा के सामने धमकाने के बाद हत्या कर दी जाती है व सत्तारूढ दल से जुड़े छात्र संगठन के सदस्य धमकाते हुए न्यूज चैनल पर देखे जाते हैं। लोक लिहाज वश उन्हें गिरफ्तार भी करना पड़ता है तो वे कारागार की जगह अस्पताल में मेहमाननवाजी करते हैं और प्रदेश के मुख्यमंत्री काजू किशमिश लेकर उनसे मिलने जाते हैं। सच्चाई बहु प्रचारित होने के कारण उसकी सुनवाई प्रदेश से बाहर करवाने की व्यवस्था की जाती है किंतु भयभीत गवाह और अभियोजन जिनके आधार पर न्यायालय फैसले देते हैं वे तो प्रदेश सरकार के नेतओं के प्रभाव में ही रहते हैं इसलिए आरोपियों को मुक्त करते हुए भी न्यायालय को लिखना पड़ता है कि अभियोजन पक्ष आरोप साबित करने में विफल रहा। दूसरी ओर अभियोजन पक्ष की पैरवी करने वाले वकील का कहना था कि अभियोजन नहीं जाँच एजेंसी हारी है जिसने साक्ष्य एकत्रित करने में सावधानी नहीं बरती और सभी गवाहों को पलट जाने दिया। यह मामला भी आम आपराधिक मामलों जैसा ही हो जाता जिनमें आरोपी मुक्त हो जाते हैं किंतु इसकी भिन्नता यह थी कि मुक्त हुये आरोपियों को बीमारी के बहाने अस्पताल में रखा गया था जो स्वतंत्र रूप से घूमते फिरते थे और एक प्रैस फोटोग्राफर द्वारा उनकी फोटो खींचने का प्रयास करने पर वे दौड़ कर सीड़ियां चढते हुए तीसरी मंजिल तक पहुँच जाते हैं। मुख्यमंत्री उनको आश्वस्त करने के लिए पहुँचते हैं और जब वे छूट कर आते हैं तो नगर में उनका विजय जलूस निकलता है जिसमें प्रदेश सरकार का खुशी से नाचता हुआ एक मंत्री कहता है कि आज वह इतना खुश है जितना मंत्री बनने पर भी नहीं हुआ था। आरोपियों पर मुकदमा प्रदेश शासन ने चलाया था और उनके छूट जाने से प्रदेश सरकार की कमजोरी ही प्रकट हुयी थी फिर भी उसी सरकार का एक मंत्री नाचता हुआ विजय जलूस में चल रहा था। मारा गया प्रोफेसर उच्च शिक्षा से जुड़ा हुआ शिक्षक थ और अपनी ड्यूटी करता हुआ मारा गया था इसलिए सरकार की अतिरिक्त जिम्मेवारी थी कि वह अपराधियों का पता लगाये और अपराधियों को सजा मिलना सुनिश्चित करे किंतु कोर्ट के फैसले की ओट में सरकार भी चुप होकर बैठ गयी जिससे उसकी संलिप्तता का पता चलता है।
इसी तरह राजधानी में शीतल ठाकुर गोला काण्ड है जिसमें आज से तीन साल पहले चिकित्सा विज्ञान की एक छात्रा को गोली मारी गयी थी और आरोप में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी व एक डाक्टर का नाम आया था। पुलिस अधिकारी ने अपनी सफाई में कहा था कि उसका प्रमोशन रुकवाने के लिए उसे झूठा फँसाया जा रहा है। उसके बाद यह छात्रा राजधानी से बाहर चली गयी और पुलिस मामले को दबाये हुए बैठी रही। पिछले दिनों बहुत दबाओं के बाद यह छात्रा राज्य मानवाधिकार आयोग के दो सदस्यीय जाँच दल के सामने उपस्थित हुयी और उसने अपना बयान दिया कि 11 अप्रैल को रात्रि आठ बजे वह हबीबगंज रेलवे स्टएशन पर अपने मित्र शांतुन से मिलने जा रही थी तब बिट्टन मार्केट स्वीमिंग पूल के पास उसे गोली लगी। उसी समय चार पाँच गाड़ियां भी गुजर रही थीं और संयोग से ठीक उसी समय उसके परिचित डाक्टर देवानी भी वहीं से निकले जो [सरकारी अस्पताल ले जाने के बजाय] उसे