रविवार, जून 02, 2019

काँग्रेस का इतिहास और उसका संकट


काँग्रेस का इतिहास और उसका संकट   

वीरेन्द्र जैन
काँग्रेस इस समय नेतृत्व के संकट से गुजरती हुयी बतायी जा रही है जबकि यह उसके नेतृत्व का नहीं अस्तित्व का संकट है। सच तो यह है कि दल के रूप में उसका अस्तित्व तो इन्दिरा जी के काल में ही समाप्त हो गया था। उसके बाद तो काँग्रेस की मूर्ति बना कर सत्ता अनुष्ठान चलता रहा है। अब उस सच की पहचान हो रही है।
सब जानते हैं कि काँग्रेस स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए गठित संगठन का नाम था जिस लक्ष्य को पाने के लिए ही सुभाष चन्द्र बोस और भगत सिंह ने अपना अलग मार्ग चुना था। आज़ादी के बाद गाँधीजी की इच्छा के विपरीत उसी संगठन को राजनीतिक दल के रूप में जारी रखने का फैसला किया गया। इसी में से समाजवादी जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया आदि निकले। कम्युनिष्ट पार्टी के प्रमुख नेताओं ने भी अपनी विचारधारा के साथ साथ आज़ादी के लिए काँग्रेस में रह कर काम किया था। बाद में कम्युनिष्ट पार्टी पहले दो आम चुनावों में समुचित सीटें जीत कर मुख्य विपक्षी दल रही। दूसरी ओर आरएसएस जैसे हिन्दूवादी संगठन थे जो हिटलर और मुसोलिनी से प्रभावित थे व अंग्रेजों की जगह मुसलमानों को अपना मुख्य दुश्मन मानते थे। वे अंग्रेजों को बनाये रखना चाहते थे और अंग्रेजों से लड़ने वाली हिन्दू मुस्लिम सबकी साझा पार्टी काँग्रेस व उसके स्वतंत्रता आन्दोलन को पसन्द नहीं करते थे। इसी तरह भारतीय संविधान के निर्माता अम्बेडकर जी थे जो मानते थे कि जातियों में बंटे समाज में जब आज़ादी मिलेगी तो वह ऊंची कही जाने वाली जातियों को ही मिलेगी इसलिए जाति मुक्त समाज का निर्माण पहली आवश्यकता है। गाँधीजी आजादी के लिए सभी धाराओं के बीच समन्वय स्थापित करने वाले व्यक्ति थे।
गाँधीजी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबन्ध लगाया गया था, जिसको हटाने की शर्त के रूप में उन्होंने सरदार पटेल को वचन दिया था कि संघ कभी राजनीति में भाग नहीं लेगा, किंतु उन्होंने कुछ समय बाद अपने स्वयं सेवक भेज कर भारतीय जनसंघ का गठन करा दिया था, जो अब भाजपा के नाम से उसी का आनुषंगिक संगठन बना हुआ है। भाजपा पूरी तरह संघ से ही नियंत्रित होती है व जिसके हर स्तर के संगठन सचिव के रूप में आरएसएस का प्रचारक ही नियुक्त किया जाता है। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान सक्रिय कांग्रेसियों का सत्ता पर स्वाभाविक हक बनता था। काँग्रेस के स्वरूप को ध्यान में रख कर समन्वयवादी नेहरूजी ने अपने मंत्रिमंडल में एक ओर हिन्दूवादी श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सम्मलित किया था दूसरी ओर अम्बेडकर जी को भी मंत्री बनाया था। उनके सामने विपक्ष में एक भिन्न विचार लेकर केवल कम्युनिष्ट पार्टी थी जो कहीं कहीं किसानों मजदूरों को उनकी मांगों के लिए संगठित तो कर सकती थी किंतु विचार के रूप में केवल उच्च राजनीतिक चेतना को ही सम्बोधित कर सकती थी। उसके विचार को स्थापित न होने देने के लिए पूंजीवादी घरानों द्वारा विभिन्न प्रकार की संघ की मदद से झूठी धारणाएं फैलायी जा रही थीं। बम्बई की कपड़ा मिलों की हड़ताल के बाद वे तेलंगाना किसान आन्दोलन के दौरान सशस्त्र संघर्ष कर चुके थे। केरल में बनी पहली गैर कांग्रेसी कम्युनिष्ट सरकार को धारा 356 का दुरुपयोग करके भंग किया गया था।
