श्रद्धांजलि/
संस्मरण- स्वयं प्रकाश
जितने वजनदार उतने
ही विनम्र थे स्वयं प्रकाश
वीरेन्द्र जैन
मैं लम्बे समय तक कहानियों का नियमित पाठक रहा हूं जिसका शौक कमलेश्वर के
सम्पादन के दौर में निकलने वाली सारिका से लगा था। सारिका के समानांतर कथा आन्दोलन
के दौर में जो कहानियां लिखी गयीं, उनके बारे में कहा जा सकता है कि अगर प्रेमचन्द
आज लिख रहे होते तो वैसी ही यथार्थवादी कहानियां लिखते। मुझे याद नहीं कि मैं कब
किस कहानी को पढ कर स्वयं प्रकाश का प्रशंसक बन गया पर उनका नाम मेरे लिए ऐसा
ब्रांड बन चुका था जिसे किसी पत्रिका में देख कर मैं सबसे पहले उसी कहानी को पढता
था, और उन्होंने कभी निराश नहीं किया। सारिका के अलावा अनेक लघु पत्रिकाओं में
उनकी कहानियां मिल जाती थीं जिनमें सव्यसाची जी द्वारा सम्पादित उत्तरार्ध
[उत्तरगाथा], ज्ञानरंजन जी के सम्पादन में निकलने वाली पहल, कमलाप्रसाद जी द्वारा
सम्पादित वसुधा, से रा यात्री द्वारा सम्पादित वर्तमान साहित्य आदि तो थी हीं, धर्मयुग
और हंस में भी पढने को मिल जाती थीं। वैसे उनकी कहानियां हिन्दी की सभी लघु और बड़ी
पत्रिकाओं में छपती रहीं हैं। मेरे पढने की सीमा था उनके छपने की कोई सीमा नहीं
थी।
उनसे पहली मुलाकात भारत भवन के किसी कार्यक्रम में हुयी थी जिसमें वे आमंत्रित
थे और बगल में एक थैला दबाये हुये सीढियां उतर रहे थे। थैला उस रैग्जिन का बना था
जिसे आमतौर पर रोडवेज बसों के कंडैक्टर- ड्राइवर सीट पर चढी हुयी गहरे हरे से रंग
की रेग्जिन से बनवा लेते रहे हैं। उनकी इस सादगी भरी पहचान की चर्चा कभी श्री राज
नारायण बौहरे और प्रो. के बी एल पांडेजी कर चुके थे। आमंत्रितों में उनका नाम था
इसलिए थैला देख कर ही मैंने पहचान लिया था। मैंने पुष्टि करने के अन्दाज में पूछा
था- स्वयं प्रकाश जी? उन्होंने बिन मुस्कराये या पहचाने जाने की खुशी के विनम्र
सहमति में सिर हिलाया, और पूछा आप? मैंने अपना नाम बताया और कहानी उपन्यास के
क्षेत्र में गलतफहमी से बचाने के लिए कहा कि मैं दतिया वाला हूं, डूब वाला नहीं। वे
बोले कि डूब वालों को मैं पहचानता हूं और फिर गत महीने हंस में किसी कहानी पर छपी
मेरी पत्र प्रतिक्रिया की चर्चा की व प्रशंसा करते हुए कहा कि वह संतुलित टिप्पणी
थी। मैं धन्य हो गया था और लगा था कि छोटे छोटे प्रयास भी बेकार नहीं जाते। बाद
में राजेन्द्र यादव जी से भी मेरी इस बात पर सहमति बनी थी कि मैं कहानियों पर
टिप्पणियां ही लिखा करूंगा और मैंने अनेक वर्षों तक हंस में कहानियों पर पत्र
टिप्पणियां लिखीं, जिसे मैं पाठकीय समीक्षा मानता रहा।
दूसरी मुलाकात इस मुलाकात के एकाध वर्ष के अंतराल में ही हुयी थी जब वे बनमाली
पुरस्कार ग्रहण करने आये थे। इस अवसर पर उनके द्वारा कही गयी बातों का मुझ पर बहुत
गहरा असर हुआ था। इसमें उन्होंने कहा था कि “जूलियस फ्यूचक के अनुसार लेखक तो जनता
का जासूस होता है जिसे हर अच्छी- बुरी जगह जाकर जानकारी एकत्रित करना होती है,
इसलिए वह कथित सामाजिक नैतिकिता की परवाह में किसी जगह प्रवेश से खुद को रोक नहीं
