बामपंथ विजेता की तरह उभर रहा है
वीरेन्द्र जैन
जब पूरे देश में बामपंथ की हार पर जश्न मनाये जा रहे हों और मर्सिये पढे जा रहे हों तब ये कहना कि बामपंथ जीत रहा है एक चौंकाने वाला वाक्य हो सकता है। भले ही हमें अपनी चुनाव प्रणाली पर कितना ही अविश्वास हो, और दिन प्रति दिन उसमें सुधार के लिए भाषण दिये जाते हों पर लोकतंत्र का मतलब इसी दोषपूर्ण चुनाव प्रणाली के अंतर्गत होने वाले चुनावों को मान लिया गया है और इसमें दूसरों से अधिक मत जुटाने वालों को ही हम देश की आवाज और विजेता के तात्कालिक दल के घोषणा पत्र को ही पूरे देश का मत मान कर चलने लगे हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि विजेताओं में से अनेक ने अपने दल के घोषणापत्र को पढा भी नहीं होता है और जो दल उन्हें टिकिट दे देता है वे उसी दल के घोषणापत्र को अपना विचार घोषित कर देते हैं। ..... किंतु सच यह है निहित स्वार्थों ने इस चुनाव प्रणाली के नाम पर एक पाखण्ड विकसित किया है और उसे ही लोकतंत्र बताया जा रहा है।
सबसे पहले दलित और आदिवासियों के नाम पर अठारह प्रतिशत आरक्षण को लें। वर्ण भेद वाले समाज में सामाजिक समरसता स्थापित करने के लिए इस आरक्षण का अपना महत्व है, और यह इस खुशफहमीं में कुल दस साल के लिए दिया गया था कि इस दौरान सामाजिक समरसता स्थापित हो जायेगी। सदियों से वर्णभेद वाले समाज में उम्मीद की यह अति, एक बड़ी भूल थी। ऐसा करते समय हमने इस बात को भुला दिया कि आरक्षित वर्ग के लिए की गयी इस व्यवस्था से हमारी संसदीय प्रणाली लगभग इतने ही प्रतिशत ऐसे संसद सदस्यों से बनी होगी जो सदियों से वंचित होने के कारण कमजोर समझ और इच्छा शक्ति वाले होंगे तथा कुछ निहित स्वार्थों के इशारे पर चलने को विवश होंगे। इसके परिणामस्वरूप व्यवस्था पर उन निहित स्वार्थों का नियंत्रण होगा। इस आरक्षण से दलित और वंचित समाज के हित में एक ओर हम कुछ भलाई का काम कर रहे थे तो दूसरी ओर संसद के एक हिस्से को गलत हाथों में खेलने के लिए छोड़कर कुछ नुकसान भी कर रहे थे। इसमें भी कोई दो राय नहीं हो सकती कि हमारे पास इस का कोई बेहतर विकल्प भी नहीं था। शांतिपूर्वक सत्ता परिवर्तन से जनचेतना में परिवर्तन नहीं आया था और लोकतंत्र आने के बाद भी समाज पर सामंती नियंत्रण यथावत था। इसका परिणाम यह हुआ कि एक ओर तो अनेक पूर्व राजे महराजों ने अपना पदनाम सांसद रख लिया था, दूसरी ओर आरक्षण के बहाने उन्हीं के कर्मचारी उनकी मदद के लिए तैयार बैठे थे। बाद में साम्प्रदायिकता, जातिवाद, लोकप्रियतावाद, बाहुबल, वोट के लिए घूस, दुष्प्रचार, आदि के सहारे चुनाव लड़े और जीते जाने लगे। पहले आम चुनाव में 55 सीटें जीतने वाली कम्युनिष्ट पार्टी मुख्य विपक्षी दल थी जो बाद में सिमटती चली गयी। सबसे पहले केरल में गैर कांग्रेसी राज्य सरकार बनाने वाली उनकी सरकार को अकारण ही भंग कर दिया गया था। एक चौथाई शतक बीत जाने के बाद कुछ मामूली से चुनाव सुधार किये जाने लगे, तो दूसरी ओर प्रणाली में उतने ही दूसरे नये छिद्र बनते गये। बहरहाल ऐसी चुनाव प्रणाली में सबसे कम दोषों को अपनाने वाले बामपंथ को अपने समर्थक मत सुरक्षित रखने के बाद भी चुनावी पराजय को झेलना पड़ा और निहित स्वार्थों से नियंत्रित मीडिया ने उसे समाप्त ही घोषित कर दिया। बिडम्बनापूर्ण यह है कि जितने प्रतिशत मत पाकर बामपंथ कुछ राज्यों में विपक्ष में है उतने प्रतिशत मत अधिकांश राज्यों के सत्तारूढ दलों को भी नहीं मिले थे। ऐसे में बामपंथ की जीत की बात करना आंख बन्द कर धारा में बहते लोगों को चौंकायेगा नहीं तो क्या करेगा!
