समाज
त्योहारों को मनाने की परतंत्रताएं
वीरेन्द्र जैन
त्योहार खुशियों से जुड़े होते
हैं। कहा जाता हैं कि त्योहार आते हैं,खुशियां लाते हैं। भले ही त्योहारों
का खुशियों से सीधा सम्बन्ध जोड़ा जाता है पर सदैव ऐसा होता नहीं है। हिन्दी के एक सर्वाधिक
लोकप्रिय कवि गोपालदास नीरज ने कहा है- ''खुशी जिसने खोजी वो धन ले के लौटा''। त्योहारों का सम्बन्ध
धन से है तब ही वे खुशियां ला पाते हैं।
खुशियों के लिए धन इसलिए जरूरी
होता है क्योंकि खुशियां मनायी जाती हैं और खुशियां मनाने का काम अकेले नहीं हो सकता।
अकेले बैठे बैठे अगर आप हँसते मुस्कराते हैं तो पागल समझे जा सकते हैं। ठहाकों के लिए
मित्र रिशतेदार परिवार या कुछ अन्य लोगों का होना जरूरी है। खुशी का प्रतीक पटाखों
वाला अनार बताया जाता है या फव्वारा- क्योंकि खुशियां फूटती हैं वैसे ही जैसे कि अनार
फूटता है या फव्वारा अपनी नन्हीं नन्हीं बूंदें बिखेरता है। यह फूटना और बिखेरना इकतरफा
नहीं होता अपितु बहुआयामी होता है- अपना पैगाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे - की तरह
खुशियां फैल और बिखर जाना चाहती हैं। यह दान का उफान होता है जो खुशी की ऊष्मा से आता
है। अगर हम खुश हैं तो मन कुछ बांटने को,
कुछ लुटा देने को करेगा।
उसके लिए जरूरी है आपके पास कुछ होना चाहिये। बड़ा आदमी मिठाई बांटता है तो छोटा आदमी
इलाइचीदाने या गुड़ चने का प्रसाद चढा कर प्रसाद के नाम पर बांट देता है। यह फैलना और
बिखरना कोई निवेश नहीं होता है कि और अधिक पाने की आशा में बीज बोया जा रहा हो। ईसाई
धर्म में शायद इसीलिए कहा गया होगा कि एक ऊंट भी सुई के छेद से गुजर सकता है किंतु
एक कंजूस आदमी को स्वर्ग में प्रवेश नहीं मिल सकता। कंजूस आदमी कभी खुश होता नहीं देखा
जाता क्योंकि उसे लगता हे कि हँसे तो फॅसे। खुश होने के अवसरों पर भी वह विगत या सम्भावित
दुखों की कल्पना से अपने को संतुलित कर खुश होने से बच लेता है।
त्योहारों की तिथियां निर्धारित
रहती आयी हैं क्योंकि वे हमारी उत्पादन व्यवस्था से जुड़े होते थे। उनकी परम्परा की
स्थापना के समय कृषि ही मुख्य उत्पादन था जो मौसमों पर आधारित थी व मौसम का समय चक्र
निर्धारित था। जब फसल आती थी तो त्योहार मनाये जाने की स्थितियां पैदा होती थीं। नये
कपड़े गहने आदि को खरीदने की क्षमता तभी आती थी। यह वही समय होता था जब नित्य के एकरस
भोजन से ऊबा मन स्वादिष्ट ऊर्जायुक्त खाद्य सामग्री खरीद सकता था, खा सकता था,
खिला सकता था।
जैसे जैसे उत्पादन के साधन बदले
वैसे वैसे कृषि आदि परंपरागत साधनों पर हमारी निर्भरता कम होती गयी। जमीनों पर कारखाने
लगे भवन बने व किसान श्रमिकों में बदलता गया। साल भर तपाने के बाद समुच्य में आने वाली
खुशियों के पल छोटे छोटे होकर साल की बारह 'पहली' तारीखों में बंट गये। वेतन वालों को फसल पकने कटने और बिकने
की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती।
कृषि में भी सिंचाई के साधन आये, जल्दी व अधिक फसल देने वाले बीज आये, खाद और खरपतवार व कीटनाशक आये तथा ट्रैक्टर हार्वेंस्टर आदि
आये जिनकी मदद से कम समय में अधिक फसलें मिलने लगीं। मंडियों की व्यवस्थाएं सुधरीं
जिससे जल्दी ही नहीं, अपितु कभी कभी तो एडवांस भुगतान
भी मिलने लगे और इस तरह धन प्रवाह के समय में परिवर्तन हुआ। खुशियों के आने की सामूहिकता
भंग हुयी। फसलें महाजनों के दबाव से नहीं अपितु बाजार भाव देख कर अपनी अपनी सुविधाओं
से बेची जाने लगीं।
दूसरी ओर खुशियों की अभिव्यक्ति
के प्रतीक तो वे त्योहार बना लिये गये थे जिन्हें पुराण कथाओं से निकाल कर लाया गया
था जिस कारण उनकी तिथियां निश्चित थीं। इन तिथियों पर त्योहार मनाते मनाते वे एक आदत
का हिस्सा हो गये थे। और आदतें आसानी से नहीं छूटतीं। गांव की अन्य सेवाओं से जुड़े
लोग भी किसानों के धनप्रवाह की व्यवस्था पर ही निर्भर थे व उसी के अनुसार त्योहार मनाने
के अभ्यस्त हो गये थे पर अब उनके पास भी धन का प्रवाह एक मुश्त होने की जगह क्रमश:
होने लगा था। लोग कभी भी नये कपड़े बनवाने लगे थे व बरतन गहने खरीदने लगे थे। सेवा क्षेत्र