सकता। उसे चोर, उचक्कों. सेठों और शराबियों, सबके बीच जाना पड़ेगा। मैंने अच्छा
कामरेड दिखने की कोशिश में अपनी अज्ञानता में भूल कर दी कि बहुत लम्बे समय तक किसी
धर्मस्थल में नहीं गया। अब मुझे पता ही नहीं कि मन्दिर में क्या क्या बदमाशियां चल
रही हैं या वहां का कार्य व्यवहार कैसे चलता है”।
2001 में मैं पुनः भोपाल आकर रहने लगा व उसके कुछ ही वर्ष बाद स्वय़ं प्रकाश जी
भी सेवा निवृत्त होकर भोपाल रहने लगे। मेरे एक साहित्यकार मित्र जब्बार ढाकवाला आई
ए एस थे और वे भी स्वयं प्रकाश जी के लेखन को बहुत पसन्द करते थे। उनके पास समुचित
संसाधन थे किंतु वे बड़े पद के कारण घिर आने वाले अयोग्य व चापलूस साहित्यकारों से
दूर भी रहना चाहते थे इसलिए उन्होंने एक छोटा सा ग्रुप बना लिया था जो किसी न किसी
बहाने लगभग साप्ताहिक रूप से मिल बैठ लेता था। इसमें ढाकवाला दम्पत्ति के अलावा
डा. शिरीष शर्मा, उर्मिला शिरीष, डा, विजय अग्रवाल प्रीतबाला अग्रवाल, आदि तो थे व
अवसर अनुकूल आमंत्रितों में स्वयं प्रकाशजी, गोबिन्द मिश्र, डा. बशीर बद्र, डा.
ज्ञान चतुर्वेदी, अंजनी चौहान, श्रीकांत आप्टे, मुकेश वर्मा,बनाफर चन्द्र आदि आदि भी
होते थे। बाद में व्यापक स्तर तक चलने वाले स्पन्दन पुरस्कारों की श्रंखला का
विचार भी इसी ग्रुप के विचार-मंथन से निकला था। ढाकवाला दम्पत्ति बाहर से आने वाले
प्रमुख व चर्चित साहित्यकारों की मेजबानी करने में प्रसन्नता महसूस करते थे। मैं
स्थायी आमंत्रित था इसलिए मुझे अनेक ऐसे
लोगों से निजी तौर पर मिलने का मौका मिला जिनसे मैं इतनी निकटता से अन्यथा नहीं
मिल पाता। इसी मिलन में हम लोग जन्मदिन मनाने की कोशिश भी करते थे और स्वयं प्रकाश
जी का साठवां जन्मदिन भी मनाया था जिसमें उनसे कुछ बेहतरीन कहानियां सुनी थीं। इस
अवसर पर एक रोचक प्रसंग यह हुआ कि जब वे बाहर जूते उतारने लगे तो मौसम को देखते
हुए मैंने कहा कि पहिने आइए, आजकल तो सभी घरों में चलते हैं। स्वयं प्रकाशजी ने
कहा कि तुम व्यंग्यकार लोग किसी को नहीं छोड़ते, कि तभी जब्बार ने कहा कि तुम्हें
कैसे पता कि आज मेरा और तन्नू जी [उनकी पत्नी] का झगड़ा हुआ है। उनका जन्मदिन
ठहाकों से ही शुरू हुआ था। उनकी बेटी की शादी में लड़के वालों ने मैरिज गार्डन के
बाहर बैनर लगवा दिया था ‘ भटनागर परिवार आपका स्वागत करता है ‘। मैंने मजाक में उनसे
कहा कि मुझे पता नहीं था कि आप भटनागर हैं, तो वे धीरे से बोले कि मुझे भी खुद पता
नहीं था। फिर इतने जोर से ठहाका लगा कि आसपास लोग देखने लगे।
वे जितने बड़े लेखक थे उतने ही सादगीपसन्द और विनम्र थे। मुझे दूर दूर तक हुये अपने
बार बार ट्रांसफरों के कारण अनेक लेखकों से मिलने का मौका मिला है जो अधिक से अधिक
समय अपने बारे में ही बात करना पसन्द करते हैं या अपनी बातचीत में वे बार बार ‘सुन्दर
वेषभूषा’ में उपस्थित हो जाते हैं। स्वयंप्रकाश जी को मैंने कभी अपने बारे में बात
करते हुए या अनावश्यक रूप से खुद को केन्द्र में लाते नहीं देखा। एक बार एक
