शनिवार, दिसंबर 28, 2019

‘मैटिनी शो’ महिला निर्देशकों की फिल्मों पर आधारित समारोह


‘मैटिनी शो’ महिला निर्देशकों की फिल्मों पर आधारित समारोह
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों भोपाल में मध्यप्रदेश महिला मंच और इंटरनैशनल एसोशिएन आफ विमेन इन रेडियो एंड टेलीविजन [इंडिया चैप्टर] की ओर से महिलाओं द्वारा निर्देशित फिल्मों का तीन दिवसीय समारोह आयोजित हुआ जिसमें डाक्यूमेंटरी/ शार्ट फिल्म/ एनिमेशन एक्स्पेरीमेंटल तरह की 29 फिल्मों का प्रदर्शन हुआ। कार्यक्रम का नाम ‘द मैटिनी शो’ रखा गया था। यद्यपि यह एक ज़ेन्डर आधारित प्रदर्शन था किंतु फिल्मों की विषयवस्तु और निर्माण के आधार पर ऐसा कोई भेद महसूस नहीं किया जा सकता था। वैसे भी फिल्म भले ही डायरेक्टर’स मीडिया माना जाता हो किंतु उसके निर्माण में कुल व्यक्तियों की जो संख्या लगती है उससे उसे किसी ज़ेंडर विशेष की फिल्म नहीं माना जा सकता। इस समारोह की अधिकांश फिल्में भी ऐसी ही थीं। फिल्मों की अवधि दो घंटे से लेकर 6 मिनिट तक थी। इसमें राजनीतिक फिल्मों से लेकर बच्चों की फिल्मों तक विविधता थी।
अनियमित कोयला मजदूर बाबूलाल भुइंया के औद्योगिक सुरक्षा बल द्वारा मार दिये जाने व उसके बलिदान से अन्य मजदूरों में पैदा हुयी जागरूकता की कहानी से समारोह का प्रारम्भ हुआ, तो इसमें पंजाब में नशे की आदत से मुक्त कराने वाले पुनर्वास केन्द्रओं द्वारा उनके परिवारों की भूमिका को रेखांकित किया गया था। समारोह में हैदराबाद विश्व विद्यालय के प्रतिभाशाली दलित छात्र रोहित वेमुला को आत्महत्या के लिए विवश करने के प्रतिरोध में उसके अंतिम पत्र से जनित छात्र उत्तेजना की कथा कहने वाली फिल्म भी थी। 2002 में हुये साम्प्रदायिक नरसंहार में अपने जले हुये घर को देख कर नास्टलाजिक होते सायरा और सलीम की फिल्म भी थी।
जीवन और राजनीतिक संघर्ष में महिलाओं की भूमिका को दर्शाने वाली फिल्में भी समुचित संख्या में थीं। इन फिल्मों में कश्मीर की महिलाओं का प्रतिरोध आन्दोलन भी था जो गीतों, तस्वीरों और साक्षात्कार के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। उत्तरी छत्तीसगढ के बलरामगढ जिले की किशोरी मीना खाल्को की पुलिस मुठभेड़ में की गयी हत्या से पहले यौन हिंसा को दबाने की कोशिश और दोषियों को दण्डमुक्त हो जाने पर फिल्म ‘एनकाउंटरिंग इनजस्टिस’ भी है। सत्ता के खिलाफ सच बोलने का साहस करती महिला पत्रकारों द्वारा चुकाई गयी कीमत को दर्शाती फिल्म ‘वैलवेट रिवोल्यूशन’ है जिसे छह महिला निर्देशकों ने अपने अपने आब्जर्वेशनों से बनाया है। जो लोग धर्म नैतिकिता और जातिवाद के सहारे राजनैतिक चालें चल रहे हैं उनके बारे में बताने वाली फिल्म ‘तुरुप’ है।
