शनिवार, अक्तूबर 20, 2012

सड़क पर धर्म


सड़क पर धर्म
वीरेन्द्र जैन

     एक समय था जब लोग धर्म के लिए धार्मिक स्थलों और धर्म के पालकों व प्रचारकों  के पास स्वयं जाते थे, किंतु प्रत्येक धर्म में उसके जन्म के एक निश्चित समय के बाद पाखंड और जड़ता घर करती जाती है तथा धर्म के बारे में बिना प्रश्न किये विश्वास करने की परंपरा के कारण कुछ निहित स्वार्थ अपना उल्लू सीधा करने लगते हैं। यही कारण होता है कि निश्चित समय खण्ड (युग) के बाद एक प्रवर्तक नया धर्म प्रारम्भ करता है। दो धर्मों के संधि काल में धर्म प्रचारकों के हित में लगी हुयी ताकतों के भय से व्यक्ति अपनी शंकायें और असहमतियां तो प्रकट नहीं कर पाता किंतु वह उस युग के तथाकथित धार्मिक स्थलों और व्यक्तियों से बचने लगता है।

इस दौर में अपने कमजोर होते अस्तित्व को बचाने के लिए अब धर्म स्वयं ही सड़क पर उतर आने को मजबूर हो गया है व तथा कथित धर्म प्रचारक अपने आश्रमों को छोड़ छोड़ कर नगर नगर घूमते फिरने लगे हैं। उनका यह कहना कि वे अपने शिष्यों के विशेष आग्रह पर पधारे हैं लगभग ऐसा ही होता है जैसे कोई सिनेमा हाल वाला लाउडस्पीकर से प्रचारित करवाता है कि जनता की जबरदस्त मांग पर फलां फलां फिल्म लग गई है। यह किसी को भी नहीं पता कि जनता ने कब किससे कहाँ पर यह जबरदस्त मांग की हुयी होती है।

     आज धर्म का मंदिरों मस्जिदों आश्रमों में दम घुटने लगा है इसलिए वह खुली हवा में सड़क पर पसरने लगा है जहाँ रास्ते से गुजरने वालों को अपने भक्तों में शामिल  दिखा कर वह चैन की साँस ले पाता है। सड़कों पर आने के कारण रास्ते संकरे हो जाते हैं व संकरे रास्तों पर फंसने के लिए विवश लोगों को कुछ क्षणों के लिए वहाँ रूकना ही पड़ता है। यह लगभग ऐसा ही है जैसे त्योहारों के अवसरों पर दुकानदार अपनी दुकान से बाहर निकल कर सड़क पर पसर जाते हैं ताकि ग्राहक आगे न बढ सके। यद्यपि इससे लोग असुविधा महसूस करते हैं किंतु धर्म के व्यवसायियों के झूठ से जुट जाने वाली विवेकहीनों की हिंसक भीड़ से भयभीत लोग अपनी असुविधाओं को चुपचाप झेल जाते हैं।

हमारी बहुचर्चित सहिष्णुता के सच्चे दर्शन यहीं होते हैं।

     सड़कों पर गणेश प्रतिमाओं के पंडाल लगाकर स्वतंत्रता आन्दोलन में जातिपांत विहीन जन समर्थन जुटाने के प्रयास का सफल प्रयोग लोकमान्य तिलक ने किया था जिसे उद्देश्य की महत्ता के कारण हम अब तक प्रशंसा के भाव से याद करते हैं। किंतु एक सुनिश्चित राजनीतिक लक्ष्य के लिए प्रारंभ किया गया यह अभियान आज परंपरा बन गया है व धार्मिक अनुष्ठान समझा व बताया जा रहा है। सांप्रदायिक और जातिवादी राजनीति भी इसका गलत उपयोग करने लगी है तथा अपने अपने राजनीतिक लाभ के लिए इन पंडालों के बीच आपस में व्यापारिक प्रतियोगिताएं भी होने लगी हैं। वे एक दूसरे से बड़ी मूर्ति लाकर व अधिक सुशोभित जगमगाहट भरा पंडाल सजाकर व्यावसायिक द्वेष से काम करने लगे हैं। इनके इस तमाशे के लिए स्वाभाविक रूप से धन नहीं जुटता इसलिए इसे जुटाने के लिए क्षेत्र के बाहुवलियों या छुटभइये राजनेताओं की सेवाएं जुटायी जाती हैं। ये लोग सार्वजनिक धन का दुरूपयोग करने के अभ्यस्त लोग होते हैं इसलिए दबाव बनाकर खर्च से बहुत अधिक धन जुटाया जाता है व इस शेष धन का उपयोग अधार्मिक कार्यों में ही किया जाता है। इस दौरान स्थायी धर्मस्थलों में जाने वाले लोग वहां नहीं जा पाते व उन धर्मस्थलों में चढायी जाने वाली दान की राशि में गतिरोध आ जाता है।