स्थानीय पत्रिका के नामी सम्पादक ने जनसत्ता में प्रकाशित उनके एक लेख को बिना
पूछे अपनी पत्रिका में छाप लिया। मैंने फोन करके उनसे जानकारी होने के बारे में
पूछा तो उन्होंने इंकार कर दिया, बोले जनसता अकेला अखबार है जो अपनी प्रकाशित
सामग्री पर कापीराइट रखता है और इस आशय का नोट अपनी प्रिंट लाइन में लिखता है।
मैंने उन्हें पत्रिका का अंक उपलब्ध करवा दिया किंतु उन्होंने उन्हें फोन तक नहीं
किया। दिल्ली के एक प्रकाशक मेरे घर आकर रुकते थे और चाहते थे कि मैं उन्हें भोपाल
के लेखकों से मिलवाऊं। मैंने यह काम किया भी और अन्य लोगों के अलावा उन्हें
स्वयंप्रकाश जी से भी मिलवाया था। मेरे अनुरोध पर उनको एक किताब भी देने का वादा
किया था, बाद में उनके अनुभव उस प्रकाशक के बारे में अच्छे नहीं रहे। पर उस
प्रकाशक से मेरे अनुभव भी कहाँ अच्छे रहे थे!
उनके उपन्यास ‘ईंधन’ पर मैंने पाठक मंच के लिए समीक्षा लिखी तो उसे लगे हाथ छपने
के लिए भी भेज दी. जिसे लोकमत समाचार नागपुर ने तुरंत छाप दी, जो शायद पहली
समीक्षा थी। कुछ दिनों बाद मिलने पर मैंने उनकी प्रतिक्रिया जानना चाही तो बोले
अरे तुम्हारी समीक्षा थी, मैं तो दिल्ली वाले वीरेन्द्र जैन को पत्र लिखने वाला
था। उनकी बीमारी की खबर जब कुछ देर से मुझे मिली तो मैंने फोन कर पूछा, किंतु उन्होंने कहा कि मैं बिल्कुल
ठीक हूं, कोई बात नहीं। बात बदल कर वे दूसरी बातें करते रहे। जबकि सच यह था कि
उन्हें ऐसी बीमारी थी जो आम लोगों को होने वाली सामान्य बीमारी से बिल्कुल अलग थी।
उनका हीमोग्लोबिन खतरनाक रूप से बढ जाता था। डायलिसिस के अलावा डाक्टरों के पास
कोई इलाज नहीं था।
पिछले दिनों जब उन्हें म.प्र. सरकार
का शिखर सम्मान घोषित हुआ था तब मुँह से बेशाख्ता निकला था- बहुत सही फैसला। वैसे
पुरस्कार/ सम्मान उन्हें पहले भी बहुत मिल
चुके थे जिनमें से कोई भी उनके पाठकों द्वारा उनकी कहानियों, उपन्यासों की बेपनाह
पसन्दगी से बड़ा नहीं था। आमजन की कहानियों को उन्हीं की भाषा में कहते हुए भी वे
जिस विषय को उठाते थे उसमें ताजगी होती थी, वह अभूतपूर्व होता था। कथा इस तरह से
आगे बढती थी जैसे वीडियोग्राफी की जा रही हो, बनावट बुनाहट बिल्कुल भी न हो। उनके
कथानकों में झंडे बैनर नारे कहीं नहीं दिखते थे पर फिर भी वे वह बात कह जाते थे
जिसे दूसरे अनेक लेखक उक्त प्रतीकों के बिना नहीं कह पाते।
विभिन्न सामाजिक विषयों पर लिखे गये उनके लेखों का संग्रह ‘रंगशाला में दोपहर’
को पढने के बाद मैंने भी अपने बिखरे बिखरे विचारों को लेखबद्ध किया जो विभिन्न समय
पर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुये, अन्यथा वे केवल निजी बातचीत का
विषय होकर रह जाते। उनकी अलग अलग कहानियों के गुणों पर बहुत सारी बातें की जा सकती
हैं, पर अभी नहीं।
उन्हें पूरे दिल से श्रद्धांजलि। उनका साथ, उनकी कहानियां व उनके पात्र जीवन
भर साथ रहेंगे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
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