इस समारोह में जीवन के विभिन्न रंगों को दिखाने वाली फिल्में भी थीं जो पीछे जाकर भी देखती हैं। ऐसी ही भावुक कर देने वाली फिल्म ‘द अदर सोंग’ है जो बनारस व लखनऊ की तवायफों के अतीत में ले जाकर उनकी वर्तमान दशा को बताती है। ‘पिछला वरका’ में पाकिस्तान छोड़ कर आयी महिलाएं ताश के पत्तों में अपनी दुपहरियां बिताती हुई अतीत की यादों को कुरेदती रहती हैं। एक महत्वपूर्ण फिल्म ‘बाल्खम हिल्स अफ्रीकन लेडी ट्रुप’ है जो विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक कारणों से यौन हिंसा का शिकार हुयी चार महिलाओं द्वारा एक थिएटर ग्रुप के माध्यम से अपनी कहानी कहने पर बनी फिल्म है। इस अभिव्यक्ति से वे अपने शोषण से जन्मी हीन भावना और मानसिक प्रताड़ना से मुक्ति पाती हैं। ट्रांस ज़ेंडर की समस्याओं और उनके बारे में नासमझियों को बताती फिल्म ‘बाक्स्ड’ है तो हैदराबाद में शेखों द्वारा लड़कियों की खरीद फरोख्त और उनके यौन शोषण और उससे आज़ादी की कहानी कहती फिल्म ‘स्टिल आई राइज’ है। दृढतापूर्वक दहेज का विरोध करती लघु फिल्म ‘अपराजिता’ है, तो वज़न कम करने के चक्कर में कुछ और खोज लेने की कहानी ‘डब्ल्यू स्टेन्ड्स फार’ है। अपने पुरुष मित्र के घर में उसकी माँ द्वारा मासिक धर्म के दाग लगने पर किया गया व्यवहार व पुरुष मित्र की प्रतिक्रिया के बाद उसके बारे में विचार बदल देने की कथा ‘स्टैंस’ में कही गयी है। पश्चिमी बंगाल के नन्दीग्राम में दो लड़कियों की आत्महत्या और उनके परिवारियों के व्यवहार पर ‘इफ यू डेयर डिजायर’ है। हर रोज हिंसा का सामना करने वाले कश्मीर में सामाजिक मानदण्डों से उबरने के लिए कला का सहारा लेने के प्रयास की कहानी ‘द स्टिच’ है। ‘डेविल इन द ब्लैक स्टोन’ में बीड़ी बना एक साथ रहने वाली तीन महिलाएं प्रति परिवार दस किलो चावल दो रुपये किलो मिलने की खबर सुन अलग अलग झोपड़ी बना लेती हैं, किंतु जिस को सर्वेक्षणकर्ता समझ रही होती हैं वह मस्जिद के लिए चन्दा मांगने वाला निकलता है और तीनों घरों को चन्दा एकत्रित करने के लिए अलग अलग डब्बा थमा कर चला जाता है। गुस्से में वे डिब्बा फेंक देती हैं।
प्लास्टिक कचरे पर बनी ‘पिराना’, पुराने जहाजों को तोड़े जाने वाले चिटगाँव बन्दरगाह पर बनी ‘द लास्ट राइट्स’ चाय की बदलती दुकानों और बेचने वालों पर बनी फिल्म ‘चाय’ है तो आवासीय विद्यालय में दृष्टि विकलांगों पर केन्द्रित फिल्म ‘कोई देखने वाला है’ भी दिखायी गयी हैं।
एक बच्चे के जन्मदिन पर उसके पिता द्वारा केक का आर्डर देने वाली दुकान की तलाश और बच्चे की मनमानियों की कहानी ‘द केक स्टोरी’ है जिसमें बच्चे ने बेहतरीन एक्टिंग की है। इसके साथ ही साथ ‘केली’ ‘फ्राइड फिश’ ‘डिड यू नो’ ‘अद्दी’ और ‘डेजी’ एनीमेशन फिल्में थीं।
सच है कि मैटिनी शो स्वतंत्र महिलाओं का शो ही रहता आया है। शायद यही सोच कर आयोजकों ने इस समारोह क नाम ‘मैटिनी शो’ रखा होगा। सिनेमा में रुचि रखने वालों, लघु फिल्म निर्माताओं, औए फिल्म समीक्षकों की संख्या कुछ और अधिक रुचि लेती तो उत्तम था।
वीरेन्द्र जैन
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