शनिवार, अक्टूबर 27, 2012

गडकरी के कारनामों की ज़िम्मेवारी संघ पर भी आती है


                 गडकरी के कारनामों की ज़िम्मेवारी संघ पर भी आती है
                                                                                                                         वीरेन्द्र जैन
      जब कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह गत एक वर्ष से लगातार यह सवाल पूछ रहे थे कि गडकरीजी के पास इतना पैसा कहाँ से आया तो दुर्भाग्य से न तो मीडिया और न ही प्रशासन इसे गम्भीरता से ले रहा था। उनके इस बयान को केवल एक राजनीतिक बयान मान कर हाशिए पर कर दिया गया था, जबकि सच्ची बात तो यह है दिग्विजय सिंह के पिछले सारे बयान तथ्यात्मक और गम्भीर प्रकृति के रहे हैं, जो बाद में सच साबित हुए हैं। संघ परिवार तो उनके बयानों से इतना भयग्रस्त रहता है कि उसने तो कभी भी उन पर गम्भीर प्रतिक्रिया नहीं की, अपितु छिछले तरीके से उन्हें हास्यास्पद बता गाली गलौज कर उनसे बचने की कोशिश की। सोशल मीडिया के प्रमाण बताते हैं कि संघ परिवार ने ऐसे लोगों की एक बड़ी टीम बना रखी है जो सैकड़ों छद्म नामों से उन सभी महत्वपूर्ण लेखकों, पत्रकारों, व राजनेताओं को गाली गलौज करके हतोत्साहित करने, और उनकी छवि खराब करने की कोशिश करते रहते हैं, जो संघ परिवार के कार्यों की समीक्षा करते हैं। आज जब सच्चाइयां सामने आ रही हैं तब ये भी जरूरी है कि सोशल मीडिया में ऐसे छद्मनाम धारी खाते खोलने वालों की न केवल तलाश की जाये अपितु उनके इस अपराध के उद्देश्य के बारे में गहन पूछ्ताछ की जाये ताकि समाज में साम्प्रदायिकता के बीज बोकर देश की दिशा को गलत रास्ते पर ले जाने के षड़यंत्र का पर्दाफाश हो सके। उल्लेखनीय है कि अपने सारे साम्प्रदायिक हिंसक कारनामों, उनके खुलासों, अदालत की टिप्पणियों, आयोगों की रिपोर्टों के बाद भी नरेन्द्र मोदी गुजरात में लोकप्रियता इसलिए बनाये हुए हैं क्योंकि अपने झूठ के सहारे संघ परिवार ने समाज के एक हिस्से में साम्प्रदायिकता की जड़ें गहरी कर दी हैं, और यह काम एक दिन में नहीं हुआ है। प्रतिक्रिया में मुस्लिम और ईसाई धर्म को मानने वाले लोगों ने भी अपने अपने राजनीतिक दल बनाने शुरू कर दिये हैं जिनका असर केरल और असम में प्रत्यक्ष दिखने लगा है। इसलिए जरूरी है कि साम्प्रदायिकता से मुकाबले का काम भी उसी निरंतरता और सक्रियता से किया जाये जितनी निरंतरता और सक्रियता से साम्प्रदायिक बीज बोये जा रहे हैं। खेद की बात है कि सत्तारूढ यूपीए में सम्मलित दलों में दिग्विजय जैसे दूरदर्शी लोग अल्पसंख्यक हो गये हैं।
     
      इस बात का अब शायद ही किसी को सन्देह हो कि भाजपा संघ का ही एक सहायक संगठन है और उसकी सारी प्रमुख नीतियां व सांगठनिक निर्णय संघ द्वारा ही लिए जाते हैं जिन्हें लागू करना भाजपा के लिए जरूरी होता है। भाजपा अध्यक्ष के रूप में गडकरी के चयन के प्रति जब भाजपा के अन्दर कोई कल्पना तक नहीं कर रहा था तब संघ द्वारा उन्हें अध्यक्ष के रूप में लाद दिया गया था। उनके इस चयन के प्रति न केवल पूरा मीडिया अपितु स्वयं भाजपा के बड़े बड़े नेताओं के मुँह खुले रह गये थे। स्मरणीय है कि उन दिनों जब संघ प्रमुख से भाजपा के अगले अध्यक्ष के बारे में पूछा गया था तब उन्होंने कहा था कि दिल्ली के गेंग डी फोर, अर्थात वैंक्य्या नायडू, सुषमा स्वराज, अरुण जैटली, और अनंत कुमार में से कोई नहीं। बाद में हुआ भी ऐसा ही और एक फासिस्ट संगठन ने पूरी भाजपा पर गडकरी को थोप दिया था। इतना ही नहीं गडकरी को दूसरा कार्यकाल देने के लिए संविधान में संशोधन भी उन्हीं के निर्देश पर किया गया जिसका मूल लक्ष्य गडकरी को दुबारा अध्यक्ष पद पर पदारूढ करना रहा था।