प्राइवेट अस्पताल ले गये और पट्टी करने के बाद एक्सरे निकाले जिसमें लीवर और किडनी के बीच गोली फँसी मिली जो अभी तक उसके शरीर में है। उसने यह भी बताया कि किसी अज्ञात व्यक्ति ने उसके नाम से मुख्यमंत्री को अठारह शिकायतें भिजवायीं हैं। पुलिस इस मामले में सदैव निष्क्रिय रही। उसे यह भी चिंता नहीं हुयी कि उसके एक वरिष्ठ अधिकारी का प्रमोशन रोकने के लिए यदि ऐसा षड़यंत्र रचने का आरोप लगाया गया है तो वो उस षड़यंत्रकारी का पता लगाये जो शासन के काम में बाधा पैदा कर रहा है। पुलिस में सही स्थान पर सही आदमी का पहुँचना ही प्रदेश के हित में है। क्या ऐसे गम्भीर मामले में पीड़ित के बयान के बाद, जो दबाव और लालच में दिया गया मालूम देता है, फाइल को बन्द कर देना उचित होगा? वस्तुगत सवाल मामले की जाँच का है। पुलिस ने इस मामले में उदासीनता दिखाते हुए छात्रा को शहर से बाहर क्यों नहीं तलाशा और बयान क्यों नहीं लिये। ठीक घटना स्थल पर ही एक सुपरिचित डाक्टर की उपस्थिति और प्राइवेट अस्पताल में ट्रीटमेंट क्या एक संयोग भर है। पीड़िता और आगे कार्यावाही क्यों नहीं चाहती। ये ऐसे सवाल हैं जिनके उत्तर जानने बहुत जरूरी है, ताकि सतह के नीचे चल रही हलचलों को टटोला जा सके।
ये तो कुछ नमूने हैं अन्यथा रूसिया प्रकरण जिसमें एक विधायक पर उठे कई सवाल अनुत्तरित रह गये हैं जो शासन और प्रशासन की सोनोग्राफी कर सकते हैं, उन्हें अनुत्तरित ही छोड़ दिया गया। एक विधायक और उनके पति भी एक छात्रा और नौकरानी की हत्या के मामले में अभियुक्त हैं और जब विधायक के पति जेल से कोर्ट में आते हैं तो पुलिस अधिकारी अपनी वर्दी में उनके पैर छूते देखे जाते हैं और सरकार चुपचाप देखती रहती है। शहला मसूद आदि की घटनाएं तो अब अखबार वाले तक भूलते जा रहे हैं। नगर में ट्रैफिक नियंत्रण के लिए पुलिस सत्तारूढ दल के नेताओं से कुछ नहीं कह सकती है और कार्यावाही करने पर उन पर हमले कर दिये जाते हैं।
सवाल यह ही नहीं है कि अदालत के सामने किस प्रकरण को किस तरह से प्रस्तुत किया गया और क्या फैसला मिला, सवाल यह भी है कि क्या सरकार लोगों को न्याय दिलाना चाहती है या नहीं और वह जनता के साथ है या अपराधियों के साथ है।
वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629
वीरेन्द्र जैन
कानून व्यवस्था का मामला राज्य सरकार के अंतर्गत आता है इसलिए उसकी जिम्मेवारी बनती है कि घटित अपराध के अपराधियों को पकड़ा जाये और उन पर सही ढंग से विवेचना करके सजा दिलवायी जाये। सजा दिलवाने का मतलब केवल अपराधियों को दण्डित करना ही नहीं होता अपितु समाज के सामने ऐसा उदाहरण रखना भी होता है जिससे कि दूसरे लोग वैसा दुस्साहस न करें। यह दुखद है कि मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार अपने इस कार्य को भी राजनीतिक चश्मे से देखती है। संघ परिवार से जुड़े लोगों की न केवल जाँच में ही लीपीपोती की जाती है अपितु पीड़ित पर दबाव डालकर समझौते के लिए मजबूर करने से लेकर अभियोजन को कमजोर करने तक से अपराधियों को लाभ पहुँचाया जाता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि सारे अपराधी भाजपा नेताओं के शरणागत होकर काम करने में ही अपनी सुरक्षा देखने लगे हैं। प्रदेश की राजधानी तक में आये दिन बैंक और एटीएम लूटे जा रहे हैं और सक्रिय लोगों की हत्याएं हो रही हैं। इन घटनाओं की निरंतरता यह बताती है कि अपराधियों को कानून का कोई भय नहीं है। जब अपराधी दबंग होता है और न्याय दिलाने के लिए जिम्मेवार संस्था आरोपी से मिली हुयी नजर आती है तो पीड़ित स्वयं ही अपने आरोप वापिस ले लेने में ही अपनी भलाई समझता है। जब अभियोजन कमजोर होता है और भय या लालच में गवाह पलटने को विवश हो जाते हैं तो अपनी पूरी ईमानदारी के बाबजूद न्याय भी मजबूर हो जाता है।
स्मरणीय है कि उज्जैन के एक प्रोफेसर की टीवी कैमरा के सामने धमकाने के बाद हत्या कर दी जाती है व सत्तारूढ दल से जुड़े छात्र संगठन के सदस्य धमकाते हुए न्यूज चैनल पर देखे जाते हैं। लोक लिहाज वश उन्हें गिरफ्तार भी करना पड़ता है तो वे कारागार की जगह अस्पताल में मेहमाननवाजी करते हैं और प्रदेश के मुख्यमंत्री काजू किशमिश लेकर उनसे मिलने जाते हैं। सच्चाई बहु प्रचारित होने के कारण उसकी सुनवाई प्रदेश से बाहर करवाने की व्यवस्था की जाती है किंतु भयभीत गवाह और अभियोजन जिनके आधार पर न्यायालय फैसले देते हैं वे तो प्रदेश सरकार के नेतओं के प्रभाव में ही रहते हैं इसलिए आरोपियों को मुक्त करते हुए भी न्यायालय को लिखना पड़ता है कि अभियोजन पक्ष आरोप साबित करने में विफल रहा। दूसरी ओर अभियोजन पक्ष की पैरवी करने वाले वकील का कहना था कि अभियोजन नहीं जाँच एजेंसी हारी है जिसने साक्ष्य एकत्रित करने में सावधानी नहीं बरती और सभी गवाहों को पलट जाने दिया। यह मामला भी आम आपराधिक मामलों जैसा ही हो जाता जिनमें आरोपी मुक्त हो जाते हैं किंतु इसकी भिन्नता यह थी कि मुक्त हुये आरोपियों को बीमारी के बहाने अस्पताल में रखा गया था जो स्वतंत्र रूप से घूमते फिरते थे और एक प्रैस फोटोग्राफर द्वारा उनकी फोटो खींचने का प्रयास करने पर वे दौड़ कर सीड़ियां चढते हुए तीसरी मंजिल तक पहुँच जाते हैं। मुख्यमंत्री उनको आश्वस्त करने के लिए पहुँचते हैं और जब वे छूट कर आते हैं तो नगर में उनका विजय जलूस निकलता है जिसमें प्रदेश सरकार का खुशी से नाचता हुआ एक मंत्री कहता है कि आज वह इतना खुश है जितना मंत्री बनने पर भी नहीं हुआ था। आरोपियों पर मुकदमा प्रदेश शासन ने चलाया था और उनके छूट जाने से प्रदेश सरकार की कमजोरी ही प्रकट हुयी थी फिर भी उसी सरकार का एक मंत्री नाचता हुआ विजय जलूस में चल रहा था। मारा गया प्रोफेसर उच्च शिक्षा से जुड़ा हुआ शिक्षक थ और अपनी ड्यूटी करता हुआ मारा गया था इसलिए सरकार की अतिरिक्त जिम्मेवारी थी कि वह अपराधियों का पता लगाये और अपराधियों को सजा मिलना सुनिश्चित करे किंतु कोर्ट के फैसले की ओट में सरकार भी चुप होकर बैठ गयी जिससे उसकी संलिप्तता का पता चलता है।
