संस्मरण
मासिक पत्रिका कादम्बिनी
को श्रद्धांजलि
वीरेन्द्र जैन
हिन्दुस्तान टाइम्स प्रकाशन समूह अर्थात बिड़ला ग्रुप की दो और पत्रिकाएं बन्द
होने का समाचार आया है। उनमें मासिक कादम्बिनी भी एक है। उनके लिए सब कुछ व्यवसाय
है, वे केवल फायदा देखते हैं। इस पत्रिका
के बन्द होने की खबर ने मेरी स्मृतियों में हलचल मचा दी है। व्यक्तिगत रूप से तो यह
वह राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका थी जिसमें बीस वर्ष की उम्र में मेरी पहली रचना छपी
थी, और इसके प्रकाशन के साथ ही नगर के साहित्यकारों के बीच मेरा कद बढ गया था। यह
कद सच में बढा था या यह मेरी धारणा भी हो सकती है क्योंकि दतिया के बुन्देलखण्डी लोग
किसी भी स्थानीय व्यक्ति को अपनी आँखों के सामने अपने सिर पर नहीं बैठने दे सकते,
पर गिरने का मजा भरपूर लेते हैं। बहरहाल इस
हल्दी की गांठ के सहारे मैं खुद को पंसारी समझने लगा था। भविष्य में पत्रिकाओं में
मेरे खूब सारा लिखने की नींव भी इसी से पड़ी थी। आज याद करता हूं तो हँसी आती है कि
कैसे उस अंक को लम्बे समय तक सम्हाल के और सहेज कर रखा गया था। ये चाहता भी था कि
मिलने वाले इसे देखें और यह भी कि इसकी रंगत खराब न हो। जैसे कि कोई माँ अपने शिशु
को सम्हालती है।
मेरी जिन्दगी में कादम्बिनी का महत्व केवल मेरी पहली रचना के प्रकाशन से ही
नहीं है अपितु साहित्य की गहराई भी इसी पत्रिका को पढ पढ कर जानी थी। जिन लोगों ने
कादम्बिनी को 1973 के बाद पढा है उन्हें मेरी बात समझ में नहीं आयेगी किंतु
जिन्होंने उससे पहले की कादम्बिनी को पढा होगा वे इसे समझ सकते हैं। मैं कादम्बिनी
के इतिहास को दो भागों में बांट कर देखता हूं, एक रामानन्द दोषी के निधन से पहले
दूसरा रामानन्द दोषी के बाद। इस मासिक के मुकाबले में दूसरी कोई पत्रिका याद नहीं
आती जिसने आम मध्यम वर्ग में बिना साहित्यिक गरिमा से समझौता किये लोकप्रियता
बनाये रखी हो। मुझे यह पत्रिका जिला पुस्तकालय / वाचनालय में पढने को मिलती थी। यह
मेज पर रस्सी से बंधी रहती थी और निश्चित स्थान पर बैठ कर ही पढनी पड़ती थी। महीने
के प्रारम्भिक दिनों में वाचनालय खुलने से पहले ही इसी के कारण पहुंचना होता था। यह
बात बाद में समझ में आयी कि कादम्बिनी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी में
प्रकाशित होने वाली रीडर्स डाइजेस्ट के जैसी थी। जापानी हाइकू जैसी रचनाओं का
प्रकाशन सबसे पहले कादम्बिनी में ही प्रारम्भ हुआ था, जिनका नाम क्षणिकाएं रखा गया
था। ये रचनाएं तीन चार पंक्तियों में गहरी सम्वेदनाओं का स्पर्श करा देती थीं।
मेरी पहली रचना भी इसी स्तम्भ में प्रकाशित हुयी थी। उचित महत्व के साथ नवगीत भी
कादम्बिनी में ही प्रकाशित होना शुरू हुये थे। रामानन्द दोषी भी श्रेष्ठ गीतकार थे, और आज के
जाने माने नवगीतकारों में से नईम, विनोद निगम, माहेश्वर तिवारी, कुंवर बेचैन आदि
के गीतों का परिचय यहीं से मिला था। दोषी जी के सम्पादकीय जो बिन्दु बिन्दु विचार
के नाम से आता था, में किसी ललित निबन्ध के तत्व रहते थे। दुनिया की श्रेष्ठ
पुस्तकों का हिन्दी में संक्षिप्तीकरण ‘सार संक्षेप’ के नाम से कादम्बिनी में प्रकाशित
होता था जिन्हें पढ कर कम समय, और कम श्रम में दुनिया के श्रेष्ठ साहित्य को पढे
होने की शेखी बघारी जा सकती थी। जार्ज आरवेल का 1984 मैंने इसी सार संक्षेप के
माध्यम से पढा था। जीवन की सहज घटनाओं के प्रति उठती घटनाओं के वैज्ञानिक कारण
बताने का भी एक स्तम्भ होता था जो प्रश्नों के उत्तर के रूप में होता था। इससे
चीजों को मान लेने की जगह जान लेने की जिज्ञासा जागती थी। मैंने पहली बार यह सवाल
और उनके उत्तर पढे थे कि साबुन में झाग क्यों उठते हैं और वे कपड़े का मैल कैसे साफ
करते हैं, अथवा गर्म कढाही के तेल में पानी के छींटे पड़ने से छनाका क्यों होता है।
ये केवल प्रश्नोत्तर ही नहीं थे अपितु प्रश्नाकुलता भी बोते थे। पर्यटन, पुरातत्व,
और विदेश की घटनाओं पर भी दो एक लेख होते थे। कथा, कहानी, गीत कविता के साथ व्यंग्य
भी छपते थे और मैंने साहित्य में जगह बनाते शरद जोशी व के पी सक्सेना को पहली बार