से जुड़े ये लोग त्योहार तो तिथियों पर ही मनाते पर कर्ज लेकर मनाते और ब्याज देकर किश्तों
में चुकाते। त्योहार जिन्दा तो रहे पर उनकी चमक कम हुयी क्योंकि ये आदतों और लोक लिहाज
से मनाये जाने लगे। वहां त्योहार तो रह गये
पर खुशियां नहीं हैं केवल एक लकीर पीटना भर है।
विकास के साथ एक नव धनाडय वर्ग
उदित हुआ जिसके पास उसकी मूलभूत आवश्यकताओं से बहुत अधिक पैसा आ गया। उसे खर्च करने
के लिये अवसर तलाशे गये, जिसकी पूर्ति में नये नये उत्सव
या तो पैदा किये गये, आयात किये गये या भूले बिसरे उत्सवों
में नयी जान फूंकी गयी। जन्मदिन मनाने की परम्परा जो बच्चों तक सीमित थी बूढों तक पहुंच
गयी। विवाह की वर्षगांठ मनायी जाने लगी। विवाह के पच्चीस साल होने पर सिल्वर जुबली
के रूप में पुर्नविवाह जैसे आयोजन होने लगे।
करवा चौथ में भव्यता जुड़ने के साथ साथ वैलन्टाइन डे, मदर्सडे, फादर्सडे,
न्यू इयर्स डे आदि भी मनाये
गये। पर ये सभी उस उच्चमध्यमवर्ग और उससे ऊपर ही रहे। ये नये त्योहार निम्न आयवर्ग तक नहीं पहुंच सके।
निम्नमध्यमवर्ग और निम्नवर्ग सबसे
दुखी अवस्था में है जहां एक ओर से उसकी गरदन परंपरागत सामंती समाज की सोच दबोचे हुये
है वहीं दूसरी ओर से पूंजीवाद ने दबोच रखी है। धर्मिक आतंक से डराता सामंती सोच उसे
परंपरागत ढंग से त्योहार मनाने को विवश किये हुये है तो पूंजीवादी सोच ने उसे मनाये
जाने के ढंग बदल कर उसकी पहुंच से दूर कर दिया है। पूंजीवादी व्यवस्था में त्योहार
भी आदमी की व्यक्तिगत खुशी का आयोजन है जिसे
उसको अपनी जेब देख कर ही मनाना चाहिये। त्योहार
के लिए वेतन के बदले उसे एडवांस तो मिल सकता है पर भत्ता नहीं। जो एडवांस मिला है वह
वेतन से कटेगा। अगर कोई व्यक्ति नहीं मनाता है तो समाज की उंगलियां उठती हैं और मनाने
पर महाजन की।
हम दो युगों के संक्रमणकाल में
जी रहे हैं और हमारा चरित्र क्रान्तिकारी नहीं है। ऐसा बहुत कुछ है जिसे हम (मध्यमवर्गीय)
सही समझते हैं किंतु उसे अपनाने का साहस नहीं है। हमारे हाथ नया आसमान छूना चाहते हैं
पर हमने अपने ही पांवों में बेड़ियां डाल रखी हैं। हम इस पार से उस पार जाना चाहते हैं
पर जा नहीं पाते। शरीर से यहां होते हुये भी मन से वहां हैं। त्योहार फिर आ रहे हैं
और हम बिना कोई प्रश्न किये हुये उन्हें मनाने के लिए फिर जुट जायेंगे । नई नई विदेशी
कम्पनियों द्वारा उत्पादित सामग्री के विज्ञापन हमें बतायेंगे कि हम अपना त्योहार कैसे
मनायें। देश के नामी गिरामी सितारे माडल बन कर हमारी प्रथाओं में महीन परिवर्तन करते
चले जायेंगे जिसे हम स्वीकार करते चले जायेंगें।
ये परिवर्तन इतने अधिक हो रहे हैं कि हमारे त्योहारों के स्वरूप ही बदल गये पर हमें
कोई शिकायत नहीं हुयी। हमारी दीवाली में गोबर चूने की जगह डिस्टेम्पर आ गये, दीपों की जगह विद्युत झालरों ने ले ली और हम मेहमानों का स्वागत
गुझिया पपड़िया की जगह कोका कोला से करने लगे। उत्तर भारत में चौराहों पर बड़े बड़े पंडाल
लगाकर दानवाकार मूर्तियों की स्थापना कर इस्लामिक संस्कृति की तरह सामूहिक पूजा प्रार्थना
ने कब प्रवेश कर अपनी पक्की जगह बना ली हमें पता ही नहीं चला। आज क्या मजाल हैं कि
मुहल्ला स्तरीय नेतृत्व विकसित करने के अभियान में चंदाखोर बाहुबलियों के आगे कोई ये
कह सके कि इसका हमारी परंपरा से कुछ भी लेना देना नहीं है क्योंकि हमारी पूजा अर्चना
विधिवत स्थापित देवालयों में व्यक्तिगत ही होती रही है। यह सोची समझी नीति है जो आज
गरवा के आयोजनों का काम बड़ी बड़ी कम्पनियां करवा रही हैं।
पता नही हम अपनी संस्कृति स्वयं
निर्मित करने और उस पर अमल करने लायक स्वतंत्रता कब पा सकेंगे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के
पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629
बहुत सटीक लेख लिखा ..
जवाब देंहटाएंकुछ तो करना ही होगा अब
आपने बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल उठाये हैं अपने इस तर्क से भरे हुए लेख के द्वारा। अपने से उच्च वर्ग का अनुसरण करने की प्रवृति का नतीजा सामने है - हम मानसिक गुलामी में और अधिक जकड़ते जा रहे हैं।
जवाब देंहटाएं- Prabhat Sinha, Noida