गुरुवार, मार्च 24, 2022

समीक्षा आड़ा वक्त [उपन्यास]

 

समीक्षा

आड़ा वक्त [उपन्यास]

लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस से प्रकाशित चर्चित कहानीकार राज नारायण बौहरे की नई औपन्यासिक कृति का नाम है। यह एक भारतीय किसान परिवार की जीवन कथा है। कथा का काल आज़ादी के बाद का है जिसमें ना तो फसल बीमा की सुविधा है, और ना ही जीवन बीमा की। उस पर समाज की रूढियां उसे जकड़े हुये हैं। यह मध्य भारत के किसानों के जीवन में आये परिवर्तनों और चुनौतियों को दर्शाने वाली कृति है। उपन्यास के पहले भाग में अविकसित असिंचित खेती से जूझते किसान का चित्रण है जिसे प्रकृति की प्रतिकूलता में मजदूरी करना पड़ती है दूसरी ओर समानांतर रूप से चल रहे देश निर्माण में शिक्षा के प्रचार प्रसार से किसान परिवार अपनी अगली पीढी को शिक्षित कर रहा है, गाँव के पास पालीटेक्निक कालेज खुल रहे हैं व देश की राजधानी में एम्स जैसे अस्पताल भी बन चुके हैं। इन परिवारों में गरीबी के बाबजूद बचा रह गया भाईचारा और समर्पण की भावना क्रमशः घट रही है। प्रारम्भ में सुख दुख में भागीदारी थी। आगे जैसे जैसे विकासशील देश में योजनाएं चलती हैं तो नौकारियों की सम्भावनाएं भी बढती जाती हैं। पहले नौकरियों के लिए आज की तरह की मारामारी नहीं थी कि कोई बड़ी बड़ी डिग्री लिये लिये ही ओवर एज हो जाये। पढने के बाद नौकरी मिल भी जाती थी।

कथा का मूल भाव किसान का जमीन के प्रति भावनात्मक लगाव है जिसकी रक्षा में वह मानवीय रिश्तों तक को तिलांजलि दे सकता है। खेत को उर्वर बनाने के लिए वह उसे बच्चे जैसा संवारता है और माँ जैसा सम्मान करता है। कैसी भी मजबूरी में अपनी जमीन को बेचने के प्रस्ताव पर उसे आग लग जाती है और वह ऐसे प्रस्तावक के प्रति सारे लिहाज भूल जाता है। कुंआ खुदवाने, जमीन को समतल करने के लिए, उसमें जम आयी छेवले की जड़ों को उखाड़ने से लेकर खरपतवार हटाने का काम वह खुद ही प्रतिदिन करता है। पैतृक सम्पत्ति में वैसे तो सभी वारिसों की बराबर से हिस्सेदारी होती है किंतु अन्य नौकरी या व्यवसाय करने वाले, किसानी करने वाले भाई द्वारा जमीन को सुधारने, संवारने व उसकी रक्षा करने का मूल्य नहीं समझते। अटूट प्रेम रखने वाले भाइयों के बीच यह टकराव का कारण बनता है। कथा नायक अपने किसान वर्ग के प्रति इतना सचेत है कि किसी की भी जमीन अधिग्रहण में आ रही हो तो उसके विरोध में उस अपरिचित का साथ देने देने के लिए तैयार हो जाता है। एक बार् अचानक ही किसान आन्दोलन में पहुँच जाने पर जब टीवी संवाददाता उसे आन्दोलनकारी किसान समझ सवाल करने लगते हैं तो वह उनके सवालों का किसी मंजे हुये नेता की तरह सटीक जबाब देता है, भले ही वह आन्दोलन का हिस्सा नहीं होता। अनुभवों के साथ उनकी अभिव्यक्ति की क्षमता ही व्यक्ति को नेता बना देती है। कथा नायक का सगा भाई जब ओवरसियर बन कर सुदूर छतीसगढ में प्रशासनिक कार्य करने लगता है तब उसे सरकारी कार्यों की असलियत समझ में आती है।

उपन्यास घटना प्रधान उतना नहीं है जितना वर्णनात्मक  है, इसमें नये नये ओवरसियर द्वारा ठेकेदारों से मिलने वाली दस्तूरी के प्रति प्रारम्भिक द्वन्द भी है। मंत्री द्वारा स्थानांतरण के लिए परोक्ष में मांगी गयी रिश्वत का वर्णन भी है। छतीसगढ के जीवन की विडम्बनाएं भी हैं कि कैसे वे नदी की रेत को छान कर उसमें से सोने के कण तलाशते हैं, या बेरोजगारी से लड़ते हुए मिशनरियों से मिली शिक्षा व सुविधाओं के लिए वे थोपे गये अनुपयोगी धर्म को छोड़ देने में ही अपना भला समझते हैं। उपन्यास में बताया गया बेरोजगारीके प्रभाव में कथा नायक की बहिन का पति किस तरह गड़े हुए खजानों के चक्कर में तांत्रिकों के चक्कर में फंस जाता है।

उपन्यास प्रारम्भ में तो बहुत विस्तारित ढंग से किसान जीवन का वर्णन करता है किंतु अंत आते आते ऐसा लगता है जैसे किसी दबाव में जल्दी से समेट दिया गया है। उसका प्रवाह एक जैसा नहीं बना रहता, फिर भी किसी उपन्यास के लिए अनिवार्य तत्व कहानी, कविता और नाटक थोड़े थोड़े मौजूद हैं।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

 

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