इस देश में कई बामपंथी दल हैं जिनमें से अनेक तो इस लोकतंत्र की इस चुनाव प्रणाली के अंतर्गत चुनाव लड़ने में ही भरोसा नहीं करते और चुनाव लड़ने वालों को बामपंथी ही नहीं मानते। चुनाव लड़ने वाले दल भी चुनावों को अपनी राजनीति के केन्द्र में नहीं रखते और जन आन्दोलनों और जनसंघर्ष में ही भरोसा रखते हैं, भले ही चुनावों में भाग लेने के कारण उनके कैडर के एक हिस्से के चरित्र में कुछ गिरावट आयी हो, जिसे वे समय रहते दूर नहीं कर पाये हों। आज उग्र बामपंथ देश के 139 जिलों में सक्रिय बताया जा रहा है और प्रधानमंत्री उसे सबसे बड़ा खतरा बतला रहे हैं।
बामपंथ को विजेता मानने के पीछे कारण यह है कि पिछले दिनों कुछ ऐसी घटनाएं घटी हैं जिससे बामपंथी नीतियां सही साबित हुयी हैं। पिछली यूपीए सरकार को न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर सहमति बनने के बाद बामपंथियों का बाहर से समर्थन प्राप्त था। अपने कार्यकाल के आखिरी वर्ष में न्यूनतम साझा कार्यक्रम की शर्तों को इकतरफा ढंग से तोड़ते हुए कांग्रेस ने अमेरीका के साथ न्यूक्लीयर डील करने का फैसला कर लिया और देश के चालीस लाख लोगों ने दो दिन तक चली बहस को ही नहीं अपितु शर्मनाक दलबदल, पक्षबदल, के साथ संसद के पटल पर दलबदल के लिए मिले एक करोड़ रुपयों का रखा जाना देखा। समाजवादी पार्टी को अचानक ही अपना रुख पलटते हुए देखा। पूरे देश ने मुख्य विपक्षी दल के सांसदों को बिकते और कार्यवाही से गायब होते देखा तथा संसद से बाहर अमरीकी पूंजी का नंगा खेल देखा। बामपंथी दलों को अपना समर्थन वापिस लेना पड़ा था और अल्पमत की कांग्रेस सरकार दबाव में आकर छोटे छोटे दलों के ब्लेकमेल की शिकार हो गयी थी। डीएमके के दबाव और टूजी का बड़ा भ्रष्टाचार इसी ब्लेकमेलिंग के कारण सम्भव हो सका। वही न्यूक्लीयर डील अब अमरीका भंग करने जा रही है। गत 24 जून को 46 राष्ट्रों की लन्दन ग्रुप आफ सप्लायर्स की बैठक में जिन नये नियमों की घोषणा की गयी है उसके अनुसार कोई भी कोई भी सदस्य राष्ट्र किसी को भी परमाणु संवर्धन और पुनर्शोधन की कोई भी टेकनीक नहीं बेचेगा जब तक कि वह् परमाणु अप्रसार सन्धि का सदस्य न हो और अपनी परमाणु भट्टियों और सुविधाओं पर पूर्ण अंतर्राष्ट्रीय निगरानी लागू न कराये। बामपंथियों ने इन्हीं आशंकाओं के आधार पर परमाणु सन्धि का विरोध किया था, तथा यूपीए सरकार ने प्रस्ताव पास कराते समय औपचारिक वादा किया था कि वो ऐसी शर्तें नहीं मानेगा। अब यूपीए सरकार शर्मिंदा होने की स्तिथि में है, और बामपंथ की गरदन ऊंची है।