इसी तरह राजधानी में शीतल ठाकुर गोला काण्ड है जिसमें आज से तीन साल पहले चिकित्सा विज्ञान की एक छात्रा को गोली मारी गयी थी और आरोप में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी व एक डाक्टर का नाम आया था। पुलिस अधिकारी ने अपनी सफाई में कहा था कि उसका प्रमोशन रुकवाने के लिए उसे झूठा फँसाया जा रहा है। उसके बाद यह छात्रा राजधानी से बाहर चली गयी और पुलिस मामले को दबाये हुए बैठी रही। पिछले दिनों बहुत दबाओं के बाद यह छात्रा राज्य मानवाधिकार आयोग के दो सदस्यीय जाँच दल के सामने उपस्थित हुयी और उसने अपना बयान दिया कि 11 अप्रैल को रात्रि आठ बजे वह हबीबगंज रेलवे स्टएशन पर अपने मित्र शांतुन से मिलने जा रही थी तब बिट्टन मार्केट स्वीमिंग पूल के पास उसे गोली लगी। उसी समय चार पाँच गाड़ियां भी गुजर रही थीं और संयोग से ठीक उसी समय उसके परिचित डाक्टर देवानी भी वहीं से निकले जो [सरकारी अस्पताल ले जाने के बजाय] उसे प्राइवेट अस्पताल ले गये और पट्टी करने के बाद एक्सरे निकाले जिसमें लीवर और किडनी के बीच गोली फँसी मिली जो अभी तक उसके शरीर में है। उसने यह भी बताया कि किसी अज्ञात व्यक्ति ने उसके नाम से मुख्यमंत्री को अठारह शिकायतें भिजवायीं हैं। पुलिस इस मामले में सदैव निष्क्रिय रही। उसे यह भी चिंता नहीं हुयी कि उसके एक वरिष्ठ अधिकारी का प्रमोशन रोकने के लिए यदि ऐसा षड़यंत्र रचने का आरोप लगाया गया है तो वो उस षड़यंत्रकारी का पता लगाये जो शासन के काम में बाधा पैदा कर रहा है। पुलिस में सही स्थान पर सही आदमी का पहुँचना ही प्रदेश के हित में है। क्या ऐसे गम्भीर मामले में पीड़ित के बयान के बाद, जो दबाव और लालच में दिया गया मालूम देता है, फाइल को बन्द कर देना उचित होगा? वस्तुगत सवाल मामले की जाँच का है। पुलिस ने इस मामले में उदासीनता दिखाते हुए छात्रा को शहर से बाहर क्यों नहीं तलाशा और बयान क्यों नहीं लिये। ठीक घटना स्थल पर ही एक सुपरिचित डाक्टर की उपस्थिति और प्राइवेट अस्पताल में ट्रीटमेंट क्या एक संयोग भर है। पीड़िता और आगे कार्यावाही क्यों नहीं चाहती। ये ऐसे सवाल हैं जिनके उत्तर जानने बहुत जरूरी है, ताकि सतह के नीचे चल रही हलचलों को टटोला जा सके।
ये तो कुछ नमूने हैं अन्यथा रूसिया प्रकरण जिसमें एक विधायक पर उठे कई सवाल अनुत्तरित रह गये हैं जो शासन और प्रशासन की सोनोग्राफी कर सकते हैं, उन्हें अनुत्तरित ही छोड़ दिया गया। एक विधायक और उनके पति भी एक छात्रा और नौकरानी की हत्या के मामले में अभियुक्त हैं और जब विधायक के पति जेल से कोर्ट में आते हैं तो पुलिस अधिकारी अपनी वर्दी में उनके पैर छूते देखे जाते हैं और सरकार चुपचाप देखती रहती है। शहला मसूद आदि की घटनाएं तो अब अखबार वाले तक भूलते जा रहे हैं। नगर में ट्रैफिक नियंत्रण के लिए पुलिस सत्तारूढ दल के नेताओं से कुछ नहीं कह सकती है और कार्यावाही करने पर उन पर हमले कर दिये जाते हैं।
सवाल यह ही नहीं है कि अदालत के सामने किस प्रकरण को किस तरह से प्रस्तुत किया गया और क्या फैसला मिला, सवाल यह भी है कि क्या सरकार लोगों को न्याय दिलाना चाहती है या नहीं और वह जनता के साथ है या अपराधियों के साथ है।
वीरेन्द्र जैन
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bahut sateek baat hai. ese jangalraaj isiliye kaha jaata hai.
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