1967 में पहली संविद सरकार बनने से पहले तक काँग्रेस माने सरकार होता था। सामाजिक समरसता के लिए कृतज्ञ दलित जिन्हें तब हरिजन नाम से पुकारा जाता था और हिन्दू महासभा व आरएसएस के कट्टर हिन्दुत्व से आशंकित मुसलमान काँग्रेस का स्थायी वोटर था व शेष वोट तो उसे सत्ता की धमक और चमक से मिल जाते थे। पहले आम चुनावों तक काँग्रेस को चुनाव जीतने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता था। उसे पहली बड़ी चुनौती 1967 में मिली। तब तक चीन के साथ हुये सीमा विवाद में देश पीछे हटने को मजबूर हो चुका था। कम्युनिष्ट पार्टी का विभाजन हो चुका था। जवाहर लाल नेहरू का निधन हो चुका था, उसके बाद बने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को पाकिस्तान के साथ युद्ध करना पड़ा था और तास्कन्द समझौते के समय उनकी भी मृत्यु हो गयी थी। प्रधानमंत्री पद के लिए इन्दिरा गाँधी को मोरारजी देसाई के समक्ष बहुमत के आधार पर कांग्रेस कार्य समिति में हुए मतदान से चुना गया था। देश में अभूत पूर्व खाद्य संकट आ चुका था जिसकी स्तिथि यह थी कि शास्त्री जी को देशवासियों से एक दिन उपवास करने के लिए कहना पड़ा था। कांग्रेसियों को सत्ता सुख का चश्का लग चुका था और वे आपस में प्रतियोगिता करते हुए गुटबाजी करने लगे थे। सरकार कमजोर हो रही थी और उसी समय वरिष्ठों के नेतृत्व ने इन्दिरा गाँधी को हटाने के लिए एकजुट होना शुरू कर दिया जिसकी भनक लगते ही श्रीमती गाँधी ने राष्ट्रपति चुनाव में वामपंथियों के उम्मीदवार को आत्मा की आवाज पर मत देने का सन्देश दे, काँग्रेस को विभाजित कर दिया। उससे पहले उन्हें बहुमत के लिए वामपंथियों का सहारा लेना पड़ा जिन्होंने बड़े बैंकों व बीमा कम्पनियों के राष्ट्रीयकरण तथा पुराने राज परिवारों को मिलने वाले प्रिवी पर्स व विशेष अधिकारों को समाप्त करने की शर्त पर समर्थन दिया। श्रीमती गाँधी को यह सब करना पड़ा। इसी के साथ उन्होंने खुद को प्रगतिशील प्रचारित करते हुए काँग्रेस को केन्द्र से वाम की ओर झुकाव वाली पार्टी दिखाने की कोशिश की। इसका व्यापक प्रभाव हुआ और वे पुराने काँग्रेसियों समेत जनसंघ सोशलिस्टों आदि को हाशिए पर समेटने में सफल हो गयीं। सीपीआई के साथ उनका समझौता हो गया व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सोवियत रूस उनका मददगार हो गया। यही वह समय था जब सारी दक्षिणपंथी ताकतें व विश्व पटल पर अमेरिका उनके खिलाफ हो गया, देश में आन्दोलन शुरू हो गये व एक चुनाव याचिका में आये फैसले के बहाने उनके तख्ता पलट की तैयारियां होने लगीं। यही कारण था कि उन्होंने इमरजैंसी लगा दी। इस इमरजैंसी में उन्होंने न केवल विपक्षी नेताओं को ही जेल में बन्द कर दिया अपितु अपनी पार्टी के लोगों पर भी लगाम लगाने के लिए पूरी पार्टी को अस्थायी समितियों के द्वारा संचालित कर नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। दूसरी तरफ उन्होंने संजय गाँधी को आगे कर सीपीआई को किनारे कर दिया क्योंकि अब उनके पास समुचित बहुमत था। यही समय संजय गाँधी के उफान और काँग्रेस के पुराने ढांचे के चरमरा कर इन्दिरा काँग्रेस में बदलने का था। इमरजैंसी हटने और चुनावों में काँग्रेस की बुरी पराजय के बाद जगजीवन राम, हेमवती नन्दन बहुगुणा, नन्दिनी सत्पथी व चन्द्र शेखर , मोहन धारिया, जैसे युवा तुर्क अलग हो चुके थे। किंतु देश में काँग्रेस जैसी देशव्यापी कोई दूसरी पार्टी नहीं थी इसलिए जनसंघ की मदद से बनी जनता पार्टी के प्रयोग ने जल्दी ही श्रीमती गाँधी को फिर मौका दे दिया। सरकार बनते ही उन्होंने काँग्रेस में अपने से बड़ा दूसरा नेतृत्व न उभरने देने का फैसला किया। दुर्भाग्य से संजय गाँधी का एक हवाई दुर्घटना में निधन, खालिस्तान आन्दोलन, और स्वर्ण मन्दिर घटनाक्रम के बाद उनके सिख गार्डों द्वारा उनकी हत्या तक काँग्रेस उनके परिवार की जेबी पार्टी बन चुकी थी। यही कारण रहा कि उनकी मृत्यु के बाद वरिष्ठ नेता प्रणव मुखर्जी की जगह राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री बनाना पड़ा। राजनीति में आने के अनिच्छुक रहे राजीव गाँधी अपनी साफसुथरी मनमोहक छवि के बाबजूद एक कमजोर प्रधानमंत्री थे। वे बोफोर्स तोप खरीद के चक्कर में फंस गये व उनके ही वित्त मंत्री ने विद्रोह करके उनसे सत्ता छीन ली। यही समय था जब जनसंघ से भाजपा बन चुकी पार्टी ने काँग्रेस के विकल्प बनने का सपना देखना शुरू कर दिया। 1984 के चुनावों में दो तक सिमटने के बाद भी उसे खाली जगह दिख रही थी इसलिए उसने राम मन्दिर और मण्डल विरोध का अभियान छेड़ा, जिसमें उसे सफलता मिलती गयी। जिस दर से काँग्रेस  सिमिट रही थी उसी दर से भाजपा बढ रही थी। 1989 में राजीव गाँधी की हत्या के बाद उनकी पत्नी सोनिया गाँधी ने राजनीति में आने से मना कर दिया जिससे काँग्रेस सर्व स्वीकृत नेतृत्व से वंचित हो गयी। अर्जुन सिंह, नारायन दत्त तिवारी, नरसिम्हा राव, प्रणव मुखर्जी, सीताराम केसरी आदि अनेक नेता नेतृत्व के सपने देखने लगे थे। इस बीच जिसको भी नेतृत्व मिला वह समझौते के रूप में मिला। वैसे भी 1989 के बाद लगातार गठबन्धन सरकारें रहीं जिन्हें हर बार सहयोगियों के साथ सौदा करना पड़ता था। संगठन और चुनावों में क्षीण होती जा रही काँग्रेस के नेता सत्ता से दूर नहीं रह सकते थे इसलिए सबने मिल कर सोनिया गाँधी से नेतृत्व का निवेदन किया जो क्षमता, भाषा, संस्कृति, स्वभाव, व बुरे अनुभवों के कारण बिल्कुल भी रुचि नहीं रखती थीं। किंतु आग्रहों व दूरदर्शिता के कारण उन्होंने प्रतीकात्मक रूप से नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया।
काँग्रेस पार्टी बिल्कुल समाप्त हो चुकी थी किंतु पुराना ढांचा मजबूत था। अब काँग्रेस कहीं से नहीं जीतती थी अपितु अपने निजी प्रभाव से काँग्रेस के चुनाव चिन्ह पर काँग्रेसी व्यक्ति जीतते थे। ऐसे सब लोग गाँधी नेहरू परिवार की सदस्य होने के कारण सोनिया गाँधी को नेता माने हुये थे। वे प्रसन्नता में टिकिट तो दे सकती थीं किंतु किसी को सजा नहीं दे सकती थीं। काँग्रेस में अनेक गुट हो चुके थे और सारे लोग निजी हित के लिए राजनीति कर रहे थे काँग्रेस की चिंता किसी को नहीं थी। पार्टी की उपयोगिता केवल चुनाव चिन्ह या कार्पोरेट घरानों से प्राप्त चन्दे को चुनाव खर्च के नाम हथियाने तक थी। मणिशंकर अय्यर, दिग्विजय सिंह, शशि थरूर आदि कभी साम्प्रदायिकता के खिलाफ बयान दे देते थे और संघियों के निशाने पर आ जाते थे। पर तब दूसरे काँग्रेसी उनके बचाव में भी खड़े नहीं होते थे, जिससे काँग्रेस का बिखराव देख संघ परिवारियों को बड़ा बल मिलता था।