इसी में पढा था। लेखक का पता भी छपता था जिसके सहारे पाठक और लेखक के बीच सीधा
सम्वाद बन सकता था। अनेक लेखकों से मेरे पत्र व्यवहार के सम्बन्ध इसी कारण से
सम्भव हुये थे। सबसे बड़ी बात थी कि रचना छपने के बाद जो फुटनोट की जगह बचती थी
उसको चुनिन्दा चुटकलों से भरा जाता था। उन दिनों रीडर्स डाइजेस्ट में दुनिया भर के
पाठकों के भेजे मौलिक लतीफों का एक स्तम्भ हुआ करता था जिसमें श्रेष्ठ लतीफे पर
भारत में पचास रुपये का पारिश्रमिक मिलता था जो उस समय पाठकों के लिए बड़ी राशि थी।
कादम्बिनी की रचनाओं के फुटनोट्स में भी उसी स्तर के लतीफे छपते थे। मैंने बाद में
धर्मयुग माधुरी, रंग, आदि पत्रिकाओं में जो वर्षों लतीफे लिखे उसकी प्रेरणा और
फार्मूला मुझे कादम्बिनी के लतीफे पढ कर ही मिला था। अनेक लतीफों की आत्मा को
ग्रहण करके उसे ताजा घटनाक्रम के साथ नया शरीर देता था और प्रशंसा खुद पाता था।
पहले कादम्बिनी में राशिफल भी छपता था किंतु एक बार बनारसीदास चतुर्वेदी ने
अपने भविष्य फल को पढने के बाद दोषी जी को पत्र लिखा था कि मुझ विधुर के भविष्यफल
में दाम्पत्य सुख की भविष्यवाणी की गयी है, इसे किस तरह लूं। इशारा समझ कर दोषीजी
ने यह स्तम्भ बन्द कर दिया था।
पुस्तकालय अपनी पुरानी पत्रिकाएं एक समय के बाद रद्दी में बेच देता था। ऐसी ही
एक बिक्री में किराना के एक दुकानदार ने उसकी सारी पत्रिकाएं खरीदी ली थीं जो
उन्हें रद्दी से अधिक दरों पर बेच रहा था। मैं तब कालेज में पढ रहा था, संयोग से
मैं किसी काम से उसकी दुकान पर पहुंच गया था और कादम्बिनियों के एक ढेर को उस समय जेब
में जितने पैसे थे उतनी खरीद लीं। दूसरे
ढेर को लेने जब दूसरे दिन गया तो दुकानदार को लगा कि जाने इनमें क्या है जो ये
इतने उत्साह से इसी ढेर को खरीद रहे हैं, हो सकता है कि इनका ज्यादा दाम मिले, सो उसने देने
से मना कर दिया। बहरहाल जो खरीदीं थीं उनको ही काफी लम्बे समय तक पढता गुनता रहा,
और ज्ञान सम्पन्न होता रहा। वे मेरे पांच राज्यों में हुये पन्द्रह स्थानांतरणों
में साथ गयीं और अब भी मेरे संग्रह का हिस्सा हैं।
मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि दोषी जी के असामायिक निधन के बाद यह
जिम्मेदारी राजेन्द्र अवस्थी जी को मिली थी, जिन्होंने पत्रिका को ज्योतिष तंत्र
मंत्र से लेकर सस्ती बाजारू पत्रिका बना कर रख दिया था, भले ही उसकी बिक्री बढ गयी
हो। इससे मुझे इस पत्रिका से अरुचि हो गयी थी। उन्होंने अपने पहले ही सम्पादकीय
में दोषी जी के खिलाफ विषवमन किया था और लिखा था कि उन्हें पोर्क्स्ंस की बीमारी
हो गयी थी जो सुअर के मांस खाने से होती है। इमरजैंसी का समर्थन करने वाले लेखकों
में उनका नाम प्रमुख रूप से समाचारों में आया था। इस सब के बाद मैंने कादम्बिनी की
तरफ देखा भी नहीं। सम्भवतः 2005 के आसपास विष्णु नागर के आने के बाद केवल एक
व्यंग्य लेख लिखा था, पर उसके बाद उन्होंने भी पत्रिका छोड़ दी थी।
एक बार दिल्ली प्रैस प्रकाशन के डायरेक्टर परेशनाथ ने जो भारतीय भाषा समाचार
पत्र प्रकाशन संगठन के अध्यक्ष भी रहे हैं, ने अपने भोपाल प्रवास के दौरान लेखकों
को मिलने के लिए बुलाया था। इस दौरान उन्होंने अपनी पत्रिका सरिता जो किसी समय
धार्मिक पाखंडों के खिलाफ खुल कर तर्क करने के लिए मशहूर थी के बारे में बताया था
कि कादम्बिनी और धर्मयुग सरिता का मुकाबला करने के लिए और कथित भारतीय संस्कृति के
बचाव के लिए ही निकाली गयी थीं। कलकत्ता में बिड़ला के निवास पर उनकी हर बहू के
कमरे में सरिता की प्रति देखी जाती थी। सो उन्होंने कादम्बिनी निकलवायी व साहू
शंति प्रसाद ने धर्मयुग निकलवाया जो उसके नाम से ही स्पष्ट है।
वैसे तो मुझे पता ही नहीं था कि कादम्बिनी अब भी निकल रही है, किंतु उसके बन्द
होने की खबर ने यादों को कुरेद दिया और भूला हुआ सब कुछ याद आ गया। रामानन्द दोषी
और उनका वह आखिरी नवगीत ‘ बस री पुरवैया, अब और नहीं बस ‘ मुझे रह रह कर याद आता
है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
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