इसी विषय से जुड़ी संसदीय बहस के दौरान वोट के बदले नोट के मामले में कांग्रेस भाजपा और समाजवादी तीनों कटघरे में हैं और उनके कारण से वह मामला भी दबा हुआ था, किंतु उच्च अदालत ने दिल्ली पुलिस पर दबाव बनाते हुए सख्त आदेश दिया था जिससे उसे सक्रिय होना पड़ा है व अमर सिंह के निकटतम संजीव सक्सेना से पूछताछ करनी पड़ी है। सही जाँच के बाद तीनों ही दलों के वरिष्ठ नेताओं पर छींटे आयेंगे जबकि राष्ट्रीय हित में न्यूक्लीयर सन्धि को विषय बनाने वाले बामपंथी कुन्दन की तरह प्रकट हों रहे हैं।
पिछले दिनों अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने देश के जनमानस में भ्रष्टाचार के खिलाफ उफन रही जनभावनाओं को अपनी अपनी तरह से एक आकार देने का प्रयास किया था और सरकार को एक लोकपाल बिल लाने को मजबूर कर दिया। यह बिल पिछले कई दशकों से ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ था। भले ही जनलोकपाल बिल और सरकारी लोकपाल बिल के बीच कुछ मतभेद चल रहे हैं पर अंततः इससे कुछ न कुछ तो ऐसा निकलेगा जिससे भ्रष्टाचारियों की नींद हराम होगी, तथा गैरबामपंथी अधिकांश दल घेरे में आयेंगे। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि बामपंथ ऐसे आरोपों से अछूता होने के कारण सहज रहने वाला है इससे उसकी कमीज अलग से सफेद दिखेगी।
संसद में सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय पूरी तैयारी के साथ उठाने के बाद भी बहस में संयत रहने वाले, सदन में सर्वाधिक उपस्तिथि दर्ज कराने वाले, अपनी बात को दृढता से रखने के बाद भी सदन की गरिमा को बनाये रखने वाले, कभी सदन के गर्भग्रह में न उतरने वाले सांसदों के रूप में भी बामपंथ अपने विरोधियों के खिलाफ जीतता रहा है। सदन के अन्दर संख्या में कमजोर होने के कारण ही जनता को पेट्रोलियम उत्पादों की दरों में जो वृद्धि देखने को मिली है, वह तब नहीं हो सकी थी जब उनके सहारे सरकार चल रही थी। इससे भी उनके महत्व का पता चला है। बंगाल में उनके सत्त्ता से हटते ही सीमा पर स्थित जिलों के बारे में गोरखालेंड पर किये गये अदूरदर्शी समझौता का क्या दुष्परिणाम होगा यह जल्दी ही पता चलेगा, तब बामपंथ की राजनीतिक समझ का पता चलेगा। तस्लीमा नसरीन भी अपने बंगाल में स्वतंत्र विचरण के लिए आती ही होंगीं। तब ममता बनर्जी की विचारहीन अवसरवाद की भूलों का पता चलने वाला है।
कुल मिला कर कहा जा सकता है कि देश में जो कुछ भी चल रहा है उसमें गैरबामपंथी दल ही नकारात्मक चर्चा में हैं जिससे प्रचारवंचित बामपंथ का सकरात्मक पक्ष उभर रहा है व भविष्य में उभरने वाला है। यह उभार उनकी गैरचुनावी जीत होगी जिसका प्रभाव अधिक टिकाऊ होता है और जो दिन प्रति दिन बढने ही वाला है।
वीरेन्द्र जैन
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