2004 में अटल बिहारी के नेतृत्व वाली सरकार का गठबन्धन चुनाव में समुचित सीटें नहीं ला सका और कम्युनिष्टों सहित गैर भाजपाई दल बड़ी संख्या में चुनाव जीते। कम्युनिष्ट भाजपा को समर्थन दे नहीं सकते थे इसलिए यूपीए का गठन हुआ जिसमें उन्होंने काँग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार को बाहर से समर्थन देना मंजूर कर लिया। भाजपा द्वारा सोनिया गाँधी को विदेशी बता कर भारी शोरगुल और तमाशे किये गये जिससे उन्होंने अपने समर्थन को मनमोहन सिंह को सौंप दिया। सत्ता सुख मिलने तक काँग्रेसी काँग्रेस से जुड़े रहे। इन दस सालों में भाजपा ने अपनी मर्जी से ही सदन चलने दिया, पर काँग्रेसियों को सदन की चिंता नहीं सतायी। वे तो चाहते थे कि सरकार चलती रहे। भाजपा ने यूपीए के शासन काल के दस साल लगातार संगठन और चुनावी तैयारियों में लगाये व उचित प्रबन्धन व रणनीतियों से 2014 के आम चुनाव में विजय प्राप्त की। मौका देख कर बहुत सारे काँग्रेसी भाजपाई हो गये और उनके लक्ष्य को देखते हुए ऐसा करने में उन्हें कोई हिचक नहीं हुयी।  2024 से 2019 का समय राहुल गाँधी द्वारा भाषण देना और किताबी नेतृत्व को सीखने का समय था। मोदी व संघ परिवार द्वारा किये गये कारनामे जनता व साम्प्रदायिक सद्भाव के विरुद्ध थे, वे कोई वादा पूरा नहीं कर सके थे, इसलिए काँग्रेसी नकारात्मक समर्थन मिलने की उम्मीद में सत्ता के सपने देखने लगे। कुछ राज्यों में मामूली अंतर से राज्य सरकारें बदल जाने से भी उन्हें गलतफहमी हुयी। परिणाम यह हुआ कि मोदी शाह के प्रबन्धन वाली भाजपा भावुक नारों के आधार पर चुनाव जीत गयी व काँग्रेस अपनी उम्मीदों से बहुत पीछे रही।
अभी उसमें सत्ता सुख व लाभ के लिए चुनाव जीतने को उतावले नेता हैं और उनका गिरोह है। पर, इन्हें काँग्रेस के उद्देश्यों का पता नहीं है इसलिए किसी त्याग का तो सवाल ही नहीं उठता। इसकी रैली जलूसों में जाने वाले या तो क्षेत्रीय नेता से उपकृत भक्त लोग होते हैं या पैसा देकर जुटाये गये दिहाड़ी मजदूर होते हैं।  
भाजपा ने काँग्रेस मुक्त भारत की जो कल्पना की है, उस ओर काँग्रेस स्वयं बढ रही है। भारतीय विश्वासों में दूसरा जीवन मृत्यु के बाद ही प्राप्त होता है। काँग्रेस बच सकती है अगर वह अपने को भंग कर दे और उचित कार्यक्रम के साथ कठोर अनुशासन वाले नये संगठन के साथ उभरे। काँग्रेस का नया कार्यक्रम बनाया जा सकता है  और उस कार्यक्रम पर सहमत लोगों को संगठन के नियमों व अनुशासन के पालन की शर्त पर ही सदस्य बनाया जा सकता है। काँग्रेस चलाने के लिए धन की कमी नहीं है स्वतंत्रता आन्दोलन वाले त्याग की कमी है।
 वीरेन्द्र जैन
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