     सड़क पर उतर आये इस धर्म में भक्त नहीं, भीड़ जुटायी जाती है जिसके लिए तरह तरह की आकर्षक झाकियाँ सजायी जाती हैं जिनके प्रति बच्चे उत्सुक होते हैं व उन बच्चों के कारण उनके मातापिता को भी आना पड़ता है। यह सारा कृत्य धार्मिक आस्था का प्रमाण नहीं है अपितु ताकतवरों द्वारा धर्मभीरूओं को बरगलाने या ब्लैकमेल करने का ढंग है। वे भीड़ को बढाने के लिए प्रसाद भी वितरित करते हैं तथा भंडारा भी करते हैं। भीड़ से भीड़ बढने के सिद्धांत के अनुसार अधिकतर पंडालों में सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम पर प्रचलित सुगम संगीत फूहड़ मनोरंजन से लेकर हाउजी नामक जुआ भी चलाया जाता है। दान की रसीदों की लाटरी निकाली जाती है व दानदाताओं के नाम बार बार पुकार कर दूसरों को प्रोत्साहित करने का खेल चलता है।

     आज से दो दशक पूर्व तक नवरात्रि के अवसर पर केवल बंगालियों के मुहल्ले में ही दुर्गा झांकी सजायी जाती थी किंतु गणेश पंडालों से जनित आय से उत्साहित लोग इस में भी उसी लक्ष्य व उत्साह से कूद पड़े और व्यवसाय के सारे नियम कायदे इस पर लागू कर दिये। अब जहां जितना बड़ा बाजार होता है वहाँ की झांकी भी उतनी ही बड़ी होती है। यह इस बात का प्रमाण है कि इन झांकियों की भव्यता का अनुपात भक्ति से नहीं अपितु बाजार से सही बैठता है। बच्चों के खिलौने गृहस्थी के सामान चाटपकौड़ी और झूले आदि में लपेट कर तथाकथित धर्म भी निगल लिया जाता है। इन दिनों त्योहारों का अर्थ बाजार से खरीददारी हो गया है। इन आयोजनों में भजन संगीत के टेप चलाये जाते हैं जिससे कभी धर्म से जुड़ी गायन और संगीत की शिक्षा का अभ्यास नहीं हो पाता। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए भी बाहर से संगीत पार्टियां बुला ली जाती हैं और स्थानीय कलाकारों को अपनी प्रतिभा प्रदर्शन के अवसर ही नहीं मिल पाते। 

      कभी देवी देवताओं के स्थल ऊंची कठिन पहाड़ियों पर बनाये जाते थे तथा वहां पहुंचने का कष्टसाध्य श्रम ही व्यक्ति की भावनात्मक गहराई को प्रकट करता था। आज वे स्थल वीरान पड़े रहते हैं तथा व्यकित की दान देने की क्षमता को सड़क पर उतर आये तमाशों द्वारा बटोर लिए जाने के कारण वे आर्थिक तंगी झेलते हुये मरम्मत के अभाव में नष्ट हो रहे हैं। बाजार से जुड़ा सड़क वाला नया धर्म  पुराने धर्म को निगलता जा रहा है। लगभग ऐसा ही हाल प्रवचनकारी संतों का है जिनके प्रवचनों के आयोजनों हेतु करोड़ों का बजट बनता है पर उनके प्रवचनों का समाज पर कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। ये प्रवचनकारी स्वयं तो किसी फिल्म स्टार वाली पारिश्रमिक राशि लेते ही लेते हैं  तथा अपने साथ पूरा बाजार भी साथ लिए फिरते हैं। उनकी पब्लिीसिटी का खर्च भी कई कई लाख का होता है।

     सच तो यह है कि यह 'मेटामारफोसिस' एक मरते हुये उद्योगपति के मेकअप की तरह है जिसके शेयरों के रेट बनाये रखने के लिए उसे स्वस्थ और जीवित बताया जा रहा हो। बढते वैज्ञानिक युग में वैश्वीकरण के दौर में डूबते धर्म की रक्षा के प्रयास और और तेज होंगे जो आक्रामक भी हो सकते हैं क्योंकि कहा गया है कि ' सम टाइम्स अटैक इज दि बैस्ट वे आफ डिफैंस'। सच तो यह है कि आज धर्म के उदात्त, करुणामयी, और सबजन हिताय पक्ष को पुनर्जीवित करने, और इन मज़मेबाजों के चंगुल से मुक्त कराने की जरूरत है।
वीरेन्द्र जैन
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