      संघ की कार्यप्रणाली को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि वे श्री गडकरी के कार्यकलापों से अनभिज्ञ रहे होंगे या बाद में दिग्विजय सिंह जैसे संघ विरोधी नेताओं द्वारा सवाल उठाये जाने पर जिज्ञासाएं न पैदा हुयी हों, किंतु उन्होंने सब कुछ जानते हुए भी न केवल गडकरी को भाजपा पर थोपा अपितु दूसरे कार्यकाल के लिए भी रास्ता बनवाया। सच तो यह है कि गडकरी का कार्यकाल किसी भी पूर्व अध्यक्ष से अधिक अच्छा नहीं रहा था जिन्हें ऐसी विशेष सुविधा मिली हो। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में पहले से अच्छा परिणाम देने के बाद भी जब कान्ग्रेस के अपेक्षाओं के अनुरूप परिणाम नहीं आये तो उस जिम्मेवारी का अहसास राहुल गाँधी समेत कांग्रेस के जिम्मेवार नेताओं पर देखा जा सकता था, किंतु वोटों और सीटों के मामले में पहले से पिछड़ने के बाद भी भाजपा के लोगों के समक्ष गडकरी के चेहरे पर कोई शर्म नहीं थी क्योंकि उनका भविष्य पार्टी नहीं अपितु संघ द्वारा तय किया जाना था और जब तक संघ उन्हें चाहता तब तक वे किसी की परवाह नहीं करना चाह्ते। उनके कार्यकाल में हुए विधानसभा चुनावों में गोआ जैसे छोटे राज्य को छोड़ कर कहीं भी सफलता नहीं मिली। अपनी अध्यक्षता के बाद पहली रैली के दौरान ही वे चक्कर खाकर बेहोश हो गये थे जिन्हें संयोग से वयोवृद्ध अडवाणीजी के कन्धों का सहारा मिल गया अन्यथा कोई बड़ी घटना भी सम्भावित थी। इसी दौरान उन्होंने अपने शरीर की चर्बी कम कराने के लिए शल्य चिकित्सा करायी। जब पूरा देश गम्भीर राजनीतिक गतिविधियों से उद्वेलित था तब मुख्य विपक्षी दल के अध्यक्ष गडकरीजी अपने परिवार के साथ विदेश भ्रमण के लिए चले गये। राज्य सभा के चुनावों में उन्होंने जिस तरह से अपने धनी मित्रों को टिकिट दिये उससे पार्टी में ही विद्रोह की स्थिति खड़ी हो गयी और झारखण्ड में अपने सबसे मुखर नेता श्री आहलूवालिया को नहीं जिता सके। अध्य्क्ष बनने के बाद उन्होंने जिस तरह से पार्टी को ठुकराने वाले नेताओं पर कृपादृष्टि करने का अहसान प्रदर्शित करना चाहा था उसके उत्तर में उन्हें कभी पार्टी के थिंकटैंक कहे जाने वाले गोबिन्दाचार्य से जो अपशब्द सुन कर मौन रह जाना पड़ा था वैसा व्यवहार उन जैसा  स्वाभिमानहीन व्यक्ति ही कर सकता है। उनकी कार में मृत पायी गयी लड़की की घटना हो या उनके बेटों की शादी में दौलत के शर्मनाक प्रदर्शन का मामला हो, शरद पवार और उनके भतीजे अजीत पवार से उनके व्यापारिक सम्बन्धों का मामला हो, संघ ने कभी भी कोई आपत्ति प्रकट नहीं की। कहा जाता है कि नरेन्द्र मोदी के साथ अपनी पिछली बैठक में संघ ने उन्हें गडकरी के एक और कार्यकाल के लिए मनाने की कोशिश की थी और शायद उसमें सफल भी हो गये थे।
      स्मरणीय है कि अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में पैट्रोल पम्प और गैस एजेंसियों के आवंटन में संघ के लोगों के हित में जो पक्षपात किया गया था और अटलबिहारी वाजपेयी ने जिस पर अपना त्यागपत्र देने की पेशकश तक कर दी थी, उससे संघ की शुचिता पर सन्देह के दाग लग चुके हैं। गडकरी के कारनामों के खुलासों और संघ द्वारा उन्हें अध्यक्ष बनाने व बनाये रखने की कोशिशों से ये सन्देह फिर से उभर आये हैं। ऐसे आचरणों की निरंतरता से आश्चर्य नहीं कि भविष्य में जब भ्रष्ट जननायकों की सूची और फोटो प्रकाशित हों तो उनमें संघ के पदाधिकारिय़ों के नाम भी सम्मलित दिखाई दें। गडकरी के खिलाफ साबित होने वाले किसी भी आरोप से संघ को मुक्त नहीं माना जा सकता।
वीरेन्द्र जैन
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